Wednesday, December 20, 2023

आँख।

 आँख। 


मनुष्य जगत अपने इष्ट की पूजा में रत है क्योंकि उसे परमात्म दर्शन करना है। किसी को अपनी ह्रदय गुहा में बैठा देखना है तो किसी को बाह्य विराट में। चर्म चक्षु से काम नहीं हो रहा इसलिए आँखों की तलाश में है। किसी को ज्ञान की आँख चाहिए औरक़िस्मतों भक्ति की आँख। लेकिन भक्ति बिना ज्ञान नहीं होता और ज्ञान बिना भक्ति नहीं। अजब ग़ज़ब का जोड़ है। 

मनुष्य चित्त तीन गुणों सत्व, रजस और तमस से चलता है जिसे मायिक कहा गया है। साधनाएँ सब सत्व की वृद्धि के लिए है। लेकिन भगवद् दर्शन के लिए यह पर्याप्त नहीं है। अप्राकृत के दर्शन के लिए अप्राकृत सत्व चाहिए जो बिना भाव और भक्ति से मिल नहीं सकता। भाव जगेगा नहीं, भक्ति होगी नहीं तब तक प्रेम फल आता नहीं। प्रेम जब तक राधा नहीं बनता तब तक कृष्ण दर्शन होता नहीं। 

इसलिए दिमाग़ को छोड़ ह्रदय पर ध्यान देना है जहां ह्रादिनी शक्ति का साथ मिलेगा। मांसपिंड ह्रदय नहीं, हमारे होने का, भाव केन्द्र ह्रदय। चित्त को वहीं विश्राम कराना है। तभी भगवद् दर्शन होंगे। स्वयं की तब अनुभूति होगी। फिर क्या करेंगे अंदर बाहर। अंदर भी वही और बाहर भी वही। यहाँ एक के सिवा दूसरा कोई है ही नहीं। स्वयं को स्वयं के प्रेम में पागल करना है। राधा बनकर श्याम की बंसी का स्वाद लेना है अथवा श्याम बन राधा संग रास रचाना है। 

भारत में फिलोसोफी को ‘दर्शन’ कहते है। चित्त के आयने पर पूर्ण चित्काकलामय भगवद् दर्शन। 
बस भगवद् कृपा चाहिए। यही कामना करें। ह्रदय में वास (भक्तिभाव का) हो और दर्शन के लिए आँख (प्रज्ञा) हो। 

पूनमचंद 
२० दिसंबर २०२३

Monday, December 18, 2023

वैदिक गाय, घोड़ा, बकरा और भेड़।

वैदिक गाय, घोड़ा, बकरा और भेड़। 

हिन्दू गौ पूजक है। सदियों से चली आ रही इस परंपरा लगता है एक पशु गाय की व्याख्या में ही सीमित हो गई। लेकिन वेद में गौ का अर्थ व्यापक है। गौ संबोधन पोषण प्रदा करनेवाली दिव्य शक्तियों के लिए किया गया है। जैसे किः इमे लोका गौ। (ये लोक गौ कहे जाते है।) (शत.ब्रा.६.५.२.१७)। अंतरिक्षं गौ (एत.ब्रा.४.१५)। गावो वा आदित्याः। (एत.ब्रा.४.१७)। अन्नं वै गौः। (तैत.ब्रा.३.९.८.३)। यज्ञो वै गौः। (तैत.ब्रा.३.९.८.३)। प्राणों हि गौः। (शत.ब्रा.४.३.४.२४)। वैश्वदेवी वै गौः (गो.ब्रा.२.३.१९)। आग्नेयो वै गौः।(शत.ब्रा.७.५.२.११)। इस प्रकार लोकों, अंतरिक्ष, सूर्य, अन्न, यज्ञ, प्राण, विश्वदेवी (चिति), अग्नि को गाय का संबोधन किया गया है। 

यजुर्वेद में प्रार्थना है (१.३)। हज़ारों धाराओं से लोकों के तेजस को सवित करनेवाली परम व्योम में स्थित अदिति रूप इस कामधेनु (गौ) को आप हानि न पहुँचाएँ। (वसोः॑ प॒वित्र॑मसि श॒तधा॑रं॒ वसोः॑ प॒वित्र॑मसि स॒हस्र॑धारम्। दे॒वस्त्वा॑ सवि॒ता पु॑नातु॒ वसोः॑ प॒वित्रे॑ण श॒तधा॑रेण सु॒प्वा काम॑धुक्षः॥) परम व्योम में स्थित सहस्र धाराओं में स्थित पोषण देनेवाली शक्ति कामधेनु (गौ) पोषण देनेवाली प्रकृति की शक्ति है, केवल एक पशु गाय नहीं।

हिन्दुओं में अश्व और अश्वमेध यज्ञ का बड़ा महत्व रहा है। लेकिन वैदिक ऋषियों ने अश्व की पशु के लिए नहीं लेकिन गुणवाचक तीव्र गति देनेवाले के रूप में उपयोग किया है। अश्निुते अध्वानम् (तीव्र गतिवाला); अश्नुने व्यापनोति (शीघ्राता से सर्वत्र संचरित होनेवाला); बहु अश्नानीति अश्वः (बहुत खानेवाला अश्व है)। इस परिभाषा में वेद में किरणों को, अग्नि को, सूर्य को और ईश्वर को अश्व की संज्ञा गई है। अग्निर्वा अश्वः। (शत.ब्रा.३.६.२.५)। अग्निर्वा अर्वा (तै.ब्रा.१.३.६.४)। असौ वा आदित्योडश्वः। तै.ब्रा.३.९.२३.२)। सौव्यों वा अश्वः। (गो.ब्रा.२.३.१९)। अश्वो यत ईश्वरो वा अश्वः। (शत.ब्रा.१.३.३.५)।

