Wednesday, May 8, 2024

तथागत।

 तथागत।


कल शाम श्री विजय रंचन साहब से भेंट हुई। कुछ सामाजिक चर्चा के बाद उनके दो काव्य ‘ब्रह्म राक्षस’ और ‘यथागत गुलामरसूल संवाद’ का रसास्वादन किया। काव्य रचना वह स्वयं प्रस्तुत करेंगे लेकिन मेरा कुतूहल तथागत में ज़्यादा रहा। तथागत ‘बुध’ का विशेषण था। रंचन साहब ने कुछ व्याख्या बताईं जैसे की ‘thus gone’ अथवा ‘तत् थत्’ अथवा जैनों कि ‘गच्छ’ (जाना) परंपरा के साथ जोड़कर जाने की बात समजाने का प्रयास किया।

क्या यह ‘तत् सत्’ का दार्शनिक पर्याय है? रास्ते में चलते चलते मेरा मनन रहा था। एक बात ज़रूर बैठी थी कि बात आने की नहीं, जाने की है। उन्होंने अपने काव्य संवाद में अनायास ही ‘यथा’ शब्द प्रयोग किया है परंतु मेरी बुद्धि ‘तथा’ के अर्थ को खोजनेमें लग गई।

मेरा ध्यान छह साल पूर्व औरंगाबाद के एक प्रवास पर चला गया जहां पानचक्की बगीचे में एक बुजुर्ग फ़क़ीर से मेरी मुलाक़ात हुई थी।वह दिखने में औरंगजेब (चित्र) जैसा था इसलिए मेरा ध्यान उसकी ओर सहसा आकर्षित हुआ था। औरंगजेब ने यहाँ अपने जीवन के आख़री २५ साल गुज़ारे थे और सादा जीवन जीते हुए बिना मक़बरा दो गज ज़मीन के नीचे दफ़्न हो गया था। उस फ़क़ीर ने इस्लाम की व्याख्या करते हुए समझाया की यह ज़मीन एक इम्तिहान कक्ष है जिसमें हम सब इम्तिहान देने आए है। इम्तिहान में जो लिखेंगे (जिएँगे) वैसा फल क़यामत के दिन मिलना है।इसलिए पल भी न गँवा कर उस परवरदिगार कीं बंदगी में बिताने में भलाई है।

गीता का अध्याय २ पूरी गीता का सार है। उसके श्लोक ११-३० वेदांत तत्वज्ञान का सार है, ३१-५३ कर्मयोग है और ५५-७२ स्थितप्रज्ञ के लक्षण है। हम सब ज़्यादातर लोग अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए राजसी कर्मों में व्यस्त है इसलिए कर्म और उसके फल के बंधन से ग्रसित है। लेकिन कुछ सीमित लोग निःस्वार्थ सेवा को अपना जीवन बनाकर कर्मयोग की साधना करते है। ऐसा कर्मयोग मन को पवित्र करता है। पवित्र मन एकाग्र - स्थिर होता है और स्थिर मन में प्रज्ञा - स्वरूप ज्ञान (who am I) स्थित होता है।

प्रश्न यह उठेगा कि इस स्वरूप ज्ञान की, आत्मा की प्रत्यभिज्ञा की क्या ज़रूरत? यावत जीवेत सुखम् जीवेत। जो लोग अपने को शरीर-मन-प्राण का एक खोखा समझते हैं उनके लिए वर्तमान जीवन ही सत्य है। फिर भी किसी का भी जीवन ले लें, कोई भी पूर्ण सुख और पूर्ण दुःखमय जीवन से कभी नहीं गुजरता। जब सुख होता है आदमी मस्त हो जाता है, बेफ़िक्री आ जाती है। भूल जाता है कि संचित शुभ कर्मो का ढेर कम हो रहा है। दुःख भले दुःख दे, लेकिन दुःख में रामनाम सुखधाम हो जाता है; इन्सान भगवान की बंदगी करता है और अपने आत्म तत्व के निकट आ जाता है। गीता में इसलिए अपनी सच्ची पहचान में स्थित होने के लिए कर्मो के समत्व (evenness) और कुशलता (निष्काम कर्म) पर ज़ोर दिया गया है।

हम आ तो गए लेकिन ‘यथा’ जाना है या ‘तथा’, जीवनयात्रा का यही सत्व है। 

चयन है किः 

जैसे आए थे वैसे ही शरीर-मन-बुद्धि की सीमित पहचान को यथा पकड़कर ‘यथा-गत-जाना’

अथवा 

‘तथा’- अपने सत् स्वरूप को पहचान कर दुःखों (आवागमन) से मुक्त हो जाना - ‘तथागत’। 

जब चलना शुरू किया तब सही, लेकिन मंज़िल का हर कदम उत्थान की ओर ले जाएगा।

तत् सत्। तथागत।

Life is a journey within ‘No Time No Space’! 

पूनमचंद
८ मई २०२४
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