Friday, May 13, 2022

जब जागे तभी सवेरा। भूयः स्यात् प्रतिमीलनम्।

 जब जागे तभी सवेरा। 

भूयः स्यात् प्रतिमीलनम्। 


चैतन्यात्मा हो ही पर पुर्यष्टक और स्थूल शरीर को लिए इस कार्यशाला में पाठ ग्रहण कर रहे हो, इसलिए यह तो पता चल ही गया कि कुछ बंध है। पूरा भान-ज्ञान नहीं हो रहा इससे यह भी पता चला कि ज्ञान संकोच है, अज्ञान का बंधन है। पंच शक्ति है तो यह पर बंधी बंधी है, इसलिए यह भी पता चला कि पंच कंचुकों का आवरण है। जब तक वह हटेगा नहीं, हमारा सच्चा स्वरूप प्रकट नहीं होगा। आवरण की वजह भी जान ली। तीन मल है, आणव-मायीय-कार्म। अपने को लघु समझना, अपने को दूसरे से अलग समझना और कुछ करके कुछ पाने की चेष्टा करना। 


बात तो सरल है। अगर चेतना पर ठहर गये तो और कहाँ जाना? पर अभी मुक्तात्मा नहीं है। कर्मात्मा है इसलिए कुछ करवाना तो पड़ेगा। कुछ समझाकर करवाना पड़ेगा। 


प्रमेय-प्रमाण-प्रमाता, ज्ञेय-ज्ञान-ज्ञाता, सृष्टि-स्थिति-लय, जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति, आणव-मायीय-कार्म मल, पंच कंचुक, उपाय-उपाय, ३६ तत्व, शुद्ध-अशुद्ध अध्वा, माया-महामाया, इत्यादि समझ लेना पड़ेगा। बुद्धि के दर्पण में पहले पकड़ना है। 


मध्य क्या है? तुरीया क्या है? तुरीयातीत क्या है? मध्य का कैसे विकास करना है? तुरीया करो तैलवत कैसे सिंचना है? आनंद के क्षणों को पकड़कर अंतर्मुख होकर कैसे अमृतसर से जुड़कर फिर बहिर्जगत को उस आनंद से भर देना है? इत्यादि।


कुछ पढ़ाई तो होगी। मोहांधकार से बाहर आना है।जिससे शुद्ध विद्या प्राप्त हो।विेद्या के बिना ज्ञान कैसे? अपने पात्र को तैयार करना होगा।बस विस्मित रहना है। कुछ बनने से बचना है। मन बुद्धि को बाजू रख, चेतना में ही ज्ञानाक्षर घूँटने है। 


कुछ ट्रॉफ़ी भी रखी है।😊

शिवतुल्यो जायते। 🏆


शिव की पाँच शक्ति इच्छा ज्ञान क्रिया निग्रह अनुग्रह जो अभी पंचकंचुक से सिकुड़ गई है, वह खुल जायेगी। ज्ञान में ठहर गये तो आपके शरीर क्रियायें व्रत, वाणी जप और आत्मज्ञान के दाता बन जाओगे।फिर आप अपनी इच्छा की सृष्टि स्थिति और लय कर सकते हो। आज भी कर रहे हो पर राग द्वेष के चक्कर में ठीक से होता नहीं, इसलिए बार-बार नया शरीर लेकर नया प्रयास करते हो। इस बार जी लगाकर कर लो। शिवतुल्य बन जाओगे। पहले जीवन मुक्त फिर विदेह मुक्त। 


चयन आपका। 


कर्मात्मा। 

मुक्तात्मा। 

चैतन्यमात्मा। 


पूर्णता से मिलन हो ही रहा है, प्रति मिलन करना है।पूर्णता में पूर्णरूप होकर अवस्थित होना है। बार-बार प्रति मिलन करना है। विस्तार से प्रचुरता से उसे स्थापित करना है। बस चित्त पिघल जाये। मिलन दूर नहीं। खुद का दर्शन कर खुद से ख़ुदा की पहचान कर लेनी है। विश्वोतीर्ण में निमिलन (transcendent). और विश्वमयता में उन्मिलन (amalgamation)। परम सामरस्य पाना है। समाधि में अंदर और संसार में बारह, एकरूपता। अंतर्मुख होकर स्व स्वरूप का और बहिर्मुख होकर विश्वरूप बनकर आत्मा चैतन्य का एक ही प्रकाश के विमर्श का अनुभव करना है। संपूर्ण जगत मेरा ही शरीर है वैसा आत्म दर्शन करना है। उन्नाव से परे उस निष्कल परम तत्व से जुड़ जाना है। तन्मय हो जाना है। 


फिर वह्नि (अग्नि) को निर्मलता की क्या फ़िक्र। निर्मल है। एक बार लकड़ी जल उठी वापस लकड़ी नहीं बननी है। भास्वर हो गया, भारत बन गया, आत्मा की पूर्णता की प्रत्यभिज्ञा कर ली फिर कैसा बंधन कैसा ज्ञान संकोच? कैसा मल और कैसे कंचुक? 


अब जो मल से अलग हुआ, सुनिर्मल हुआ, उसे मलिन होने का और मल के स्पर्श का भय कहाँ? सब स्पर्श आत्म स्पर्श हो गये। कभी दूसरे थे ही नहीं। कभी बंधन था ही नहीं। फिर दो या मुक्ति की बात कैसी? शिवत्व आपका स्वभाव है। बस माया शक्ति से आपने ही खुद उसके बंधन का स्वीकार किया है। अब इतने सारे शास्त्र, शिविर, गुरूजी और आचार्य जी कह रहे है तो मान भी जाओ यार। 


ओझल हुए दिख रहे थे पर कभी गये नहीं। अभी भी यह लेख पढ़ रहे हो। हो न? बस जाग जाओ, सवेरा हो गया है। जल्दी उठने की आदत नहीं इसलिए फिर नींद लग जाये, डरे नहीं। बार-बार प्रयास करे। प्रतिमिलन करते रहो। 


अमृत रस पीजिए और संसार चक्र छेदिए। विष है ही नहीं, काल्पनिक था। अमृत ही अमृत नज़र आयेगा। देह, प्राण, मन, बुद्धि के पार चैतन्य का चुनाव कर लो। मुक्तात्मा की जीत तय है। 


नित्य प्रकाश से भरा देदीप्यमान ज्ञान, अपने स्वरूप का रहस्य जो आपके भीतर ही है उसे देखना है। ज्ञान चक्षु चाहिए। युक्ति चाहिए। गुरू कृपा ही वह ज्ञाता, वह युक्ति है जिस के आने से भिन्नता का बोध शांत हो जायेगा। 


बुद्धि वाले जानने से नहीं परंतु वह बुद्धि जिसके प्रकाश से जानती है उस शिव स्वरूप में स्थापित हो जाओ। स्थापित क्या करना? आप हो ही। 


बस मान जाओ। 


मान जाइए, मान जाइए, बात कही गुरूओं ने जान जाइए। 


पूनमचंद 

१२ मई २०२२

पूर्ण का मध्य कहाँ?

 पूर्ण का मध्य कहाँ?


साँस लेते है अपान, छोड़ते है प्राण, दोनों जहां से उठते है वह मध्य। जैसे समुद्र की लहर के देख रहे है, उठी और लय हुई। लेकिन अक्सर ऐसा होता है के हमारा ध्यान उस मध्य में स्थिर हो जाता है। मध्य को देखने के चक्कर में समुद्र पर से नज़र हट जाती है। जो हो रहा है वह सब द्वैत है और जहां हो रहा है वह अद्वैत। वह मध्य नहीं अपितु पूर्ण है, अखंड है। उसके कैनवास पर हो रहे चित्र खंड है। 


अगर समुद्र में बैठक लगा दी फिर क्या प्राण अपान समान उदान और व्यान या क्या इड़ा पिंगला या सुषुम्ना? क्या सोम सूर्य और अग्नि (वह्नि)? कौनसा प्रमेय-प्रमाण-प्रमाता? कौन ज्ञाता कौन ज्ञेय? क्या भूत वर्तमान और भविष्य? कालातीत अखंड चिद्घन पूर्णता में सब द्वैत समाप्त। 


मुक्तात्मा तो हृदयस्थ है। जीवनी शक्ति में अवस्थित है। कौन अवस्थित नहीं? आप का होना ही तो प्रमाण है। फिर मानते क्यूँ नहीं? 


हृदय नहीं होता, चैतन्य नहीं होता, प्रकाश नहीं होता को यह सत्संग कौन सुन रहा है? कौन मनन कर रहा है? कौन जानना नहीं जानना को अनुभव कर रहा है? 


खुद ने चुना है पूर्णता से संकोच का। शिवरूप से जीव रूप का। अब शिवरूप में किया संकल्प जीवरूपी संकोचन से कैसे टूटेगा? इसलिए गुरू चाहिए। ऐसा एक जिसने यह संकोच की दिवारों को गिराया है। वह आपको पूर्णता का रसास्वादन करा देगा। 


फिर जैसी आपकी तड़प। अगर वह रसास्वादन अखंड रखना है तो आप उस समुद्र के आसन में स्थिर रहोगे। शरीर इन्द्रियाँ घूमती रहे पर आप नहीं उठोगे उस पूर्णासन से। 


आपको आनंद की ललक लगी ही है। संकोचन से जीव बने हो पर अखंड जीवनी शक्ति की पूर्णता से जुड़े हो, इसलिए वह अखंडानंद की तड़प है जो पंच भौतिक विषयों में खोजते हो। हर बार भोग करते हो पर प्यास नहीं बुझती। फिर नई इच्छा, नया प्रयास पर हर बार विफल। ऐसा करते करते शरीर थक जाये तो फिर दूसरा शरीर। पुर्यष्टक की पकड़ छूटती नहीं अहंकार छूटता नहीं। 


दरिया अंदर है पर बाहर की दौड़ ख़त्म नहीं होती। पानी में मीन प्यासी। 


अगर उस जीवनी शक्ति को समझ लिया, एक क्षण लगेगी। आसन जमा लिया फिर आपका शरीर और उसकी क्रियायें व्रत बन जायेगी। 


और सब छोड़ो, पूर्ण पर अड्डा बनाये। विद्या पकड़ो अविद्या की क्या ज़रूरत? 


प्रकाश में हो ही, अंधकार हटाने कहाँ जाओगे? 


बस एक ही समस्या है। मानते ही नहीं और गा रहे हैं दिल है कि मानता नहीं। 


मान जाओ। 😁


पूनमचंद 

११ मई २०२२

Blissful journey of awareness

 Blissful journey of awareness 


तस्य प्रत्ययोद्भवस्य लयोद्भवौ।

(the emergence or dissolution of his/her world of sensory experience)


Some of us have done Amarnath Yatra. The journey is full of joy and bliss from the bigining till the end from preparation stage to the journey and finally the Darshana. In fact the last point when we reach to the darshana point, the joy may diminish because of the push by the guard who is making a way for others to have darshana. But while walking through the valley, we enjoy the water flows, the river, the mountains, the greenery, the winds, the clouds, the nature. Our hearts get full with happiness, peace and joy. The journey, the process of reaching to the destined goal itself is giving the fruits of the goal. Therefore the process is equally important which trying for the goal. One has to drill continuously till the water is found. To purify the heart till all the waste materials is removed and the true self is revealed. 


Science has proved that the world is made of atoms of energy. Each atom has a centre around which electrons are moving. The centre is also not solid but it has particles and quarks. Finally nothing but an unseen energy remains. Modern science agrees that energy is the cause of the universe. Energy manifests as matter through quantum mechanics and as vibration in string theory. The spirituality digs further into and reaches to the Shiva, whose expansion (unmesh) and contraction (nimesh) causes the universe to dissolve and arise. 


We as live consciousness when search for the root of our existence, we find the spand-vibration, the power that vibrates, expands and contracts, the emergence and dissolution of our world of sensory experience. Once we experience spanda, the whole universe, all individuals dissolve in it. We are it. It’s a state of that transcends thinking, a blissful state. It’s a goal of life for each individual. One has to make efforts individually to achieve that state. 


The spanda-vibration is called Vimarsha or Shakti of Prakash-Shiva. Prakash-Vimarsh, Shiva-Shakti are one and the same like fire and heat. ‘I am’ is the sole material of each existence. It’s expansion and contraction generates or dissolves the universe. 


It’s a play therefore the identity of ‘I’ is concealed to make the play real. Therefore there is duality in which each individual perceives him separate in relation to the universe. It is called Maya, the experience of division-duality. 


The key is the spanda, the vibration, the awareness. When it contacts the universe before us appears as separate. When it expands the universe made up of  separate sentient and insentient objects dissolves and Shiva is experience. The state of awareness in waking, dream and deep sleep may appear different from one another but the spanda, the experiencer remains the same. It is the thread on which all experiences of sorrow, happiness, etc, are strung. It’s a string of a necklace in which the string and the bids are made of one material. One has to align with the thread (turiya) and reveal the Self.


Spanda is the highest point of view which has the freedom, power of will (इच्छा शक्ति), power of knowledge (ज्ञान शक्ति) and power of action (क्रिया शक्ति) 

through which the Spanda acts. It uses the inner and outer instruments (mind, intellect, ego, five sense organs, five action organs) to become live. With the contraction and expansion, the power of will, knowledge and action of the individual self contracts or expands. 


In contraction there is duality and in expansion there is unity. Select the expansion. Bliss is yours. You are the bliss, the Spand, the Shiva. 


Punamchand 

13 May 2022

Tuesday, May 10, 2022

चैतन्यमात्मा।

 चैतन्यमात्मा। 


स्थूल सूक्ष्म पर का पुतला, चैतन्य स्पन्द उदधि गाजे। 

अहं आसक्त ज्ञान छुरीत, बंध संकोच चित्त परिधि बाजे।  


चित्तम् मंत्र अनाहत साधे, स्रोत शाक्त निधि लाधे। 

निर्मल बुद्धि दर्पण भासा, दृश्य सब रूप मेरा वासा।  


एक भारी बाधा आये, रोके हरदम पूर्णोहम विमर्श। 

चित्त कठोर भेद बन बैठा, कैसे करें द्रवित उस उपाय। 


स्वस्थ सामरस्य की सीडी, गुरू प्रकाश मंत्र वीर्य। 

सातत्य गमने अखंड अनुभव, जीव मीट बनेगा शिव। 


पूनमचंद 

११ अप्रेल २०२२

बस देखो।

 बस देखो। 


ह्रद सरोवर आज ज्यूँ गोता लागा,

दृष्टा अगोचर स्वर्ण स्तंभ लाधा; 


देखत देखत हुआ व्याप्त, 

शरीर दिवारें ढही जिस क्षण।।


अंदर बाहर ओझल हुआ,

मध्य विकासे विचार गये। 


चैतन्य संविद एक हो रहा,

सर्वसमावेश शिव सर्वेश।।


पूनमचंद 

१२ अप्रैल २०२२

भोर भयो।

 भोर भयों। 

सुप्रभातम। 


अभी भोर होने को देर है पर पक्षियों की चहचहाहट से वातावरण जीवंत है। बीच बीच में कुत्तो के भोंकने की आवाज़ जैसे वायब्रन्सी पैदा कर रही है। मयूर अपनी ध्वनि से सुप्रभात को गीत बना देता है। रास्ते पर गुजरती गाड़ियों की आवाज़ मधुरता के वातावरण को जैसे विक्षिप्त कर रही है।


क्या फ़र्क़ हे मुझ में और मुर्दे में। चेतना का। मेरी ही चेतना का विस्तार है जिसमें उठ रही ध्वनि तरंगें मेरी कर्णेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय के सहारे जो की चैतन्य प्रकाश से प्रकाशित है, मुझे ख़बर कर रही है। मैं मेरे ही संस्कार से, मान्यता से उसका उपभोग कर रहा हूँ और आनंद ले रहा हूँ। मैं जैसे मुझे ही भोग रहा हूँ। बग़ल के बगीचे में टिमटिमाती बत्तीयों की रोशनी मेरी चक्षु इन्द्रिय का विस्तार ही तो है। यह मंद मंद पवन मुझे छू कर मेरा अभिवादन कर रहा है। मैं ही तो हूँ। कहाँ है शरीर भाव? चेतना के विस्तार के अलावा और कुछ नहीं। चैतन्य का दरिया है जिसमें जहां चाहो गोते लगा लो। तरंग भी मैं और दरिया भी मैं। 


पूनमचंद 

१३ अप्रैल २०२२

छोटी i से बड़ी I

 यात्रा छोटी कदम बड़ा। 

i से I तक। 


सामान सब भरा पड़ा है, बस राजयोग से काम लेना है। 


छोटी ‘मैं’ से बड़ी ‘मैं’ मे दाख़िला लेना है। 


चिति चित्त बनी, अब चित्त से चिति। 


प्राण के ‘मध्य का विकास’ करना है। 


सब दुखों का बीज मन, भक्ति रस में डुबोकर उसी से नि:शेष मोक्ष पद पाना है। 


क्रिया भक्ति और ज्ञान का संगम। 


पूनमचंद 

१३ अप्रैल २०२२

स्थूल से सूक्ष्म की ओर।

 आज का बीज। 

स्थूल से सूक्ष्म की ओर। 


विद्या शरीरम्। 

विद्या शरीर किसका? 

चेतन का। 

चेतन कौन?