बृहदारण्यक उपनिषद (१.१.१) के मंत्र के अनुसार इस जीवन यज्ञ अश्व की उषा शिर है, सूर्य नेत्र, वायु प्राण, वैश्वानर अग्नि खुला मुख, संवत्सर आत्मा, घुलोक पीठ, अंतरिक्ष उदर, पृथ्वी पैर रखने का स्थान, दिशाएँ पार्श्व भाग, अवांतर दिशाएँ पसलियाँ, ऋतुएँ अंग, मास और अर्धमास संधि स्थान, दिन और रात प्रतिष्ठा (पैर), नक्षत्र अस्थियाँ, आकाश मांस, रेत ऊवध्य, नदियाँ नाड़ियाँ, पर्वत यकृत, ह्रदय मासखंड, औषधि और वनस्पतियाँ लोम, उपर जाता हुआ सूर्य नाभि के उपर काऔर नीचे जाता हुआ नाभि के नीचे का भाग, जम्हाईं लेना बिजली का चमकना, और शरीर हिलाना मेघ गर्जन है। वह (अश्व) जो मूत्र त्यागता हैं वह वर्षा है और उसकी गर्जना उसकी वाणी है। (उषा वा अश्वस्य मेध्यस्य शिरः। सूर्यश्चक्षुर्वातः प्राणो व्यात्तमग्निर्वैश्वानरः संवत्सर आत्माश्वस्य मेध्यस्य। द्यौः पृष्ठमन्तरिक्षमुदरं पृथिवी पाजस्यं दिशः पार्श्वे अवान्तरदिशः पर्शव ऋतवोऽङ्गानि मासाश्चार्धमासाश्च पर्वाण्यहोरात्राणि प्रतिष्ठा नक्षत्राण्यस्थीनि नभो मांसानि। ऊवध्यं सिकताः सिन्धवो गुदा यकृच्च क्लोमानश्च पर्वता ओषधयश्च वनस्पतयश्च लोमानि। उद्यन् पूर्वार्धो निम्लोचञ्जघनार्धः। यद्विजृम्भते तद्विद्योतते। यद्विधूनुते तत्स्तनयति। यन्मेहति तद्वर्षति।
वागेवास्य वाक्॥ बृह.१,१.१ ॥ (शतपथब्राह्मणम् १०.६.४.१)। 

क्या यह सूत्र पशु अश्व के लिए हो सकते है?

इसी तरह अज (बकरा) वाणी के लिए प्रयोग है, नहीं कि बकरा पशु के लिए। वाक् वा अजः। अग्नि का धूम्र अज है। आग्नेयो वा अजः (शत.ब्रा.६.४.४.१५)।पृथ्वी को अवि (भेड़) कहा गया है क्योंकि वह प्रजा की रक्षा करती है। (शत.ब्रा.६.१.२.३३)। यजुर्वेद के ऋषि प्रार्थना करते हैं कि, हे अग्नि देव, उत्तम आकाश में स्थापित, विभिन्न रूपों को निर्माण करनेवाली, वरूण की नाभिरूप, उच्च व्योम में उत्पन्न, असंख्यक की रक्षा करनेवाली इस महिमामयी अवि को हिंसित (नष्ट) न करें।(वरू॑त्रीम्। त्वष्टुः॑। वरु॑णस्य। नाभि॑म्। अवि॑म्। ज॒ज्ञा॒नाम्। रज॑सः। पर॑स्मात्। म॒हीम्। सा॒ह॒स्रीम्। असु॑रस्य। मा॒याम्। अग्ने॑। मा। हि॒ꣳसीः॒। प॒र॒मे। व्यो॑मन्निति॒ विऽओ॑मन् ॥यजु.१३.४४ ॥)

क्या यह सब पशु की बातें है? हो सकता है वेदों के विधानों को पकड़कर पृथ्वी पर विचरण करनेवाले पशुओं के गुणों को देखकर गौ, अश्व, अज और अवि की संज्ञा दी गई हो  जिसे हमने अपनी संकुचित और छोटी सोच से स्वार्थ सिद्धि हेतु और संकुचित कर दिया। हमें तो पशुता से बाहर आकर विश्वमय होकर विश्वोर्तीर्ण के आभारी बनना है जिसने हमें यह मौक़ा दिया। तभी तो वसुधैव कुटुंबकम् का मंत्र चरितार्थ होगा। हमें अपनी सोच को विकसित करना है और गौ, अश्व, अज और अवि के वैदिक अर्थ को समझकर उसकी रक्षा करनी है, उन्हें हिंसा से बचाना है। 

अस्तु। 

पूनमचंद 
१८ दिसंबर २०२३

Monday, November 20, 2023

चिदाकाश।

 चिदाकाश। 

मन है इसलिए शब्द है। शब्द है इसलिए मन। दोनों के पार है अद्वय। न तुम, न मैं।

पहले तो खुद को पहचानना है कि मैं शरीर नहीं हूँ, चैतन्य हूँ। चैतन्य अजर अमर है। 

दूसरा चैतन्य के स्वरूप को जानना है। वह खंड लगता है परंतु अखंड है। घटाकाश से महाकाश की यात्रा करनी है। 

तीसरा जहां खंड भी नहीं और अखंड भी नहीं; प्रकाश भी नही अंधकार भी नहीं, सत् भी नहीं और असत् भी नहीं। केवल। चिदाकाश। शून्य। क्या नाम देंगे, जिसका न तो नाम है न रूप। 

साकार से सर्वाकार फिर निराकार। 

अनंत यात्रा है अगर विशेष रहे। सामान्य के लिए तो बस यूँही चुटकी बजा के। ठंड में चाय का कस लीजिए और बस खो जाइए उस अनंत में। 

न तुम, न मै। है बस केवल। धर्म का धर्मी और तरंग का जल यूँ मिल जाना आसान थोड़ी है? 😊

पूनमचंद 

२० नवम्बर २०२३

Sunday, November 19, 2023

आत्मज्ञान।

 आत्मज्ञान। 

आत्मज्ञान अनुभूति है। 

अनुभूति अनुग्रह से होती है। 

अनुभूति के लिए आधार चाहिए। 

जो हमारे पास है, चित्त। 

चित्त का निमज्जन (स्नान) करना अति आवश्यक है। 

उसके लिए कर्म, ज्ञान और भक्ति सलिला (पानी) है। 

अभी तो विश्व विषय रूप है। विषय के प्रति इन्द्रियाँ लोलुप है। इन्द्रियों के पीछे मन का अनुसंधान है। और मन आत्मा की शक्ति से बहिर्मुख होकर आनंद की खोज में लगा है। खोज है इसलिए देश और काल जुड़ा है, भविष्य है और जन्म मरण का दुःख है। 

