Sunday, November 21, 2021

जल में मछली।

 जल ही मछली का जीवन है, वह है भी तो जल में, बस उसका जगत छोटा कर, टुकड़ों में विभाजित कर जी रही है। वह खुद चैतन्य और सब आकृति और अनुभव चैतन्य स्याही से लिखि उसकी अपनी कृति। फिर भी वह उससे अनभिज्ञ क्यूँ? कहाँ है जगत? चैतन्य से चलती इन्द्रियों को मन से जोड़कर किया अनुभव है तब तक। लेकिन अनुभव करनेवाला और अनुभव दोनों एक ही है ऐसा पता लग जायें फिर क्या? चित्रों कहानियों को जो भी नाम दे लेकिन, मेरा जगत मेरी ही चैतन्य अभिव्यक्ति है। मैं ही मेरी चेतना-ज्ञान शक्ति से अपना जगत द्वैत (अपोहन) बनाकर अपनी स्मृति शक्ति से उसे चला रहा हूँ।


श्रीगुरू उसे अखंड शिव स्वरूप अंबा (प्रकट विश्व) का बोध कराकर संविद में स्थापित करते है तब स्वयं का साक्षात्कार होता है। 


उस श्रीगुरू को नमन। 


ओम  गुरूभ्यो नम:।  🙏

जीवन एक सफ़र।

 संसार अद्वैत का द्वैत प्राकट्य है, इसलिए बिना अद्वैत अनुभव, द्वैत को बुद्धि से समजा सकते हो लेकिन मिटा नहीं सकते। 


यह एक मनोवैज्ञानिक सफ़र है। शिव का ना जन्म है ना मृत्यु और उसी का ही यह जगत रूप में प्राकट्य है, फिर भी इतने सारे शिव (जीव) इतनी सदियों से पृथ्वी खंड पर क्यूँ लगे है? क्या अधूरापन है, कमी है, जो पूरी करनी है? जब सब कुछ, सब और ‘एक अखंड बोध’ ही है तो कौन किससे मुक्त होगा? 


जब तक जीव भाव है तब तक द्वैत जा नहीं सकता। फिर चाहे  कल्पना रंगों के कितने ही चित्र बना ले, अद्वैत अनुभूत नहीं हो सकता। शिव का अनुग्रह ही अद्वैत को  बुद्धि में प्रकाशित कर प्रत्यभिज्ञा करा सकता है, और जीव भाव से हमें मुक्त कर शिव भाव में स्थापित कर सकता है। 


एक की सफ़र और साक्षात्कार दूसरों को मार्गदर्शित कर सकती है पर सामुदायिक मुक्ति नहीं। हर जीव को अपनी मंज़िल खुद काटनी है। परम शिव जब अपनी क्रीड़ा ख़त्म करेगा, तब सब समेट लेगा। साक्षात्कार किया तब भी शिव में निवास है, और नहीं किया तब भी। शिव, शिव से अलग रहे कैसे? कभी नहीं। शिवोहम। 


पूनमचंद

संविद सेवात्मनि

संविद स्वात्मनि


तुरीया खोजन मैं चला, तूरीया मिल्या न कोय; 

मैं रह्या पर ध्यान दियो तो, सब में चिन्मय ठोर। 


मैं आत्म अखंड बोध, चैतन्य, संविद नाम;

आभास भेदे त्रिपुटी रचाई, एकोहम पंच विलास। 


मैं चैतन्य, मैं शिवा, मैं भैरव, मैं ही शक्ति तत्वा;

सर्वाकार निराकार रूप धर, बहुधा गुहा निवासा।


मैं ही वह चेतन पर्दा, काल अकाल जिस पर रमता;

पूर्णा-कृषा उभय स्वभावे, क्रम अक्रम स्वतंत्र रूपा।


ना बंधन ना मुक्ति, स्वात्म पहचाने साक्षात्कार;

छूटे जब भेद मेरा मुझसे, जग मेरा अभेद प्रकाशा। 


गुरू मैं, शिष्य भी मैं, मैं ही शंका, मैं समाधान; 

प्रकाश विमर्श विश्वरूपा, मैं ही बोध अखंडा।  


पिघल्या उसने पा लिया, बर्फ़ पानी संजोग;

शरणागत वत्सल, प्राप्तस्य मेरी प्राप्ति सरल। 


आवन जावन प्राण पथ, संधान जब प्राणन करता;

सूक्ष्म से उद्वहन सुरता, शंभु शरण विरला ज्ञाता। 


तुरीया खोजन मैं चला, तूरीया मिल्या न कोय; 

मैं रह्या पर ध्यान दिया तो, सब में चिन्मय ठोर। 


पूनमचंद 

११ सितंबर २०२१

परा प्रवेश।

 પરા પ્રવેશ


ભૈરવ ત્રિશૂલે ભૈરવી રમે, ભરણ રમણ વમન કરે; પરામ્બિકા તારો અખંડ પ્રકાશ, ના ઉદય ના અસ્ત. 


ધર્યું તેં દિગંબર રૂપ, ધૃતિ ક્રાંતિ કરે વિલાસ; દ્વૈતાદ્વૈત ના દ્વંદ્વ પણ, અખંડ તારો ચિન્મય પ્રકાશ. 


ચિન્મય રૂપમાં દ્રઢતા લાવું, સૂક્ષ્મ બોધમાં સુરતા; ધીરજ ધરી રાખું વિશ્વાસ, શનૈ શનૈ વધુ કદમ. 


ઘટરૂપ થઈ ઘટ જાણું, ભેદ ભરમની દિવાલ પડાવું; બિંબ પ્રતિબિંબ અભેદ રૂપ, હું જ દ્રષ્ટા, હું જ દર્પણ. 


દત્ત ચિત્ત ધ્યાન લગાવો, શક્તિ ઉજાગર કરાવો; કૃપા કરો શિવ ભવાની, પરામાં પ્રવેશ ભાન કરાવો. 


પૂનમચંદ

૧૨ સપ્ટેમ્બર ૨૦૨૧

जय माता दी।

 जय माता दी। 


प्रमाता प्रमेय और प्रमाण; ज्ञाता ज्ञेय और ज्ञान के त्रिशूल को शुद्ध संविद में विसर्जित करने भवानी (भैरव का ह्रदय) की कृपा और भैरव (स्व बोध) का अनुग्रह ज़रूरी है। 


परा, परापरा और अपरा के इच्छा, ज्ञान और क्रिया के भेद को परख त्रिमल से मुक्त सप्त भुवन पर पहुँच मूल गोत्र, निर्मल जगदानंद, पूर्ण बोध, शिव स्वरूप में अवशिष्ट होना लक्ष्य है। 


शरीर भाव से सर्व भाव की और। पूर्णोहम। 🙏


पूनमचंद 

१३ सितंबर २०२१

अग्नि पथ।

 अग्नि (ज्ञान) पथ। 


भोर भयों उठ जाग मनवा, चल रे ज्ञान पथ; 

शिवत्व मंज़िल को पाना, रूक नहीं अब एक पल। 


सकल से निकल, अकल पद लक्ष्य; 

निर्मल होता आगे बढ़, तु ही तुझमें ठहर। 


पशुता से पशुपति बनना, पथ तेरा अपने अंदर;

