असीम संभावना।
Thursday, July 25, 2024
Monday, July 15, 2024
असीम संभावना क्षेत्र ।
असीम संभावना क्षेत्र।
जैसे बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज की सृष्टि है, जैसे एक गेऊ के दाने से अनेक दाने उत्पन्न होते हैं वैसे ही मनुष्य इत्यादि योनि एक जीवन से दूसरे जीवन का पुनर्जन्म है। यहाँ कुछ भी नाशवान नहीं है, बस स्वरूप रूपांतरण हो रहा है।
जैसे अंतरिक्ष के वस्त्र पर सभी आकाश गंगा, निहारिका, तारें, सूर्य, ग्रह, उपग्रह विद्यमान हैं वैसे ही चैतन्य के पट पर यह सारा ब्रह्मांड लीलामय है।
यहाँ कोई बड़ा नहीं कोई छोटा नहीं; सब कोई चैतन्य की अभिव्यक्ति है।
जैसे अंधेरे में रहा मुर्ग़ा बाँग देकर अपनी मौजूदगी ज़ाहिर करता है, यह सृष्टि उसकी मौजूदगी की खबर देती है।
हर जीव का स्रोत उस शक्ति-चैतन्य से है इसलिए हर जीव शक्ति से जुड़ा है। इसलिए उस शक्ति को प्रकट करने की असीम संभावना हर जीव में विद्यमान है। क्षणिक जीवन में कौन कितना कर सके यह उसका स्वातंत्र्य है।
शक्ति के पीछे शिव है। आगे पीछे कहाँ? दोनों का सामरस्य है। उन्मेष निमेष का चक्र है। इसलिए दोनों का अनुभव और दोनों की अभिव्यक्ति हर जीव का संभावना क्षेत्र है। जब तक अनुभूत नहीं हुआ, और अनुभूति अभिव्यक्त नहीं हुई तब तक चलते रहना है।
जागते रहो और चलते रहो।
श्रवण, मनन, निदिध्यासन करते रहो। (सुनो/पढो, समझो और अमल करो)।
पूनमचंद
१६ जुलाई २०२४
Wednesday, July 10, 2024
Dharma of Asoka
Dharma of Asoka
The Nittur MREs inscribed that when the King of Jambudip (Bharat) Asoka was away (from the capital on pilgrimage) for 256 nights, it was 2.5 years of he became ‘Upasak’ and not feeling zealous about others for a year and for more than a year he has been associated with the ‘Sangh’ and exerting himself as a result unmingled people were mingled in his kingdom. He believed that big and small, rich and poor can exert themselves and therefore he dispatched the commands through edicts throughout his kingdom (earth) and bordering kingdoms so that people living at the borders should also know about these teachings. He told the Kumars and the Mahamantris to pass orders on Rajikas who in turn pass orders on people living in country side and Rastikas with the help of teachers, Brahmanas, elephant riders, scribes and charioteers. He told to (instruct pupils) follow this ancient wisdom (porana pakiti).
Wednesday, May 29, 2024
सृष्टि रहस्य।
सृष्टि रहस्य या मिथक
यह दृश्यमान जगत के रहस्य को उजागर करने मनुष्य जाति सदियों से लगी हुई है। वैज्ञानिकों ने कार्य कारण संबंध से उसका परीक्षण किया लेकिन पहला कार्य किस कारण से हुआ उसका पता नहीं चला। भारत के ऋषि मुन्नियों ने एक सत्ता के रूप में रचयिता की कल्पना की और आदि कार्य उसकी स्वतंत्रता मानकर समाधान कर लिया। फिर उस सत्ता के चेतन और जड़ रूप, पुरूष और प्रकृति रूप को आधार बनाकर जन समूह के सामने रूपक वार्ताओं के रूप में रख दिया। शिव-सती की कहानी भी ऐसी ही एक रोचक कथा है जिसमें मनुष्य रूप में शिव-सती, उनका विवाह, शिव के ससुर दक्ष प्रजापति द्वारा शिव का अपमान, सती का आत्मदाह इत्यादि पात्रों-घटनाओं से इस सृष्टि की रचना को समझाने का प्रयास किया गया है।
