A refreshing look at Life by Dr. Punamchand Parmar [IAS:1985] former Additional Chief Secretary to Govt of Gujarat
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Thursday, July 3, 2025
मेरे घर आँगन पंछियों का डेरा।
मेरे घर के दायें एक बगीचा है। बगीचे में तालाब। घर के सामने एक और बगीचा। वर्षा ऋतु में चारों और हरियाली ही हरियाली।शहर में गाँव का आनंद। पंछियों का जमावड़ा बना रहता है। यूँ तो हर मौसम में उनकी हाज़िरी रहती है लेकिन वर्षा ऋतु में ख़ास कर जून जुलाई महीनों में उन्हीं की प्रजनन प्यास की आवाज़ से नभ गूँज उठता है। पंछी इतने हैं कि सूर्य के उदय होते ही साढ़े छ: से साढ़े आठ तक चिड़ियों की चहचहाहट शोरगुल में बदल जाती है। दिन में कुछ विश्राम के बाद सूर्यास्त के वक्त वे फिर शुरू हो जाते है।
तालाब की वजह से टिटिहरी यहां अधिक है जो ‘did you do it’ की ध्वनि से रात दिन अपने अंडों और चूज़ों की रक्षा में बोलती रहती है। वे पेड़ पर बैठती नहीं लेकिन अपने लंबे और पतले पैरों से तालाब के किनारे घूमती रहती है। टिटिहरी एक ही ऐसा पक्षी जो रात में भी उड़ता और बोलता रहता है। इसके जितनी सावधानी शायद किसी की नहीं देखी। याद हैं न उसके अंडे जब दरिया की लहर में डूबे थे तब वह अपनी छोटी चोंच में रेती के कण भर दरिया को डूबाने चली थी। उसे यह परवा नहीं थी की दरिया को डूबाने का काम कब ख़त्म होगा, वह कब तक जिएगी, लेकिन वह अपने लक्ष्य पर क़ायम थी।
कुहू कुहू बोले कोयलिया कुंज-कुंज में भंवरे डोले गुन-गुन बोले कुहू कुहू बोले। ग्रीष्म और वर्षा का संधिकाल हो और कोयल की कूक-ऊ सुनाई न दे ऐसा कैसे हो सकता है? नर को मादा के बिना चैन नहीं इसलिए भोर होने से पहले ब्राह्म मुहूर्त से पहले तीन बजे मुर्ग़े की बाँग से पहले जगा देता है। मादा कोकिला तो शांत लेकिन नर ही गाता है। नर कोयल का रंग नीलापन लिए काला होता है, जबकि मादा कोयल तीतर की तरह धब्बेदार चितकबरी होती है। उसकी आंखें लाल होती हैं और पंख पीछे की ओर लंबे होते हैं। उसके अंडों को कौए से खतरा रहता है इसलिए वह कौए के घोंसले में ही अंडा रख आती है। बेचारा कौवा कुछ समझे तब तक चूज़े अंडे से बाहर निकल उड़ जाते है। काकः कृष्णः पिकः कृष्णः को भेदः पिककाकयोः।वसन्तसमये प्राप्ते काकः काकः पिकः पिकः॥ कौआ काला है, कोयल भी काली है, कौवे और कोयल में क्या अंतर है? वसंत ऋतु आने पर, कौवा कौवा और कोयल कोयल होती है। जिसको मीठा बोलना आ गया मानो जीवन सफल हो गया। काला हो या गोरा, नाटा हो या ऊँचा, मधुर ध्वनि से जीवन सरल हो जाता है।
बोले रे पपीहरा पपीहरा नित मन तरसे, नित मन प्यासा नित मन प्यासा, नित मन तरसे बोले रे। ‘पी कहाँ? पी कहाँ?’ बाबूल का घर छोड़ पिया मिलन की तड़प का गाना गानेवाला पपीहा वर्षा ऋतु की आन बान और शान है। वर्षा की शुरुआत होते ही इसकी आवाज़ हमारे कानों में गूँजती रहती है। इसका यह प्रजनन काल है जिसमें नर तीन स्वर की आवाज़ दोहराता रहता है जिसमें दूसरा स्वर सबसे लंबा और ज़्यादा तीव्र होता है। यह स्वर धीरे-धीरे तेज होते जाते हैं और एकदम बन्द हो जाते हैं और काफ़ी देर तक चलता रहता है; पूरे दिन, शाम को देर तक और सवेरे पौं फटने तक, यह जैसे बोलते थकता ही नहीं। उसकी ध्वनि सुरीली है लेकिन एकाग्रता को भंग ज़रूर कर देगी। यह दिखता है छोटे शिकरे की तरह और उड़ता बैठता भी है शिकरे की तरह लेकिन हिंसक नहीं। पपीहा अपना घोंसला नहीं बनाता है और दूसरे चिड़ियों के घोंसलों में अपने अण्डे देता है।