उत्तिष्ठ जाग्रत उपर उठ, इदम से पार अहम निगल। 


सकल से प्रलयाकल डग भर, प्रमेय से आगे निर्मल पथ चल। सुषुप्ति ना बांधे तुझको, अबोध में मत रे फँस। 


विज्ञानमल से पाँव पसार, मंत्र प्रमात्री में प्रवेश कर; अहम अहम इदम इदम, जाग्रत अपने घर में बस। 


मंत्र नहीं तुं मंत्रेश्वर, गहरे सुन अनाहत नाद;

इदम को अहम जान, खुद ईश्वर खुद संसार। 


अहम अहम मंत्र महेश्वर, अग्नि कुंण्डली मरीच हवन; शिव शक्ति सामरस्य कर; उन्मनि से आगे बढ़।  


प्रमाता तु स्वयं एक, परमेश्वर परम अद्वैत; 

अहम में कर विराम, अकल घर शिव संपूर्ण। 


भोर भयों उठ जाग मनवा, चल रे ज्ञान पथ; 

शिवत्व मंज़िल को पाना, रूक नहीं अब एक पल। 


पूनमचंद

१४ सितंबर २०२१

सप्तपुरी

 सप्तपुरी भीतर जानो, अपने को खूब पहचानो; 

चक्र चक्र पार चलो, सहस्रार में आसन जमाओ। 


बुंद बुंद अमृत छलके, पीया उसमें मस्ती छलके। 

भैरव संग भैरवी नाचे, बजा डमरू तांडव ताड़े। 


सकल से आगे चल, सप्तपुरी को पार कर;

शिवपुरी में गड़ा त्रिशूल, कर लीला तु अपने सूर। 


पूनमचंद 

१४ सितंबर २०२१

पूर्णोहम।

 पूर्णोहम। 


पूर्णोहम! शिवोहम, चैतन्य अखंड अद्वैत प्रकाश;

विमर्शमय मैं स्वतंत्र, स्वात्म नित्य अपरिमित बोध। 


खंड अखंड सबमें व्याप्त, जड़ नहीं मैं ज़िन्दा शाश्वत। शव नहीं मैं चैतन्य दीया, सबका प्रकाश सबका प्रकाशक। 


मैं चिन्मय नित्य प्रकाश, विमर्श स्वतंत्र शिव सद्रूप;

स्व में विस्तार, स्व संकोच, सकल अकल मेरा भासन।


संयोजन वियोजन जाल परख, भेदाभेद नाटक बंद कर; 

अनुसंधान से एक कर, पराद्वैत में स्थापित कर। 


चेतन परदा चेतन चलचित्र, किसे करेगा शत्रु किसे मित्र?

स्वात्म सिद्धि निर्मल पथ चल, प्रकाश विमर्श में डूबा कर। 


पूरन होगा बोध सामरस्य, पूर्ण ज्ञान पूर्ण क्रिया;

होगा तब खुदसे, स्वात्म अखंड शिव साक्षात्कार। 


पूर्णोहम! शिवोहम, चैतन्य अद्वैत अखंड प्रकाश;

विमर्शमय मैं स्वतंत्र, स्वात्म नित्य अपरिमित बोध। 


पूनमचंद 

१६ सितंबर २०२१

अहमेव प्रकाशात्मा

 અહમેવ પ્રકાશાત્મા


અહમેવ પ્રકાશાત્મા, અહમેવ પૂર્ણ;

શુદ્ધ ચિન્મય નિત્ય અનંત વિમર્શ.


ચૈતન્ય પરાવાક, સ્વાતંત્ર્ય ક્રિયા સ્ફુરણ; 

ઉત્પત્તિ સ્થિતિ લય, મુજ સાર હ્રદય સ્પન્દ. 


ગુરૂ શાસ્ત્ર લક્ષણ બોધ, અહં મુક્તિ નિર્મલ બુદ્ધિ; 

અભેદ બીજ ભેદ મીટે, દ્વવીભૂત સંસાર પ્રેમ પ્રકાશે. 


અહમ અસ્મિ, અહંકાર ગાંઠે બંધીયો;

અહમ અસ્મિ, ચિદ્રુપ વિસ્તરણે મુક્તો. 


અહમ શિવા અહમ શક્તિ;

અહમ પ્રમાતા, અહમ પ્રમેય. 


પરાપ્રવેશે થયો સ્વસ્થ, સ્વરસ પાને પ્રકાશરૂપ; 

દ્રવિત જ્ઞાન અખંડ વિસ્તાર, ના મળે સંકોચ બાધ. 


અહમેવ પ્રકાશાત્મા, અહમેવ પૂર્ણ;

શુદ્ધ ચિન્મય નિત્ય અનંત વિમર્શ.


પૂનમચંદ

૧૮ સપ્ટેમ્બર ૨૦૨૧

पहचान कौन?

 पहचान कौन?


शिव ही संसार और संसार ही शिव; शुद्ध संवित, प्रकाश और विमर्शमय। पूर्णाहंता से विमर्शात्मा परम शिव, ३६ तत्वों से जगतद्रुपता के विस्तार को प्राप्त है। यह विश्व उस परम शिव में परम का ही प्रतिबिंब। अपनी विश्वोतीर्ण से विश्वमय, प्रकाश-विमर्श लीला से संसार खेल रचा है।


शिव शिव है, जीव भी शिव है।विद्या भी शिव, अविद्या भी शिव। हर कंकर एक शंकर। प्रमाता भी शिव और प्रमेय भी शिव। उसकी  मर्ज़ी किस स्पन्द को कैसे स्पन्दित करे। कहाँ भेद, कहाँ भेदाभेद और कहाँ अभेद करे। 


जीव अज्ञान से जुड़ा है और ईश्वर माया से।अज्ञान और कुछ नहीं, मल है, संवित का संकोच है। बस यह संकोच के एक छोर पर जीव पद और व्यापकता के दूसरे छोर पर परम शिव पद। भेद छोर पर पशु, अभेद छोर पर पति। पशुपति।एक बंध, एक स्वतंत्र। 


त्रिमल के कारण अपनी क्रिया शक्ति और ज्ञान शक्ति का संकोच है जीव। आणव मल अपूर्णता का एहसास, मायिय मल भेद बुद्धि और कार्म मल शुभाशुभ भाव है। विद्या से मल शोधन साधना है। 


कश्मीर शैव दर्शन ने प्रमाता को प्रमेय के सापेक्ष में मल के आधार पर अकल से सकल तक सात भूमिका में बाँटा है। चेतना के सात स्तर है। साधना सकल से अकल की यात्रा है। त्रिमल से निर्मल पथ यात्रा है।प्रमेय को प्रमाता में लीन करना है  शून्य बोध से स्वात्म बोध करना है। जीवत्व से शिवत्व पहचानना है। 


वैसे तो केवल एक प्रमाता है। लेकिन विमर्श से उसका शक्ति प्राकट्य है। प्रमेय भी प्रमाता का ही प्रारूप है। अकल पद के बाद, ज्ञान और क्रिया, प्रमाता-प्रमेय द्रष्टि विभाजन से अलग अलग भूमिका में आ गये। पुरुष प्रमाता है, प्रकृति प्रमेय। प्रमेय प्रमाता से प्रकाशित। यह खेल है, शिव क्रीड़ा है। आप है, हम है, सारा संसार है। 