शिव-सती कथा पुराणों से ली गई है। पुराण मतलब पुराना। किसी गड्डे को भरने को भी पुराण कहते है। मनुष्य की सृष्टि रहस्य खोजने की उत्कंठा में जहां जहां उसे अंतर नज़र आया कोई रूपक कथा से उसे जोड़ने का प्रयास किया।
सती अर्थात् सत, शाश्वत, eternal. जो शाश्वत है भला उसका जन्म कहाँ? फिर भी दक्ष प्रजापति की पुत्री के रूप में शक्ति को प्रस्तुत किया गया है। जो दक्ष खुद शक्ति से प्रकट हुआ वह उसका पिता बना हुआ है और महादेव का ससुर।
दक्ष की एक और कहानी है। दामाद चंद्र और उसकी २७ पत्नियों की। वे २७ दक्ष की ही पुत्रियाँ थी। लेकिन चंद्र रोहिणी को ज़्यादा प्रेम करता था। २६ ने पिता दक्ष को शिकायत की और दक्ष ने चंद्र को शापित कर क्षयरोग दे दिया। यहाँ साढ़ूभाई काम आए। शाप का समाधान ढूँढ माह के दो पक्ष बनाकर एक पक्ष में (शुक्ल) चंद्रकला की वृद्धि और दूसरे पक्ष (कृष्ण) में क्षय का वरदान दिया। अब हम सब चाँद को भी मनुष्य बनाकर २७ मनुष्य कन्याओं की कल्पना कर उनका पति पत्नी संबंध जोड़ इस कथा को एक सत्य और ऐतिहासिक कथा के रूप में प्रस्तुत करें तो कौन रोक सकता है? फिर तो गणेश की कथा भी मनुष्य रूप से हाथी रूप बन ही जाएगी। रूपक समझना है।
यहाँ चंद्र और २७ पत्नियाँ नभ में रहे पृथ्वी के उपग्रह चंद्र और उसकी २७ नक्षत्रों में मासिक भ्रमण की खगोलीय घटना की रूपक वार्ता है। चंद्र दूसरे नक्षत्रों की तुलना में रोहिणी नक्षत्र में एक दिन ज़्यादा रहता है इसलिए मनुष्य ने उसमें अपनी प्रणय कथा का सहारा लेकर एक वार्ता के रूप में प्रस्तुत कर इस खगोलीय घटना को समझाने का प्रयास किया। २१ वी सदी के हम सब उँगली जिस ओर इंगित करती है उस दृश्य-घटना को छोड़ उँगली को ही पकड़कर बैठ जाते है।
सती और शिव की घटना भी कुछ ऐसी ही सृजन शृंखला की कहानी का एक रूपक निरूपण है।
नासदीय सूक्त की भाषा इसी रहस्य का बयान है। भारत एक खोज का टाइटिल गीत याद होगा।
“सृष्टि से पहले सत नहीं था,
असत भी नहीं
अंतरिक्ष भी नहीं,
आकाश भीं नहीं था
छिपा था क्या कहाँ,
किसने देखा था
उस पल तो अगम,
अटल जल भी कहाँ था
सृष्टि का कौन हैं कर्ता
कर्ता हैं यह वा अकर्ता
ऊंचे आसमान में रहता
सदा अध्यक्ष बना रहता
वोहीं सच मुच में जानता.
या नहीं भी जानता
हैं किसी को नहीं पता
नहीं पता
नहीं है पता, नहीं है पता...........
वोह था हिरण्य गर्भ सृष्टी से पहले विद्यमान
जो है अस्तित्वमाना धरती आसमान धारण कर
ऐसे किस देवता कि उपासना करे हम अवि देकर
जिस के बल पर तेजोमय है अम्बर
पृथ्वी हरी भरी स्थापित स्थिर
स्वर्ग ओर सूरज भी स्थिर
ऐसे किस देवता कि उपासना करे हम अवि देकर
गर्भ में अपने अग्नी धारण कर
पैदा करता था जल इधर उधर नीचे ऊपर
जगह चुके वो का एकमेव प्राण बनकर
ऐसे किस देवता कि उपासना करे हम अवि देकर
ॐ ! सृष्टी निर्माता स्वर्ग रचायता पूर्वज रक्षा कर
सत्य धर्मं पलक अतुल जल नियामक रक्षा कर
फैली हैं दिशाएं बहु जैसी उसकी सब में सब पर
ऐसी ही देवता कि उपासना करे हम अवि देकर
ऐसी ही देवता कि उपासना करे हम अवि देकर....”
अगर कुछ भी न था तब क्या था?