हमारा मन? नहीं। 

जो पहचान कराता है सत्ता की, अस्तित्व की। 

वह गुरू, प्रकाश, बोध। 

जो शरीर भाव से उपर उठाकर ज्ञानरूप, बोधरूप, वास्तविक पद, चेतन पद में स्थित कराता है। स्वस्थ करता है। 

गुरू उपाय है; पूर्णोहम विमर्श बोध पाने का। 


शरीरे संहारे कलानाम्।।३.३।।


पाँच कला है। निवृत्ति, प्रतिष्ठा, विद्या (शुद्ध विद्यानहीं अपितु पंच कंचुक, माया), शांता, शांतातीत। कला संहार मतलब पाँच विभाजन ख़त्म कर, समाहित करना है। एक में दूसरे का हवन करते करते अपनी व्याप्ति करते जाना है।


नाड़ीसंहार भूतजय-भूतकैवल्य-भूतपृथकत्वानि।।३.४।।


नाड़ी संहार से प्राण अपान की गति समान होती है और प्राण उदान (उर्ध्व) हो कर व्यान यानि व्याप्त हो जाता है। इससे सिद्धि प्राप्त होती है। भूतजय से पंच तत्व पर विजय प्राप्त होती है। लेकिन पंच तत्व की भूमिका ३६ तत्वों में नीचे है इसलिए नीचे नहीं जाना है बल्कि उर्ध्व गति का ध्यान रखना है। तीन से दो, दो से एक.. अनेक से एक की ओर। समता से सबको समाहित कर स्थूल, सूक्ष्म, पर प्राण से उपर गति कर स्पन्द लब्धि करना है। 


मोहवरणात् सिद्ध:।।३.५।।


सिद्धि के मोह में नहीं फँसना है। मोह के आवरण से ही तो बुरा अच्छा लगता है। भीतर देखो और परखो। पता है के मोहावरण के बदले नहीं पता है वह जिज्ञासा अच्छी है। 


स्थिर बने रहे। स्थूल शरीर की स्थिरता से सूक्ष्म शरीर - प्राण स्थिर होते है; प्राण स्थिर होते ही सम होता है और सुषुम्ना में प्रविष्ट होता है; जिससे मन सम हो जाता है। मन सम होने से पर, समनान्त हो जाता है। यह युक्ति से प्राणायाम अभ्यास करना है। मध्य में प्राण स्थिर कर, प्राण अपान को सम करना है, नित्य ध्यान उर्ध्व प्राण या ज्ञान पर रख, सूक्ष्म से पर और पर से सूक्ष्मातीत स्पन्द को पाना है। स्पन्दम् लब्धे। प्रमाता एक बार शक्ति स्पन्द से स्थापित हुआ फिर उसे वापस गिरना नहीं है। शरीर गिरेगा तब भी गति उर्ध्व रहेगी; सकल से अकल की ओर। 


गुरू प्रकाश से बोधित हो, प्राणायाम से मध्य का विकास कर सुषुम्ना में प्रवेश करे, और उर्ध्व अनुसंधान से स्पन्दम् लब्धे। 


घोर से अघोर।तमसो मा ज्योतिर्गमय। 


पूनमचंद 

१४ अप्रैल २०२२

शिव सूत्र रत्न कणिकाएं।

 शिव सूत्र रत्न कणिकाएं। 


१) विचारों के प्रदूषण से मुक्त हो तब शक्ति का अनुभव। 


२) tension में न रहो, attention में रहो। 


३) देख देख तुं इतना देख, मीट जायें दुविधा हो जायें एक। 


४) घुम रही माया ठगने, ठग लेगी तेरी गठरियाँ। 


५) शरीर भाव के पिंजरे से बाहर आ। 


६) शहेनशाह साथ जन्मा, फिर हम का जंतु जीवन क्यूँ जीता? 


७) परम प्रत्यक्ष, इसी क्षण, फिर साक्षात्कार से क्यूँ दूर?


८) प्राण का मूल्य समझें। गणपति है वह शिव संतान। संविद (पूर्ण चैतन्य) का पहला अवतरण। 

चेतना को जोड़ता सेतु। अखंड प्राण- प्राणन, जगत की जीवनी शक्ति। हमारी श्वास प्रश्वास का मूल प्राण है वह एक अखंड प्राण ही है। हमारे विभाजित स्थूल प्राण के प्रति जागरूक होकर उस सामान्य प्राण (अखंड) से सेतु जोड़ना है। 


९) संविद को पकड़ने प्राण को पकड़े। 


१०) प्राण पकड़ने स्थिर आसन (पाषाणवत) सिद्ध करो। शरीर स्थिर से मन स्थिर, प्राण से जुड़े, सूक्ष्म शरीर संरेखित होते ही सुषुम्ना प्रवेश और भीतर दर्शन। अखंड से एकता। 


११) प्राण की तीन गति: स्थूल (श्वास प्रश्वास), सूक्ष्म (सुषुम्ना प्रवेश) और स्पन्द (कण कण स्पन्दित)। प्राणाभ्यास से स्पन्द पर पहुँचना है। 


१२) सूक्ष्मतम प्राणायाम में स्थित होते ही मोह जय होता है। 


१३) आप आत्मरूप हो यह आत्मविश्वास अर्जित करो। 


१४) गुरू वह आत्म विश्वास लाने में मदद करेगा। शेर का बच्चा शेर बनेगा। उसका विश्वास जीतो। 


१५) पवित्र बने रहे। मन बुद्धि के आवरण से स्वरूप को न ढँके। बिना लेबल किए thoughtless seeing या thoughtless listening का अभ्यास करें। एक मिनट भी सफल रहे तो समाधि अनुभव। दृष्टा और दृश्य ग़ायब होगा बस दर्शन रहेगा। 


१६) सुनते रहिए और सीखते रहे, मोती मिलेगा। 


१७) दिल खुला रखें और बिना लेबल सबका स्वीकार करें। 


१८) स्थूल सूक्ष्म और पर (समना) पर्यंत जो अज्ञानरूप आख्याती है, जो पाश है, तीन मलों का पशुता बंधन है, उस अधूरे ज्ञान से बाहर निकल। चेतन हो, पशुपति बन। स्वयं को सही पहचान। 


१९) बुरा लग रहा है तो अहंकार है। पहचान और पीछा छुड़ा। 


२०) माया के दो लंगर: आवरण और विक्षेप। 


२१) आवरण यानि ढँक दिया है। सुषुप्ति का आवरण। जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति, तुरीया के घोर रूप, जमी हुई consciousness। गुरू कृपा की गर्मी से चित्त पिघलाकर चिदरस की अनुभूति कर। 


२१) जाग्रत स्वप्न और सुषुप्ति जो कि अखंड रही तुरीय का ही विस्तार है उस  तीनों में रही तूरीय में अवस्थित हो और ऊर्जावान बन। 


३९) अपना (चेतना) विस्तार बढ़ाये और मोह आख्याती हटाये। 


३०) जो नहीं है उसका आरोपण विक्षेप है। हम नहीं है वह नाम रूप से पहचान विक्षेप है। अनात्मनि आत्म बोध, आत्मनि अनात्म बोध। 


३१) देश (space) शक्ति और काल (time) शक्ति से सब द्वैत है। उसी से मूर्ति वैचित्र्य और क्रिया वैचित्र्य है। नाम रूप से देश विभाजन और क्रिया भेद से काल गति। चेतन सर्वत्र एक अनुभव से देश और काल दोनों अदृश्य। 


३२) कमरे तोड़ और असीम का अनुभव कर। 


पूनमचंद 

१५ अप्रैल २०२२

Lit the Lamp

 बत्ती जलाओ मस्त रहो। 


अविद्या से परा विद्या तक। 


आसन सिद्धि से जब प्राण सम होकर सुषुम्ना में प्रवेश करता है, मन शांत होता है, तब बोध समझ में आता है। पाश है इसलिए पशु है। पशु से पशुपति रूप में व्याप्ति के लिए साधना है। अविद्या का ढक्कन हटाने विद्या प्राप्त करनी है। गुरू विद्या। परा विद्या। सहज विद्या।


अभी पशु व्याप्ति है जिसका कारण पाशावलोकन है। बस उसे त्याग देना है और स्वरूपावलोकन करना है।आँख खोलकर देखता हूँ तो मेरे सामने का जगत मेरा ही तो प्रतिबिंब है। जो देख रहा हूँ उस के नाम रूप की भाषा-व्याख्या मेरी ही, मेरे भीतर ही तो है। मैं मुझे ही देख रहा हूँ। मेरा ही दर्पण। जगत मेरी ही चेतना का विस्तार है। मैंने शरीर भाव से मेरी सीमा बाँध ली, छोटी कर दी, इसलिए वह सब कुछ मेरे ही भीतर होते हुए भी मुझसे अलग द्वैत नज़र आ रहे है। जब कि है अद्वैत। 


पृथ्वी से समना पर्यंत का यह पाश-जाल को आत्मरूप मानकर अपनी चेतना के विस्तार में, अपने स्वरूप में समा लो।आत्म व्याप्ति करो। सब मुझ में है ऐसा स्वरूप अवलोकन होगा तब पाशावलोकन ग़ायब हो जायेगा और आत्म व्याप्ति होगी।


अज्ञान गया पर अज्ञान संस्कार नहीं। शिव व्याप्ति बाकी है। आत्म व्याप्ति से उन्मना स्थिति प्राप्त होगी। उन्मना (उपर उठा) की व्याप्ति से सहज विद्या प्राप्त होगी। जिससे शिव व्याप्ति घटेगी, जो परा विद्या है। 


तब न अच्छा रहेगा, न बूरा। न पवित्र होगा न अपवित्र। न मैं रहूँगा न भगवान। सब अद्वैत। वेदन होगा, बोधन होगा और वर्जन होगा। साक्षात्कार होगा (वेदन), उस बोध रूप में अवस्थित होगा (बोधन) और जो नहीं था ढक जायेगा, जो है वह प्रकाशित हो जाएगा (वर्जन)। 


माया का विक्षेप और आवरण का निग्रह अब न रहा। अनुग्रह से प्रमाता अग्रसर हुआ। शुद्ध विद्या से ईश्वर और ईश्वर से सदाशिव सफ़र पार हुई। इदम अहम से अहम इदम। 


स्थिति मिले उसे टिकाये रखना है। इसके लिए पात्र ठीक करना-रखना है। पात्र बनना है। विनम्रता और समर्पण से गुरू प्रकाश की ऊर्जा में स्नान करना है, चित्त द्रवित करना है, और चिद्-रस बनना है। 


गुरू की सिखावनियों को शास्त्र से जोड़े और अमल करें। 


ओमकार तंत्र साधना के द्वादश पद की व्याख्या करनी अभी बाक़ी है। अ, उ, म, बिंदु, अर्ध चंद्र, निरोधिका; नाद के द्वादश पद में विभाजन से सूक्ष्मतम पार कर अनाहत नाद पहुँचना है। श्री प्राणनाथ जी का इंतज़ार रखें। 


परा विद्या सहजावस्था प्राप्त करें। 


सर्वोच्च देखे। आत्मरूप में सब समायें। 


मस्त रहो। 


पूनमचंद 

१६ अप्रैल २०२२

Shivanand

 शिवानंद। 


ये पृथ्वी सूरज चाँद सितारे, साक्षात वांग्मय शिव नर्तन।नाचे गायें झूमे संग, शिव को कर जोड़ी नमन। 


चिति बनी है चित्त, जुड़ जा अपने स्रोत के संग; शुद्धि क्रिडा में प्रवृत हो, कर लें नर्तन पा आनंद। मेघ गर्जन संग मोर नाचे, शिवानंद पंखों पर थिरके; भावाभिनय पहचान, मयूर नहीं शिव स्पन्द निहार।


यह सृष्टि शिवशक्ति का नर्तन, लास्य और उद्धार तांडव। जीवनरस आनंदगामी, भरित रहे नित्य नवीन उन्मेष।उन्मेष निमेष अविरत चलता, अणु परमाणु शिवरस भरता; सब है शिवत्व सब कुछ उसका नर्तन।ब्रह्मा विष्णु महेश उसके छींटे, ऐश्वर्य उसका अनमोल। वही आत्मा स्वरूप तुम्हारा, है मानव क्यूँ गँवाये नूर?


आनंदवाद शिवसूत्र है, नहीं दुख घोर निराशा; शिवानंद भरपूर पी लें अमृत बेला सही अवसर। 


सब मानुष आनंद पिपासा, कोई संकुचित कोई लोकानंदा। इधर उधर भटके सब, कुंजी हाथ लगे न कोई। 


कौन नहीं जानता मैं हूँ, आत्मा है प्रकट प्रमाण; मन में है पर प्रकट नहीं, आनंद उदधि अदृश्य।  मोहावरण सिद्धि लावे, डॉक्टर इंजिनियर धंधा लावे; छोटी सिद्धि झंझट बहु, भीतर के शिवानंद से दूर। 


योगी तंत्र कुंडलिनी आवरण हटावे, मूलाधार से चक्र जगावे। सुषुम्ना पथ पर चढे शिवसदन संधान करे। 

हर चक्र कमल पंखुड़ी लाधे; रूक गया वह बीच भटके।सावध साधक रहे चकोर, शिवभवन जाकर अटके। शिवभवन प्रकाश भरपूर, कुंडलिनी तेज लिए घर लौट। योगी स्थिति बड़ी अद्भुत शिवभवन करे निवास। 


परम शिव भीतर बैठा, गुरू उपाय से आवरण हटा; सहज विद्या जय कर, अनंत अनुभव इसी क्षण कर। 

आनंद का कर पसार, सारा विश्व अपना कर। अहंता का कर विस्तार, इदंता अपने में भर। अगस्त्य उपाय सूर्य मंत्र साधे, राम ने सेतु बांधा। गुरू मंत्र अग्नि सेतु कर, नित्य निरंतर कर शिव संधान। 


यह विश्व शिव थियेटर, बिना मल हटाये कैसे चल? क्रिया ज्ञान भक्ति सामंजस्य कर, शिवत्व का अनुभव कर। भैरवनाथ को जो भी मिलता, सुसंस्कृत होकर चलता। इन्द्रिय वीणा के तार तनता, भीतर सुदर्शन करता।अपने साधन पवित्र कर, शिवता का आरोहण करता।बाह्य अग्नि से प्रेरित हो, भीतर अग्नि को प्रज्वलित करता। चिदैक्य से मग्न हुआ तब कोटि सूरज चाँद अनुभव करता। 


तुम्हीं हो भैरव आनंद सागर, तुम्हारा सौंदर्य अति दुर्लभ। आत्मा को आत्म स्वरूप पहचान, मोहावरण से मुक्त हो जय। 


ये पृथ्वी सूरज चंद्र नक्षत्र तारे, साक्षात वांग्मय शिव नर्तन।नाचे गायें झूमे आज, शिव को कर जोड़ी नमन।


पूनमचंद 

१७ अप्रैल २०२२

The Self, tale from Upanishads

 The Self, a tale from the Upanishads 


There were Ten students studying in a Gurukul. They went to a neighbouring village crossing a river. On their return, while crossing the river there was a flash flood and they were inundated by torrent of water. They managed to reach to the shore but the team leader wanted to make sure that all ten have returned. He made a quick count and found only none were present. To avoid mistake, he lined them up again and counted each one of them by touching their bodies. Still the count was nine. One of the students offered rechecking. He changed the side and place the group leader to his place and counted. But the count was nine. The count of nine was confirmed and all went into grief, sat on the river bank and started crying for the lost kin in the floods. 


At that time, a wise man passed that way. He stopped and ask the reason of their crying. The student narrated the story. The wise man counted their number and understood the problem. He told them that no one was missing. It was just a delusion or ignorance. He told the leader to count them once again. The leader counted them and found them nine again. The wise man interrupted and asked the leader whether he has counted himself also. They immediately realised the mistake and realised that the missing tenth person was the leader himself who was doing counting. They rejoiced in the knowledge and thanked the teacher ans returned to the Gurukul happily. 


The Self was not missing. He was counting others and searching for the missing 10th, but not counting himself. The Self was never missed. 


Meditate on the Self. The answer is within you, ‘the self’. 


Punamchand 

7 April 2022

सहजावस्था।

 सहजावस्था स्वातंत्र्य सिद्धि। 


तु माने चाहे ना माने, है पूरण भरपूर। सिद्ध स्वतंत्र संपूर्ण, चिदरस आनंदघन। 


पूर्ण से पूर्ण लिये, घटे न लगार। 

छलक रहा उदधि, शिव बना संसार। 


बिंदु माने या सिंधु, बुद्धि का है खेल। कण कण तुम्हीं छलके, जग तुम प्रकाश। 


न देख दोष किसी का, अपनी भींति अपना दर्शन। अखंड भाव शुद्धि धर, द्वैत अशुद्धि को त्यज। 


शरीरभाव से पीछा छुड़ा, भीतर भरा मल हटा। बोध ज्ञान तुं स्वयं, अखंड का कर अभ्यास। 


देख ज़रूर मगर, सोच बदल कर देख। लघु और दोष दृष्टि से, बाहर तुं निकल। 


जाग्रति का बीज लगा, पकड़ रख उसकी डोर। परम स्थिति पूर्ण है, बस तुं पूर्ण भान रख। 


सिद्धि स्वतंत्र भाव चिंतन कर, सत स्वरूप पहचान। विधा ज्ञान रूप खुद जान, सहज विद्या जय कर। 


मैं शरीर मन बुद्धि प्राण, पर हूँ चैतन्य घन स्थिर। पराविद्या सर्वोत्कर्ष, ऋतंभरा प्रज्ञा धारण कर। 


आत्मरूप स्थिति धर, हृद सरोवर सुख डूबकी भर। भरी शिवरस पिचकारी, इन्द्रियों से रसास्वादन कर। 


अपनी प्रतिभा पहचान, स्वरूप अपना खुद जान। शहेनशाहो का शहेनशाह, हर कंकर तुं शंकर। 


पूरे जगत का मालिक तुं, पूर्ण दृष्टि तुरीय रूक। तुं ही बिंदु, तुं ही सिंधु, तुं ही दृश्य तुं दर्शन। 


मैं प्रमाता - जगत प्रमेय, है सब यह नाटक खेल। कण कण में तुं प्रकाश, तुं ही पृथ्वी तुं ही शिव। 


जाग्रत जागृति बने, पूर्ण प्रकाश रूप जग हुए। कण कण देखे आनंद प्रस्फोट, तब लाधे शिव संगीत। 


तुं ही शिव, तुं ही जगत, तुं ही जग प्रकाशक। तुं ही रंगमंच, यह सब जग बना तेरा नर्तन। 


तु माने चाहे न माने, है पूरण भरपूर।  सिद्ध स्वतंत्र संपूर्ण, चिदरस आनंदघन। 


पूनमचंद 

१९ अप्रैल २०२२

नर्तक आत्मा।

 नर्तक आत्मा। 


कश्मीर शैवीजम में स्वात्मा का पूर्ण विमर्श ही उसका मोक्ष है। भीतर जो अस्फुट है उसे पूर्ण रूप से अभिव्यक्त करना है। स्पन्द सूत्र अभिव्यक्ति के सूत्र है। तरू से लेकर शिव तक उसी स्पन्द की अभिव्यक्ति है। पुर्यष्टक भी स्पन्द और मैं भी स्पन्द। अनंत तारे नक्षत्र उसी शिव स्पन्द का उच्छलन, अभिव्यंजना  और आनंद अभिव्यक्ति है। अनंत स्पन्दो का मूल एक ही स्पन्द, वह परम शिव है। 