आरोही क्रम से प्रमाता अनुक्रम से सकल, प्रलयाकल, विज्ञानाकल, मंत्र, मंत्रेश्वर, मंत्रमहेश्वर, अकल नाम से जाना जाता है। अहं पुरूष और इदं प्रकृति। पुरुष की अहंता के आधार पर उसकी भूमिका बनती है। शिव अवरोह से अकल से सकल तक की, और फिर आरोह से सकल से अकल की स्थिति में उन्मुक्त होता है। शुद्धि से अशुद्धि और अशुद्धि से शुद्धि।भूमिका भेद से प्रमाता (अहं) अपने प्रमेय अंश (इदं) को अलग समजता है। प्रमाता प्रमेय का यह दर्शन है पराद्वैत।


साधना प्रमेय को प्रमाता में हवन (लय) कर, एक से दूसरी भूमिका में आरोह कर स्वात्म पहचान से परम तत्व पद पहुँचना है। व्यष्टि चेतना से समष्टि चेतना में, अकृत्रिम अहं में परिणत होना है।अपने वास्तविक स्वरूप की प्रत्यभिज्ञा करनी है। 


शिव सर्वत्र जान। खुद को पूर्ण मान। ना कैलास में रोक, ना केदार बांध। 


पूनमचंद 

१८ सितंबर २०२१

मान जाइए ठहर जाइए

 मान जाइए, ठहर जाइए। 


मेरा मुझको पता नहीं, फिर भी चला तुझे खोज; 

मेरी मुझको खबर नहीं, फिर क्यूँ  भटकूँ  इधर-उधर?


मन याचक पूछे दाता से, तुं कहाँ से है धन देत; 

इच्छा ज्ञान कर्ता बन भोगे, फिर भी करे प्रश्न अनेक।  


छत्तीस बन किया विस्तार, विषय भोग भरमार;

क्यूँ रखी टीस अतृप्ति की, खेल में पड़ी ख़लल। 


अखंड प्रकाश अविच्छेद, संकोच करे धरे रूप;

भेद अभेद माया भासे, करे क्रीड़ा सुषुप्त विमर्श। 


अनुग्रह करी निग्रह तोड़े, उन्मेष की और आरूढ़े;

अनाहत लवलीन करे, कणकण पुलकित करे।


मान लिया सो जान लिया, खुदसे खुदा मिला लिया; 

टेढ़ा सर्प सीधा किया, सब जगत खुद से दीया। 


इच्छा ज्ञान क्रिया खेल, सामरस्य का खुले भेद;

गुरू शास्त्र सुधारें शान, संवित ज्ञान स्थान अभेद। 


पूनमचंद 

१९ सितंबर २०२१

मातृका प्रवेश

मातृका प्रवेश। 


ज्यों न्यग्रोध बीज वटवृक्ष पसारा; 

वाक् विश्व फैल, माटी प्रकाशा। 


अ कार से स कार चराचर संसार;

परम परा का ह्रदय बीज विस्तार। 


३१ सकार ३ अकार, वर्ण मातृका संसार;

शिव शक्ति का सच्चिदानंद पसार। 


अ कार से आरूढ हुआ, ह कार भेद सृष्टि फैलाया। 

परम शिव में उदय हुआ, परम शिव विश्रांत हुआ।  


ह्रदय प्राण ब्रह्मरंध्र मिला, परावाक संधान कर;

घटीयंत्र सम भर ले अरघट, सरण रस अमृत पान कर।     


जप ले मंत्र छांदस, बिना गति लय ताल विग्रह ; 

त्रि अंड अनुसंधान कर, अनुत्तर परा प्रवेश कर। 


सद् अंश मिले चिद् अंश से, चिद् अंश माोद मांय;

मोद निरंशे विलुप्त हुए, परम शिव प्रकट थाय।  


पूनमचंद 

२३ सितंबर २०२१

ह्रदय बीज

 ह्रदय बीज। 


यह ब्रह्मांड परमशिव का शरीर। परमशिव प्रकाशविमर्शमय। प्रकाश (शिव) और विमर्श (शक्ति)। शिव ही शक्ति। शक्ति ही शिव। शिव ही परमशिव। परमशिव ही शिव। शक्ति ही ३६ तत्वों रूप बनी है। परमशिव में उत्पन्न, पालन और संहार (लय)। 


तत्वों को समझना ज़रूर पर मत भूलना कि वह है आपका शरीर। परमशिव। इदम इदम में अहम खो न जाये। इच्छा ज्ञान क्रिया का केंद्र। 


सब कुछ परमशिव-शिव-शक्ति,

फिर कौन छोटा प्रमाता और कौन बड़ा। हाँ, सप्त अनुभूति की साधना है। माया के पर्दे पीछे छीपा सच को उजागर कर लेना। द्वैत और यह ३६ तत्वों का अलग अलग रूप और गुण में प्राकट्य न होता तो संसार खेल कैसे होता। खेल है और खेल के नियम है। शतक बना लो या शून्य में आउट हो जाओ। 


इच्छा-ज्ञान-क्रिया-निग्रह-अनुग्रह के संकोच से आपका शिवत्व कहीं नहीं जाता। शिव, शिव ही रहेगा। हाँ करना है तो बुद्धि दर्पण को साफ़ करते रहो जहां वह सुप्रीम का प्रकाश परिवर्तित हो रहा है। उसमें खुद को देखकर ही खुद को पहचानना है। गुरू/शास्त्र बुद्धि का डस्टर है। 😊


मनुष्य शरीर है। शरीर में बुद्धि।  बुद्धि ह्रदय में। ह्रदय में शिव प्रकाश। अमूल्य अवसर, अपनी पहचान (प्रत्यभिज्ञा) करने का। 


स (प्रकट विश्व, ३१ तत्व, ६-३६, माया से पृथ्वी), औ (इच्छा-ज्ञान-क्रिया शक्ति, सदाशिव, ईश्वर, शुद्ध बुद्धि ), : (ऊर्ध्व और अध: बिन्दु, शिव-शक्ति) (self-his divine power). 


सौ:।


ह्रदय बीज। 💐


ॐ। 


परमशिव। 


जीवन्मुक्त। 


पूनमचंद 

१ अक्टूबर २०२१

तीन लाभ एक प्राप्ति।

 तीन लाभ, एक प्राप्ति। 


तीन बार लाभ आये। बल लाभ, चिदानंद लाभ और समाधि लाभ। चैतन्य का जो संकोच था जिससे पंचकृत्य सीमित हुए थे वह असीमित होने शुरू हुए। पंचशक्ति का संकोच दूर होने लगा। अंतर्मुख भाव से और मध्य-ह्रदय विकास से चिति का परिज्ञान होने लगा। 


चिति आनंद स्वरूपा है इसलिए चिदानंद लाभ शुरू हो गया। प्रमाता की भूमिका बदलने लगी। मलावरोध दूर होते ही सम्यक दृष्टि से सर्व समावेश होने लगा। आँख बंद की और अंदर गये तो समाधि ऐसा ही नहीं, बाहर भी समाधि। अंदर जाओ तो समाधि और बाहर व्युत्थान ऐसा नहीं, नित्य बोधि समाधि लग गई, जिसका अब अस्त नहीं होना है। प्रकाश और आनंदका सामरस्य हुआ। मदमस्त हाथी की तरह चैतन्य का झुला लग गया। अंदर जायें तो चिद्घन प्रशांति - सदाशिव, और बाहर आये तो व्युत्थान (सामान्य चेतना) में सर्वरूप सर्वत्र मेरा प्रकाश। अंतर्लक्षो बहिर्दृष्टि। अहंता इदंता ऐक्य। जड़ चेतन सब ज्ञानरूप। भेदों के बीच संविद एकता। स्वयं प्रकाश चेतना में द्वैत कहाँ? 