जिसने विश्व को शिवरूप देख लिया उसका विषय इन्द्रियों में विसर्जित होगा। इन्द्रियाँ मन की ओर और मन आत्मा की ओर हो जाएगा। वह बाह्य आकर्षण की ओर भागता बंद होकर आत्माकर्षण बन जाएगा। विश्व के विषय उसकी ओर आकर्षित होंगे। वह विश्व का भोग लगाएगा लेकिन त्याग (अनासक्त) कर के। उसके लिए अब काल न रहेगा। न भूत, न भविष्य। केवल वर्तमान। विश्व और वह अलग नहीं रहेंगे। शरीर के साथ जीवन्मुक्त और शरीर छोड़कर विदेहमुक्त। 

उस चित्त की हमें कामना करनी है जो कर्म, ज्ञान और भक्ति के जल से स्नान करता हुआ द्रवित होते होते चिद्रुप हो जाए और परम शिव को प्रतिबिंबित कर सके। 

यात्रीगण चलते रहो। 

पूनमचंद 

१९ नवम्बर २०२३

Thursday, October 26, 2023

मनु और शतरूपा।

 मनु और शतरूपा। 


भारत देश में मनु स्मृति के विवाद चलते रहते है। परंतु मनु कौन था या कौन है इसके बारे में कम चर्चा होती है। तुलसीदास ने भी रामचरितमानस के द्वारा समाज के मानस को ही चौपाई बद्ध कर दिया था। 

श्रुति कहती है की सृष्टि के पहले जब कुछ भी नहीं था तब भी कुछ नहीं (शून्य) का कारण (सच्चिदानंद) मौजूद था। उस परम (सदानंद) सत्ता (चिद्) को एक से अनेक होने का संकल्प (इच्छा) हुआ और सृष्टि (ज्ञान) का सृजन (क्रिया) हुआ। परंतु परम पुरुष ने संकल्प से पहले मन (इच्छा) पैदा किया। अलिंगी अरति था। अरति हटाने दूसरे (रति) की कामना की। आलिंगन का भाव हुआ। अपने देह को दो भागों में विभक्त किया और (पुरूष और स्त्री) पति पत्नी हुए। यही जोड़े से जगत बना। द्विदल बिना अंकुरण कहाँ? रति बिना रमण कहाँ? मनु संज्ञक यह प्रजापति ने अपनी पत्नीरूप कल्पना से शतरूपा नाम की कन्या से संयुक्त हुआ और जीवसृष्टि प्रकट हुई। 

मन ही मनु है जिसे प्रजापिता ब्रह्मा का पुत्र माना जाता है। अकेला पुरूष मन जैव सृष्टि का सृजन नहीं कर सकता इसलिए उसने स्त्री का सृजन हुआ।फिर द्विदल के मिलन-मिथुन से सृजन कार्य आगे बढ़ता गया। स्त्री को शतरूपा नाम दिया है क्योंकि शतरूपा सोचती रहती है कि अपने से ही उत्पन्न करके यह मुझसे क्यों समागम करता है? मैं छिप जाऊँ। वह गौ हुई तो मनु वृषभ होकर संभोग में लग गया। वह घोड़ी हुई तो मनु घोड़ा बना। वह गधी बनी तो मनु गदर्भ बन गया। शतरूपा बकरी हुई तो मनु बकरा बना।शतरूपा मनुष्य, गाय, घोड़ी, गधी, बकरी, भेड़ इत्यादि रूप लेती रहती है और मनु पीछे पीछे उसी योनि का पुरूष बनकर संभोग से सृष्टि का विस्तार करता रहा। चींटी से लेकर हाथी तक (रूपक है अर्थात् सब) जितने मिथुन जोड़ें है वह मनु शतरूपा है जो सृष्टि की रचना में लगे हुए है। 

इस सृष्टि में अग्नि है और सोम है। सूर्य है और चंद्र है।नाड़ी पिंगला है और इडा है। तेज है और वीर्य (आर्द्र) है। अन्नाद है और अन्न है। अग्नि अन्नाद है और सोम अन्न। द्रवात्मक होने से सोम पोषक है। उष्णता और रूक्षता के कारण अग्नि अत्ता अर्थात् भक्षण करता है। सोम का भक्षण अग्नि करता है। यह जगत अग्निषोमात्मक है। सूर्य और चंद्र को इसलिए परमात्मा की दो आँखें का रूपक दिया गया है। 

चातुर्वर्ण्य की व्याख्या भी कुछ इस प्रकार है। मुख लोमरहित है। मुख से अग्नि देव हुए। ब्राह्मण भी लोमशून्य होता है।दोनों मुखरूप वीर्यवाले है इसलिए यज्ञ अग्नि में आहुति और भोजन में ब्राह्मणों को भोजन का बड़ा महत्व रहा है। बल की आश्रयभूत भुजाओं से इन्द्रदेव और मनुष्यों में क्षत्रिय रचा गया। दोनों बाहुरूप वीर्यवाले है। उरूओं से वसु और वैश्य रचे गए। चरणों से पृथ्वी देवता पूषा (पोषक) और परिचर्चापरायण शुद्र रचे गये। अग्नि ब्राह्मणों का, इन्द्र क्षत्रियों का, वसु वैश्यों का और पूषा शुद्रों का देवता है। देव उसकी प्रजाति पर अनुग्रह रखता है इसलिए प्रजाति अपने अपने देव की पूजा में लग गई। यहाँ जन्म नहीं गुण कर्म प्रभाग है। एक ही शरीर में चातुर्कर्म लगा हुआ है।जीव जगत पूरा चार कर्मों में लगा हुआ है। मनुष्य, पशु, पंखी, कीट, पतंग, हर मुख अग्नि है (अहं वैश्वानरों भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः) इसलिए भूखे को अन्न पुण्यकर्म है। “कहे कबीर कमाल से, दो बातें कर ले। कर साहिब कीं बंदगी भूखे को अन्न दे।” 