यह जगत शिव नाटक है, जिसका सूत्रधार शिव बीजारोपण कर खुद भी भूमिका लेता है। वही नाटक का बीज और उपसंहार भी। इस नाटक में आस्वाद है। भोग है जो भोक्ता को तृप्ति का अनुभव देता है। उत्तेजना नहीं शांति का आनंद देता है। यह नाटक रसमय है। यहाँ उन्मिलन समाधि में ध्यानस्थ शकुंतला को दूर्वासा के श्राप का पता नहीं और कौंच पक्षीके वध से जन्मा वाल्मीकि का दुख भाव करूणा में परिणत हो रामायण बन जाता है।यहाँ नर्तक नृत्य करता हुआ अपने स्वस्थ रूप में अवस्थित रह अभिव्यक्त हो रहा है। अनिर्वचनीय नहीं पर विलक्षण है। गोचर अगोचर एक ही खेल है। 


नाट्यशास्त्र है इसलिए थियेटर की मौलिकता है। जगत नाट्य का आधार, स्क्रीन और कैनवास स्वयं शिव है। त्रिशूल उसकी कलम है जिससे जगत तस्वीर बनी। पूरा विश्व नाटक और नर्तक आत्मा। प्रथम परिस्पनद प्रतिभा का उन्मेष, दूसरा स्पन्द अंदर से बाहर प्रकट होना और तीसरा स्पन्द उसकी ख़ूबसूरती अलंकार अभिनय, रसमय उन्मिलन। अर्थानुप्रवेश, भावानुप्रवेश और आत्मानुप्रवेश। कहानी बीज रूप से है उसे थियेटराइज कर त्रिलोकी के नाटक का अंत भी शिव करता है। जगतरूपी इस नाटक के प्रदर्शन के लिए, रंजन मनोरंजन के लिए जो रंगमंच चाहिए वह रंगभूमि अंतरात्मा बन जाता है। अलग अलग भूमिका उसका संकोचन है। वह अपनी शक्ति को असुर संहार के लिए आगे कर जब देवों की बारी आती है तो बीच बालक बन शक्ति के क्रोध को शांत कर देता है। 


आचार्य सत्यकाम को अग्नि, बछड़ा, हंस और मद्रु ब्रह्म के एक एक पाद का ज्ञान देते हैं और आख़िर में गुरू गौतम उसका सूत्रण कर प्राण भर देते है। इस प्राण विद्या से सूखे पेड़ पर डालियाँ और कोंपलें लग सकती है तो फिर जो जीवित है उसे ब्रह्मज्ञान होने में कैसा शक। 


शैव शास्त्र जैसे एक चरखे से रूई का धागा बन सूई की नोक में प्रविष्ट कर जाती है, वैसे ही योगी सारे वायुओ को अभिसूत्रित कर सुषुम्ना में प्रविष्ट कर प्राणोच्चार से प्राणकुंडलिनी के माध्यम से उस परम नर्तक आत्मा तक पहुँच जाता है, उसे जान लेता है जो इस जगतरूपी नाटक का संचालक है।उसकी कृपा से सहजता और सर्व समावेश से जीता हुए वह जन्म मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाता है। जो नहीं जानते वह इस भवसमुद्र में गोते खाते सदा के लिए डूबे रहते है। संकुचित प्रमाता से स्वतंत्र प्रमाता तक सब शिव ही है, जो नानात्व योनियों की भूमिका में रत है। अंतरात्मा सब की एक, रंगमंच भी एक। दिख रहे द्वैत में सब अद्वैत शिव ही है। चक्रेश्वर महादंत नील लोहित जो अरूप था, अगोचर था उसे ऋषियों ने बिंदु बिंदु रेखा बना पकड़ ही लिया। They are architects of possibilities, engineers of the impossible and mathematician of the infinitudes. 


भाव ग्रंथी यहाँ रस बन जाती है।भक्ति से उसका तादात्म्य होता है। बाणभट्ट के पुत्रों का अनुवाद हो या रावण शिव स्तुति, भाव प्रमुख है। इसलिए भाव पर ध्यान दो और अपना पूर्ण उन्मिलन पूर्ण करो, जैसे मयूर का नाच। एक नर्तक भी जब अपने लिए नाचता है तब उसका पूर्ण उन्मिलन होता है। पूर्ण लगा देना है उस नर्तक तक पहुँचने के लिए। 


रसमय मेरी बनारस नगरी, शिव का निवास;

काशी का यह रंगमंच, नर्तक बना आत्मा। 


पंचभूत का यह नेपथ्य, अभिनेता नाटक सब रस। 

ना जंगल ना भगवा, स्वात्मा जाना वही संन्यास। 


पूनमचंद 

१९ अप्रैल २०२२

सत्व सिद्धि।

 सत्व सिद्धि। 


प्रेक्षकाणीन्द्रियाणि। 

धीवशात् सत्वसिद्धि। 


घट के भीतर नाद गुंजता, अंतर ज्योत जगी; सो सूरज के उजियारे में, मैंने मुझको पाया। 

धन्य भाग्य, सेवा का अवसर पाया, 

चरण रज की धूल बन, मैं मोक्ष द्वार आया।


यह जगत शिव नाटक है, जहां शिव ही थियेटर और शिव ही नर्तक। रसमय नाटक है, प्राणमय है। शिव थियेटर में विगलित हो रहे रस को ग्रहण करने विकल्पों को संस्कारित कर सबसे पहले राग द्वेष की गंदगी को हटाना है। गिलोय को खूब कूटे बिना, मटके के पानी में कईं दिनों भीगोये बिना, कैसे सत्व बाहर आयेगा गिलोय का? इस शिव थियेटर में प्रेक्षक बन देखना है, सुनना है, सूंघना है, चखना है, तबज जाके शिव रहस्य समझ पायेंगे।जब तक इस थियेटर से प्रमाता रस नहीं ले आया, ‘मैं ही मैं’ अनुभूत नहीं किया, तो फिर क्या किया? कोरा का कोरा ही रह गया? सत्व नहीं पाया। 


रामलीला ही ऐसी है कि बार बार सुनने पर रसास्वाद आता रहता है। हर कोई उत्सुक रहता था उस रामलीला के एक्टर बनने। राम नहीं, हनुमान नहीं तो राम सेना के सिपाही का रोल ही दे दो, यह तड़प रहती थी। पर जिस को राम का पात्र अभिनय करना है, हनुमान का पात्र करना है उसे ख़ास व्रतों से अपने आपको तैयार करना पड़ता है। शोधन करना पड़ता है ताकि स्टेज पर राम प्रकटे, हनुमान प्रकटे, न कि अपना राग द्वेष। 


धीर बनना होगा। पंजाबी में बेटी को धी कहते है, जो ध्यान रखती है और हम उसका ध्यान रखते है। वह संवेदना, जो धारण करना जानती है। धीरता पात्रता लायेंगी। शिवलीला को समझने वाला पात्र। धारणात्मिका और ग्रहणात्मिका बुद्धि से सत्व सिद्धि करनी है। becoming से being में लौटना है। निर्मलता लानी है। जैसे सालों-साल नदी के पानी के बहाव से धुलीं रेत पुलिन होती है, उसका सत्व प्रकट होता है, वैसे ही अपने भीतर के काम क्रोध लोभ मद मोह मात्सर्य को बाहर निकाल फेंक शिवत्व की सत्व सिद्धि धारण करनी है। वह धी, मति, बुद्धि, प्रज्ञा, प्रतिभा को उजागर करना है। 


Unconditioned हुए बिना जिस भाव से यह नाटक रचा गया है, उसके भाव को कैसे ग्रहण करेंगे? दृष्टि गलित कर वह watchfulness लानी है जहाँ अपने पराये की दिवारें ध्वस्त हो जाती है और आत्म अमृत रूपी सत्व प्रेम प्रकट हो जाता है। विकल्प में फँसा रसानुभूति नहीं कर सकता। जैसे वह राजा जिसने शर्त रखी थी कि जो ऐसी कहानी सुनाये जो कभी ख़त्म न हो उसे इनाम देगा। राजा का ध्यान कहानी के ख़त्म होने पर और कहानीकार का ध्यान उसको खींचते रहने में। विकल्पों में रस ग़ायब था। लेकिन एक आदमी राजा का गुरू निकला। कहानी शुरू की। एक किसान था। उस के खेत में अनाज का ढेर लगा था। बग़ल में एक बड़ा पेड़ था जिस पर अनेक चिड़ियाँ बैठी थी। फिर एक चिड़िया पेड़ से नीचे उतरी, ढेर से एक दाना लिया और फुर्र कर उड़ गई। फिर दूसरी चिड़िया उतरी, दाना लिया और फुर्र।बस चिड़िया एक के बाद उतरती गई और फुर्र। राजा थक गया उस फुर्र से और अपनी हार मान ली। रस माधुर्य नहीं रहा। हमारा जीवन भी ऐसे फुर्र हो जायेगा अगर जागृति नहीं आई। 


कहानी में कुतूहल होता है और काव्य में रस। रस और कुतूहल मिलाकर बनता है वह है नाटक। यह जगत शिवजी का नाटक है, रस और कौतुक से भरपूर। इसकी नाट्य सिद्धि को अनुभूत करना है। महर्षि अरविंद का वह trans of bliss, आनंद का अतिक्रमण कर उसे क़ायम रखना है।यह जगत शिवशक्ति के trans of bliss का परिणाम है। चमत्कार रस है। इसलिए कोई धीर ही उस चमत्कार, flash को, नाटक के पीछे छीपी शिवता को देख लेता है। बाहर देखनेवाला कुछ नहीं देखता, अंदर देखनेवाला अमृत पाता है। वही योगी है जो सही देखता है, सहज विद्या का लाभान्वित है। उनकी अंतर्मुखी इन्द्रियां ही वह देवतागण है, प्रेक्षकाणीन्द्रियाणि, जिसके सामने शिव आविर्भूत (releal) हो जाते है।शिव नाटक का दीदावर होता है। वह समझता है और उसका रसपान करता है। 


रसास्वादन कब होगा? बर्तन सही होंगे, आँच सही होगी, बीच-बीच में उसको देखा जायेगा तब जाकर भोजन से रस प्रकट होगा और आप भोजन की रसानुभूति कर पायेंगे। कूकर के भोजन में वह रस कहाँ? अनाज के स्थूल भाग से मल, सूक्ष्म भाग से सप्त धातुएँ और अणुस्थ से मन बनता है। इसलिए भारत में बड़े धैर्य और भक्ति भाव से रसोई बनती थी।देखा नहीं, सूरदास की गोपी ने श्रीकृष्ण के लिए कैसे दहीं मथी? बर्तन स्वच्छ किया, सुगंधित किया, दूध को सही ताव दिया, धीर रही और वोचफूल भी और अपनी चेतना से उसे सुवासित की; तब जाके गोपी की दहीं कान्हा के लिए तैयार हुई। हमें भी हमारा पात्र स्वच्छ और सुवासित बनाना है जिसमें शिवता प्रकट हो जायें। 


अंतरात्मा मंच है। नाटक शिवानंद है। दुख पीड़ा जन्म मृत्यु नाटक के ही भाग है। पुर्यष्टक के भीतर बना रंगमंच शिवत्व के स्वातंत्र्य बोध को पाये बिना नहीं टूटता। स्वातंत्र्य बोध मिलने तक अनेक योनियों में गमन कर नर्तन करता रहता है जैसे इन्द्र बना था सुकर। बच्चे भी पैदा कर लिए और अपनी इन्द्र पहचान भूल गया। जब उसे सुकर के शरीर से छुड़ाया तब जाके इन्द्र के ऐश्वर्य में वापस लौटा। हम कब लौटेंगे? 


इन्द्रियाँ ही प्रेक्षक है जिसे अंदर से संस्कारित करनी है। विधाता ने इन्द्रियों की रचना ही कुछ ऐसी की है कि उसे बाहर की ओर कर पीछे से बोल्ट कर दिया है। इसलिए वह पीछे देख नहीं पाती। आँख बाहर सबकुछ देखेगी पर खुद को नहीं देख पाती। यह इन्द्रियां देवताओं के द्वार है। जैसे जैसे भीतर देख पाती है, audience में आती है, नर्तक शिव का उत्साह बढ़ाती है। वह जब स्तुति गाती है तो नर्तक शिव अपना प्रदर्शन और भी प्रकट करता है। शिव कृपा से इन इन्द्रियों के बोल्ट जब खुलते है, इन्द्रियाँ वापस लौटती है, वही है प्रत्याहार। बिना अग्नि जल रहे इस संविद अग्नि से अंधकार चला जाता है। ३६ तत्वों को पिंड बनाकर सिद्ध उस अग्नि में आहुति देता है। काल भी शिव के तीसरे नेत्र के खुलने की प्रतीक्षा में बैठा है। मुकुल की तरह जैसे ही शिव का तीसरा नेत्र खुलता है, वह विश्व को पिंड बनाकर अपनी आहुति दे देता है। नृत्य समाधि स्मशान समाधि बन जाती है। यह शिव नाटक कोई एक रस का नहीं है। नौ रस उसमें समाये है।वीभत्स, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, शृंगार और अद्भुत रसों का आश्चर्य है। घोर रूप में अघोरी अभिनय है।सारी पृथ्वी को मंच बनाकर योगस्थ शिव रूई के भार वजन बनाकर अपनी बाँहें उठाकर उसे मुद्राओं में सिकुड़कर, अग्निघर नेत्रों को चंचल रख, खुद को दुःखमय बनाकर थियेटर की कन्डीशनींग न टूट जाये उसका ध्यान रखते हुए नृत्य कर रहा है। यह नृत्य को वही इन्द्रियां प्रेक्षक बन देख सकती है जो अंतर्मुख है, स्वच्छ है, निर्मल है। 


शब्द ही से बंधन और शब्द से ही मुक्ति। शब्द को रगड़ना है और उसके अर्थ को उजागर करना है। स्वच्छता कैसी? निर्मलता कैसी? जैसे कादंबरी का नायक का सरोवर दर्शन। इदंता (दृश्यमान जगत) को गुरू बनाकर देखो। जो बाहर दिख रहा है वह आपका भीतर का प्रतिबिंब है। प्रतिबिंब बाहर नहीं है। अंदर का दर्पण अपना प्रकाश बाहर फेंक रहा है। बाहर की स्वच्छता देखने या अनुभूत करने भीतर की स्वच्छता ज़रूरी है। जो अंदर है वही बाहर दिखेगा। बाह्य जीवन आंतर जीवन का ही प्रतिबिंब है। अगर बाहर गंदगी दिख रही है तो भीतर की सफ़ाई करो। रागादि दोष हटाओगे, भीतर स्वच्छता आयेगी, निर्मलता आयेगी तब जा के पंचेन्द्रिय के प्रेक्षक शिवानंद से तृप्त होंगे। तब जा के इस शिव संगीत में छीपी हँसो की ध्वनि कर्मेन्द्रिय को तृप्त करेगी। उसकी कमल गंध को सूंघेंगी, उसकी ठंडक और शांति का स्पर्श करेगी। खुली आँखों से वह शिव रहस्य जान जायेगी। स्वयं शिव नर्तक अंतरात्मा के रंगमंच पर नृत्य कर रहा है। चैतन्य ही स्वतः आकाश, वायु, अग्नि, जल और भूमि बन उदित हो रहा है। जल से स्वतः मछली जन्म ले रही है। यह सारा ब्रह्मांड शिव का त्रिलोकी नाटक है जिसमें त्रिलोकीनाथ स्वयं भूमिका लेकर सकल से अकल रूप में प्रकट है। 


स्वच्छता, निर्मलता और धीरता से उस सत्व (शिव) को सिद्ध करें। 


घट के भीतर नाद गुंजता, अंतर ज्योत जगी; सो सूरज के उजियारे में, मैंने मुझको पाया। 

धन्य भाग्य, सेवा का अवसर पाया, 

चरण रज की धूल बन, मैं मोक्ष द्वार आया।


पूनमचंद 

२० अप्रैल २०२२

शिव सत्व।

शिव सत्व  


यह शिव नाटक कोई एक रस का नहीं है। नौ रस उसमें समाये है।वीभत्स, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, शृंगार और अद्भुत रसों का आश्चर्य है। घोर रूप में अघोरी अभिनय है।सारी पृथ्वी को मंच बनाकर योगस्थ शिव रूई के भार वजन बनाकर अपनी बाँहें उठाकर उसे मुद्राओं में सिकुड़कर, अग्निघर नेत्रों को चंचल रख, खुद को दुःखमय बनाकर थियेटर की कन्डीशनींग न टूट जाये उसका ध्यान रखते हुए नृत्य कर रहा है। यह नृत्य को वही इन्द्रियां प्रेक्षक बन देख सकती है जो अंतर्मुख है, स्वच्छ है, निर्मल है। 


शब्द ही से बंधन और शब्द से ही मुक्ति। शब्द को रगड़ना है और उसके अर्थ को उजागर करना है। स्वच्छता कैसी? निर्मलता कैसी? जैसे कादंबरी का नायक का सरोवर दर्शन। इदंता (दृश्यमान जगत) को गुरू बनाकर देखो। जो बाहर दिख रहा है वह आपका भीतर का प्रतिबिंब है। प्रतिबिंब बाहर नहीं है। अंदर का दर्पण अपना प्रकाश बाहर फेंक रहा है। बाहर की स्वच्छता देखने या अनुभूत करने भीतर की स्वच्छता ज़रूरी है। जो अंदर है वही बाहर दिखेगा। बाह्य जीवन आंतर जीवन का ही प्रतिबिंब है। अगर बाहर गंदगी दिख रही है तो भीतर की सफ़ाई करो। रागादि दोष हटाओगे, भीतर स्वच्छता आयेगी, निर्मलता आयेगी तब जा के पंचेन्द्रिय के प्रेक्षक शिवानंद से तृप्त होंगे। तब जा के इस शिव संगीत में छीपी हँसो की ध्वनि कर्मेन्द्रिय को तृप्त करेगी। उसकी कमल गंध को सूंघेंगी, उसकी ठंडक और शांति का स्पर्श करेगी। खुली आँखों से वह शिव रहस्य जान जायेगी। स्वयं शिव नर्तक अंतरात्मा के रंगमंच पर नृत्य कर रहा है। चैतन्य ही स्वतः आकाश, वायु, अग्नि, जल और भूमि बन उदित हो रहा है। जल से स्वतः मछली जन्म ले रही है। यह सारा ब्रह्मांड शिव का त्रिलोकी नाटक है जिसमें त्रिलोकीनाथ स्वयं भूमिका लेकर सकल से अकल रूप में प्रकट है। 


स्वच्छता, निर्मलता और धीरता से उस सत्व (शिव) को सिद्ध करें। 


घट के भीतर नाद गुंजता, अंतर ज्योत जगी; सो सूरज के उजियारे में, मैंने मुझको पाया। 

धन्य भाग्य, सेवा का अवसर पाया, 

चरण रज की धूल बन, मैं मोक्ष द्वार आया।


पूनमचंद 

२० अप्रैल २०२२

Stay in awareness

 होश में रहो। 


अब रहा न आना जाना, जिधर देखता हूँ सनम रूबरू है। गुलिस्ताँ में जाके हर गुल को देखा, तेरी ही रंगत तेरी ही बू है। रही न कुछ असर न कुछ आरज़ू है, जिधर देखता हूँ सनम रूबरू है। 


यह कश्मीर शैव दर्शन है, जहां प्रेम ही प्रमुख है।यह जगत शिवलीला है, शिव शक्ति का मिलन, प्रेमालय। यहाँ शक्ति विश्व बनी है और शिव उसका धारक। जैसे आग और आग की लपटें। 


सकल से अकल की यात्रा में मायावरण पार कर आध्यात्मिक यात्रा शुद्ध बुद्धि से आगे बढ़ती है। अहम अहम, इदम इदम मंत्र है। I am, I am; this is this. एकरूपता है भेदभाव नहीं। फिर ईश्वर पड़ाव आता है जहां जो देख रहा हूँ वह मैं हूँ यह दृष्टि आती है। The whole is in I. ग्राहक ही ग्राह्य, भोक्ता ही भोग्य बन गया। शिव ही पार्वती। इदम अहम मंत्र है इस पड़ाव का। फिर आता है सदाशिव पद। अहम इदम। मैं ही इदम (विश्व)। एक हो गया। शिव शक्ति का मिलन हो गया। प्रेम हो गया। In love you rise but this is rising in love. 