सब बीज को चिद् अग्नि में स्वाहा करो और समाधि बीज लगाओ। यही सच्ची खेती है। संविद को पाओ। गुरू मंत्र से, शिव अनुग्रह से। श्रद्धा और विश्वास से। भीतर है वह। गंगा (इड़ा) से अंदर और यमुना (पिंगला) से बाहर के मंथन से सूकी नदी सरस्वती (सुषुम्ना) में मधुरस भरना है। 


समाधिसंस्कारवति व्युत्थाने भूयो भूयश्चिदैक्यामर्शान्नित्योदितसमाधिलाभ।।१९।।


नित्योदित (जिसका अस्त नहीं) समाधि लाभ होगा। मनुष्य अभिमंत्रित हो जायेगा, चैतन्य महामंत्र वीर्य से। देवता बनेगा। संविद देवता। चक्रेश्वर देवता। सर्व शक्ति (शक्ति समूह), शिवत्व की प्राप्ति होगी। पूर्णाहंता। प्रकाशानंद। पूर्णानंद। विश्रांति। निरपेक्ष। नित्योदित। 


चिति चित्त बनी थी, फिर से चिति। चिद् ऐक्य हो गया। बनना कुछ नहीं, स्वरूप अज्ञान को मिटाना है। जो प्राप्त है उसे ही पाना है, उजागर करना है। मायीय चश्मे हटाकर सीधा देखना है। बिना चश्मे की दृष्टि। जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि। 


तदा प्रकाशानन्दसारमहामन्त्रवीर्यात्मकपूर्णहन्तावेशात्सदासर्वसर्गसंहारकारिनिजसंविद्देवताचक्रेश्वरताप्राप्तिर्भवति शिवम्।।२०।।


सब शिव का ही स्वरूप है। एक ही है, दूजा कोई नहीं। 



शिवोहम् शिवोहम्। 🙏🙏🙏


🕉 नम: शिवाय। 


पूनमचंद 

१९ नवम्बर २०२१

मध्य के विकास में लाभ है।

 मध्य के विकास में लाभ है। 


मध्यविकासाच्चिदानंदलाभ:।।१७।।


मध्य विकास से चिदानंद लाभ है। प्रत्यभिज्ञा ह्रदयं का यह ह्रदय सूत्र है। बीमारी की चर्चा हुई अब बीमारी का इलाज चल रहा है। सूत्र १३, १४, १५ में चित्त के अंतर्मुखी भाव से चिति के ज्ञान को उजागर करने की बात कही थी, जिसमें तीन संकोच वाक् संकोच, करण संकोच और प्राण संकोच को अनुक्रम से गुरू मंत्र, अष्ट देवियों के विस्तार और प्राण-अपान के कुंभक से सुषुम्ना द्वार में प्रवेश कर कुंडलिनी मार्ग से अपने चिति स्वरूप बल (उन्मेष) को प्राप्त कर, विश्व को अपने स्वरूप से अभिन्न रूप में भासित-प्रकाशित करना बताया है। फिर सूत्र १६ में बताया कि दृढ़ता पूर्वक चेत्य और चेतन की एकत्व से चिदानंद लाभ पाकर जीवन्मुक्ति अवस्था पानी है। पहले बल लाभ, फिर चिदानंद लाभ। 


अब यहाँ इस सूत्र में बताया मध्य विकास से चिदानंद लाभ होगा। 


क्या है मध्य? माँ भगवती चिति ही मध्य है। केन्द्र है। ह्रदय है। अपनी स्वतंत्रता और स्वेच्छा से माया आवरण से अपने स्वरूप के गोपन करके मेरे अंतरतम केन्द्र में, ह्रदय में चित्त स्वरूप बनकर विद्यमान है उसे विकसित करना है, दीप्त करना है, स्वरूप में प्रकाशन करना है। 


एक तरफ़ माँ भगवती चिति, जिसका मूर्त रूप यह सारा विश्व; दूसरी तरफ़ मुझ जीव चित्त का बना मेरा संसार। दोनों की संधि मध्य है। माया रूपी उपले और राख से ढके आवरण को हटाना है। जैसे चेतन पद से उतरकर चित्त बना (सूत्र ५), अब उसी सीडी को पकड़कर आरोहण क्रम से गुरू युक्ति लगाकर उतरे हुए प्राण से सीडी चढ़ना है। मेरी भींती पर ध्यान देना है जहां सब भेद प्रमेय, वृत्तियों का उदय अस्त हो रहा है, जहां सब प्रकाशित हो रहा है। जो हम सब की अंतरतम स्थिति है। भींती न रही तो कहाँ मैं और तुम? उस मध्य ह्रदय को विकसित करना है, दीप्त करना है, उसका विस्फार करना है। 


चिति की चित्त बनने की यात्रा प्राण से हुई थी। प्राणशक्ति के संकोच से बुद्धि-अहंकार-मन-स्थूल शरीर से बनी मेरी मनुष्य कृति अभी प्रवृत्त है।उसमें स्थित नाड़ी जाल समूह में तीन प्रमुख नाड़ियाँ इड़ा पिंगला और सुषुम्ना है। इड़ा और पिंगला में  चल रहे प्राण अपान को समान कर सुषुम्ना में प्रवेश कर लेना है। जैसे पलास पत्र का मध्य तंतु पत्र के तंतुजाल से जुड़ा है, वैसे ही ७२००० नाड़ियों के समूह का मध्य स्रोत सुषुम्ना है। जहां से चित्त वृत्तियों का उदय और लय होता है। यह सुषुम्ना जो चिति की प्राण शक्ति से जुड़ी है, और वज्राणि-चित्रिणी-ब्रह्म रूप में स्थित है उसकी मध्य की ब्रह्म नाड़ी का अनुसंधान करना है। उस नाड़ी में मूलाधार मे सोयी पड़ी कुंडलिनी शक्ति को उर्ध्व कर, प्रवृत्त कर सहस्रार से जोड़नी है, व्यान की व्याप्ति करनी है। सुषुम्ना के प्रकाश स्तंभ या चमकती कमल दंड लकीर के प्रकाश से आगे बढ़ते बढ़ते सहस्रार पहुँचना है।मेरे शरीर के मध्य रूपी ब्रह्म नाड़ी सुषुम्ना का विकास करना है। 


मेरे मध्य का विकास होगा, जो चिदानंद लाभ करायेगा। 


लक्ष्य क्या है? 