अव्यक्त जगत नामरूप योग से व्यक्त हुआ। जैसे काष्ट में अग्नि गुप्त हैं वैसे ही जगत का नियंता जगत में गुप्त है। अदृश्य है। वही सब की आत्मा है। उसके ज्ञान से सब का ज्ञान हो जाता है। अविद्या से स्वरूप का अज्ञान हुआ है। इसलिए ज्ञान और कर्म के साधन से साध्य प्रजापति फल पाना है और संसार वृक्ष को उखाड़ना है। यही पुरूषार्थ है। उसकी उपासना करें। 

मनु और शतरूपा की संतान मनुष्य मननशील है  इसलिए उसने स्मृति रची और मानस भी रचा। लेकिन अज्ञानी भी है। इसलिए ज्ञानी ने रची श्रुति को अज्ञानी अपने अपने स्वार्थ में समझता गया और अर्थ करता गया और जगत को विभक्त करता गया। वह मनुष्य मन ही है जो शांति लाता है और युद्ध भी। मन ही मनुष्य के बंधन और मुक्ति का कारण है क्योंकि जैसा उसने माना, हो गया। बंधन कहा तो बंधन का अनुभव हुआ और मुक्ति कहा तो मुक्ति का अनुभव करने लगा। प्राणन से प्राण, बोलने से वाक्, देखने से चक्षु, सुनने से श्रोत्र, मनन से मन है लेकिन यह सब एक विशेषणरूप अपूर्ण है। जिस में सब आ जाए वह आत्मा है। जिसने उस आत्म तत्व का अनुसंधान किया, आत्म तत्व को जान लिया, वह मन से परे हो गया। परमात्मा (पूर्ण) हो गया। उस पूर्ण की उपासना करें। पूर्णोहं। 

पूनमचंद 
२६ नवम्बर २०२३

Monday, October 23, 2023

पूर्णता और गीता।

 पूर्णता और गीता। 

पूर्णता अमरता है। इसलिए जो अमर है उसका साक्षात्कार करने से मृत्यु के भय से छुटकारा होता है। 

श्रीकृष्ण स्पष्ट करते है कि, जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।(भगी.२.२७)। (जो जन्मा है वह मरेगा और जो मरेगा वह फिर से जन्मेगा) इस बोध को ऊर्जा के नियम से जोड़ सकते हैं कि उर्जा का न तो निर्माण सम्भव है न ही विनाश; केवल इसका रूप बदला जा सकता है। 

लेकिन मृत्यु से पहले श्रीकृष्ण अमरता की बात करते है। न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।(भगी.२.२०) न जन्मता है न मरता है। न उत्पन्न होकर फिर होनेवाला है। (आत्मा) नित्य है, शाश्वत है, पुरातन है, शरीर के मरने से नहीं मरता। इस बात को और ठोस करते हुए बताते हैं कि नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।भगी २.२३।।शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकता, जल गीला नहीं कर सकता और वायु सूखा नहीं सकती। 

फिर आत्मा नित्यता बताते हुए कहते है, अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च। नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।।भगी.२.२४।।काटा, जलाया, गीला, सूखाया नहीं जा सकता क्योंकि (आत्मा) नित्य है, सब में है, स्थिर है, अचल है और सनातन है। 

हमें प्रश्न होगा कि हमारे सामने तो सब जन्मता है और मरता है, फिर यह महाशय जो सनातन है वह है कहाँ? 

श्रीकृष्ण कहते है, अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि।।भगी.२.२५।। (आत्मा) अव्यक्त है, चिंतन का विषय नहीं है, अविकारी है। ऐसा जानकर (मृत्यु का) शोक करना उचित नहीं है। देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत। तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि।।भगी २.३०।।देही (आत्मा) नित्य है, अवध्य है, इसलिए सभी प्राणी और भूतों के लिए शोक नहीं करना है। 

हम है न देही? फिर क्या करना है? 

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि। धर्म्याद्धि युद्धाछ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।।भगी २.३१।। अपने धर्म (कर्त्तव्य) को देखकर उससे विचलित नहीं होना है। यहाँ सुननेवाला अर्जुन है जो युद्ध के मैदान में खड़ा है इसलिए उसे अपने क्षत्रिय कर्म को देखते हुए धर्ममय युद्ध के लिए आह्वान किया गया है। हमें अपने अपने कर्तव्य धर्म का पालन करना है  कर्तव्य से भाग जाने से अमरता नहीं  मिलतीं। अमरता उसे मिलती है जो अमर को पहचान लेता है। मृत्यु के भय से मुक्त निष्काम कर्म करेगा, कुशलता से करेगा, और निश्चिंत होकर करेगा। देही जिस रूप धर व्यक्त है उसकी अभिव्यक्ति पूर्णरूप से करेगा। ऐसा करने से भी उसकी पूर्णता बरकरार रहेगी। 

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। वह (परमात्मा) पूर्ण है। यह (जगत) भी पूर्ण। क्योंकि पूर्ण (विश्वोर्तीर्ण) से पूर्ण (विश्वरूप) प्रकट हुआ है। शिव भी पूर्ण, शक्ति भी पूर्ण, शक्ति शिव का ही विमर्श है। दोनों का सामरस्य (एकत्व) है। 

पूर्ण रहें।पूर्ण ही सनातन है।

पूनमचंद 

२३ अक्टूबर २०२३

Sunday, October 22, 2023

सुर-असुर।

 सुर-असुर। 

हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार प्रजापति (ब्रह्मा) के पुत्रों में बड़े (ज्यादा) असुर थे और छोटे (कम) सुर। इन दोनों का द्वंद्व युद्ध चलता रहता था। जिस की जीत होती है उसका राज होता था। 

वास्तव में सुर-असुर हमारे चित्त की वृत्तियाँ है। जिस वृत्ति का बल रहेगा, कर्म वैसे होंगे और क्रमानुसार अच्छा बुरा कर्मफल ले आएगा। सुर वृत्ति के साथ पुण्य और कर्मफल देव पद और स्वर्ग को जोड़ा गया है। असुर वृत्ति के साथ पाप और कर्मफल नर्क जोड़ा गया है। एक को बढ़ाने दूसरे का अतिक्रमण करना होता है।हमारे जो प्राण है, चक्षु है, श्रोत्र है, मन है, उनकी अनुक्रम से सूंघने, देखने, सुनने और सोचने की जो वृत्तियाँ है उसी पर यह नियम लागू है। शास्त्रकारों ने सुर वृत्ति को धर्म कहा और असुर को अधर्म। धर्म में माननेवाले देवगण और अधर्मवाले असुरगण करार दिया और धर्म बढ़ाने मृत्यु के बाद एक को स्वर्ग और दूसरे को नर्क मिलने का फल बताया। 