कैसे पहुँचें? आण्वोपाय, शाक्तोपाय और सांभवोपाय से। कुछ साधन समझे। 


प्राण सेतु है पहुँचने का। अंदर आ रहा है वह शीतल चंद्र और बाहर जा रहा उष्ण सूर्य की द्वादश अंगुल पर हो रही संधि पर ठहरो। वही गुरू चरण है, गुरू पादुका है। उसकी पूजा करो। उस मध्य में अवस्थित रहो। उसके भूमध्य कंठ और ह्रदय का ध्यान रखो।स्वस्थ (स्व में स्थित) बनो। वहाँ परमानंद है। 


नींद भी साधन बन सकती है। जाग्रत के अंत पर नींद शुरू होती है। एक बाल जितना पतला एक संधि बिंदु है। उस मध्य पर ठहरो उस पर जागरण रखो। परमानंद पाओगे। 


यहाँ Yoga in action है। न संन्यास लेना है न भिख्खु बनना है। पलायन नहीं है। यहाँ सिर्फ़ चक्षु आवृत करना नहीं है, अपितु खुली आँखों से भी देखना है। thoughtless seeing. seeing without conditioning, seeing without justification, seeing without identification. शिव ही शिव नज़र न आये तब तक। one pointed ध्यान।  बैठते जागते सोते काम करते.. एक ही निदिध्यासन। शिव नहीं तो जीव कहाँ? उसके संगीत ताल और लय को पहचानना है। जैसे राजस्थानी नर्तकी शिर पर कुंभ लिये ताल और लयबद्ध संगीत के साथ नृत्य करती है, अंग प्रदर्शन करती है, आसपास गड्ढे और आग भी है फिर भी नृत्य में रत उसकी बुद्धि उस कुंभ की रक्षा में लगी रहती है, कुंभ को गिरने नहीं देती। वैसे ही संसार में रहते, स्व (God) में ध्यान रखने वाला योगी है।योगी बनो। बस ब्रह्म-शिव के अवलोकन का चस्का लगा दो। शिव को देखने का, जानने के नशे को छोड़ो मत। यह नशा होश में लाता है। शिवत्व देता है। प्रेमालय में प्रवेश है। 


शिवदर्शन का नशा इतना करो कि फिर गा उठो। 


अब रहा न आना जाना, जिधर देखता हूँ सनम रूबरू है। गुलिस्ताँ में जाके हर गुल को देखा, तेरी ही रंगत तेरी ही बू है। रही न कुछ असर न कुछ आरज़ू है, जिधर देखता हूँ सनम रूबरू है। 


पूनमचंद 

२१ अप्रैल २०२२

Indian culture

 भारतीय संस्कृति। 

जल उठो फिर सिंचने को। 


भारत की सनातन जीवन शैली का आधार आध्यात्म है। यहाँ अलग अलग  दर्शन, धर्म और जातियों का संमिश्रण होने से आधुनिकता की दौड़ होते हुए भी सनातन भारतीय जीवन शैली आज भी जीवित है। हमारे पूर्वज मानते थे वसुधैव कुटुंबकम। उनका लक्ष्य था शांति, प्रेम और अहिंसा। सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।सबके सुख और स्वास्थ्य की कामना।


यहाँ जीवन एक उत्सव है जहां नाट्य कला और नृत्य कला से आध्यात्म की व्याख्या होती है। हमारा सारा ज्ञान कलाओं के द्वारा परोसा जाता है। धर्म, अर्थ, काम और पुरुषार्थ यहाँ आध्यात्म से संप्रेषित है। रसोई, हस्त-पाद प्रक्षालन से लेकर ब्रह्मांनंद तक एक ही दृष्टि है, तृप्ति की। भूतशुद्धि और मन शुद्धि के प्रयोजन में कला एक मार्ग है। सौंदर्य दृष्टि वाले का आध्यात्मिक प्रवेश इसलिए सरल है। 


नाट्य प्रवर्तक पहले रस को संवारता है, फिर श्रोताओं और दर्शकों के ह्रदय में उस रस को संचारित कर उस सौंदर्य में तृप्त करता है। सौंदर्य का परिष्कार जितना हो उतना निखरता है। नाटक की त्रिवर्गात्मिका संचालन में प्रवृति है और धर्म विपरीत से निवृत्ति है। नाटक का परिणाम शांत रस है। यह शांति स्मशान शांति या मंदता नहीं लेकिन तरलित होकर स्वस्थ्य होना है। शांति बाक़ी के आठ रसों की योनि है। गांधीजी के सत्त्याग्रह में टोल्सटोय से ज़्यादा राजा हरिश्चंद्र नाटक की अवधारणा थी।नाटक की शुरुआत में डुगडुगी बजती है और प्रस्तुति होती थी। “चंद्र टले चंदा टले, टले जगत व्यवहार। पर राजा हरिश्चंद्र, न टले सत्य विचार”। पीड़ा के बाद की शांति का अनुभव। 


नाटक का रस मन का मैल धो कर शांति पैदा करता है। स्वस्वरूप का प्रथनन होता है और ज्ञान यानि चेतना का विस्तार होता है। अभिनेता जितना बुद्धि कुशल हो उतना सात्विक अभिनय कर पायेगा। उमा या शिव का अभिनय करने से पहले अपने में रही स्त्री - पुरुष को बाहर निकालना पड़ता है। अभिनय हाथ पैर हिलाना नहीं पर अपने inner being की उपलब्धि से स्फुरित करना है। 


भरत नाट्यशास्त्र पर अभिनव भारती की व्याख्या स्वीकृति पाईं है। रूद्र शिव ने अपने अंगों के विभाजन से जो स्वात्मप्रच्छादन पटु क्रीड़ा रूप त्रिगुणात्मक प्रकृति स्वरूप लिया है, वह तीन गुण नाटक थियेटर का विषय वस्तु बन जायेगा। संकीर्णता का यहाँ स्थान नहीं। यहाँ कमंडल लेकर पलायन नहीं करना है अपितु जीना सीखना है और आनंद से जीना है। 


कनिष्क के वक्त हुए नागार्जुन ने जिसने अकाट्य तर्क से कश्मीर में शून्यवाद की स्थापना की थी। सर्वम् शून्यम्… सर्वम् शून्यम्। तब प्रश्न उठा कि बुद्धस्य वचनम् अपि शून्यम्? शिव उपासक दुनियाँ से भागता नही। नकारे होकर बैठा नहीं रहता। नर्तक आत्मा, अंतरात्मा के रंगमंच पर भीतर चेतना में नाटक का मंचन हो रहा है जहां देवों प्रेक्षक इन्द्रियां है; नर्तक से प्रेक्षक तक रस का संचार हो रहा है; उस नाटक में अपना दर्शन करना है। 


मलिन सत्व से अपना दर्शन नहीं होता, निर्मल बुद्धि चाहिए जिसे धीषणा कहा गया है। जिसमें सत्व का स्फुरण होता है। जिस तत्व की हमें खोज है वह स्फुरणशील है और अत्यंत सूक्ष्म, फूल की सुगंध से भी पतला है, अतीन्द्रिय है, आंतर परिस्पनदस्य (inner being) है। साधना का हेतु है सत्व शुद्धि और निर्मल बुद्धि।बाहर के और अंदर के साधन (भूत, इन्द्रियां, मन, बुद्धि) को दर्पण की तरह तैयार करना है। निदिध्यासन करना है जिससे सत्व का प्रकाशन हो। विशारद कहा जाता है ऐसी निर्मल बुद्धि वाले को जो अपने शिव स्वरूप का विमर्श करने निपुण है। विशारद शब्द शरद से बना है। शरद का सौंदर्य। वर्षा ऋतु के बादलों द्वारा पृथ्वी को धोये जाने के बाद आती है शरद। मैले जल को छोड़ नदी स्वच्छ निर्मल जल को धारण कर बहती है। इसी शरद के अमावस्या की रात में दीवाली का उत्सव और नये साल का उदय होता है। शरद का संबंध देवी शारदा सरस्वती से है। शुक्ल ही शुक्ल, निर्मल ही निर्मल। शरद में श्वेत पुष्पों से सुशोभित पृथ्वी पर हिमाचल में पार्वती विवाह रचाया जाता है। इसी शरद बुद्धि में सत्व का प्रकाशन करना है। 


भारतीय संस्कृति निर्माण में समर्थ है जिस पर सारे भारत का, विश्व का,  मानवता का अधिकार है। अपने स्वरूप में जाग गये फिर हिंसा नहीं होगी। जो सच है वह पाओगे। न मेरा है न तेरा है। जो है तत स्वरूप वह सब का  है। प्राणायाम की बाह्य क्रिया से समाधि तक की सफ़र में शिवता का स्फुरण और शिवभाव के साक्षात्कार की अभिव्यक्ति होती है। यही मोक्ष है। इस मोक्ष की कामना करते हुए जीवन की हर मुश्किल परिस्थितियों का सामना करें और होश खोये बिना आगे बढ़े। समापन करें कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ की इस काव्य पंक्तियों के साथ। 


गीत गाने दो मुझे तो, वेदना को रोकने को। 


चोट खाकर राह चलते, होश के भी होश छूटे; हाथ जो पाथेय थे, ठाकुरों ने रात लूटे; कंठ रूकता जा रहा है, आ रहा है काल देखो। 


भर गया है ज़हर से, संसार जैसे हार खाकर; देखते है लोग लोगों को, सही परिचय न पाकर; बुझ गई है लौ पृथा की, जल उठो फिर सींचने को। 


पूनमचंद 

२१ अप्रैल २०२२

सुविचार।

 निर्विचार के सुविचार। 


*इतना मान लें। *


१) अखंड चैतन्य हमारी सब की आत्मा है और वह एक है।


२) द्वैत, अद्वैत का आत्म प्रकाश है। जैसे चाँद-चाँदनी, सूरज-किरणें, आग-लपटें अलग नहीं वैसे शिव-शक्ति एक। प्रकाश ही विमर्श। 


३) आत्मा का स्पन्द (बोध जागरण) उसकी गति है। 


४) लिंग-शरीर (पुर्यष्टक) योनि भ्रमण करता है, अखंड आत्मा नही। 


५) आत्म को जान लेना ही जागरण है। 


६) वासना छूरित ज्ञान बंधन का कारण है। 


७)  गुरू एक है, सब में है। शरीर नहीं, शिक्षा (बोधरूप) गुरू है। 


८) बस तुम ही हो, स्वीकार कर लो और कोई नहीं। 


९) मैं ही बिंदु मैं ही सिंधु। मैं नर्तक मैं नाटक। 


*इतना करें। *


१) खुद को हटा, गुरू (बोध) को बिठा। 


२)छोटी मैं को बड़ी मैं में मिला। 


३) स्वस्थ (स्व में स्थित) रहे। 


४) कला से पृथ्वी पर्यंत मैं ही हूँ यह अनुभूत करे।  


५) लय चिंतन हवन करे।  


६) अस्मदरूप समाविष्ट (सर्व समावेश) अभेद दृष्टि बनाये रखे। 


७) विचारशून्य बन देखे। 


८) पाशावलोकन छोड़ स्वरूप अवलोकन करे।  


९) अनुपाय उत्तम। मध्य विकास मध्यम। क्रिया कनिष्ठ। मध्य का विकास कर चिदानंद लाभ लें। 


१०) सुषुम्ना पथ पकड़। कुंडलिनी जगा। 


११) बुद्धि निर्मल कर, उस दर्पण पर ज्ञान विमर्श करे।


१२) खंडित तरंगों से उपर उठ अखंड स्पन्द समुद्र में गोता लगा। 


१३) सिद्धि के मोहावरण में मत फँस। 


१४) पराविद्या सहजावस्था प्राप्त कर। 


१५) धीर बुद्धि से सत्व सिद्ध कर अभिव्यक्त कर।


१६)  हृद को पहचान और हृद सरोवर में विचरण कर। 


*यहाँ पहुँचे। *


१) स्वयं प्रकाश अखंड अनुभव कर। 


२) पूर्णोहम विमर्श कर। यह अभिव्यक्ति ही मोक्ष है। 


पूनमचंद 

२२ अप्रैल २०२२

ब्राह्मी स्थिति।

 ब्राह्मी स्थिति। 

भगवद्गीता के दूसरे अध्याय में स्थितप्रज्ञ की व्याख्या हो रही है। ऐसा मुनि जिसके मन में दुख से उद्वेग नहीं और सुख से निःस्पृह, जिसका राग, भय, क्रोध नाश हो चुके है। 


बात बुद्धि को प्रज्ञा में और प्रज्ञा को स्थिरता में लाने की है। ज्ञान प्रकाश इसी दर्पण में होगा। 


इसलिए जैसे एक कछुआ अपने अंगों को संकोरता है वैसे बहिर्मुख इन्द्रियों को उसके विषयों से हटा कर अंदर लाना है। ऐसा करते हुए भी अगर आसक्ति का नाश नहीं हुआ तो आसक्ति बुद्धिमान मनुष्य के मन को हर लेती है। 


इसलिए साधक के लिए ज़रूरी है कि इन्द्रियों को वश में कर भगवान परायण होना है। तब बुद्धि स्थिर होती है। 


विषय चिंतन से आसक्ति, आसक्ति से विषयों की कामना, कामना में विघ्न से क्रोध पैदा होता है। क्रोध से मूढ़ता और मूढ़ता से स्मृति भ्रम, स्मृति भ्रम से बुद्धि नाश। 


बुद्धि नाश तो फिर स्थिरता किस की करें, प्रज्ञा किसको बनायें और ज्ञान कैसे हो? 



आपके प्रश्न के जवाब में श्रीकृष्ण आगे कहते हैं कि जो स्व नियंत्रित है वह बिना राग द्वेष इन्द्रियों से विषयों में विचरण करते हुए भी चित्त की प्रसन्नता पाता है। ऐसे प्रसन्न चित्त को सब दुखों के अभाव होने से बुद्धि स्थिर हो जाती है। 


स्थिर बुद्धि वाला परम शांति पाता है और यह शांति स्थिति ही ब्राह्मी स्थिति है।


पूनमचंद 

२२ अप्रैल २०२२

बरौंदा। seed of banian tree

 बरोंदा। 


बरगद (वटवृक्ष) के पेड़ के फल को वटफल या बरोंदा कहते है। सामवेदीय छांदोग्य उपनिषद् में एक सुंदर संवाद है। पिता उद्दालक गुरू है और पुत्र श्वेतकेतु शिष्य। 


श्वेतकेतु प्रश्न करते है।आत्मा (self) है तो दिखती क्यूँ नहीं? अदृश्य वह भौतिक विश्व कैसे बनी? 


गुरू उद्दालक शिष्य श्वेतकेतु को बरोंदा लाने को कहते है। शिष्य ले आता है। फिर कहते है तोड़ो उसको। अंदर अनेक बीज होते है। उसमें से एक बीज लेकर तुड़वाते है और पूछते है, अंदर क्या है? शिष्य जवाब देता है कुछ नहीं। 


गुरू बताते हैं कि यह कुछ नहीं में जो अदृश्य है वही तो वटवृक्ष बनता है। वही सत्य है। वही आत्मा है। तत् सत्यं स आत्मा तत्त्वमसि। 


वही self है, वही शिव है, वही ब्रह्म है जो हमारी तुम्हारी आत्मा बन विचरण कर रही है। आप के पास ही है, आप ही हो, खोजेंगे कहाँ? 