निरपेक्ष बनना है और वैश्विक होना है। सर्वाकार सामान्य दृष्टि प्राप्त करनी है। क्रियाओं के चक्करों के बीज चित्त को जागरूक रखना है अपने निरपेक्ष अभ्यास में। 


मुझे प्रमेयों के भेदों के बीच, दो विचारों के बीच, प्राण अपान के बीच रहे अवकाश को पहचानना है और उसके प्रति जागरूक होकर अपनी भींती की पहचान बराबर कर लेनी है। मैं ही सब में अवस्थित होकर मैं बन मुझे ही देख रहा हूँ, लेकिन बाहर की घटनाओं से क्यूँ क्षोभ हो रहा है उस का निरीक्षण बनाये रखना है। सापेक्ष या निरपेक्ष मेरा ही दर्शन है सब। गुरू कृपा का स्वीकार करना है और निरपेक्ष में स्थित होना है। व्युत्थान और समाधि के पेंडुलम को तेज चलाकर आख़िर में स्थिर समाधि अवस्था पाना है, जहां फिर एक तरफ़ इन्द्रियों का व्यवहार और दूसरी तरफ़ मैं अपने ह्रदय मध्य में स्थित चिति भैरव।


मैं बनारसीयों की तरह दो गाल में दो पान ठूँस कर पानरस का पान तो नहीं कर सकता, लेकिन चिद् से जुड़ा हुआ हूँ और चिद् रस कुंभ अहर्निश बह रहा है, उसे पहचान उस चिद् रस का आनंद लूँ , और क्रमश: अथवा गुरू या शिव अनुग्रह से अक्रम से चिदानंद को प्राप्त करूँ। मुझे प्राप्त है उसकी पहचान करूँ, उसमें रमण करूँ। अपनी चिदानंद मस्ती में आनंद सृष्टि। 


चिदानंद लाभ। 


मध्यविकासाच्चिदानंदलाभ:।।१७।।


है देवी भगवती, माँ चिति, मेरे मन के क्षोभ हरो, विकल्पों का क्षय करो और मेरे मध्य का, मेरे ह्रदय का विकास करो, जिससे मैं और मुझमें प्रकाशित यह सारे विश्व से मेरा ऐक्य हो। मेरी प्रत्यभिज्ञा हो। जीवन मुक्ति का मुझे पता नहीं, लेकिन मेरा दैत, द्वंद्व सब मीट जायें और मैं आप रूप प्राप्त करूँ। 


शिवोहम्। पूर्णोहम्। 


पूनमचंद 

१८ नवम्बर २०२१

चिदानंद लाभे सर्व लाभ।

चिदानंद लाभे सर्व लाभ। 


दो संकोच या बंध समझा। एक परावाक् का वैखरी तक का, सूक्ष्म से स्थूल तक का। दूसरा वामेश्वरी और उसके चार रूप खेचरी-गोचरी-दिग्चरी-भूचरी के अनुक्रम से विश्व, ज्ञान संकोच-प्रमाता, अंत:करण (बुद्धि-अहंकार-मन) संकोच भेद स्वरूप भेद निश्चय-अभिमान-विकल्प; इन्द्रियों का संकोच - अंत:करण के अनुरूप इन्द्रिय क्रियाएँ और स्थूल शरीर-प्रमेय सृष्टि का संकोच-भेद; जिससे यह सब सृष्टि खेल चल रहा है। 


ऐसे ही तीसरा बंध प्राण संकोच है। जिसमें चिति प्राण जो प्राणन कहा जाता है वह पंचप्राण (प्राण-अपान-समान-उदान-व्यान) बन सकल प्रमाता की स्थूल शरीर लीला को सँभाले है। प्रश्वास प्राण है, श्वास अपान, जब दोनों धाराएँ तराज़ू की तरह सन्तुलित होती है तो समान -सुषुम्ना स्थिति, जब उर्ध्व होता है तब उदान और सहस्रार पहुँच व्याप्त होता है तब व्यान कहा जाता है। स्थूल रूप से हमारे शरीर की ओक्सिजन जरूरत, पाचन, रूधिराभिसरण, उत्सर्जन यही पाँच प्राण सँभाले हुए है। 


जैसे बंधन का मार्ग पता चला, मुक्ति का जवाब भी मिल गया। चिति का अपरिज्ञान है इसलिए संसारीत्व है। परिज्ञान हो सकता है, अंतर्मुखी भाव के मार्ग से। चिति से संपर्क टूटा नहीं। बस अनुसंधान करना है। 


तीन बंध जान लिए, मार्ग भी उसमें निहित है। वैखरी भीतर मध्यमा, पश्यन्ती से होती हुई परा वाक् से जुड़ी हुई है। गुरू के चेतन मंत्र से उसका अनुसंधान कर उसकी अधिष्ठात्री चिति तक पहुँचा जा सकता है।वर्ण  शुद्धि से पद शुद्धि, पद से वाक्य और वाक्य से व्यवहार, शिवता में सहायक है। 


चार शक्तियाँ खेचरी-गोचरी-दिग्चरी-भूचरी विस्तारण से अभेद कर पंच शक्तियों: व्यापकता, पूर्णता,सर्वज्ञता, सर्वकतृत्व का आविष्करण कर लेती है। 


प्राण भी स्थूलता से प्रश्वास-श्वास की रेचक-कुंभक-पूरक-कुंभक प्रकिया को पकड, मध्य सुषुम्ना में स्थिर होकर, शक्तिपात लाभ से उर्ध्व बन सोयी कुंडलीनी शक्ति को जगाकर, उर्ध्व उठाकर, सहस्रार में जोड़ देती है तब सप्त चक्रों और उसके चक्र कमलों के वर्ण मंत्र, सब विस्तारित होकर स्वभासन, स्वात्म चमत्कार में परिवर्तित होकर चिति स्वातंत्र्य प्रदान कर देते है। 


इन सबसे बल लाभ होता है। चिदानंद लाभ होता है। चिति पर जमी राख और उपले हट जाते है। और प्रज्वलित हुई उस चिति वह्नि-अग्नि भेद सब स्वाहा करती हुई उस अभेद शिवता, विश्वत्व, सर्व समावेश में पहुँचा देती है। चिति-शिव कोई और नहीं, हम ही है, बस क्रीड़ा के वक्त उसका स्वरूप विस्मरण है। संसरण मिटाने और शिव विश्वत्व पाने की ही तो साधना है। स्व की पहचान ही  प्रत्यभिज्ञा है। यही यात्रा है। चित्त के चिति बनने की। सकल से अकल की। अक़्ल ठिकाने करने की। 😜


बस प्रतिबद्धता बनाये रखनी है। दृढ़ता बनाये रखनी है। शिव अनुग्रह से कब नज़र बदल जायेगी पता नहीं चलेगा। 


नज़रें बदली तो नज़ारे बदल गए, कस्ती ने बदला रूख तो किनारे बदल गये। 


एक क़दम और संसारित्वम् से विश्व आत्मसात् करने की ओर। 


तत्परिज्ञाने चित्तमेव अन्तर्मुखीभावेनचेतनपदाध्यारोहात् चिति: ।।१३।।


चितिवह्निरवरोहपदे छन्नोंડपिमात्रया मेयेन्धनं प्लुष्यति ।।१४।।


बललाभे विश्वमात्मसातकरोति ।।१५।।


चिदानन्दलाभे देहादिषु चेत्यमानेष्वपि चिदैकात्म्यप्रतिपत्तिदाढ्यँजीवनमुक्ति: ।।१६।।


यही जीवन मुक्ति है। जीते जी मुक्ति। मरने की ज़रूरत नहीं। मरना तो अहंकार को है, रावण को; राम को नहीं। 