विश्व के सभी धर्मों ने अच्छाईयों पर ज़ोर दिया है। क्योंकि उनको पता था कि मनुष्य के मन मर्कट को अगर नियंत्रित नहीं किया गया तो मौत के बाद जो हो न हो लेकिन जीते जी वह पृथ्वी को नर्क बना देंगे। 

गाँधीजी के तीन बंदर जिसे उनको एक जापानी लामा निचिदात्सु फ़ीजी ने भेंट किये थे, बुरा मत देखो (see no evil), बुरा मत सुनो (hear no evil) और बुरा मत बोलो (speak no evil)  इसी सोच के प्रतीक है।चौथा है बुरा मत करो (do no evil)। मन को मर्कट ही कहा गया है। उस मर्कट के संयम में शांति टिकीं है। यह प्रतीक चीन से जापान गये थे और उनका मूल ईसा पूर्व की चीनी कन्फ़्यूशियस, ताओ और बौद्ध शिक्षा में पाया जाता है, जो बाद में जापान शिन्तो शिक्षा में उतारा गया था। जापान में ६० दिन के कोसीन त्योहार में लोग उसका पालन करते थे जिससे की सालभर पालन कर सके।The gentleman makes his eyes not want to see what is not right, makes his ears not want to hear what is not right, makes his mouth not want to speak what is not right, and makes his heart not want to deliberate over what is not right. 

यह तो हुई व्यक्तिगत व्यवस्था। व्यक्ति व्यक्ति मिलकर समाज बनता है इसलिए समाज में सब अच्छे हो तब तो कोई हर्ज नहीं लेकिन बुराई बढ़ जाए तो क्या होगा? इसलिए नियंत्रण सत्ता के रूप में राजसत्ता अथवा क़ानून व्यवस्था बनी। क्योंकि बुराइयों के सामने आँख मुँद नहीं सकते। (can’t turn blind eye to wrong).

हिंदू धारा आगे जाकर संकुचित हुई और शास्त्र के भाष्यकारों ने शास्त्रों की सूचनाओं के अनुसार चलनेवाले को सुर और विरोध करनेवाले को असुर करार दिया। जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था इसी शास्त्रीय सूचना का हिस्सा बन गई और हिंदू समाज विभक्त हो गया। मन की लड़ाई समाज में फैल गई। धार्मिक अधार्मिक जूथ बन गए और महाभारत शुरू हो गया। 

विश्व भी तो लढ झगड़ रहा है। वर्तमान विश्व को देखिए, दिन प्रतिदिन लड़ाई बढ़ रही है। एक दूसरे को मारने मिटने पर तुले है।ज़मीन के झगड़े इन्सानों की आहुति ले रहे है। बम वर्षा हो रही है। यादवस्थली की तरह एक दूसरे को ख़त्म करेंगे। स्वर्ग कहाँ, यह तो नर्क बना रहे है। 

अन्यथा यह जीवन एक मधुवन है जहां सब शहद से भरा है। कोई उपकारक कोई उपकार्य। सब पूर्ण। न कोई आधा न अधूरा। वह पूर्ण से पूर्ण ही प्रकट हुआ, पूर्ण से पूर्ण लेने से पूर्ण ही रहेगा। अगर कमी रही तो पूर्ण कैसे कहेंगे? यह जगत उसका शक्ति रूप प्राकट्य है। मातृरूप है। 

सबको साथ लेकर घुल मिलकर रहना है। अपने अंदर की आसुरी वृत्तियों का दमन करना है और सुर वृत्तियों को बढ़ाया देना है। ऐसा सब करेंगे तो यह पृथ्वी नंदन वन बनेगी। वसुधैव कुटुंबकम् (धरती एक परिवार) का मंत्र सार्थक होगा। 

पूनमचंद 

२२ अक्टूबर २०२३

Thursday, October 19, 2023

Mother

 Mother 


Kauravas and Pandavas had similar genes coming from Sage Parashar and Sage Ved Vyas but they were different in their acts and energy levels. Gandhari and Kunti made the difference. In a family of four brothers, we see children of each family in different levels of energy. What makes them different from one another? The mother. 

When sperm fertilizes an egg, the egg becomes a zygote. The zygote goes through a process of becoming an embryo and developing into a fetus. The zygote typically has 46 chromosomes 23 from the biological mother and 23 from the biological father. Chromosomes are made up of long strands of DNA, which contain all the body's genes. Each chromosome has very specific chapters that tell the cell what kinds of characteristics you will have (like eye colour and hair colour, etc). But there is one special, the mitochondrial DNA that produces ATP which is source of energy to our body. It is called the power house, which gives energy power to each cell. All other DNA come from the parents 50:50 but Mitochondria and their DNA only come from the mother to the baby. 

We get 100% mitochondrial DNA from the mother. Our mother gets it from her mother and our father also gets it from his mother. The God of power in each individual is therefore the Mother which is present in the form of Adi Shakti, Ma Bhagavati, the mother of the universe. 

All the perfect mantras, pooja of Maa Durga work on a subtle level to energise and empower us, therefore, worshiping Mother and Mother Goddess have been given highest importance in Hinduism. 

माँ तुझे सलाम। 🙏🙏🙏

Punamchand 
19 October 2023

Mother Goddess (माँ भगवती)

 Mother Goddess (माँ भगवती)

Bharat is celebrating Navratra festival in the Shukla paksha (bright moon) of Ashwin month of Hindu Calendar. People worship nine forms of Mother Durga and specially the Gujaratis play devotional Garaba and Bengalis decorates and worship idols of Maa Durga for all nine nights. The word Garaba derived from Garbha, the antrum, the womb of creation, in which people lit the lamp or place idol of mother goddess and perform Garaba dance around it. Millions of Bharatiya observe fast and pray the mother during this parva. Maa Bhagavati, Bhagvan and Bharat are the inbuilt culture of India. 