हमारे वर्तमान शरीर से उसका कनेक्शन हमारा जन्म माना गया। उसकी संगत जीवन माना गया और जब डीस्कनेक्शन हो जायेगा तो मौत मानी जायेगी।वास्तव में अजन्मा हम न जन्मे, न मरे। अस्तित्त्व कैसे मर सकता है? ज्ञान शाश्वत शिव है। वही हमारा आपका अदृश्य स्वरूप है। वही वटवृक्ष बना है। सदा मौजूद फिर भी अदृश्य। उस स्व में स्वस्थ होने की कामना करें। 


स्वस्थता हि सिद्धि है। 😊


पूनमचंद 

२३ अप्रैल २०२२

तीन में शिव।

 तीन में शिव। 

हर दिन हमें तीनों स्थिति का रूबरू अनुभव हो रहा है। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति। जाग्रत में शिवलीला का साक्षात्कार, स्वप्न में हमारी अतृप्ति का संप्रेषण और सुषुप्ति में शिवस्वरूप में विश्राम। हर दिन सुषुप्ति में उस गाढ़ प्रशांति का अनुभव हो रहा है जहां हृद है, जहां हम अपने साधन शरीर, इन्द्रियां, मन, बुद्धि और अहंकार को भूल उस पूर्ण में विश्रांत हो जाते हैं। पूर्ण शांति का अनुभव होता है। वहाँ अगर जागृति पा ली और संकल्प हुआ तो हक़ीक़त बन जाती है। वह समाधि जैसे अंदर बनती है अगर बाहर की प्रवृत्तियों के बीच भी बनी रहे, स्वरूप का भान चला न जाय, तो शिव पद दूर कहाँ? पर यहाँ एक मुश्किल है। व्यष्टि हम को शिवत्व समजने से भ्रमणा बढ़ेगी। सब शिव है, बाह्य जगत् जिसमें मैं भी हूँ वह शिव की शक्ति का विलास है और उसके साथ एकत्व और सर्व समावेश का भाव आ जाय, हम अलग नहीं पर एक हो जाय और साथ साथ निजी स्वातंत्र्य बना रहे, वहाँ पहुँचना है। अज्ञान मिटाने की यात्रा है। ज्ञान तो है ही हम समझ नहीं पा रहे है। मन के संकल्प विकल्पों से बुद्धि लगाकर समझने की कौशिक कर रहे है। पर इन्द्रियातीत वह कैसे हाथ लगेगा। जब तक खुद शिव न बन जाओ।


पूनमचंद 

२५ अप्रैल २०२२

Self

 Self

Self (स्व) तो है जो अनुभूत कर रहा है। इसने ही तो साधन सरंजाम पैदा किसे हैं ताकि वह उसका उपयोग कर सके और उससे प्राप्त सुख दुख को भोग सके। लेकिन यह सेल्फ़ अज्ञान से आवृत है। ज्ञान संकोच हुआ है। अपनी सीमा शरीर तक बांधे खड़ा है। असीम है ही। दो तीन कदम आँख बंदकर अपने शरीर की दिवारें तोड़ कर तो चले। कहाँ है उसकी सीमा? बस है वह मानता नहीं और नहीं है वह पकड़े हुए है। बस सच्चे को पकड़ना और जूठे को छोड़ देने की साधना है। software बदलना है। लघु को हटा guruware लगाना है। 

However, to experience happiness and sorrow is not the true nature of the Self. In deep sleep when we are detached, we forget both happiness and pain. In reality the soul is unattached. 


The connection with the physical world can’t change its true nature because it is like a crystal in which the reflecting flower can’t change its colour. The change we experience is because of our ignorance of the true nature of the Self. Its connection with the adjuncts like five elements, subtle etc is a product of nescience. 


When drop of water merges into the ocean it is difficult to pick it out again  because the drop merges into the ocean without adjuncts. While the Jiva arises after the deep sleep and death from the pure consciousness because it merges with the adjuncts. Its karma and ignorance don’t allow him to be lost in the pure consciousness irrevocably. 


The Sadhna is for detachment from those adjuncts. The self luminous is always present.


Punamchand 

26 April 2022

Word tree is not tree

 Word tree is not tree


As the word ‘tree’ is not the real tree, similarly the word ‘God’ is not God. A perfect logic. But who will deny tree? The name tree came because there is a tree. One may deny the word ‘God’ but can’t deny the existence. The visible world is impermanent but its base is permanent. 


First Law of Thermodynamics tells that Energy can be changed from one form to another, but it cannot be created or destroyed. The total amount of energy and matter in the Universe remains constant, merely changing from one form to another. But from where this energy came? 


The whole philosophy of Sankhya, Nyaya, Vaisheshik, Purva Mimansa, Vedanti, Ajivik, Jain, Buddha, Jews, Christianity, Islam and others revolves around the questions: What is this visible Universe? Who has created it? How was it created? How were the five basic elements came in existence? How are the souls came on earth? Who am I? Is the present life the first and last journey or id it a part of the cycle of birth and death? What is eternal in this changing world ? Is there a system of reward and punishment for individual for his right and wrong actions? What is right and what is wrong? Who dies when the physical body dies? What is soul? What happens to the soul after the death of the physical body, etc. 


It is true that Upanishads didn’t named the Supreme Self as ‘God’ but named him Brahman, the upadana and nimitta cause of this existence. Shaivism call the visible world as Shakti and the invisible power behind it as Shiva. 


As the Supreme Self is formless, therefore, humans have given Him thousands of names and attributed qualities in him to get some glimpses of his glory. Indian philosophy mostly concluded on three characteristics: Sat-Chit-Anand: eternal, knowledge (Chaitanya) and bliss (peace). 


Attainment of  highest unity with the Brahman (Supreme Self) by the individual soul (Self) becomes the goal of individual’s life as both are identical. However the path has been divided into two: Sagun Brahman and Nirgun Brahman. As individual self is abide by the good and bad karmas, the Sagun part of the Universe has movement of life from one life to another and from one loka to another loka. While the Nirguna path concludes after attainment of knowledge and the death of physical body is the end as there is nothing left for the causal part to travel a journey after attaining highest unity with the Brahman. 


Ignorance of the true knowledge of Brahman is called ‘Avidhya’ and the knowledge of it is called ‘Vidhya’, the Moksha. The class of people who had acquired this Vidhya were called Brahmanas. ब्रह्म जानाति इति ब्राह्मणः


The way physicists brings out the secrets of nature by causation theory which common man doesn’t understand but believe, similarly the theories brought out by the sages of different branches within Hinduism and outside can’t be understood by the intellect of common man therefore accepted as belief. The practices necessary to purify the subtle (अंतःकरण) were incorporated in the way of life so that each mirror (intellect) reflect the correct image of the Supreme Self as the Individual Self and Supreme Self are identical. 


With the increase in purity of heart, the reflection of Supreme Self increases in one’s heart, as a result his unity with the visible world expands and obviously his heart will flood with love and compassion for all. His belief will turn into reality once he reaches to the destination of Brahman, the love and peaceful Supreme Self. 


Punamchand 

29 April 2022

Amritsar

 अमृतसर में आसन जमाओ। 

(आसनस्थः सुखं हृदे निमज्जति। (३-१६))


जल बने हो हिम समझ,

घनीभूत टूट रस बन बह। 

अमृतसर में आसन जमा,

प्रेम एकता सहज सेतु कर। 


स्व का तोड़ संकोच,

औरों को भी कर आज़ाद। 

अपेक्षा न किसी से रख,

शरीर भूल, चैतन्य पिछाण। 


न बंद आँख, न सहस्रार,

न आलंबन तनिक भार। 

स्व चेतन अवस्थित हो;

जो जानता उसे जान। 


छोड़ गाँठें जगत विच्छेद,

देख चैतन्य एक अनेक। 

सुषुम्ना प्रवेश कर, 

शुद्ध विद्या प्रकट कर। 


शुद्ध विद्या सहजावस्था, 

नित्य बोध स्व जागरूकता। 

बुद्धि मति करें सहज दर्शन,

कारज करें सरल सहज। 


जल बने हो हिम समझ,

घनीभूत टूट रस बन बह। 

महाहृद का अनुसंधान कर;

मंत्रवीर्य का अनुभव कर। 


शुद्ध निर्मल स्वच्छ चिति तुम;

बिंब प्रतिबिंब ना कोई भेद। 

अभी, इसी क्षण जान;

स्व का स्फार, स्वयं प्रकाश। 


अमृतसर में आसन जमा;

प्रेम एकता सहज सेतु कर। 


पूनमचंद 

१ मई २०२२

मातृका वर्णमाला ज्ञान प्रवाह।

 वर्णमाला ज्ञान प्रवाह। 


भाषा की शुद्धता के बिना उस सौंदर्य का रसपान कैसे होगा। हिमालय कुछ लोगों के लिए पत्थरों का ढेर या बर्फ़ आच्छादित पर्वत होगा पर महाकवि कालिदास के लिए पर्वतों का राजा और देवताओं का निवास स्थान है।


अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराज:। पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः।।1।।


उत्तर दिशा में हिमालय नामक देवताओं की आत्मा (निवास योग्य स्थान) पर्वतों का राजा (स्थित) है, जो पूर्व और पश्चिम दिशा में स्थित दोनों समुद्रों में पृथ्वी के मापक पैमाने की तरह प्रविष्ट होकर खड़ा है अर्थात् दोनों समुद्रों के बीच में स्थित होकर पृथ्वी की गहराई को माप रहा है।


वर्णमाला की देवी है सरस्वती। उनके कर कमलों की माला वर्ण माला है, और उसका एक एक वर्ण योग्य रूप से अपना स्थान लिए हुए है। स्वर और व्यंजन से बनी ५० अक्षरों की यह वर्णमाला ज्ञान प्रवाह है, मातृका है, शक्ति केन्द्र है। उसके सही या ग़लत इस्तेमाल से वह अच्छा बुरा परिणाम प्रकट करती है। 


स्वर बीज है और व्यंजन अर्ध मात्रा है। स्वर के बिना व्यंजन बोल नहीं सकते। अ वर्ग स्वर भैरवात्मक है जिसकी अधिष्ठात्री देवी महालक्ष्मी है। क से क्ष तक के व्यंजन सात वर्गों में विभाजित व्यंजन योनियात्मक है और उनके उत्पत्ति स्थान के आधार पर उनका ग्रुपिंग है। अ स्वर वर्ग और सात व्यंजन वर्गः क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग, प वर्ग, य वर्ग, स वर्ग। क वर्ग की ब्राह्मी, च वर्ग की माहेश्वरी, ट वर्ग की कौमारी, त वर्ग की वैष्णवी, प वर्ग की वाराही, य वर्ग की …. और स वर्ग की चामुंडा अधिष्ठात्री देवियाँ मानकर उनकी पूजा आराधना की जाती है। भारत में देवी पूजा का मूल यही अक्षर-विद्या उपासना में है। 


स्वर और व्यंजन के भी उनके उत्पत्ति स्थान के संज्ञान से वर्ग बनाये गये है। जैसे अ, आ, क, ह और ः (विसर्ग) का उत्पत्ति स्थान कंठ होने से उनका कंठ्य ग्रुप बना है। इ, ई, च वर्ग, य्, श् से तालव्य; ऋ, ट वर्ग, र्, शिव, मूर्द्धन्य; लृ, त वर्ग दन्त्य; उ, भ, प वर्ग ओष्ठ्य; और ङ, ञ, ण, म, न अनुनासिक है।  उत्पत्ति स्थान की एकता से ग्रुपिंग है। जैसे राष्ट्र नस्लों से नहीं अपितु संस्थान और संभोग से बनता है। जिस प्रदेश का स्थान एक हो और खानपान एक हो, वहाँ राष्ट्र निर्माण हो जाता है। 


अक्षर का स्थान और प्रयोग बड़ा अनमोल है यह समझाने एक प्राचीन कथा है। असुरों का शत्रुनाश यज्ञ चल रहा था। असुर थे इसलिए यज्ञ के दौरान मद्यपान स्वाभाविक था। अरि का अर्थ शत्रु होता है इसलिए उनके मंत्र अरहः से बने थे। लेकिन मद्यपान ने उनकी जिह्वा को शिथिल किया और वह अलहः बोलने लगे। अलि का अर्थ है मित्र। परिणामस्वरूप उनके शत्रु के बदले मित्र नष्ट हो गये और वह देवमाता के बदले पशुमाता के बंधन में आ गये। 


भारत में भाषा को शुद्ध रूप को संस्कृत कहा है जिससे संस्कृति बनती है। उसके अशुद्ध रूप को अपभ्रंश कहा है। जैसे गंगा नदी अपने उद्गम गोमुख पर शुद्ध स्वरूप में है पर नीचे मैदान में आकर अशुद्धियों से भर जाती है। सारा जगत ज्ञानरूप है। ज्ञान से भिन्न किसी की सत्ता नहीं। शुद्ध शब्दों से गाली-गलौज तक ज्ञान का विस्तार है। सिर्फ़ संकोच विस्तार का फ़र्क़ है पर ज्ञान बिना कोई भाव प्रकट नहीं होना है। शुद्ध अध्वा के देवी अधिष्ठान ऋषित्व से लेकर पशुमातृका के पशुत्व तक सब ज्ञानरूप है।  


वाणी के चार स्तर है। परा, पश्यन्ति, मध्यमा और वैखरी। भीतर जो अंतरतम शुद्ध क्षेत्र है वहाँ से परावाक् का उदय होता है। आगे वह मिश्रित होती हुई हृदय केन्द्र से पश्यन्ति, विशुद्धि केन्द्र से मध्यमा और ओठों पर आकर वैखरी बन प्रकट होती है। परा से वैखरी तक ज्ञान वहन है। आरोह अवरोह की यात्रा है। उसी में ज्ञान का विस्तार या परिसीमन है। वाणी ही बंधन और मुक्ति, दुख और सुख का कारण बनती है।


पातंजल वर्णमाला का प्रथम अक्षर अ और आख़री ह ह है, उसके संयुक्त रूप अह में बिंदु (अनुनासिक) स्थापना से बना है अहं, जो शुद्ध रूप में शिवरूप और अशुद्ध रूप में पशु है। दोनों ही स्थिति में अहं शक्तिमान हैं, जिससे हमारा भौतिक व्यवहार चलता है। शुद्ध अहं से ही शिवत्व और अशुद्ध अहं से अहंकार बनता है।अहं ही हमारा मनोवृक्ष है, हमारी पहचान है। उसी अहं की शुद्धि के लिए बीज मंत्र बने है, दैवी उपासना स्रोत बने है। हर अक्षर शक्ति केन्द्र है। एक एक वर्ण की उपासना से हमारे शरीर में जो ५१ शक्ति स्थान है वह पुष्ट होते हैं। अक्षर को ब्रह्म की उपाधि देकर अखंड ध्वनि के रूप में स्वीकार उसकी उपासना की जाती है। 


इसलिए वाणी पर ध्यान दे। अगर दूसरों के शब्द चुभे तब अपना अवलोकन करें। लगी, मतलब अहंकार। लिया तब चुभी। अगर अपने शब्द दूसरों को चुभे तब भी अपना अवलोकन करें। अपनी भाषा की अशुद्धता को पहचानें और उसको सुधारकर शुद्ध अध्वा में स्थापित करें। वाक् ही बंधन वाक् ही मुक्ति, वाक् को संस्कारित करें। अशुद्धि का ज्ञान संकोच दूर करें, और पूर्ण अहंता की शुद्ध विद्या की अनुभूति में विश्रांत करें। प्रमाद से बचें।


अम्बितमे नदीतमे देवितमे सरस्वति।

अप्रशस्ता इव स्मसि प्रशस्तिमम्ब नस्कृधि

॥ऋग्वेद २।४१।१६॥


(माताओं, नदियों, देवियों में श्रेष्ठतम सरस्वति (रस का प्रवाह) माता, हम हैं अप्रशस्त, हमें प्रशस्त (प्रशंसा करने योग्य) करें।)


पूनमचंद 

२ मई २०२२

विद्या अविनाशे जन्म विनाशः।

 विद्याડविनाशे जन्म विनाशः। 


आज के सत्संग में एक बात वही महत्वपूर्ण उभर कर सामने आई, वह है हमारी जन्म मृत्यु, विद्या-अविद्या, ज्ञान-अज्ञान की लौकिक मान्यता। हम उन सब को स्थूल या लौकिक अर्थ से समझ रहे है। पर आचार्य अंगीरस जी ने बड़ी सरलता से उस बातों का शैव दर्शन से तार्किक समाधान किया। 


जन्म और मृत्यु हम जिसे हम लौकिक अर्थ में समझ रहे हैं उससे मुक्त होने की बात नहीं है। दो शरीर है। भौतिक शरीर और भाव शरीर। योगी में भाव शरीर निर्माण की शक्ति आ जाती है। भौतिक शरीर को जन्म मृत्यु बंधन है पर भाव शरीर को नहीं। योगी इसी भाव शरीर से अपने कार्य कर लेता है। उसकी सिद्धि अवरोध नहीं है। सहज विद्या से, विद्या में निरंतर रहने से जन्म का विनाश होता है। तार्किक अर्थ यह है कि भाव शरीर सीमाओं में बंधा नहीं है इसलिए कोई बंधन नहीं है। उठते बैठते, जागते सोते उसकी जागृति बनी रहने से सीमा विहीन अवस्था प्राप्त हो जाती है। वही मृत्यु से छूटकारा है।  


३६ तत्व समूह में अविद्या और अज्ञान का उल्लेख नहीं है। शैवों का अज्ञान, ज्ञान के अभाव नहीं परंतु ज्ञान संकोच, ज्ञान विस्मृति है। ज्ञान हमसे अलग नहीं। ज्ञान का अभाव नहीं है सिर्फ़ संकोच है। ज्ञान प्रकाश के बाहर कुछ भी नहीं। लौकिक विषय ज्ञान की सीमा है पर शुद्ध विद्या से प्राप्त पूर्णाहंता ज्ञान का परिसीमन नहीं।  


शुद्धता के शिवता पद से अशुद्धि के अहम् पद अहंकार में बंधने से सप्तपंचम प्रपंच निर्माण होता है।फिर हेय (अवलंबन योग्य नहीं) और उपादेय (लक्ष्य, अवलंबन योग्य) के सांसारिक अवस्था में लगा रहता है। उपादेय पूर्णहंता है। सर्वम् शिवम् के दर्शन से सबको शिवरूपी में जोड़ने से तीन मलों से मुक्ति मिलती है और पूर्णाहंता में प्रवेश होता है। 