शुभ हो। लाभ हो। 


शिवम् भवतु। सर्वम् शिवम्। 


पूनमचंद 

१७ नवम्बर २०२१

बंधन में पड़ा शक्ति मोहित संसारी।

बंधन में पड़ा शक्ति मोहित संसारी। 


अपनी शक्तियों से व्यामोहित होकर, चिति ही संकोच ग्रहण कर चित्त और माया प्रमाता के माध्यम से जीवरूपी संसारदशा को प्राप्त है। शक्ति संकोचन से व्यामोहित है वह जीव है, और जो अपनी शक्तियों से व्यामोहित नहीं है वह शिव परमेश्वर है। इसलिए ३६ तत्वों से बने शरीर आदि को शिवरूप देखना होगा, तभी प्रत्यभिज्ञा होगी। 


तदपरिज्ञाने स्वशक्तिभिवर्यामोहितता संसारित्वम् ।।१२।।


तत् अपरिज्ञाने।तत् यानि चिति और परिज्ञान यानी संकोच से विकास की प्रक्रिया। यह प्रक्रिया समझ में नहीं आने से संसारित्वम। सर्वम शिवम्, लेकिन चिति का विश्व है और चिति जब चित्त बनी तब जीव का संसार।संसारभाव जीवकृत है।चिति द्वारा हो रहे पंचकृत्य (सृष्टि-स्थिति-लय-निग्रह-अनुग्रह) के अज्ञान के कारण जीव अपनी सीमित दरिद्र स्व शक्तियों  (कला, विद्या, राग, काल, नियति) से मोहित होकर संसार दशा को प्राप्त हुआ। आनंद गया और उन्माद दशा को प्राप्त हुआ। अज्ञान से ही शंका है, और शंकाओं से जन्म मरण होता है। अगर शिवस्वरूप की प्रत्यभिज्ञा हो गई तो फिर कहाँ जन्म और कहाँ मरण?


व्यामोह भ्रांति है, मोह है, उन्माद है अपनी दरिद्र शक्तियों का।स्व स्वरूप तो चिति है। लेकिन उसका अपरिज्ञान-अज्ञान बना हुआ है। जिससे चिति की पंच शक्ति और पंच कृत्यों का स्वातंत्र्य अनुभव नहीं हो रहा। मोहावरण तीन मलों से है। आवरण हटते ही स्वात्म प्रकाशन और स्वात्म चमत्कार का अनुभव होना है। वही प्रत्यभिज्ञा होगी।


शुद्ध विद्या के बाद चिति अविकल्प छोड़कर, माया प्रमाता में परिमित विकल्पों को प्रस्तुत करती है। मुक्त पतिदशा (शिव-पशुपति) के अभेद से दूर संसारी जीव अपने शिव वैभव से वंचित रहता है।व्यामोहिता हटते ही यही स्वशक्ति पूर्णाहंता का बोध बन जाती है। प्रकाशोदय ही प्राप्ति है। चेतना को मैं मिल जाता है।  


दो क्षेत्र है। परा क्षेत्र (शुद्ध विद्या तक)  और अपरा क्षेत्र (माया प्रमाता क्षेत्र)। परा क्षेत्र में परावाक् चिति से अभिन्न है जिसने अ से स अक्षर सहित सभी शक्ति समूह देवियों को गर्म में धारण किया है। परावाक्, पश्यन्ती-मध्यमा-वैखरी क्रम से अपने वास्तविक परारूप का गोपन करती हुई प्रमाता अवस्थाओं को अवभासित करती हुई एक दूसरे से जुड़ी रहती है। वैखरी इन्द्रिय ग्राह्य होने से प्रमाता के काम आती है और मंत्र वर्ण से परा वाक् अनुसंधान कराती है। मंत्र सभी वर्ण रूप है। सभी वर्ण शिवरूप है।


यह संसार भगवती चिति वामेश्वरी का वमन है। अपने मूल स्वरूप को गोपन करती हुई चिति, खेचरी रूप से सब प्रमाताओं के ज्ञान (किंचित्कर्तृत्व) में, गोचरी रूप से सब अंत:करणों (भेद) के रूप में, दिक्चरी रूप से सब बाह्य इन्द्रियों के नियमन में और भूचरी रूप से स्थूल शरीरों और सारे पदार्थों के रूप में प्रकट होती हुई पशु-जीव दशा में विश्राम करती है। 


यही देवियाँ-शक्तियाँ प्रमाता में अज्ञान से परिमित बनाकर बंधन देती है और, यही शक्तियाँ प्रमाता में अवस्थित होकर जीव को पूर्ण ज्ञान द्वारा मुक्ति भी देती है। 


मनुष्य को इन सूत्रों की मदद से अपने व्यक्तित्व का मूल्यांकन करना होगा और भगवती की भक्ति और प्रेम के सहारे गुरू कृपा से पूर्णोहम् की प्रत्यभिज्ञा करनी होगी। इन्द्रियों के भोग और सब योनियों में प्राप्त है, इसलिए मनुष्य जीवन का एक ही प्रोजेक्ट सुप्रीम बनता है, और वह है प्रत्यभिज्ञा। 


शिवोहम्। पूर्णोहम्। 


पूनमचंद 

१५ नवम्बर २०२१

पंच कंचुक।

 पंच कंचुक। 


शिव शब्द से इ की मात्रा अगर हटा लें तब शिव शव हो जायेगा। बिना विमर्श प्रकाश का स्वरूप कहाँ? परमशिव का प्रकाश शिव है और विमर्श चिति। चिति शिव स्वरूप होने से पंच शक्ति धारण किए है; चिद्, आनंद, इच्छा, ज्ञान और क्रिया। अनुक्रम से व्यापकता, नित्यत्व, पूर्णत्व, सर्वज्ञत्व, सर्वकतृत्व। यह चिति विश्वरूप से उन्मीलन होने के लिए अपनी स्वतंत्र इच्छा से संकोच ग्रहण करती है। प्रकाश की छाया (विमर्श) बन नानात्व रूप धारण कर प्रमेय और प्रमाता की सृष्टि का सृजन, स्थिति और संहार करती रहती है। संकोच से प्रमाता त्रिमल के आवरण से ढक जाता है और खुद को अपूर्ण, भेदभाव और कर्म-फल की जाल में बाँध देता है। अपरिमित से परिमित हो जाता है। चिति संकोच से, माया से, अपना स्वरूप गोपन कर विश्व निर्माणकारी होती है। पंचशक्ति का संकोच पंच कंचुक बन जाता है। अनुक्रम से सर्वकतृत्व कला (अल्प कर्तृत्व); सर्वज्ञत्व विधा (सीमित ज्ञान); पूर्णत्व राग (अतृप्ति-भिन्न विषयों की चाह); नित्यत्व काल (भूत-वर्तमान-भविष्य, जन्म-मरण); और व्यापकता नियति (देश-कारण बोध) बन जाती है। 


गोपन भेद है, बंध है; अगोपन अभेद, मुक्ति है। इमली का पेड़ बीज-किंचूक में छिपा है। किंचूक का योग्य भूमि में रोपण हो जायें तो इमली का पेड़ प्रकट हो जाता है। गोपनीय स्वरूप उजागर हो जाता है। वैसे ही साधक गुरू मार्गदर्शन में सर्वत्र शिवदर्शन करके अपनी प्रत्यभिज्ञा कर लेता है। प्रत्यभिज्ञा गोपन से अगोपन की यात्रा है। साधना है। 


