Monday, May 26, 2025

मौर्यकालीन भारत।

भारत का इतिहास पुराणों और महाकाव्यों में बंद है लेकिन मेगस्थनीज़ की इंडिका (ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी), और एरियन की इंडिका (दूसरी शताब्दी ईस्वी) और सम्राट अशोक के शिलालेख (ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी) उसके गवाह है। मनु का वर्णाश्रम समाज कब आगे बढ़ा कहना मुश्किल है लेकिन मेगस्थनीज़ ने जो देखा था और एरियनने जो सुना था वह समाज सात समूहों में कार्य विभाजन कर चल रहा था। सात समूहों में छोटी संख्या में सही लेकिन विशेष वर्ग के रूप में ब्राह्मण और श्रमण थे।दूसरा नम्र वर्ग था कृषकों का जिन्हें सैन्य सेवा से मुक्ति थी। तीसरा वर्ग था पशुपालकों और शिकारीओं का जो घूमता रहता था। जो गोधन पालते थे और जंगली जानवरों से खेतों की रक्षा कर बदले में अनाज प्राप्त करते थे। चौथा वर्ग कारीगरों का था जो व्यापार और शारीरिक श्रम के कामों में जुड़े थे। उनमें हथियार बनानेवाले और जहाज़ बनानेवाले थे। पाँचवाँ वर्ग सैनिकों का था जो युद्ध होता तो लड़ते बाक़ी पीते और पड़े रहते। राजा के खर्चे से उनका निभाव होता इसलिए बुलाया आता तो अपना शरीर लेकर चले जाते। हथियार, घोड़ा इत्यादि राजा देता। छठा वर्ग ओवरसियरों का था जो समग्र व्यवस्था पर देखरेख रखते थे और राजा को रिपोर्ट करते थे। कुछ निरीक्षण कार्यों में लगे थे। सातवाँ वर्ग राजा के सलाहकार और आंकलन (कर) करनेवालों का था। उनमें से सरकार के उच्च पदों पर बैठे अधिकारी, न्यायाधीश इत्यादि होते थे। वे बाज़ार, शहर, सैनिकों पर निगरानी रखते थे। कोई नदी के पानी के उपयोग का नियंत्रक तो कोई ज़मीन को नापनेवाले थे। वे कर वसूली करते थे। वे रास्ते बनवाते और हर २००० गज (एक कोस) पर अंतर का नाप का पिलर खड़ा करते थे। शहर व्यवस्था छह संस्थाओं के अधिकारी करते जो उद्योग, विदेशियों का आतिथ्य, जन्म-मृत्यु पर पूछताछ, व्यापार, वाणिज्य और तौलनाप, उत्पादों की देखरेख, १०% करवसूली करते थे। करचोरी की सज़ा मृत्युदंड था। शहरी तंत्र सार्वजनिक स्थानों, बिल्डिंग, बाज़ार, बंदरगाह, मंदिरों का मरम्मत इत्यादि करता। मिलिटरी के छह डिविज़न रहते जो सुरक्षा, सैनिकों, सैन्य परिवहन, राशन, घोड़े, हाथियों, रथों, हथियारों के व्यवस्था संचालन को देखते। शिकारी और जंगली हाथी को पालतू बनानेवाला अर्धजंगली समाज का सामाजिक स्थान नीचे रहा होगा। अपने जाति समूह के बाहर शादी करना और व्यवसाय परिवर्तन करने का प्रतिबंध था। एक से ज्यादा व्यवसाय करने पर पाबंदी थी। सिर्फ़ दार्शनिकों (ब्राह्मणों) को इन प्रतिबंध और पाबंदियों से मुक्ति थी। कारीगर वर्ग का महत्त्व था। बुरे कर्म की सजा सर गंजा कर मिलती थी लेकिन कारीगर के हाथ अथवा आंख को नुक़सान करनेवाले को मृत्युदंड मिलता था। पुत्र बचपन से स्वाभाविक ही अपने पिता के व्यवसाय को सीखेगा इसलिए जन्म से ही कार्य विभाजन से जाति/समाज विभाजन बना हुआ था, जिसमें से ब्राह्मणों के अलावा और किसी को अपना पेशा बदलने की छूट नहीं थी। पूरे भारत के अलग-अलग शहरों क़स्बों में कोई न कोई विशेष जनजाति का अधिपत्य था। ऐसा लग रहा था कि कहीं कहीं स्थानीय और कहीं कहीं बाहर से आकर आधिपत्य जमानेवाली कौमो नें अपनी अपनी जगह बना ली थी। एक तरफ राजा और उसके क्षेत्र में रहनेवाले कार्य विभाजन से सात समूहों में काम करनेवाले बस्ती समूह थे और दूसरी तरफ विचित्र शारीरिक और मानसिक लक्षणोंवाले मनुष्य समूह थे जो जंगलों और पहाड़ों में रहते थे। हिमालय की अंदरूनी गुफा-झोपड़ियों में पिग्मी रहते थे जो २७ इंच ऊँचाई के थे। वे वसंत ऋतु में तीर कमान लेकर बकरियों और भेड़ों की पीठ पर चढ़कर आके थे और क्रेन के अंडों को फोड़ देते और उनके चूजों को मार देते थे। क्रेन विशालकाय पक्षी होते थे और उनसे पिग्मीओं की जान को खतरा बना रहता था।