शिवता या आत्म बोध हमारे सबसे करीब है। दूसरा कोई है ही नहीं। वह निकटता विस्मृत भी नहीं। पर जानोगे कैसे? एक जानना वर्णनात्मक होता है और दूसरा अनुभूति से जानना। अनुभूति से जानना ही सही जानना है। शिवता को निकटता को देखते रहने से, अनुभूत करने से सहज विद्या प्राप्त हो जाती है। समुद्र की लहरों की तरह उसकी निरंतरता और उन्मिलनता का अनुभव होता है। सारा विश्व ज्ञानमय है। कोई भी चीज ज्ञान से अलग नहीं। ज्ञान की विस्तृति के कारण पूर्णाहंता से विमुखता है। सहज विद्या के उदय होते ही पूर्णाहंता, शिवोहम् की अनुभूति होती है। 


 पूर्णाहंता का निश्चय कर पूर्णता में प्रवेश कर उस पूर्णता का साक्षात्कार ही उपादेय है। फिर न संकोच है न जन्म। उसको परिसीमन नहीं। फिर ऐसा योगी जन्म मरण के बंधन में नहीं आता। सीमा में नहीं बंधता। उस अविनाशी विद्या सहज विद्या से जन्म नाश करे। सीमा बंधन ख़त्म करें। उस पूर्णाहंता में प्रवेश करें। 


ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥ -वृहदारण्यक उपनिषद


पूनमचंद 

२ मई २०२२

तुरीया।

 तीन में चौथा पकड़। 

चरैवेति चरैवेति। 


शं नः सूर्य उरुचक्षा उदेतु,

शं नश्चतस्रः प्रदिशो भवन्तु ।

शं नः पर्वता ध्रुवयो भवन्तु,

शं नः सिन्धवः शमु सन्त्वापः ॥ऋ.वे.७.३५.८॥


(सामान्य अर्थः अतिप्रकाशवान सूर्य का उदय हम सबके कल्याण के लिए हो। पूर्व, पश्चिम, उत्तर तथा दक्षिण ये चारों दिशाएँ हमारा कल्याण करें। दृढ़ता से स्थित होकर पर्वत, नदियाँ तथा समुद्र हम सबका कल्याण करें तथा बहता हुआ जल कल्याणकारक हो। सम्पूर्ण प्रकृति सबके लिए कल्याण करने वाली हो।)


(शैव अर्थः एक सूर्य बाहर दूसरा भीतर। उस भीतर सूर्य के उदय से चारों दिशाओं में वो महान प्रकाश जो फैला जा रहा है, उस चेतना के भीतर घट रहे रस तत्व का अटल आसन में शांत स्थिर बन स्वीकार करें।)


काशी नगरी। गंगा का किनारा। मंद मंद ठंडी लहरे। प्रकृति और प्रमाता का सामरस्य। आज दो आचार्य की पकड़ थी, इसलिए चौथा कैसे छूटेगा? एक ने कहा निहार, दूजे ने कहा अंगी-रस भर।जैसे माली बगीचे से एक एक सुंदर फूल चुनकर उसकी सुगंध हम तक पहुँचाता है वैसे ही आचार्यो ने शास्त्र के सार अर्थ को हमारे आचरण में स्थापित कर चलना सिखाया। 


हमारे व्यक्तित्व के तीन पक्ष; वाक्, मन और प्राण। इन तीनों को एक सूत्र करने तीन साधन है। वाक् संस्कार, मन संस्कार और प्राण संस्कार। वर्ण संस्कार, मन संस्कार या प्राण संस्कार; बाह्य प्रक्रिया उस मर्म तक पहुँचने की क्रिया है जिससे समावेश आवे। 


१) मातृका से वाक् संस्कार। 

भीतर का नाद दो रूप में वर्ण बना है। आहत और अनाहत। पशु मातृका से शिव मातृका का अनुसंधान कर वाक् संस्कार से वैखरी के अवरोह क्रम में अनाहत परा में प्रवेश करना है। वर्ण के सूक्ष्मीकरण से अनाहत में प्रवेश करना है। इसके लिए वर्ण मातृका का ध्यान जप है। मायीय मातृका बंधन है और अनाहत मातृका मुक्ति। वाक् संस्कारित कर, वर्ण-ध्वनि-शब्द संस्कारित कर, परमात्म सिद्धि का द्वार खोलना है।


२) मन संस्कार। 

चिति ही चित्त बनी है, उस चित्त में से चिति को उजागर करना है। जाग्रत अवस्था में प्रत्याहार से इन्द्रियों को विषयों से वापस खींचनी है। स्वप्न में बाह्य इन्द्रियां निष्क्रिय हैं पर विषय चिंतन चालु है। योगी को विषय जगत से दूर हटना है। आत्मा के जन्म जन्मांतर के संस्कार और पशु मातृका के सम्मोहन से मुक्त होना है। सुषुप्ति जड़ शांति या मूर्छावस्था है। मन पूरितति नाड़ी की साईज़ लेकर उसमें प्रविष्ट होकर बाहर निकल नहीं पाता इसलिए गहन नींद का अनुभव होता है। 


३) प्राण संस्कार। 

आयुर्वेद के अनुसार मनुष्य देह में १०७ मर्म स्थान है जहां शिरा-स्नायु-संधि-मांस और अस्थि मिलते है। प्राण पूरे शरीर में व्याप्त है पर मर्म स्थानों में ज़्यादा।यहाँ वो मर्म है जहां प्राण चेतना का निवास है। जहां से जीवन उदित होता है। पूरे देह में जो गतिशील है वह वायु एक है, पर देशभेद से दस प्रकार है। जिनके नाम प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकिल, देवदत्त और धनंजय हैं। उसमें प्रथम पाँच मुख्य है। आयुर्वेद के अनुसार उदान कंठ में, प्राण हृदय में, समान नाभि में, अपान मलाशय में और व्यान पूरे शरीर में रहता है। इनके अलग अलग कार्य है। शैवों का प्राण-अपान श्वासोच्छ्वास में है। मध्य समान सुषुम्ना है। उदान सुषुम्ना प्रवेश है और व्यान व्याप्ति है। प्राणापन की पूरक कुंभक और रेचक क्रियाओं से प्राणायाम की स्थूल क्रिया होती है। उसमें मन लगाकर या तो प्राण से मन या मन से प्राण का विनियमन किया जाता है। योगी दस प्राण और २१६०० श्वास को नियमित कर उसकी गति मंद कर उस परम तत्व में विश्रांति करते है। शैवों के अनुसार परब्रह्म तत्व की प्रथम बाह्य अभिव्यक्ति प्राण है, इसलिए प्राणायाम की स्थूल बाह्य और आंतरिक क्रिया छोड़कर उस सूक्ष्मतम पद, परम स्पंदन, शांकर स्पन्दन को प्राप्त करना लक्ष्य है; जो हृदय में स्थित है, उसमें प्रवेश करना है। यहाँ स्थूल हृदय की बात नहीं है पर वो हृद कुहर जिसके मध्य में ब्रह्म तत्व विद्यमान हैं और जो अहम अहम से अभिव्यक्त है, उस चैतन्य में मन से प्रविष्ट होना है। अंतर ज्योति से गहरी डूबकी लगाकर तल में बैठ मज्जन करना है। भौतिक जगत की विष संवेदना से बाहर निकल उस अमृत संवेदना में प्रवेश करना है। उसमें मग्न होना है। तल्लीन होना है। तद्रूप होना है। चित्त के उस चमत्कार रस में डूब जाना है। पूर्णाहंता भैरवावस्था सिद्ध करना है। 


अमृत और मृत्यु दोनों भीतर प्रतिष्ठित है। मोह से मृत्यु और सत मार्ग से अमृत प्राप्त होता है। तीनों अवस्थाओं में चतुर्थ अमृत जो शुद्ध  विद्या का विस्तारित प्रकाश है उसको ग्रहण कर उसमें स्थित होना है। सूक्ष्म संस्कारों को देखते देखते पर्वतारोहण करना है। फिर जब शुद्ध विद्या रूप से प्रकटा अमृत बिंदु चला न जाए उसके प्रति सावधान रहना है। उस अमृत बिंदु को ग्रहण कर उसे सावधानी से सँभाल कर, जैसे तैल का एक बूँद धीरे-धीरे कर टब के पूरे जल में व्याप्त हो जाता है, वैसे शनैः शनैः उस अमृत बिंदु  मधुरस को तीनों अवस्थाओं में तुरीय का विस्तार करना है। फलस्वरूप विश्वात्मता, विश्वरूपता, अद्वैत, समदर्शी संविद शिवता को पाना है। 


उस मधु के क्षण क्षण एकत्रित कर, सावधानी से ग्रहण कर, उस अनुसार जीवनचर्या बनानी है। जिससे व्यवहारिक जीवन को ब्राह्मी भाव से रसमय बनाना है। उस रसमयता की तैल क्रम से शनैः शनैः व्याप्ति बढ़ानी है। तन्मयी भाव में आना है। तत् स्वरूप हो जाना है। तुरीया का आभोग विस्तार करना है। म्यान तलवार जैसी एकता करनी है। 


समदर्शी योगी को लौकिक व्यवहार में वर्णाश्रम भेद से बाहर होकर मुक्ति पद अद्वैत का आचरण करना है। वाक् संस्कार से मन संस्कार, मन संस्कार से प्राण संस्कार, और तीनों को अभिसूत्रण कर एकसूत्रता से अंतर्ल़क्ष्य विलीन कर दृष्टि की स्थिरता पाना है। ऐसे योगी की आँख खुली होगी पर उसका चित्त हृदयस्थ, ध्यानस्थ होगा। सावलंब समाधि से विमुक्त होकर उज्ज्वल (ऊर्ध्व की ओर ज्वलन प्रकाश) समरसता के सुख स्पंदन में मग्न होकर परम पद में प्रविष्ट कर, प्रसरण कर आत्मा की ओर आरोहण कर चेतना की परादशा को प्राप्त करता है।


ऊर्ध्व की ओर चरण कर चलना है। पहुँचना वहाँ है जहां वो अत्यंत रसमय आनंदमय उच्छलता का स्पंदन है। उसे पाना है जो प्राप्य हैं पर अनुभूत नहीं। उसके आकर्षण की प्रेरणा रहे। यहाँ यात्रा में जो साधन प्रयोग है उसके सूक्ष्मतम रूप में जाने का प्रयास है। चारों ओर से समेटकर मूल पर आना है। 


हाथ आई इस अनुभूति के अभ्यास से पूर्णरूप से जीवन में उतारें और उसका धीरे-धीरे प्रसार करें। पता नहीं कौन रोक रहा है? हरदम मौजूद पर जीवन रसमय बना नहीं। 


चौथा खोया नहीं है। प्राप्त है। बस मलावरण हटाने की देर है। 


चरैवेति-चरैवेति, यही तो मंत्र है अपना।

नहीं रुकना, नहीं थकना, सतत चलना सतत चलना।


पूनमचंद 

३ मई २०२२

भेद।

 भेद क्या है? 


अहम् और इदम् का विभाजन। हम पुरुष और प्रकृति अलग अलग। और हम क्या पंच कंचुक आवृत संकुचित ज्ञान। जीव प्रमाता। सकल प्रमाता। पाँचों शक्ति (सर्वकर्तृत्व, सर्वज्ञत्व, नित्य तृप्तित्व, नित्यत्व, स्वातंत्र्य)

मौजूद पर संकोचन से सीमित। 


हमारी पराधीनता आणव मल है। एक दूसरे का भेद दर्शन मायीय मल है और फल के उद्देश्य से किये कर्म से उत्पन्न कार्म मल है। 


बिना मल निवृत किये पूर्णाहंता का साक्षात्कार नहीं हो सकता। नया खड़ा नहीं करना है और संचित को समेटना है। 


निष्काम कर्म से कार्म मल से छूट सकते है। 


अखंड अभ्यास और स्वाध्याय से भेद की मायीय दिवार भी टूट सकती है। 


पर आणव मल, हमारी इतने लंबे वक्त की छोटे और संकुचित मानने वृत्ति यूँ ऐसे ही कैसे ब्रह्माकार हो जायेगी। गुरू लाख कहे पर मानेंगे तब बनेंगे न? अनुपाय है पर हमारी स्थिति देखते आणवोपाय और शाक्तोपाय से गुजरना पड़ेगा। बिना चक्की पीसे आटे का स्वाद यूँ कैसे आ जायेगा? 😁😜

चैतन्य।

 चैतन्य   


चैतन्य एक है, रसमय है। अहम् और इदम एक ही है परंतु शिवलीला के लिए अद्वैत द्वैत बना है। दीख रहे द्वैत का अद्वैत समझ लेना है। जान लेना है। 


चैतन्य की व्यापकता समझाने आकाश का और प्रकाशन समझाने सूर्य का उदाहरण दिया जाता है। पंच तत्व के क्रम में जैसे सर्व व्यापक आकाश ही संकोचन से अनुक्रम से वायु, अग्नि, जल और भूमि बना है, भूमि में भी घनत्व की भिन्नता से हल्के पदार्थ से भारी पदार्थ-धातु बने है वैसे ही चिति संकोचन से घनीभूत होकर चित्त बनी है। जैसे सूर्य चारों और प्रकाश बन है वैसे ही चैतन्य ज्ञान-बोधरूप होकर सर्वत्र मौजूद है। सूर्य की मर्यादा है। एक जगह रहकर प्रकाश फैला रहा है। चिति सर्वव्यापक है। इसलिए हर जागरण केन्द्र बिंदु है। चिति का मध्य है। 


यह घनीभूतता की कक्षा हर जीव में अलग-अलग होगी और इसके आधार पर स्व में स्थित रहने की क्रिया और उपायों में भिन्नता रहेगी। आयु, आरोग्य, वातावरण और संगत का फ़र्क़ भी रहेगा। इसलिए अपना उपाय खोजना है और उसके नियमित उपाय से स्व-स्थ रहना है, स्व-रूप की पहचान कर उजागर करना है। तमस् (अज्ञान) में उजाला (ज्ञान) बढ़ाना है। मृत्यु वाले (स्थूल शरीर और पुर्यष्टक) को छोड़ अमृत स्पन्द में अचल अटल आसन ज़माना है। बाक़ी सब शिव पर छोड़ समता और सामरस्य से वर्तमान जीना है। 


पूनमचंद 

४ मई २०२२

5.07 AM

तुरीयातीत।

 तुरीयातीत। 


मध्येડवरप्रसरः (२२)

प्राणसमातारे समदर्शनम्। (२३)

मात्रासु स्वप्रत्ययसन्धाने नष्टस्य पुनरुत्थानम्। (२४)

शिवतुल्यो जायते। (२५)


चौथी तुरीया अवस्था के प्रकाश से जाग्रत स्वप्न और सुषुप्ति को तैलवत धीरे-धीरे प्रकाशित कर दिया। उसमें रसमयता है पर पूर्णता नहीं। वेदांती का यह आख़िरी पड़ाव है। यहाँ एक भय स्थान है, पुनरुत्थान का। इसे मध्य दशा भी कहा है। विरूद्ध उत्थान की संभावना है। जैसे पहाड़ की छोटी छोटी नदियाँ कम बारिश से संतुष्ट होकर ओवरफ़्लो कर जाती है वैसे इस पड़ाव की संतुष्टि निकृष्ट जाने का ख़तरा रखती है। योगी की भौतिक चमत्कार या सिद्धि से प्रमाद वश योगी च्युत हो सकता है। 


शैव तुरीया को आख़री पड़ाव नहीं गिनते।योगी क्रम से चढ़े हैं इसलिए उतरने का ख़तरा बना रहता है। इसलिए यहाँ प्रमाद छोड़ना है। महाक्षोभ कर उठना है, उठाना है। शुभ्र प्रकाश के उस मधु रसमय सरोवर के आनंद को अग्रसर कर और आगे बढ़कर तुरीया को लांघकर अक्रम तुरीयातीत में प्रवेश कर जाना है। जिससे कि फिर पुनरुत्थान की गुंजाइश न रहे, पीछे हटना न पड़े। क्रमिक या क्षणिक संतुष्टि में नहीं फँसना है जब तक उत्तम कोटि का संतोष पूर्णता से उतर न आये।तब तक चलते रहना है जब तक लक्ष्य नहीं आया।चरैवेति चरैवेति। 


प्रारंभ में आनंद, अंत में आनंद और मध्य में क्षोभ क्यूँ? क्या उपाय रहेगा इस आनंद को अटूट रखने के लिए? 


प्राण का समाचार करने से समदर्शन प्राप्त होता है।प्राण का अर्थ स्थूल प्राण नहीं परंतु जो सृष्टि का जीवन है, प्राणन है, शिव प्रसार की प्रथम अभिव्यक्ति है, उस सूक्ष्मतम मूलरूप में पहुँचना है। स्थूल प्राण का संस्कार कर अनुक्रम से सूक्ष्म प्राण, परम प्राण से आगे प्राणन के स्पन्द क्षेत्र में पहुँचना है। आणवोपाय में क्रम से प्राण प्रवाह बाह्य इन्द्रियों और देह परिधि से भीतर मुड हृदय में प्रवेश करता है तब प्राण के मूलरूप प्राणन का साक्षात्कार करना है। जो भीतर प्रविष्ट हो गया वह मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाता है।  परमम् स्पन्दम् लभ्यते। स्पन्दन प्राप्ति से समदर्शन होगा, शिवता और अद्वैत दर्शन होगा।


दूसरा उपाय है स्वप्रत्यय। 


शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध के बाह्य विषयों और पदार्थों में स्व प्रत्यय जोड़ दे। मन, बुद्धि, अहंकार में भी स्व प्रत्यय जोड़े।क्या है यह स्व? ज्ञान-बोध-शिव स्वयं है। यह विश्व इदम्, मुज अहंता का ही स्वरूप है। यह चिद्घनरूप चैतन्य शिव के बाहर कुछ भी नहीं है। बाहर शिव, भीतर शिव, सब शिवरूप है ऐसे इदंता में अहंता का समावेश करने से निरालंबता आ जाती है। स्वप्रत्यय लगाने से पुनरुत्थान नहीं होता। 


तीन भूमिका से गुजरना है। १) भौतिक चमत्कार २) ऋतंभरा प्रज्ञा ३) प्रज्ञान ज्योति। 


भौतिक चमत्कार और एन्द्रिय अनुभूति मानसिक स्तर पर होती है। ऋतंभरा प्रज्ञा के विकास से विलक्षण चमत्कार में साधक अग्रसर होता है। लेकिन अवर प्रसव उसे पीछे ले जा सकता है। चित्त में वासना रहने से साधक पीछे मुड़ सकता है। प्रज्ञा से शुद्ध तत्व के उदय और निर्मलता आने से भूतजय होता है। जिसमें पंच महाभूत अपना स्वरूप स्पष्ट करते है। फिर इन्द्रिय जय होता है। जिससे इन्द्रियों के वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार होता है। अब लौटने की गुंजाइश नहीं। ईश्वर समान होकर उस स्थिति में वैराग्य धारण कर प्रज्ञान ज्योति परा सिद्धि प्रवेश करता है। 


ऐसा योगी जो तुरीयातीत में जाकर पूर्णाहंता से पूर्ण हुआ, जिसके संशय विकल्प न रहे, समता आ गई, वह शिव जैसा हो गया। सर्वज्ञत्व और सर्वकतृत्व का सामर्थ्य आ गया। शिवतुल्यो ज़ायते। प्रारब्ध से मिला देह पड़ा नहीं इसलिए शिवो जायते नहीं कहा किंतु  देह की वजह से शिवतुल्यो जायते कहा। विदेह मुक्ति के पल शिव हो जाता है। शरीर के साथ जीवन्मुक्त शिवतुल्य है। 


व्रत क्या लोगे? 