शिवोहम्। पूर्णोहम्। 


पूनमचंद 

१५ नवम्बर २०२१

शिव संसारी।

 शिव संसारी। 


चिति चेतन की भूमि पर अवरूढ होकर संकोच कर इदंता (विश्व) और चित्त बन अहंता में व्याप्त है। शिव और पार्वती (चिति), कौन पूरा और कौन आधा? कौन किस के साथ? यह संसार यह अर्धनारेश्वर जोड़े की क्रीड़ा है। और हम सब उसकी संतान। संतान कहाँ, द्वैत का छल दिखता है, लेकिन मंगलमय अद्वैत शिव संकोचन से त्रिमल आवृत होकर खुद ही संसारी बना है और समग्र विश्व में व्याप्त है।चिति की क्रिया शक्ति से ही ३६ तत्वों से बना विश्व प्रकट हुआ है। किसलिए? स्वच्छ और वैविध्य पूर्ण जीवन के लिए। विश्व हेतु यही तो है। 


चिद्वत्तच्छक्तिसंकोचात् मलावृत: संसारी ।।९।। 

तथापि तद्वत् पन्चकृत्यानिकरोति ।।१०।। 


विराट ही वामन बना है। शिव ही जीव बना है। फिर वामन रूप में अपने पंचकृत्यों से कैसे दूर रह सकता है? चिति ही चित्त बन बुद्धि दर्पण में प्रकाशित होकर नाना प्रकार के जीवों (अंडज, जरायुज, श्वेदज, उद्बीज) में प्रविष्ट होकर सर्जन, स्थिति, संहार, निग्रह, अनुग्रह के पंचकृत्य कर रही है। संकुचित होने से शिव की शिवता चली नहीं जाती। नज़र बदल गई तो फिर मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष-पौधे, पंचमहाभूत, सब तरफ पंचमुख शिवलीला नजर आयेगी, उसकी क्रीड़ा दिखेगी। फिर किसे कहोगे बड़ा शिव और कौन छोटा शिव? कौन आगे और पीछे कौन? कौन जागा हुआ और कौन सोया? किसका विरोध कर पायेंगे? चिति स्वेच्छा से स्वतंत्रता से संकुचित हुई है। इसलिए विस्तारण की कुंजी भी उसके हाथ है, जो गुरू के माध्यम से हम तक पहुँच रही है। चाबी ताले में बराबर लग गई तो सर्वत्र शिव ही शिव। एक सत्ता, वैविध्य अनेक। जीवन उदासीन नहीं उत्सव बन जायेगा जब शिव के उल्लास और चिति के विलास का हम भोग करेंगे। मोक्ष चाहिए। शिवत्व का भोग ही मोक्ष है। प्रत्यभिज्ञा है। शिवोहम् शिवोहम्। 


पूनमचंद 

१४ नवम्बर २०२१

गुरू बिना ज्ञान नाही।

 गुरू बिना ज्ञान नाही। 


चिति स्वतंत्र है, स्वेच्छा से अपनी ही भिंती पर विश्व को सिद्ध करने हेतु अवरोहण करते ३६ तत्वों से बने विश्व रूप में प्रकट हो रही है। यह प्राकट्य चिति का संकोच है। चिति क्रिया शक्ति से नानात्व रूप लेकर, ग्राह्य-गाहक भेद कर, प्रमेय-प्रमाता की वैविध्यपूर्ण सृष्टि बनी है।समष्टि चिति ही चित्त बन व्यष्टि जीव बनकर संकुचित रूप में हम जीव के विश्व को प्रकाशित कर रही है। जीव का चित्त तीन मलों के आवरण के कारण अपनी शिव स्वरूप प्रत्यभिज्ञा से वंचित है। सबकुछ शिव ही है लेकिन जीवात्मा पूर्णोहम् की स्थिति से उतरकर अल्पोहम बनकर सूक्ष्म शरीर लिए स्थूल शरीरों में आवागमन करता रहता है, अथवा तो सप्तप्रमाता कि कोई एक भूमिका में ठहर जाता है। जब तक त्रिमल नहीं जाते, मुख्यतः आणव मल नहीं जाता, प्रत्यभिज्ञा अवरुद्ध रहती है। नानात्व स्वरूप में इच्छा, ज्ञान, क्रिया, निग्रह, अनुग्रह की शक्ति सब में रहेगी, लेकिन पूर्ण स्वातंत्र्य नहीं है। मुक्ति के लिए गुरू युक्ति की कमी है। 


पूनमचंद

१४ नवम्बर २०२१

चिति बनी चित्त।

 चिति बनी चित्त। 


चिति स्वतंत्र है, स्वेच्छा से अपनी ही भिंती पर विश्व को सिद्ध करने हेतु प्रकट हो रही है। प्रकट होने के लिए इच्छा और ज्ञान के साथ क्रिया शक्ति प्रमुख है। यह प्राकट्य, चिति का संकोच है। क्रिया शक्ति से नानात्व रूप लेकर, ग्राह्य-गाहक भेद कर, प्रमेय-प्रमाता की वैविध्यपूर्ण सृष्टि बनी है। तभी तो उल्लास है। क्रीड़ा है। 


चितिसंकोचात्मा चेतनोડपिसंकुचितविश्वमय:।।४।।


जैसे चिति संकोच कर समष्टि चेतन विश्व रूप में प्रकट हो रही है, इसी तरह चिति संकोच से बना व्यष्टि चेतन भी संकुचित रूप में विश्वमय है। व्यष्टि विश्व कितना? व्यष्टि संकोचन जितना। लेकिन ग्राहक या प्रमाता संकुचित रूप में भी विश्वमय है। अपने विश्व को प्रकाशित कर रहा है। चिद्रुप है इसलिए संभावना क्षेत्र बन गया, जीव और शिव के अभेद का।


चितिरेव चेतनपदादवरूढा चेत्यसंकोचिनी चित्तम्।।५।। 


चिति (समष्टि चेतना) असंकुचित चेतन पद है। वहाँ से अवरोह करती है। नाद और ज्ञान लिये उतरती है और संकुचन ग्रहण कर, चेत्य (गाह्य पदार्थ, इदम्) के अनुकूल संकुचित होकर  व्यष्टि चित्त बन जाती है। अर्थात् चिति ही चित्त है। क्रम संकोच से विषयों को ग्रहण करने भिन्न भिन्न स्थिति पर सदाशिव से सकल प्रमाता की दशा को प्राप्त है। प्रकाश और संकोच-विमर्श। जहां प्रकाश-चिति का आधिक्य वहाँ तत्व दशा, और जहां संकोच का आधिक्य वहाँ सृजन। कलाकार, चित्रकार की कृति का सृजन। नानात्व में भी चिति ही है। यहाँ नानात्व का महत्व घट नहीं जाता। वह विराट की ही विभूति है। ग्राह्य पदार्थ भी चेतन संकुचन है, चैत्य है इसलिए वह ग्राहक को लाभान्वित करेगा। कहीं भी स्वप्रकाशत्व का लोप नहीं होता, ना ग्राहक में, ना ग्राह्य में। शिव ही संकुचित रूप में जीव बना है। 


तन्मयो मायाप्रमाता।।६।। 


तत् यानी चित्त। चित्त मायाप्रमाता में तन्मय इसलिए अहम् शिव का बोध नहीं हो रहा है। पशुता की शून्यता पर बैठा है चित्त। मन, बुद्धि, अहंकार साधनों का दास बना है इसलिए अपनी सच्ची प्रत्यभिज्ञा नहीं हो रही। मलों का आवरण है। अखंड बोध खंडित हो गया है इस मल तन्मयता के कारण। प्रश्न की अगर पहचान हो जाए तो उत्तर तो मौजूद है, अखंडता का। चित्त अखंड ही हैं क्यूँकि चिति ही चित्त है। बस पहचान करनी है। 