Bha means nine, therefore, Indian spirituality revolves around nine manifestations of the mother Goddess. One that possesses Bhaga (feminine) is called Bhagavati. The nine forms of Mother Goddess are known as: Shailputri, Brahmacharini, Chandraghanta, Kushmanda, Skandamata, Katyayani, Kaalratri, Mahagauri, and Siddhidatri. There is a practice of worshiping nine angled yantra (figure).  

Bhaga signifies the knowledge of creation, destruction, origin of beings, divine truth and ignorance. He that knows all these six is qualified for the title Bhagvan. 

As per Agamas, the Mother has nine manifestations: Kala (time), Kula (form), Nama (name), Jnana (intelligence), Chitta (mind), Nada (sound), Bindu (sprout), Kala (keynotes, limited action) and Jiva (bondage of matter). The groups include all in the universe/s. Therefore, we all being part of this universe are part of the manifestation of Maa Bhagavati and have strength to acquire the state of Bhagavan.  

Bha means nine, rat means engrossed. Bha refers to light, the Kali, the Supreme who illuminates all things in this universe with its infinite varieties of subjects and objects with her own light. It is manifestation of the Supreme Lord (Shiva, masculine) as universe in his self expansion of Shakti (feminine) aspect. It’s a divine will. Therefore, all on this pious land engrossed in search of this divine knowledge for centuries are called Bharat. The people that worship nine manifestations of Maa Bhagavati are called Bharat.

Bhag is division and Bhagya is fortune. To make out fortune from the divisions needs blessings of the Mother Goddess. There are Bhagvas, either worshipers of the mother goddess or escapers from Samsar/responsibility.

या देवी सर्वभूतेषु शक्ति-रूपेण संस्थिता 

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।

या देवी सर्वभूतेषु शांति-रूपेण संस्थिता 

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

Punamchand 

19 October 2023

Sunday, October 15, 2023

सूरज के रंग।

 सूरज के रंग। 


रोज़ सुबह सूरज आकर, सबको सदा जगाता है। 

शाम हुई लाली फैलाकर, अपने घर को जाता है। 

दिनभर खुद को जलाकर, यह प्रकाश फैलाता है। उसका जीना ही जीना है, जो काम सभी के आता है। 


उगते सूरज का रूप और लालिमा किसे नहीं लुभाता? सूरज है तो सफ़ेद रंग का और इन्द्रधनुष के सातों रंग लिए है, लेकिन पृथ्वी का वातावरण ऋतुचक्र से उसका दर्शन प्रभावित होता है। सुबह और शाम के वक्त सूरज की रोशनी जिस वातावरण से गुजरती हैं वैसे ही उस के लाल रंग की आभा अलग-अलग नज़र आती है। 


हर ऋतु में सूर्योदय के वक्त सूर्य बिंब अलग रंग लिए है। शिशिर (माघ-फाल्गुन) में ताँबे जैसा लाल, वसंत (चैत्र-वैशाख) में कुमकुम वर्णी, ग्रीष्म (ज्येष्ठ-आषाढ़) में पाण्डु (फीका) वर्णी, वर्षा (सावन-भाद्रपद) में एक से ज़्यादा वर्ण का, शरद (आसो-कार्तिक) में कमल जैसा और हेमंत (मृगशीर्ष-पोष) में रक्त वर्ण दिखता है। 


इस रंग का अभ्यास करते हुए भारतीय ज्योतिषियों ने इसे पृथ्वी पर हो रही घटनाओं से जोड़ा है। नारद संहिता कहती है कि अगर सर्दियों (मृगशीर्ष-फाल्गुन) में सूर्य बिंब पीला, वर्षा (सावन से कार्तिक) में श्वेत, गर्मियों (चैत्र-आषाढ़) में लाल रंग का दिखे तो अनुक्रम से रोग, अनावृष्टि तथा भय पैदा करता है। सूरज अगर ख़रगोश के खून जैसे रंग का दिखे तब राजाओं के बीच महायुद्ध होता है। उदय और अस्त के वक्त अत्यंत रक्त वर्ण का दिखे तो राजा का परिवर्तन होता है। 


अभी शरद काल है। सूर्य कमल जैसा होना है। लेकिन रक्त वर्ण लिए है। युद्ध और राज परिवर्तन का संकेत है। 


पूनमचंद 

१५ अक्टूबर २०२३

प्राणायाम।

 प्राणायाम। 


प्राण अर्थात् जीवनी शक्ति; उसका आयाम अर्थात् विस्तार। जीवनी शक्ति को लम्बा करना, उसका बल बढ़ाना और प्राकृतिक जगत को वशीभूत करना उसका लक्ष्य होता है। 


पतंजलि योग सूत्र मे प्राणायाम योग के आठ अंगों में से एक है। अष्टांग योग में आठ प्रक्रियाएँ होती हैः यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, तथा समाधि। सूत्र हैः - तस्मिन सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद:प्राणायाम॥ अर्थात् श्वास प्रश्वास के गति को अलग करना प्राणायाम है।

प्राण के पाँच मुख्य और पाँच उप-प्राण है। जैसे कि प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान। पांच उप-प्राण हैः नाग, कूर्मा, देवदत्त, कृकला और धनन्जय। शरीर में बल संचार करता प्राण है। शरीर से मल इत्यादि बाहर फेंकने की शक्ति अपान है। समान रूप से शरीर की शक्ति को ज्वलंत रखता समान है। शरीर को उठाये रखे वह उदान है। सारे शरीर में व्याप्त व्यान है। अपान का स्थान मूलाधार में, समान का मणिपुर नाभि में, प्राण का अनाहत में, उदान का विशुद्धि में, और व्यान का पूरे शरीर में है। प्राण का उप नाग, अपान का कूर्म, समान का कृकल, उदान का देवदत्त और व्यान का धनंजय है। नाग वायु संचार, डकार, हिचकीं; कूर्म नेत्र क्रिया; कृकल भूख प्यास; देवदत्त जम्हाई, अंगड़ाई; और धनंजय सफ़ाई का काम करता है। मुर्दे में धनंजय बना रहता है, विसर्जन के लिए। आयुर्वेद त्रिगुणः सत्व, रजस, तमस; तीन प्रकृतिः वात, पित्त और कफ; और यह दस प्राण पर अवस्थित है। 