सत्यव्रत है। स्व स्वरूप का विमर्श क्या है? नित्य प्रतिक्षण उदय स्थिति। प्रतिक के तौर पृथ्वी के द्वैत से सूर्य का उदय अस्त भासमान है पर सूर्य पर सू्र्य का कैसा अस्त? निरालंब को कैसा आलंबन। वस्त्र, कर्मकांड, मुद्रायें, बाह्य पूजा इत्यादि किसलिए? सदा मुद्रित की कौनसी मुद्रा? असली मुद्रा परम शिव है। अव्यक्त लिंगम्, स्वयंभू, अव्यक्त होते हुए स्वरूपों में प्रकट है। 


शैव दर्शन सूक्ष्मतम की साधना है इसलिए अवस्तंभ से उठो। रूके हो वहाँ से जागो और चलो। जैसे सोईं 

कुंडलिनी को भी जगाना पड़ता है, वैसे साधना के क्षणिक संतोष से बाहर आकर मध्य के अवर प्रसर को हटाकर आरंभ मध्य और अंत की एकतानता करें। अंतर्मुखी जागरण बनाये रखे।विद्या का संतोष अच्छा नहीं जब तक शिव समदर्शन के अक्रम तुरीयातीत स्पन्दन में प्रविष्ट न हो जाएँ। 


भले ही मूल घर से आने के बाद यह प्रवासी घर का आनंद चला गया हो, पर मूल घर वापस लौटना है ऐसा जानकर भी उत्साह और आनंद बनाये रखे। जगत नाम के इस महास्वप्न में कहाँ तक सोते रहना है?  साधना के सोपान में चढ़ते चढ़ते सावधानी बरतनी है। जागरूकता मंद नहीं होने देनी है। इदम् अहम् एकरूप देखता वह समदर्शी शिवता में स्थित रहता है।


उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।।

क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ।।

(कठ.१.३.१४) (उठो, जागो, और जानकार श्रेष्ठ पुरुषों के सान्निध्य में ज्ञान प्राप्त करो। ज्ञान प्राप्ति का मार्ग उसी प्रकार दुर्गम है जिस प्रकार छुरे के पैना किये गये धार पर चलना। )


पूनमचंद 

४ मई २०२२

दानी गुरू।

 दानी गुरू। 


जिस योगी ने तुरीयातीत स्थिति पाई है और जिसे शिव की स्वातंत्र्य शक्ति और समता प्राप्त हुई है, उनका व्रत कैसा होगा? 


जब ‘मैं शिव हूँ’, ऐसे साक्षात्कार भाव से शरीर में अवस्थित हो, ऐसी शिवतुल्य स्थिति को पंचभौतिक शरीर में सँभाल दिव्यता का आधान किया हो, यह स्थिति ही उनका व्रत है। उनका पूर्ण स्वरूप, नित्य उदित बोध में रहना ही व्रत है। 


उनका उठना, बैठना, चलना, सोना, बोलना, इत्यादि सब क्रिया मुद्रा है। 


उनकी वाणी, वाक्य, शब्द जप रूप है। कथा जपः।


मैं ही परम हंस, मैं ही परम कारण, मुझ में ही सब उदित और लीन हो रहा है, मैं ही हूँ, मेरे अलावा और कुछ नहीं, ऐसा पूर्ण बोध, शिव शक्ति सामरस्य, अहम, पूर्णोहम, अहम विमर्श, उनका विमर्श है। इसी अकृतिक अहम भाव में सतत अवस्थित है। चेतना ही विमर्श है। प्रकाशरूपता का अनुभव है। नित्योदित स्थिति है। 


ऐसे स्वात्म विमर्श में होना ही जप कहलाता है। 


ऐसे अजपा जप में मग्न शिवात्म साक्षात्कारी योगी के निकट पहुँच गये तो उनकी ऊर्जा औरा में आते ही हर जीव, मनुष्य, पशु, पक्षी शांत होकर उनके प्राण और मन समान प्राण और मन की समता का अनुभव करते है। वह दानी है। दानम् आत्मज्ञानम्। अपने आत्मज्ञान के प्रकाश में डुबायेंगे, स्नान करायेंगे। विकल्प चले जायेंगे। निर्विकल्प स्थिति हो जायेगी। आत्मज्ञानी योगी साक्षात्कार ज्ञान का दान समझदार मुमुक्षु को करते है। अपने स्वरूप का दान करते है। पिंड बनकर प्रवेश कर लेते हैं और स्वरूप साक्षात्कार कराते है। 


ज्ञान का अर्थ शब्दों, शास्त्रों के अर्थ की जानकारी नहीं। साक्षात्कार है। अपरोक्ष अनुभूति। प्रत्यक्ष नहीं, परोक्ष नहीं, अपरोक्ष। स्वयंभू स्वयं प्रकाश की अनुभूति। नित्योदित अनवरत स्थिति। चैतन्य रूप आत्मा का साक्षात्कार। 


दान का अर्थ क्या? दीयते परिपूर्णम् स्वरूपम्। अपने पूर्ण स्वरूप का दान देते है। दीयते खंडयते विश्वभेदः। विश्व में जो भेद है उसे तोड़ देते है। दायते शोध्यते माया स्वरूपम्। माया के स्वरूप का शोधन करते है। माया की स्वातंत्र्य शक्ति हमें बांधती है, उसके शोधन से, शुद्धिकरण से शिव की स्वातंत्र्य शक्ति का अनुभव होता है।दीयते रक्षते लब्धे शिवात्म स्वभाव। शिव स्वभाव प्राप्त कराकर उसकी रक्षा करते है। 


ऐसा साक्षात्कार, विश्व भेद खंडन, माया शक्ति शोधन कर अपने शिवात्म स्वरूप में स्थापित करते है वही गुरू है। उसी अंतःगुरू को नमन हो। 


मैं पूर्ण हूँ, पूर्ण हँस हूँ, स्वयं नाद की अनुभूति है वही जप है। मेरे होने की भावना भीतर से ही तो उठ रही है। अहमात्मका छलक रही है। वही जप है। बाहर आ रहा श्वास प्राण है, सकार है। भीतर जा रहा अपान है, हकार है। हंस हंस, जीवो जपति नित्यम्। मंत्र चल ही रहा है। सकारेण बहिर्याति, हकारेण विशेत् पुनः। सोડहम्। मैं यह हूँ। I am that. करना कुछ नहीं है। मंत्र जपो या न जपो अहर्निश २१६०० अजपा नाद जप चल रहे है। बस जागरूक होकर भावना जोड़नी है। हं-सः, हं-सः। रिधम से जागरूक होकर चित्त को उस जप यज्ञ के साथ जोड़ देना है। बार-बार, भूयो भूयः। गिनती नहीं करनी है। पुरुष प्रकृति का मिलन है। मिलन में प्रेम जोड़ना है। प्रेम से जाप में जुड़ जाना है। प्रेम भाव ही चाबी है। 


गुरू दानी है। उनके दान और हमारे उन पर पूर्ण विश्वास का जोड़, और चेतन भावना प्रेम सहित जुड़ जायें तो बस काम हो गया। 


समदर्शन अब दूर नहीं, साक्षात्कार से कुछ कम नही। 


🕉गुरूभ्यो नमः। 


पूनमचंद 

५ मई २०२२

Guru is a donor

 आत्मज्ञान दानी गुरू की योग्यता। 


दो बात सीखी थी। गुरू शिव तुल्य (जैसा) हो और दानी हो। आत्मज्ञान का दान दे। साक्षात्कार करायें। 


कैसे पहचानें? क्या होगी योग्यता?  


कहाँ है वहः


जिसका अपनी पूर्णावस्था में रहना नित्य व्रत है। 


जो अखंड अजपा हंसः जप में अवस्थित है। 


जो निज शक्ति चक्र पर आरूढ़ है। 


जिसने ज्ञानेंद्रियो और कर्मेन्द्रियों पर विजय पा लिया है। 


ऐसा गुरू दृष्टि, स्पर्श, वाणी या संकल्प से स्व का ज्ञान करायेगा। 


जो हमें नया नेत्र देगा जिससे हमारी भेद दृष्टि अभेद हो जायेगी। 


जो अविपस्थ है। अविप यानी, जो पशु की रक्षा करे।


पशु अर्थात् हम जीव जिन पर पशु मातृका का बंधन है, अशुद्धि जमी है, ज्ञान संकोच हुआ है, पाँच चक्र का संकोच है (वामेश्वरी, खेचरी, गोचरी, दिग्चरी, भूचरी)। खेचरी ने प्रमाता, गोचरी ने अंतःकरण, दिग्चरी ने बहिर्करण और भूचरी ने जगत को संकुचित किये है। हमारी दृष्टि पर संकोचन के चश्मे चढ़े है। जिससे संसार वामाचार यानि विपरीत चल रहा है। 


खे का अर्थ होता है गगन। कितना विशाल है? असीम। पर खेचरी के प्रभाव में हमने उस आकाश को अपने शरीर जितना छोटा संकुचित घटाकाश बना दिया है। संकोचन हमारी पसंद है इसलिए बंधन का दुःख है। 


गो अर्थात् अंतःकरण (मन, बुद्धि, अहंकार)। गोचरी के प्रभाव में बुद्धि में अभेद के बदले भेद का निश्चय हुआ है। संकुचित अभिमान से अपने परमार्थिक पूर्ण स्वरूप को छिपाकर संकुचित बने है। 


दिक् अर्थात् दिशायें। दिग्चरी के प्रभाव में हम पाँच ज्ञानेंद्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ से पाँच विषयों शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गंध को भेद बुद्धि से ग्रहण करते है। अभेद का संकुचन बना है। 


भू अर्थात् पंच महाभूत से बना बाह्य जगत। भूचरी का प्रभाव हमें वस्तुओं की विविधता से हमें मोहित और भ्रमित कर देता है। मर्यादित आयु में जो चुनना है उसे छोड़ वस्तु पदार्थ की प्राप्ति और माल्कियत के दौड़ में असंतोष और ईर्ष्या से भर गया है।  


वह जिसने उपर दर्शायी पाँचों शक्ति पर नियंत्रण किया है वह जो खे अर्थात् पूर्ण गगन में व्याप्त अखंड चेतना में चिन्मय आत्मरूप से विचरण करता है (खेचरी); जिसके अंतःकरण में अभेद का निश्चय किये हो (गोचरी); जो सभी दिशाओं में अभेद देखता है (दिग्चरी); जो समस्त विश्व को अपना अंग मानता हो (भूचरी) और चारों के मूल वामेश्वरी पर जिसका नियंत्रण हो, जिससे संसार का वामाचार नहीं पर दृश्य विश्व जिसका प्रकाशन है ऐसी एकता नवी है।वही योगी गुरु आत्म दान का अधिकारी है। हमें पशुता के बंधन से मुक्त कर हमारी रक्षा करता है। 


जो भेद दृष्टि को अभेद में बदल स्व की पहचान (प्रत्यभिज्ञा) कराता है। परतंत्र शक्ति से बंधे हमें जो हमसे मिला दे, सच्चे स्वरूप में स्थापित करे, जो पशुता से हमारी रक्षा करें वही ज्ञान देने का, साक्षात्कार कराने का अधिकारी है। 


वो जो खुद है वह हमें बना देता है। स्व प्रकाशन करा देता है। उसकी और हमारी आत्मा एक है इसलिए साक्षात्कार भी एक ही हो जाता है। 


ऐसा शिवतुल्य योगी, जो प्रकाश रूप है, जो यह विश्व को अपनी ही शक्ति की स्फार विस्तार जानकर उस विमर्श बोध में अवस्थित है, जो घनीभूत विश्व को क्रिया शक्ति के स्फूरित हो रहे विकास जानता हो, जिसके पास पूर्ण दृष्टि हो, जो मृत्युंजय भट्टारक है वही गुरू है जो आत्मज्ञान के दान का अधिकारी है। 


पहचानोगे? 


जिसके पास जाते ही मन, प्राण सम हो जायें। विकल्प नष्ट हो जायें। संशय समाप्त हो जायें। जिसमें विश्वास हो जायें। 


पूनमचंद 

६ मई २०२२

Not to remove the world

 जो है उसे हटाना नहीं है। 


अक्सर हम गलती कर बैठते है। जो दिखता है उसके बाहर दूसरा कोई चमत्कार रंग दृश्य देखना चाहते है जो हमारी कल्पना या बार-बार दिये संस्कारों में हो। अब किसी के सामने खाने का थाल परोसा हो और वह उसे खाकर आनंदित होने के बदले दूसरे किसी थाल की प्रतीक्षा करें यह कैसा? शिव और उसका शिवत्व कहीं खोया नहीं है। हमारे आसपास, हम खुद उसकी विमर्श के रूप में देदीप्यमान है। इसलिए यहाँ किसी को हटाकर नया कुछ लाना नहीं है। जो है उसे नई नज़र से देखना है। हटाना कुछ भी नहीं है अपितु समावेश बढ़ाना है। सर्व समावेश तक पहुँचना है। तभी तो जाकर शिव वृत्ति, ब्रह्म वृत्ति बनेगी। जब तक वृत्ति बढ़ी नहीं, आँचल फैला नहीं तब तक कैसे धारण करोगे, अपने शिव स्वरूप को। 


सर्व समावेश ही पूर्णाहंता की चाबी है। सिद्धि चमत्कार सब बाय प्रोडक्ट है, लक्ष्य नहीं। 


पूनमचंद 

६ मई २०२२

५.५० AM

शुद्ध विद्या।

 शुद्ध विद्या सत्व सिद्धि। 


शुद्धविद्योदयाच्चक्रेशत्वसिद्धिः। (शिवसूत्र.२.२१)


शिव से भूमि पर्यंत अवरोह क्रम से बनी यह ३६ तत्वो की शिवलीला का उपर से पाँचवा पड़ाव है शुद्ध विद्या। नीचे सकल, प्रलयकल, विज्ञानाकल को पार कर प्रमाता माया क्षेत्र को लांघकर जब शुद्ध विद्या क्षेत्र में प्रवेश करता है तब उसकी वास्तविक आध्यात्मिक यात्रा का दिव्य प्रारंभ होता है।


छठ्ठा माया तत्व यहाँ मिथ्या या असत्य नहीं है। परंतु जगत योनि के रूप में है, जिसके द्वारा चैतन्य शिव खुद को अनेक रूपों में विभाजित करके भौतिक रूप में प्रकट हुआ है। माया योनि से एक अनेक बन व्यवहार के लिए एक दूसरे में भेद हो खड़ा है।  


सांभवोपाय, शक्ति उपासना से शुद्ध विद्या पड़ाव

पर पहुँचते प्रमाता में ज्ञान संकोच हटता है और अहमेव सर्वम् का ज्ञान होता है जिससे भेद में अभेद का दर्शन होना शुरू हो जाता है।एक ही शक्ति के स्पन्दन में सारा विश्व है, और शिव का यह विमर्श मैं ही हूँ यह अनुभूत होता है। क्रिया शक्ति का अनुभव होता है। मंत्र देवता है इसलिए मंत्र सिद्धि से सिद्धियाँ प्राप्त होती है। समस्त पारमेश्वरी शक्तिओ के चक्र का स्वामी बन जाता है। महामंत्र वीर्य बल आता है। 


शुद्ध विद्या के आगे ईश्वर, सदाशिव, शक्ति और शिव चार भूमिका है। जिसमें अलग अलग भूमिका में इदम और अहम् की एकता सिद्ध होती है। आख़री में रहता है अहम्, पूर्णाहंता। 


आज सुबह के सत्र में एक मंत्र मिला; हं-सः, हं-सः। शक्ति मंत्र है। माया क्षेत्र लांघकर शुद्ध विद्या क्षेत्र में प्रवेश करा सकता है। चढ़ाई है इसलिए जो चलता रहेगा वह पहुँचेगा। मंत्र को चलाना पड़ता है। जो मंत्र चलायेगा, सिद्धि उसके कदम चूमेगी। हालाँकि सिद्धि उपादेय नहीं। लक्ष्य तो है समदर्शन, शिवत्व, पूर्णाहंता। 


चरैवेति चरैवेति। 


पूनमचंद 

६ मई २०२२

Third Eye

 एक आँख जो कभी बंद नहीं। 


स्वशक्तिप्रचयोડस्य विश्वम्। (३०)

स्थितिलयौ। (३१)

ततप्रवृत्तावप्यनिरासः संवेत्तृभावात्। (३२)

सुखासुखोबहिर्मननम्। (३३)

तद्विमुक्तस्तु केवली।  (३४)

(शिवसूत्र ३.३०-३४)


अपना निरीक्षण करें। 


आप कौन हैं? 


एक तो जो नाम दिया है वह शरीर। दूसरा उस शरीर की चेतना। एक सीमित, दूसरा असीम। असीम के आँचल में सीमित प्रकाशित हो रहा है। एक कैनवास स्क्रीन और दूसरा उस पर चित्र। जीवन व्यवहार सीमित में पर उसका बैकग्राउंड प्राण चेतना। 


आपमें कौन है जो मुक्त है क्योंकि अपने विस्तार का अनुभव करता है? जिसमें कभी कमी नहीं होती? 