स चैको द्विरूपस्रिमयश्वतुरात्मासप्तपंचकस्वभाव:।।७।। 


आत्मा एक है लेकिन द्विरूप, त्रिमय, चतुर्मय और सात पंचक स्वभाव वाला है। एक है परम शिव अद्वैत। प्रकाशरूप आत्मा। शिवशक्ति सामरस्य।


पूर्णोहम् कि स्थिति से चिदात्मा प्रकाशरूपता और संकोचावभासन से दो रूप वाला हुआ। अहम इदम, नानात्व ग्राहक-ग्राह्य द्विरूप बना। अहम् के पट पर ही प्रसरण-स्थिति-लय हो रहा है। 


तीन मल उस अखंड को आवृत किये है इसलिए त्रिमय है। अपूर्णता का अनुभव आणव मल है। भिन्नता का बोध मायीय मल है। शुद्ध अशुद्ध वासना कार्म मल है। आणव मल दूसरे दो मलों का मूल है। आणव मल हटाने गुरू की आवश्यकता रहेगी। गुरू की युक्ति होगी। भीतर बोध है, गुरू उसे प्रस्फुटित करता है। 


चतुर्मय आत्मा। शून्य, प्राण, पुर्यष्टक और स्थूल शरीर। एक देहरूपी स्थूल शरीर, दूसरा पुर्यष्टक (आठ का नगर, लिंग शरीर, पाँच तन्मात्रा एवं मन, बुद्धि और अहंकार), तीसरा प्राण और चौथा शून्य। शून्यता का आनंद, पूर्णता का आनंद नहीं। निरानंद -परानंद-ब्रह्मानंद-महानंद-चिदानंद-जगदानंद की अनुभूति उस शून्य में कहाँ? 


सात पंचक यानी ३५ तत्व बन जाने का उसका स्वभाव। शिव से सकल (शिव, मंत्रमहेश्वर, मंत्रेश्वर, मंत्र, विज्ञानाकल, प्रलयाकल और सकल) तक सात प्रमाता और कला, विद्या, राग, काल और नियति रूप पाँच कंचुकों के पाँच आवरणों को ग्रहण कर वह पाँच स्वरूप वाला जीव बन जाता है। 


इस प्रकार एक रूप शिव रूप ३५ तत्व (सप्त पंचक) रूप संसार हेतु हो जाता है। 


अखंड स्वरूप जीव का बोध लक्ष्य है। पंच शक्ति का अनुभव है। जिसमें प्रकाशरूपता चिद्शक्ति है, स्वातंत्र्य आनंद शक्ति है, तत् चमत्कार (भीतर से उठना) इच्छा शक्ति, आमर्शन ज्ञान शक्ति है और सर्वाकार योगीत्वम क्रिया शक्ति है। निखिल का बोध यहाँ, अभी हो सकता है। अभी नहीं तो, फिर कभी? स्व में ही सब प्रकाशित है। स्व कौन। पहचान करनी बै। अखंड की। चित्त से चिति की। शिवशक्ति सामरस्य की। प्रकाश-विमर्श की। तभी तो होगी प्रत्यभिज्ञा। अभी, इसी घड़ी। दृष्टि बदलनी होगी। पूर्णोहम्। 


पूनमचंद

१३ नवम्बर २०२१

चिति स्वतन्त्रा

चिति स्वतन्त्रा।  

चिति: स्वतन्त्रा विश्वसिद्धिहेतु:।।१।।

कश्मीर शैव दर्शन के ग्रंथ प्रत्यभिज्ञाह्रदयम् का यह प्रथम लेकिन अति महत्त्वपूर्ण सूत्र है। गागर में सागर की तरह बाद में आ रहे १९ सूत्रों की चाबी रूप प्रमुख सूत्र है। सूत्र में पाँच शब्दों का प्रयोग हुआ है: चिति, स्वतन्त्रा, विश्व, सिद्धि, हेतु। 

प्रत्यभिज्ञा का अर्थ है पहचान, हमारी अपनी पहचान। ह्रदयम् अर्थात् सारभूत, सारभूत पहचान। कम से कम शब्दों से, केवल २० सूत्रो में अपनी असंदिग्ध पहचान। 

हमारी पहचान के प्रथम सूत्र का प्रथम शब्द हैं चिति। एक वचन है। अद्वैत है।शिव शक्ति का सामरस्य। परम संविद। प्रकाश का अन्योन्योमुख विमर्श। हमारी और विश्व की आत्मा है चिति, जो ३६ तत्वों से बने विश्व का प्राकट्य है। 

चिति यानि चेतनता, क्रियाशील ऊर्जा। मुर्दा या जड़ नहीं। स्वतंत्र है। स्व का ही तनु। ना किसी के हुक्म पर चलना है, ना स्व के विस्तार और संकुचन के लिए किसी पर आधारित रहना है।अन्य कोई सत्ता पर निर्भर नहीं। हेतु क्या है? विश्व, स्व का विस्तार सिद्ध करने हेतु, यानि स्व को पूर्ण प्रकट करने या विलय हेतु स्वतंत्र है। चिति है। एक वचन। अद्वैत। 

स्वेच्छा है। एक है इसलिए कलाकृति की भिंती भी वही, पींछी भी वही, रंग भी वही, रंगरेज़ी भी वही। 

स्वेच्छया स्वभितौ विश्वमुनमीलयति।।२।।

स्व इच्छा से, स्व की भिंती पर, विश्व- स्व के विस्तार को उन्मीलन-प्रकट कर रही है। अव्यक्त को व्यक्त कर रही है। जो प्रकाश रूप में स्थित था उस विश्व का विमर्श कर रही है। यहाँ काल कहाँ। सब कुछ वर्तमान है। 

अब जब स्व का विस्तार होगा तो विविधता होगी, अन्यथा सब कुछ एक जैसा हो तो उल्लास कहाँ? आनंद-उल्लास होगा तो उसका भोग होगा।भेद नहीं तो भोग कहाँ। गाह्य होने से ग्राहक ज़रूरी होगा। प्रमेय होगा और प्रमाता। विविध पदार्थों के भोग के लिए ग्राहकों के स्वरूप भी अलग अलग होंगे। लेकिन यह सब में चिति एकवचन एक ही होगी। जैसे कितने भी प्रकार की मिठाई बनें लेकिन मिठाई का ह्रदय चीनी सबमें एक होगी। चिति विलास में चिति खुद ही मावा खुद ही चीनी । एक वचन। स्व का विस्तार, अपनी पूर्ण स्वतंत्रता से। 

तन्नाना अनुरूपग्राह्यग्राहक-भेदात।।३।।

सदाशिव, ईश्वर, शुद्ध विद्या, विज्ञानाकल, प्रलयाकल और सकल प्रमाता और उनके भोग हेतु प्रमेयों का प्राकट्य। यही है चिति का विलास। हमारा विलास, क्योंकि हम चिति ही है। संकुचन में है भोग हेतु; विस्तारित हो सकते हैं मोक्ष हेतु। इसलिए प्रत्यभिज्ञा करनी है। 

पूर्णोहम्। 

पूनमचंद 
१२ नवम्बर २०२१
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