शरीर विज्ञान से अब अध्यात्म की ओर चलें। 


जब हम श्वास अंदर लेते हैं वह है अपान और छोड़ते हैं वह है प्राण। लगभग बारह अंगुल की लम्बाई से एक तंदुरुस्त साँस चलता रहता है। हमारे शरीर की उष्मा को बनाये रखने का यह भगवान ने दिया चरखा है जो जीवनभर चलता रहता है। दो नथुनो से एक के बाद दूसरे में वह प्रभावी रूप से दायाँ और बायाँ क्रम से चलता रहता है। दायाँ गर्म है, सूर्य है, पिंगला है। पहाड़ों मे बसे तपस्वी लोग सर्दीओ में इसके सहारे अपने शरीर की ठंड से रक्षा कर लेते है। कम्बल की ज़रूरत पूरी करता है। दूसरा बायाँ शीत है, चंद्र है, इडा है। ठंडक देता है। गर्मीओ में इसका प्रयोग करने से गर्मी से राहत मिलती है। 


इस चरखे का अचरज यह है कि हर देढ घंटे में वह अपनी साइड बदलता रहता है। जब बदलने का वक्त आता है तो वह कुछ साँस मध्य चलता है। वही मध्य को सुषुम्ना के नाम से जाना गया है। उसी में लिया राम नाम हिसाब में जमा होता है। इसके अलावा जब त्रिकाल संध्या का वक्त होता है, सुबह, मध्याह्न और शाम; तब सुषुम्ना चलने का वक्त ज़्यादा होता है। इसलिए सभी जाप, आरती, मंत्र, नमाज़ इसी समय अदा की जाती है। 


मध्य के चलते मन की स्थिरता बढ़ने से और संसार विचार कम होने से वाहन चालक इसी समय चूक करता है और ज़्यादातर रोड अकस्मात् इसी संध्या काल में होते है। 


विज्ञान की दृष्टि से देखें तो ओक्सिजन प्राणवायु है और कार्बन डाइऑक्साइड मृत्युवायु। शरीर में ओक्सिजन की बढ़ोतरी दिमाग़ को तेज और आयु को लम्बा करता है। कार्बन डायऑक्साइड की बढ़ौतरी धीरे धीरे मृत्यु के समीप ले जाती है। यावद्वायुः स्थितो देहे तावज्जीवनमुच्यते।मरणं तस्य निष्क्रान्तिः ततो वायुं निरोधयेत् ॥ (जब तक शरीर में वायु (ओक्सिजन) है तब तक जीवन है। वायु का निष्क्रमण (निकलना) ही मरण है। अतः वायु का निरोध (संभाले रखना) करना चाहिये।) हमारे बचपन के शरीर का रंग रूप और बुढ़ापे के शरीर का रंगरूप यही ओक्सिजन कार्बन डाइऑक्साइड की लड़ाई में हुई हमारे हालहवाल को बयान करता है। अद्भुत व्यवस्था है। कार्बन खाने में फ़ायदा करता है और ओक्सिजन साँस लेने में। एक पेट के लिए दूसरा फेफड़ों के लिए फ़ायदेमंद । अगर उल्टा हुआ तो खतम। 


एक बात और भी है। प्राण अपान की (प्रश्वास श्वास) की गति का सीधा संबंध हमारे मन और विचारों से है। उनके चलायमान होते ही मन विचार भी चलायमान होने लगते है। या तो प्राण से मन पर नियंत्रण करें अथवा मन से प्राण पर। यही योग का क्षेत्र है। हठयोग कहता हैः चले वाते चलं चित्तं निश्चले निश्चलं भवेत्, योगी स्थाणुत्वमाप्नोति ततो वायुं निरोधयेत्॥२॥ (अर्थात प्राणों के चलायमान होने पर चित्त भी चलायमान हो जाता है और प्राणों के निश्चल होने पर मन भी स्वत: निश्चल हो जाता है और योगी स्थाणु हो जाता है। अतः योगी को श्वांसों का नियंत्रण करना चाहिये।) हमारे अंदर की नकारात्मक ऊर्जा को बाहर निकल के मन और आत्मा को शुद्ध करने प्राणायाम ज़रूरी है।


अब तक बात साफ़ हो चुकी हैं कि प्राण अथवा प्राणायाम का हमारे जीवन में कितना महत्व है। आदि शंकराचार्य श्वेताश्वतर उपनिषद पर अपने भाष्य में कहते हैं, "प्राणायाम के द्वारा जिस मन का मैल धुल गया है वही मन ब्रह्म में स्थिर होता है। इसलिए शास्त्रों में प्राणायाम के विषय में उल्लेख है। स्वामी विवेकानंद इस विषय में अपना मत व्यक्त करते हैं, जिसने प्राण को जीत लिया है उसने प्रकृति को वशीभूत करने की शक्ति प्राप्त कर ली। 


भौतिक प्राणायाम के कईं प्रकार है। आप जानते ही होंगे। जैसे कि सूर्यभेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, इत्यादि। अब चलते हैं भीतर की ओर। सुषुम्ना की ओर। मध्य चलते ही निर्विचार स्थिति में प्रवेश होता है। मन भीतर की ओर मुड़ जाता है। अंदर एक स्तंभ सा महसूस होता है जो ऊर्ध्व है। धीरे-धीरे चक्र अनुसंधान होने से प्राण मूलाधार से सुषुम्ना मार्ग से ऊर्ध्व चलना आरंभ करते है। धीरे-धीरे अभ्यास से एक के बाद एक चक्र में गति होते ही हमारे विचार, स्वभाव, नज़रिया बदलने लगता है। जैसे जैसे आगे बढ़ेंगे संसार कम और परम ज़्यादा पसंद आने लगता है। अनाहत पहुँचते ही जैसे नया जन्म हो गया। द्विज हो गया। व्यक्ति बदल गया। विशुद्धि आते ही सरस्वती प्रकट हो जाती है। आज्ञा पहुँचते वह जितेन्द्रिय बन जाता है। आज्ञा से सहस्रार की यात्रा गुरूगम के साथ करनी होती है। वह जब पूरी होती है तब मूलाधार से चली शक्ति अपने गंतव्य शिव तक पहुँच जाती है। स्वरूप पहचान होती है। जीवन मुक्ति होती है। 