जो नित्योदित है। जिसमें सृष्टि स्थिति लय, जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति, भूत वर्तमान भविष्य हो रहा है। जिस के पर्दे पर यह सब चित्र प्रकाशित, उदित-स्थित-लय हो रहे है पर वह चेतन पर्दा अंचल है, स्थिर है, सतत है, अखंड है। अविद्या का प्रपंच जिसमें उदित और अस्त हो रहे है पर वह नित्योदित है।जिसका कभी अभाव नहीं। 


आप पूर्ण हो। तीनों स्थिति का प्राण चौथा तुरीय आनंद हो। स्थिति बदलेगी पर आप बिना कटे निश्चल, प्रशांत, अटल और पूर्ण  एक हो। तृप्त हो। उत्साह, ऊर्जा, उच्छलता हो। कर्ता-कार्य, ज्ञाता-ज्ञेय, प्रमाता-प्रमेय, उपाय-उपेय अवस्थाओं का युगपद् आप एक ही हो। 


अखंड चेतना हो। 


वो बोध हो जो सब को जानता है। उस जानने वाले को जानो। 


प्रमेय भी आप हो और प्रमाता भी आप। आप की रोशनी में तो सब कुछ प्रकाशित हो रहा है। आप ही object or subject दोनों बन प्रकाशित हो रहे हो। एक ही अनेक बन प्रवृत्त हो। 


आप स्वयं हो। 


उस आप में जीएँ। उस अखंड में जीएँ। उसके लिए जीएँ। कार्य होने से या नहीं होने से, कुछ मिलने से या नहीं मिलने से, क्या आप चले गये? क्या आप नष्ट हुई? आप हमेशा हो। 


मैं हूँ यह बोध कभी गया नहीं।


प्रार्थना करें कि यह ज्ञान ठहर जायेः 


“मैं अनुत्तर का अमृत कुल हूँ, अमृत से लबालब भरा हृदय हूँ। मेरा हृदय सतत विकसित हो, विस्फारित हो, जिससे सतत अमृत टपकता रहे।” 


उस अखंड चेतना समुद्र का अंतर्मुख होकर अभ्यास करें। उस चेतन पर्दे पर प्रकाशित हो रहे सृष्टि-स्थिति-लय, जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति के चित्रों में अखंड तुरीया जोड़कर उसका आनंद लें। 


उस चेतना से सतत जुड़े रहने का अभ्यास करें। स्वाध्याय करें। अखंड ध्यान बनाये रखें। 


मोह लोभ, सुख दुःख, विकल्पों का खेल सब खंडित में हो रहा है। आप उस निश्चल, प्रशांत, अखंड से जुड़े रहो। प्रशांति जाती नहीं। यह दृश्यमान विश्व आपकी शक्ति का ही विस्तार है।


सृष्टि-स्थिति-लय तीनों एक साथ चेतना में घटित हो रहे है उसका अवलोकन करें। एक चित्र बनता है, कुछ स्थिति बनती है, फिर दूसरा चित्र सामने आते ही प्रथम का लय हो जाता है। वैसे ही साँस आता है, ठहरता है, जाता है, ठहरता है। जाग्रत स्वप्न और सुषुप्ति में भी अवस्था बदलेगी पर एक अखंड संविद बना रहेगा। वैसे ही विचारों का है। वैसे ही व्याख्यान के दौरान हमारे ध्यान का है। प्रवचन के बीच चिंतन में चले गये तो प्रवचन का प्रवाह छूट जाता है। यह आवन जावन ठहरन निज संविद में ही तो हो रहा है। उस चेतना की सतह को पहचाने। यह सब खंड खंड हो रहे चित्रों-घटनाओं-अवस्था-स्थिति के मध्य पर ध्यान दे। तैल वत उस तुरीय पर अनुसंधान रखे। वही मध्य समाधि है। वह तुरीय खंडों को जोड़ रख अखंड का आस्वादन करायेगा। साक्षात्कार होगा, अखंड चेतना का। अपने सच्चे स्वरूप का। अमृत का।शरीर जायेगा पर मैं नित्योदित की कभी मृत्यु नहीं, वही मृत्युंजय का मिलन होगा। अपना खुद का खुद से मिलन। 


सत्संग चेतना पर लिखें। बीज बनकर रहेगा तो एक दिन फल बनकर प्रकट होगा। अपनी चित्त ज़मीन की जाँच करो। उसे उपजाऊ बनाओ। उसमें से अविद्या के खर पतवार निकाल, अखंड चेतना के बीज को धारण कर अपने भीतर अवस्थित हो जायें। 


अपने होने की नित्य अनुभूति आप को है। 


आप के होने का आपको क्या सबूत चाहिए? 


आप वो संविद शक्ति हो जो सतत विद्यमान है। अपना होना कभी नहीं बदला। मैं हूँ यह बोध कभी नहीं गया। जो होने या न होने को जानता है, जो अच्छा लगा बुरा लगा दोनों को जानता है, जो कुछ समझ में आया कुछ समझ में नहीं आया का जानता है, जो मुझे हिन्दी आती है पर रशियन नहीं आती को जानता है, वह जो सब जानता है वही अखंड चेतना मेरा सत्य स्वरूप है। वही मेरी प्रत्यभिज्ञा है। 


मैं शरीर और मैं चेतना, एक पर्दा एक चित्र, दोनों को एक कर देखो। शोधन करते जाये। विचार, विकार, भाव उठे बैठे उसको देखते रहिए और अपने “सर्वम् शुद्धम् निरालंबन ज्ञानम् स्वप्रत्ययात्मकम” आत्मा को देखकर पहचानें। संशय रहित होकर देखें। reveal and perceive. 


साक्षात्कार अभी इसी क्षण। 

आप आपसे (चेतना) दूर कहाँ? 

आप ही हो अमृतसर। 


उस आँख को पहचानो जो कभी बंद नहीं हुई। 

उस दृष्टि को पा लो जिसके बाद और कोई नज़र की ज़रूरत न हो।


जीवन पूर्णता से जीएँ। 

वर्तमान में जीएँ। 

अखंड आत्मरूप से जीएँ। 


उस आदर्श योगी, अंजन शलाका, आत्मज्ञान के दानी, नई दृष्टि-नज़र-आँख-विद्या देनेवाले गुरू को नमन हो। उसके चरण कमल में मेरा आश्रय हो। 


जिसने प्राप्य को प्राप्त कराया; मेरे “अखंड चैतन्य“ स्वरूप की प्रत्यभिज्ञा (पहचान) कराई; वह गुरू, वह शक्ति, वह शास्त्र, वह अंतर्गुरू को नमन हो। 


उनको नमन हो जिसने चेतना के ज्ञान संकोच को दूर कर अखंड बोधरूप चेतन पर्दा दिखा दिया।


🕉गुरूभ्यो नमः। 


पूनमचंद 

७ मई २०२२

Character of a Siddha

 प्रश्न.१ सिद्धयोगी के लक्षणों की सूचि बनाये। 


शिवतुल्यो जायते। (२५)

शरीरवृत्तिर्व्रतम्। (२६)

कथाजप। (२७)

दानमात्मज्ञानम्। (२८)

योડविपस्थ ज्ञाहेतुश्च। (२९)

स्वशक्तिप्रचयोડस्य विश्वम्। (३०)

स्थितिलयौ। (३१)

ततप्रवृत्तावप्यनिरासः संवेत्तृभावात्। (३२)

सुखासुखोबहिर्मननम्। (३३)

तद्विमुक्तस्तु केवली।  (३४)


सिद्व शिवयोगी के लक्षण इस प्रकार है। 


१) शिव की पंच शक्ति से युक्त वह शिव तुल्य है।

२) उनकी शरीर संबंधी क्रियायें (स्नान, पान, भोजन, आराम इत्यादि) व्रत है। 

३) वह जो भी बोलते है, जप है।

४) वह आत्मज्ञान का दान करता है।

५) शक्ति चक्र पर शासन से खेचरी आदि शक्तियाँ उसके अधिनियम में होने का अनुभव रखता है। 

६) विश्व को स्व शक्ति के आधिक्य में मानता है। 

७) संसार की स्थिति और लय अपने आधिक्य में देखता है। 

८) विश्वमय रहते हुए अपने विश्वोर्तीर्ण स्वरूप से च्युत नहीं होता। 

९) बाह्य पदार्थों की तरह अंदर के सुख दुख इत्यादि भावो पर तटस्थ रहता है।

१०) केवल चिन्मात्र प्रकाशरूप में अवस्थित रहता है। 


प्रश्न.२ 


सूचि में किसी एक बिंदु पर ध्यान रखते हुए अभ्यास करें। 


पूर्णाहंता का स्वरूप ज्ञान करना है इसलिए बुद्धि को चैतन्य आत्मा स्वरूप का ठोस निश्चय कराना है। बार बार उसका जागरूकता से अमल करना है। बाह्य पदार्थों की तरह अंदर के सुख दुःख काम क्रोध इत्यादि के प्रति तटस्थ भाव बनाये रखना है। हंसः हंसः अजपा जाप के प्रति जागरूक रहना है। चेतना के पर्दे पर पिक्चर में भी पिक्चर के खेल को तटस्थ भाव से देख एक चैतन्य में सबको समावेश करना है।


हम जड़ शरीर और चेतना की जोड़ है। दोनों के परस्पर तादात्म्य और तीन पाश (मल) से जीव-पशु-अल्प-बद्ध शिव बने है। इसलिए पूर्ण अहंता में स्थित नहीं होते तब तक पूर्ण मुक्त जागरण से चलते रहना है। 


प्रश्न ३. सहजानंद में निमग्न रहने किस बात का ध्यान रखेंगे। 


मैं चैतन्य हूँ यह बात कभी नहीं भूलना है। विशेषण हटाकर सामान्य स्थिति में रहना है। बाह्य की तरह आंतर-तरंगों के प्रति तटस्थ रहना है।जागरूक  रहकर चैतन्य समुद्र छोड़ना नहीं है। विश्व मेरा ही शरीर है, मेरा ही विस्तार है ऐसे देखना है। अनुभूत करना है। 


बड़ा कठिन है विश्व को मैं स्वरूप देखना। जिसको देखे, एक व्याख्या पूर्वाग्रह बना हुआ है। इस दिवार को तोड़े बिना चेतना का विस्तार हो नहीं सकता। सबको स्वीकार ना है और वह मैं हूँ यह अभ्यास दृढ़ करना है। अन्जान के लिए सरल है। कसौटी जानने वालों की है। क्योंकि वही तो हमारा जगत है, जो बनाया है हमने ज्ञान संकोच से। 


पूनमचंद 

८ मई २०२२

Sahajananda

 सहजानंद। (शिवयोगी लक्षण)


चिन्मय आत्म स्वरूप में स्थित शिवयोगी की 

ब्रह्ममयी स्थिति लक्षण से पहचानी जाती है।सभी सूत्रों को जोड़कर पढ़ने से ल़क्षणो का बोध होता है। आज शिवसूत्र २५-३४ का समूह लेते है।


दस सूत्र दस लक्षण। 


शिवतुल्यो जायते। (२५)

शरीरवृत्तिर्व्रतम्। (२६)

कथाजप। (२७)

दानमात्मज्ञानम्। (२८)

योડविपस्थ ज्ञाहेतुश्च। (२९)

स्वशक्तिप्रचयोડस्य विश्वम्। (३०)

स्थितिलयौ। (३१)

ततप्रवृत्तावप्यनिरासः संवेत्तृभावात्। (३२)

सुखासुखोबहिर्मननम्। (३३)

तद्विमुक्तस्तु केवली।  (३४)

(शिवसूत्र ३.२५-३४)


शिवयोगी के लक्षण इस प्रकार है। 


१) सहज विद्या के उदय से शिव की पंच शक्ति से युक्त वह शिव तुल्य है। जिससे वह अन्य जीवों को पाश (मल) से मुक्ति देने में समर्थ है।


२) जीवन मुक्ति की दशा में उसके शरीर संबंधी क्रियायें (स्नान, पान, भोजन, आराम इत्यादि) व्रत बन जाते है। 


३) वह जो भी बोलते है, जप बन जाते है। अहं विमर्श का शाक्त जाप, सोहम् अजपा जाप, हंसः हंसः नित्य जाप या सदैव प्रणव तत्व विमर्शन का निष्कल जप। 


४) योग्य साधक को वह आत्मज्ञान का दान करते है। बंधनों क्लेशों से उसकी रक्षा करते है। 


५) सहज विद्या उदय से शक्ति चक्र पर शासन करता हुआ खेचरी आदि का स्वामी बन, सब शक्तियाँ उसके अधिनियम है ऐसा अनुभव करता है, और पशु मातृका शक्तिचक्र बंधन से साधक की रक्षा करता है। 


६) विश्व को स्व शक्ति का विस्तार या बहिर्मुख परिस्पन्द मानकर सृष्टि-संहार कर सकता है। 


७) संचार और लय दोनों स्थितियों को अपनी स्व शक्ति के प्रचय (आधिक्य) के रूप में देखता है।


८) अपनी इच्छा से विश्वमय (सृष्टि स्थिति लय) होते रहने पर भी अपने विश्वोर्तीर्ण, शुद्ध-स्वतंत्र-प्रमातृभाव से च्युत नहीं होता। 


९) बाह्य नील घट आदि पदार्थों की तरह अंदर के सुख दुख इत्यादि को खुद चैतन्य से अलग कर तटस्थ भाव रखता है। उसे अपने पर आरोपित कर विशेषता नहीं बनाता। सामान्य चेतना भाव बनाये रखता है। द्वैत ख़त्म कर पूर्ण स्थिति में रहता है। 


१०) जो केवल चिन्मात्र प्रकाशरूप में अवस्थित रहता है और जीवन मुक्त है।


घृत्वा द्वैत महामोहम् घृत्वा ब्रह्ममयी स्थिति। 

लौकिके व्यवहारेડपि मुनिः नित्यम् समाविशेतः। 


द्वैत महामोह को काटा?

एकत्व (ब्रह्ममयी स्थिति) बना? 

मनन कर मुनि बने?

नित्य समावेश हुआ?


पिक्चर के भीतर पिक्चर का भेद खुला? 

अभेद अनुभव किया? 


अगर शुद्ध चेतना में तैरना शुरू किया तो सहजानंद है। लक्षण प्रकट होंगे। 


पहचाने, कुछ बना क्या? 

पता लगा लें, कहाँ क्या कमी है। 


आप हो चैतन्य अखंड अमृत, फिर भी चेतन के पर्दे पर शरीर के अंदर और शरीर के बाहर का जगत खड़ा कर ज्ञान संकोच से बंधन का अनुभव कर रहे हो।


क्या वह बंधन कटा? 

चैतन्य समुद्र में अपने आपको फेंका क्या? 

क्या उस अखंड चेतना में खुद को बैठाया? 

पूर्णता का अनुभव हुआ? 

क्या निज स्वरूप पहचाना? 


परीक्षा लीजिए खुद की। 

लक्षण परीक्षण करें। 


जैसे बाह्य जगत की चीज वस्तुओं पदार्थ को अलग मानकर उसे जाननेवाले आप उससे भिन्न है वैसे ही आंतरिक जगत जिसमें सुख, दुःख, काम, क्रोध, मंद, लोभ, मोह, राग, द्वैष इत्यादि अनुभव हो रहा है क्या उसको भी बाह्य जगत की तरह अलग कर देख नहीं सकते? जैसे ही अलग किया उसकी असर से, उसके बंधन से आप मुक्त हो गये। आप अपने समत्व स्वभाव में क़ायम रहेंगे। पूर्ण हो, पूर्ण बने रहोगे। सामान्य हो, जैसे विमुक्त हुए, विशेषण का पीछा छुड़ाया, अखंड में अवस्थित हो गये। शरीर से मुक्त आत्मस्थ। 


सहजानंद का स्पर्श हुआ तो छूटेगा नहीं। 


दूर दीपक के जलने से बार नहीं बनेगी, अनुभूत करो। 


नर्तक आत्मा कैसे खेल रहा है, निहारों। पूर्ण जागरूकता से देखो। 


शरीर चैतन्य का जो फेविकोल जोड़ बना है उसमें से चतुराई से, बुद्धि की सूक्ष्मता से पृथक कर असली भाग चैतन्य में आसन ज़माना है। 


वहाँ न सुख है न दुःख। ग्राह्य-ग्राहक, वेद्य-वेदक, ज्ञेय-ज्ञाता, उपाय-उपेय, सबको अपनी चेतना में देखो। प्रमेय-प्रमाता की भूमिका से उपर उठ subjective consciousness से बाहर आकर objective consciousness (सर्वात्मक), प्रमातृ दशा में ‘मैं चेतनरूप हूँ’, और सुख दुःख इत्यादि चलचित्र है जो आते जाते रहते हैं, पर मैं अटल अखंड सहजानंद में स्थित हूँ, ऐसे बोध में स्थित हो जाए। 


सहज विद्या पाये। 

सहजानंद बने। 


हो ही.. पता बताया है, पहुँचना है।  


पूनमचंद 

८ मई २०२२


NB: सिर्फ़ दूसरे लक्षण पर ही ठहर मत जाना। 😜


सन्तो, सहज समाधि भली।

साँईते मिलन भयो जा दिन तें, सुरत न अन्त चली।।

आँख न मूँदूँ काम न रूँधूँ, काया कष्ट न धारूँ।

खुले नैन मैं हँस हँस देखूँ, सुन्दर रूप निहारूँ।।

कहूँ सो नाम सुनूँ सो सुमिरन, जो कछु करूँ सो पूजा।

गिरह-उद्यान एकसम देखूँ, भाव मिटाऊँ दूजा।।

जहँ जहँ जाऊँ सोई परिकरमा, जो कछु करूँ सो सेवा।

जब सोऊँ तब करूँ दण्डवत, पूजूँ और न देवा।।

शब्द निरन्तर मनुआ राता, मलिन बचन का त्यागी।

ऊठत-बैठत कबहुँ न बिसरै, ऐसी तारी लागी।।

कहैं कबीर यह उन्मुनि रहनी, सो परगट कर गाई।

सुख-दुख के इक परे परम सुख, तेहि में रहा समाई।।

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