हर साल तीन महिने इनको यह अभियान चलाना पड़ता था। उनकी झोपड़ियां अंडों के छिलके और क्रेन के पंखों से बनी होती थी। ज़्यादातर लोगों का आयु काल चालीस वर्ष था। लेकिन पंडोरे नाम की एक पहाड़ी प्रजाति २०० साल जीतीं थी। उनके जन्म के सफेद बाल बुढ़ापे में काले हो जाते थे। मंडी नाम की जाति की महिला सात साल की आयु से बच्चे पैदा करती थी और चालीस वे साल बूढ़ी हो जाती थी। कुछ प्रजाति का मुँह कुत्ते जैसा था और वे भोंककर बातें करते थे। कोई प्रजाति को पैर की एड़ी आगे और अँगूठे पीछे आठ अंगुलियोंवाले होते थे। कोई प्रजाति के नाक नहीं थे सिर्फ़ साँस लेने दो छेद रहते थे। कोई प्रजाति भोजन नहीं करती थी सिर्फ़ फल सूँघकर जी लेती थी। लगता है आखरी तीन प्रजातियों के बारे में उसने किसी पौराणिक कथा से सुना होगा। हिमालय के पर्वतों में पूर्वी पहाड़ी मैदान के ३००० स्टेडीया क्षेत्र में देरदाइ नामकी एक प्रजाति रहती थी जो लोमड़ी की साईज़ की चींटियों ने खोदी बिल की मिट्टी से सोना निकाला करती थी। सात जाति समूहों में दार्शनिकों का स्थान और जीवन विशिष्ट था। वे मुख्यतःब्राह्मण और श्रमण वर्ग में विभाजित थे। इंडिका के उपरांत अशोक शिलालेख भी इन दो समाज के आदर की बात करते हैं। ब्राह्मणों में बच्चे का गर्भाधान होते ही माता को सूचना शिक्षा देकर संस्कारित कर बच्चे के विकास के प्रति जागरूकता थी।जो माता सुनती वह नसीबवाली बनती। बच्चे के जन्म के बाद शिक्षा और ब्राह्मण कर्म की कुशलता प्राप्त करने विद्वानों से शिक्षा ग्रहण करने शहर के बाहर गुरुकुल जैसा संकुल होता था। वहाँ शाकाहार था और शिक्षक ब्रह्मचारी थे जो घास अथवा हिरन के चमड़े पर सोते थे और बोलकर शिक्षा देते थे। बिना विक्षेप उनको ध्यान से सुनना विद्यार्थी का दायित्व था। ७+३० साल की शिक्षा के बाद उनका सांसारिक जीवन शुरू होता था। हाथ में अँगूठियाँ, कान में बाली, खाने में मांस और ज्यादा बच्चे पैदा करने एक से ज़्यादा शादियां सांसारिक जीवन की समृद्धियाँ थी। घर में नौकर नहीं होने से बड़े परिवार में बच्चे बहुत काम आते है। ब्राह्मण अपनी पत्नी से ज्ञानचर्चा नहीं करता था। मृत्यु बोध उन्हें जीवन के प्रति अनुशासित रखता। संसार स्वप्नवत् मानकर वे मृत्यु की तैयारी में रहते। जन्मा है उसका मृत्यु अवश्यम्भावी है। कोई त्यागी जीवन से संतुष्ट हो जाता तो ज़िंदा चिता पर लेट जलकर अपना देह त्याग देता था। वे शाकाहारी थे और भगवान के नाम का जाप करते रहते थे। राजा और यजमान के लिए यज्ञ और बलिदान विधि करते थे। वे भगवान और आत्मा को मानते थे।वे मानते थे कि आत्मा को सर्जनहार ने भेजा है जो अपने शरीर रूपी वस्रों से प्रकट होती है। बुद्धि उसका पहला अंदरूनी वस्त्र है। उसके उपर मन का मानसिक शरीर/वस्त्र है जो बुद्धि को अंगों से जोड़ता है। भौतिक शरीर उसका तीसरा वस्र है जिसके अंगों का उपयोग कर मन बुद्धि जीवन जीतें/भोगते है। जब भौतिक शरीर नष्ट होता है तो आत्मा दूसरे भौतिक शरीर को अथवा अपने उद्गम भगवान को प्राप्त होती है। भगवान को प्रकाशरूप माना है। वैसा प्रकाश नहीं जैसे सूरज का अथवा अग्नि का। शब्द प्रकाश। विद्वान दार्शनिक के मुख से जो ज्ञान शब्दों से प्रवाहित होता है वह भगवान, जो ज्ञान स्वरूप है। वे मानते थे कि मनुष्य जीवन तीन वस्त्रों में बँधा एक युद्ध क़ैदी है। जिसे काम. क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर इत्यादि