नाचे मन मोरा, मगन, धीगधा धीगी धीगी, बदरा घिर आये, रुत है भीगी भीगी। वर्षा ऋतु मे हमारा राष्ट्रीय पक्षी नीलरंगी मोर कहाँ छिपेगा? नर मोर अपनी मोरनी को खुश करने अपने से जितना हो सके चिल्लाकर राजसी ध्वनि निकालकर और अपने पंख फैलाकर नाचता हुआ मनाता रहता है। मोरनी है तो दिखने में कमजोर लेकिन मोर की चाहत है इसलिए भाव बढ़ाती है। विरह की आंग में रोता मोर अच्छा नहीं लगता लेकिन नाचता झूमा देता है।
यहां कौए भी कम नहीं। का का कूक कर्कश आवाज करता यह पक्षी इधर उधर उड़ता रहता है और सब के अंडे खा जाता है। लेकिन कोयल उसे मूर्ख बनाकर अपने अंडे का सेत कराकर बचा लेती है। बच्चों की पाठशाला की पहली कहानी कौवे की है। एक प्यासा कौवा था। पानी की तलाश में उड़ता है और उसे एक घड़ा मिलता है, जिसमें पानी बहुत कम होता है। कौवा हार नहीं मानता, और अपनी चतुराई से कंकड़ जमा करके घड़े में डालता है, जिससे पानी ऊपर आ जाता है और वह अपनी प्यास बुझा पाता है। हिंदू धर्म शास्त्रों में काकभुशुंडि को ऋषि का दर्जा प्राप्त है। श्राद्ध की खीर कौवा खाता है। कोई कौवा मरेगा तो जैसे बेसना हो, समूह इकट्ठा होगा, कुछ देर बैठेगा और उड़ जाएगा। कु्त्ते को खाना मिले तो अकेला खाएगा और बचा छिपा देगा लेकिन कौवा खाना मिलने पर अपने साथियों को आवाज देकर पुकारेगा। मिल बांट कर खाने की सीख कौवा देता है।
ओ री गौरैया! क्यों नहीं गाती अब तुम मौसम के गीत।गौरैया की संख्या कम हुई, लेकिन है। चारों और पंछियों की चहचहाहट में वह अपनी चीं चीं चीं से हाज़िरी लगवाती रहती है। हमारे हिरण्य और धैर्य पूछते रहते कि चकी लाईं चावल का दाना और चका लाया मग का दाना, उसकी पकी खिचड़ी। खिचड़ी कौन खा गया? बच्चों की यह फ़ेवरिट कहानी है।
यहाँ सारस पंछियों की दो जोड़ रहती है। उनकी ध्वनि मधुर नहीं है लेकिन प्यार मुहब्बत से जोड़े में रहे नर-मादा बगीचे में झगड़ते पति-पत्नी के बीच प्यार जगाने की दुहाई देते रहते है। पानी में तैर रहे बगलें, चम्मचचोच और डूबकी की आवाज़ हम तक नहीं पहुँचती लेकिन तालाब के किनारे मोर्निंग वॉक में मन को प्रसन्नता देती है।
तीतर के दो आगे तीतर, तीतर के दो पीछे तीतर, आगे तीतर पीछे तीतर, बोलो कितने तीतर? हमारे घर तीतर का एक जोड़ा आता है और ज्वार के दाने चुभ के चला जाता है। कोई मांसाहारी देख लेता है तो उसके मुँह में पानी आता है लेकिन वे जब आते है हमारे रक्षा कवच में सुरक्षित रहते है।
इन आवाजों में मुर्ग़े की बाँग, कबूतर गुटर गूं, होले घुघु…घु…घु.., बुलबुल की पीकपेरो, तोते की सीटी, सबकी नकलची मैना, सुतली की चीर-चीर-चीर, दर्जी की तुई तुई, कठफोडवे की की-की-की ट्र की तीखी, हुदहुद की हू पू पू, किलकिले की कंपन, दहियर का आलाप, देवचकली की मधुरता, सात भाई बैंबलर की तें तें तें तें की ध्वनियाँ अपनी हाज़िरी लगा देते है।
मेरे घर आँगन पधारो यहाँ सब पंछियों का डेरा।
पूनमचंद
३ जुलाई २०२५
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