Monday, November 20, 2023

चिदाकाश।

 चिदाकाश। 

मन है इसलिए शब्द है। शब्द है इसलिए मन। दोनों के पार है अद्वय। न तुम, न मैं।

पहले तो खुद को पहचानना है कि मैं शरीर नहीं हूँ, चैतन्य हूँ। चैतन्य अजर अमर है। 

दूसरा चैतन्य के स्वरूप को जानना है। वह खंड लगता है परंतु अखंड है। घटाकाश से महाकाश की यात्रा करनी है। 

तीसरा जहां खंड भी नहीं और अखंड भी नहीं; प्रकाश भी नही अंधकार भी नहीं, सत् भी नहीं और असत् भी नहीं। केवल। चिदाकाश। शून्य। क्या नाम देंगे, जिसका न तो नाम है न रूप। 

साकार से सर्वाकार फिर निराकार। 

अनंत यात्रा है अगर विशेष रहे। सामान्य के लिए तो बस यूँही चुटकी बजा के। ठंड में चाय का कस लीजिए और बस खो जाइए उस अनंत में। 

न तुम, न मै। है बस केवल। धर्म का धर्मी और तरंग का जल यूँ मिल जाना आसान थोड़ी है? 😊

पूनमचंद 

२० नवम्बर २०२३

Sunday, November 19, 2023

आत्मज्ञान।

 आत्मज्ञान। 

आत्मज्ञान अनुभूति है। 

अनुभूति अनुग्रह से होती है। 

अनुभूति के लिए आधार चाहिए। 

जो हमारे पास है, चित्त। 

चित्त का निमज्जन (स्नान) करना अति आवश्यक है। 

उसके लिए कर्म, ज्ञान और भक्ति सलिला (पानी) है। 

अभी तो विश्व विषय रूप है। विषय के प्रति इन्द्रियाँ लोलुप है। इन्द्रियों के पीछे मन का अनुसंधान है। और मन आत्मा की शक्ति से बहिर्मुख होकर आनंद की खोज में लगा है। खोज है इसलिए देश और काल जुड़ा है, भविष्य है और जन्म मरण का दुःख है। 

जिसने विश्व को शिवरूप देख लिया उसका विषय इन्द्रियों में विसर्जित होगा। इन्द्रियाँ मन की ओर और मन आत्मा की ओर हो जाएगा। वह बाह्य आकर्षण की ओर भागता बंद होकर आत्माकर्षण बन जाएगा। विश्व के विषय उसकी ओर आकर्षित होंगे। वह विश्व का भोग लगाएगा लेकिन त्याग (अनासक्त) कर के। उसके लिए अब काल न रहेगा। न भूत, न भविष्य। केवल वर्तमान। विश्व और वह अलग नहीं रहेंगे। शरीर के साथ जीवन्मुक्त और शरीर छोड़कर विदेहमुक्त। 

उस चित्त की हमें कामना करनी है जो कर्म, ज्ञान और भक्ति के जल से स्नान करता हुआ द्रवित होते होते चिद्रुप हो जाए और परम शिव को प्रतिबिंबित कर सके। 

यात्रीगण चलते रहो। 

पूनमचंद 

१९ नवम्बर २०२३

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