षड्रिपु से युद्ध कर उसे परास्त कर विजय पाना है। उनके जीवन का यही लक्ष्य बना रहता था। नाम जप, यज्ञ और आंतरिक शत्रुओं के प्रति सजाग रहकर उसे जितना और फिर शरीर छूटे तब उसके उद्गम की ओर चल देना। जैसे मछली पानी से बाहर निकलकर सूर्य किरण को देख लेती है वैसे ही शरीर छूटते ही परमात्मा के तेज पूंज को देख उसमें विलीन हो जाना। जो ब्राह्मण पहाड़ों में रहते वे डीयोनीसोस की पूजा करते। वहाँ के अंगूरों की वाईन (सोमरस) बनती। वे ब्राह्मणों के रिवाज पालते। मस्लीन पहनते, पाघ बाँधते, इत्र छिड़कते, चमकीले रंगीन कपड़े सजाते, और उनके राजा के आगे नगाड़े और घंटे बजते। मैदानों में रहनेवाले ब्राह्मण हेराकल्स की पूजा करते। ब्राह्मण कर्म जन्म से नियत होने से और परमात्मा का ज्ञान उपदेश उनके मुख से होने की वजह से आगे चलकर उन्हें देव कहा जाने लगा होगा और उनके आध्यात्मिक और भौतिक शरीर को एक विशेष दर्जा प्राप्त हुआ होगा। यहां डीयोनीसोस को शक्ति या वीर पूजा और हेराकल्स को विष्णु-कृष्ण-शिव पूजा सुचित कर सकते है। जो श्रमणिक थे वे बस्ती से दूर रहते थे। कोई नंगे तो कोई पेड़ की छाल के वस्त्र पहनते थे। जिनका ज्यादा आदर था वे hylobioi (सिद्ध) कहलाते। वे जंगलों में रहते और कंदमूल, फल और पानी (हाथ से लेकर) से अपना गुज़ारा करते।जानवरों का मांस और आग में पका खाना उनको वर्जित था। घटना, दुर्घटना के लिए राजा उनसे परामर्श करते और उनके द्वारा दैविक पीड़ा शांत करवाने पूजा करवाते। सिद्धों के बाद चिकित्सकों का समूह था जो मनुष्य की प्रकृति का अध्ययन कर उपचार खोजता। वे भिक्षा माँग कर चावल और जौं से अपना गुज़ारा करते। वे चिकित्सा ज्ञान से गर्भ में बालक की जाति का परिक्षण कर लेते थे। ज़्यादातर उपचार वे भोजन नियंत्रण और परहेज से करते, और उपचार में मरहम और प्लास्टर होते। महिलाएँ श्रमणों से ज्ञान लेती लेकिन व्यभिचार से दूर रहती। श्रमणो का एक समूह बुध के उपदेशों पर चलता था। बुध को वह उनकी शुचिता के कारण भगवान का आदर देते थे। मेगस्थनीज़ लिखता है कि प्रकृति के बारे में ग्रीक दार्शनिकों ने जो कहा है उसका दावा भारतीय ब्राह्मणों और सीरिया के यहूदियों ने भी किया है। सिकंदर ने जब हिंद पर चढ़ाई की तब उसे ऐसे ही किसी दार्शनिक से मिलने की चाह थी। ६४५१ साल पहले उसके १५४ वें पूर्वज बाकूस (Bacchus) ने सबसे पहले भारत को जिता था। अब उसकी बारी थी। वह यूनानी अरिस्टोटल का शिष्य था। उसे विश्व विजयी तो बनना था साथ में जीवन के रहस्यों से रूबरू होना था। भारत नागा साधुओं के लिए प्रसिद्ध था। उसे किसी एक से मिलने की ख्वाहिश थी। पोरस को जितने के बाद जब वह तक्षशिला की ओर आगे बढ़ा तो मार्ग में नागा साधु समूह के मुखिया नागा दंडामि को मिलने बुलाया। दंडामि ने मिलने से मना कर दिया। संदेशवाहक को बताया कि सिकंदर के पास उसको देने कुछ नहीं है। अगर वह ज़िंदा रहा तो भारत भूमि पर्याप्त हवा, पानी और भोजन देगी; और अगर मारा गया तो बूढ़े हुए शरीर छूटकारा मिलेगा और अच्छे और नये शुद्ध जीवन को प्राप्त करेगा। सिकंदर को भी एक दिन मरना है। वह शरीर को मौत दे सकता है लेकिन वह भगवान नहीं है। भगवान जीवन देता है और जीवन की सुरक्षा के लिए हवा, जल और भोजन। वह कितना भी प्रदेश जीते कुछ भी नहीं। देश इतने बड़े हैं कि कईं लोग उसे जानते भी नहीं। सिकंदर समझ गया, सँभल गया। साधु को उसने नहीं मारा। सोच में पड़ गया और गंगा की ओर आगे बढ़ने के बदले वापस लौट गया। वह जब सो रहा था तब विश्व विजय की दौड़ में था, और जब जागा चल बसा। डॉ. पूनमचंद २६ मई २०२५

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