A refreshing look at Life by Dr. Punamchand Parmar [IAS:1985] former Additional Chief Secretary to Govt of Gujarat
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Saturday, April 5, 2025
मन की बात।
मन की बात।
मन है इसलिए हम मनुष्य है, मानवी है, मनु हमारा पूर्वज है। मन ही हिंदू है, मन ही मुसलमान, ईसाई, सीख, बौद्ध, जैन, पारसी, यहूदी। मन ही है ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शुद्र। मन ही है ऊंच, नीच, अमीर गरीब। मन ही है बुद्धिमान, कृपण, लघु, गुरु। मन ही है वैज्ञानिक, इन्जीनियर, एकाउंटेंट, व्यापारी, उद्योगपति, मज़दूर, कृषक। मन ही के घर होते हैं षड्रिपु काम, क्रोध, मोह, मद, मत्सर, अहंकार। मन ही के घर होते हैं दो पिल्ले राग और द्वेष। मन ही है तीन गुण, सत्व, रजस, तमस। मन ही में है दैवी संपदा निर्भयता, पवित्रता, दृढ़ता, दान, संयम, त्याग, विवेक, वैराग्य, स्वाध्याय, तप, सरलता। मन ही में है घमंड, अहंकार, क्रोध, लोभ, अविश्वास, प्रपंच, इत्यादि। मन ही का सत्व पाता है सुख, शांति, ज्ञान। मन ही का रजस पाता है इच्छा, कर्म और दुःख। मन ही का तमस है अज्ञान, आलस्य और मोह। स्वार्थी मन है दया और परमार्थी मन है करूणा। मन को ही बंधन है और मन की ही मुक्ति है। पुनरपि जननं मन की यात्रा है। मन ही वस्र की तरह शरीर बदलता रहता है और जब तक स्वरूप ज्ञान नहीं होता चलता रहता है। यह संसार परमात्मा के मन का ही तो फैलाव है। अगर मन गया तो संसार गया। यह विराट वैभव भी गया। जब प्रकृति ही नहीं रही तो परमात्मा के होने का अनुभव किसको होगा? मन ही वह डोर है जो उसके होने का प्रमाण है। मन ही प्रश्न करता है, मन ही उत्तर खोजता है, मन ही समाधान करता है या भटकता रहता है। मन को ही तो बस समझना है की मैं कौन हूँ। मन ही तो वह वस्रावरण है जो कार्म मल, मायीय मल और आणव मल की परतें बन बैठा है। मन ही है जो स्वाध्याय करेगा, तप करेगा, विवेक, वैराग्य जगाएगा, षड् संपत्ति (शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा, और समाधान) पाएगा। मन ही जो बंधन का अनुभव कर रहा है मुक्ति पाएगा। मन ही अविद्या है जो विद्या पाते ही सत् स्वरूप में विलीन हो जाएगा। एक मन के विलय से सब मन नहीं जाएँगे। सब मन तो तब जा सकते हैं जब मुखिया का मन (परमात्मा की प्रकृति) जाएगा।
अब एक मन रहे या न रहे, क्या फर्क पड़ता है? रहेगा तो कुछ काम आएगा। सत्व गुणों का विकास कर औरों को मार्गदर्शन करेगा। वैज्ञानिक हुआ तो नई शोध कर जीवन सरल बनाएगा। इंजीनियर बना तो प्रकृति के नियमों अधिक उपयोग कर संसाधनों का सही उपयोग सिखायेगा। कारीगर बना तो अपनी कला का प्रदर्शन करेगा। कृषक बना तो सबका पेट भरेगा। पशु पक्षी बना तो मनुष्य के मन को लुभाएगा। पंच भौतिक में चला गया तो अग्नि बन गर्मी देगा, हवा बन प्राणवायु देगा, पानी बन प्यास बुझायेगा, ज़मीन बन फल अनाज सब्ज़ी देगा।
मन है इसलिए तो स्वाध्याय है, सत्संग है, अज्ञान से ज्ञान की यात्रा है। मन (अंतःकरण) न रहा तो मनुष्य मूढ हो जाएगा। मन हमारा क्षेत्र है जिसके ज़रिए क्षेत्रज्ञ को पहचानना है। क्षेत्र चला गया तो क्षेत्रज्ञ किसको देखेगा और कहेगा कि मैं देख रहा हूँ, मैं दिख रहे दृश्य से अलग हूँ.. इत्यादि।
अगर मन के झमेले में पड़े तो दलदल में फँस सकते है। जब सब कुछ उसी एक परम् का प्राकट्य है तो हर मन भी उसका रूप है और हर तन भी उसका रूप। मेरा तन मन भी उसका रूप और आप सबके तन मन भी उसका रूप। मित्र भी वही, शत्रु भी वही। सुख भी वही दुःख भी वही। विद्या भी वही अविद्या भी वही। ज्ञान भी वही अज्ञानी वही।
ध्यान साक्षात्कार में लगाना है। स्वयं को पहचानने में लगाना है। अगर स्वयं को पहचान लिया बिंदु सिंधु हो गया, तो सब कुछ समाप्त और सबकुछ प्राप्त। स्वस्थ रहना है और स्वरूप की प्रत्यभिज्ञा करनी है। बस यही स्वाध्याय है। यही साधना है। यही मुकाम है। तन से करो, मन से करो, आख़िर करना यही है, पहचान कौन? बस नज़र का धोखा गया और सब प्रकट। मैं ही मैं, तुं ही तुं। अखंड, अनंत, एक रूप बना धरा अनंत रूप।
पूनमचंद
५ अप्रैल २०२५
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