Thursday, May 23, 2024
बुद्ध पूर्णिमा।
बुद्ध पूर्णिमा।
Wednesday, May 8, 2024
तथागत।
तथागत।
कल शाम श्री विजय रंचन साहब से भेंट हुई। कुछ सामाजिक चर्चा के बाद उनके दो काव्य ‘ब्रह्म राक्षस’ और ‘यथागत गुलामरसूल संवाद’ का रसास्वादन किया। काव्य रचना वह स्वयं प्रस्तुत करेंगे लेकिन मेरा कुतूहल तथागत में ज़्यादा रहा। तथागत ‘बुध’ का विशेषण था। रंचन साहब ने कुछ व्याख्या बताईं जैसे की ‘thus gone’ अथवा ‘तत् थत्’ अथवा जैनों कि ‘गच्छ’ (जाना) परंपरा के साथ जोड़कर जाने की बात समजाने का प्रयास किया।
क्या यह ‘तत् सत्’ का दार्शनिक पर्याय है? रास्ते में चलते चलते मेरा मनन रहा था। एक बात ज़रूर बैठी थी कि बात आने की नहीं, जाने की है। उन्होंने अपने काव्य संवाद में अनायास ही ‘यथा’ शब्द प्रयोग किया है परंतु मेरी बुद्धि ‘तथा’ के अर्थ को खोजनेमें लग गई।
मेरा ध्यान छह साल पूर्व औरंगाबाद के एक प्रवास पर चला गया जहां पानचक्की बगीचे में एक बुजुर्ग फ़क़ीर से मेरी मुलाक़ात हुई थी।वह दिखने में औरंगजेब (चित्र) जैसा था इसलिए मेरा ध्यान उसकी ओर सहसा आकर्षित हुआ था। औरंगजेब ने यहाँ अपने जीवन के आख़री २५ साल गुज़ारे थे और सादा जीवन जीते हुए बिना मक़बरा दो गज ज़मीन के नीचे दफ़्न हो गया था। उस फ़क़ीर ने इस्लाम की व्याख्या करते हुए समझाया की यह ज़मीन एक इम्तिहान कक्ष है जिसमें हम सब इम्तिहान देने आए है। इम्तिहान में जो लिखेंगे (जिएँगे) वैसा फल क़यामत के दिन मिलना है।इसलिए पल भी न गँवा कर उस परवरदिगार कीं बंदगी में बिताने में भलाई है।
गीता का अध्याय २ पूरी गीता का सार है। उसके श्लोक ११-३० वेदांत तत्वज्ञान का सार है, ३१-५३ कर्मयोग है और ५५-७२ स्थितप्रज्ञ के लक्षण है। हम सब ज़्यादातर लोग अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए राजसी कर्मों में व्यस्त है इसलिए कर्म और उसके फल के बंधन से ग्रसित है। लेकिन कुछ सीमित लोग निःस्वार्थ सेवा को अपना जीवन बनाकर कर्मयोग की साधना करते है। ऐसा कर्मयोग मन को पवित्र करता है। पवित्र मन एकाग्र - स्थिर होता है और स्थिर मन में प्रज्ञा - स्वरूप ज्ञान (who am I) स्थित होता है।
हम आ तो गए लेकिन ‘यथा’ जाना है या ‘तथा’, जीवनयात्रा का यही सत्व है।
जैसे आए थे वैसे ही शरीर-मन-बुद्धि की सीमित पहचान को यथा पकड़कर ‘यथा-गत-जाना’
अथवा
‘तथा’- अपने सत् स्वरूप को पहचान कर दुःखों (आवागमन) से मुक्त हो जाना - ‘तथागत’।
जब चलना शुरू किया तब सही, लेकिन मंज़िल का हर कदम उत्थान की ओर ले जाएगा।
तत् सत्। तथागत।
Life is a journey within ‘No Time No Space’!
पूनमचंद
८ मई २०२४
Saturday, April 13, 2024
पूर्ण।
पूर्ण।
ईशावास्य और बृहदारण्यक उपनिषद का शांति पाठ पूर्णमदः पूर्णमिदं… एक अद्भुत रचना है।
अर्थ अनेक होंगे लेकिन एक पूर्ण कहीं दूर और एक पूर्ण यहाँ अपने सामने ऐसा नहीं लगता। अदः और इदं दो अलग-अलग नहीं परंतु एक है।
अदः शब्द रूप पुल्लिंग प्रथमा विभक्ति एकवचन है। सर्वनाम है। इदम् स्री लिंग एकवचन सर्वनाम है। परम का अनुक्रम से शिव और शक्ति रूप इंगित है। दो नहीं एक है, सामरस्य है। अदृश्य दृश्य।
परम में होने की आहट चिदानंद शिव (प्रकाश-awareness) है। इच्छा-ज्ञान क्रिया शक्ति (विमर्श) है। अंकुरण ध्वनि ओम (तत्सत) सदाशिव है। फिर ईश्वर, शुद्ध विद्या और आगे मायालय का हमारा पृथ्वी तत्व तक का हमारा विश्व। व्यापकता से संकोचन की यात्रा। जितना संकोच उतनी जड़ता और जितनी व्यापकता उतनी चेतनता।
संकोच विस्तार की क्रिडा है।
किसकी?
अद्वैत की।
कहाँ हो रही है?
पूर्णोहं के पटल पर।
कहाँ है?
है, हम परिचित है। बस ठीक से इंगित कर पहचानना बाकी है। कोई नया नहीं जो मिल जाएगा। कोई दूर नहीं जहां जाना है।
हमारे साधन शीशे है, उसे माँझ लेना है निष्काम कर्म से; स्थिर करना है उपासना, भक्ति से; और जान लेना है शरणागति, श्रद्धा, ज्ञान से।
प्राप्तस्य प्राप्ति। निवृतस्य निवृत्ति।
पूर्णता अमरता है। मृत्यु के भय से पार शाश्वत का साक्षात्कार। आत्मा की प्रत्यभिज्ञा।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः॥
अद्भुत मंत्र है। मंत्र का साक्षात्कार करें।
पूनमचंद
१३ अप्रैल २०२४