यहाँ साँस धीरे-धीरे चलते चलते जैसे बंद ही हो जाती है। हल्की सी जैसे मिलीमीटर में चलती है।साँस शांत होते ही मन ग़ायब हो जाता है और अहं रूबरू होता है। शरीर की सीमा टूटते ही असीम का साक्षात्कार हो जाता है। 


यह मार्ग भौतिक नहीं है इसलिए मुर्दे में नहीं प्राप्त होगा। चैतन्य मार्ग है इसलिए ज़िंदा व्यक्ति के लिए इस मार्ग को खोजकर उसपर चलना कितना महत्वपूर्ण है वह अब समझ सकते है।  


या तो साँस से मन का अनुसंधान करें अथवा मन से साँस का। आयु अवस्था को देखते उचित का चयन करें। बस याद यह रखना है कि हम शक्ति रूप है। शक्ति को जगाना है और शिव को मिलाना है। मुक्त है, मुक्ति का अनुभव करना है। सत का साक्षात्कार करना है। 


पूनमचंद 

१४ अक्टूबर २०२३

Wednesday, October 11, 2023

Islam and Sikhism

 Islam and Sikhism-1


I was not surprised when one of my friends told that earlier Sikhism was considered a branch of Islam in past because it has influence of Sufi teachings of Baba Farid in its foundation. Guru Nanak Dev had gone to Mecca twice the place prohibited for the non convert to visit. As the path was common, Guru Nanak Dev (1469-1539) carried forward teachings of two Muslims: Baba Farid (1188-1266) and Saint Kabir (1398-1518). 


Baba Farid was born near Multan (Punjab-Pakistan) and was the disciple of Khwaja Qutubuddin Bakhtiar Kaki, the Sufi Saint of Chishti order. He is considered the pioneer for the founding of Punjabi language of literature. Guru Granth Sahib includes 123 hymns composed by Baba Sheikh Farid. He has been revered as one of the 15 Bhagats including Saint Kabir. Langar is a tradition of Sufism tied to the Chishti Order adopted by Sikhs whereby food and drink are given to the needy regardless of social or religious background. 


Once, Guru Nanak Dev and Bhai Mardana had met Shaikh Ibrahim at Pakpattan who occupied the spiritual seat of Baba Farid. They had a great discourse on God. 


Sheikh Ibrahim recited the couplet of Baba Farid. “Fareed, I have torn my clothes to tatters; now I wear only a rough blanket. I wear only those clothes which will lead me to meet my Lord.” Guru Nanak replied: “The soul-bride is at home, while the Husband Lord is away; she cherishes His memory, and mourns His absence. She shall meet Him without delay, if she rids herself of duality.”


Shaikh Ibrahim’s response was: “Fareed, when she is young, she does not remember her Husband. When she grows up, she dies. Lying in the grave, the soul-bride cries, "I did not meet you, my Lord." Guru Nanak replied: The rude, ill-mannered bride is encased in the body-tomb; she is blackened, and her mind is impure. She can be with her husband Lord, only if she is virtuous. O Nanak, the soul-bride is unworthy, and without virtue. 


Shaikh Ibrahim asked that it needed a dagger to kill the mind. Guru Nanak replied: The knife is Truth, and its steel is totally True. Its workmanship is incomparably beautiful. It is sharpened on the grindstone of the Shabad. It is placed in the scabbard of virtue. If the Shaykh is killed with that. Then the blood of greed will spill out. One who is slaughtered (हलाल) in this ritualistic way, will be attached to the Lord. O Nanak, at the Lord's door, he is absorbed into His Blessed Vision. 


Shaikh Ibrahim felt very happy to listen to this and he handed over many couplets of Baba Farid that lay with him to Guru Nanak. 


How great the teaching is that the soul is a bride (गोपी) and her groom is the God/Allah/कृष्णा! To meet him is the only purpose of life and for that she has to purify her mind by good virtues and slaughter the ego with the knife of truth to remove the blood of greed. 


Punamchand 

11 October 2023

Friday, October 6, 2023

लक्ष्य वेध।

लक्ष्य वेध। 


पांचाल के राजा द्रुपद अपनी पुत्री द्रोपदी का विवाह एक महान पराक्रमी राजकुमार से कराना चाहते थे। द्रोपदी के लिए योग्य वर की तलाश के लिए पांचाल कोर्ट में ही द्रोपदी के स्वयंवर का आयोजन किया और उसकी एक शर्त भी रखी। कोर्ट के केंद्र में एक खंबा खड़ा किया हुआ था, जिस पर एक गोल चक्र लगा हुआ था। उस गोल चक्र में एक लकड़ी की मछली फंसी हुई थी जो कि एक तीव्र वेग से घूम रही थी। खम्बे के बीच में एक तराज़ू लगा हुआ था। उस खम्बे के नीचे पानी से भरा हुआ पात्र रखा था। एक धनुष बाण रखा था जिसकी प्रत्यंचा चढ़ाकर उस धनुष की मदद से तराज़ू में खडे रहकर नीचे रखे पानी से भरे पात्र में खम्बे के उपर घुमती हुई मछली का प्रतिबिम्ब देखकर उसकी आँख में निशाना लगाना था। जो भी राजकुमार मछली पर सही निशाना लगेगा उसका विवाह द्रोपदी के साथ होगा। सब राजा-राजकुमार असफल रहे। लेकिन अर्जुन सफल रहा। उसने धनुष को नमन कर उसकी प्रदक्षिणा की, फिर उठाकर प्रत्यंचा चढ़ाई और तराज़ू के दोनो पल्लों में पैर जमाकर दाँया-बायाँ को मध्य में स्थिर किया। फिर अपनी आँख को अर्धखुली अवस्था में नीचे मछली के प्रतिबिंब पर एकाग्र कर अभ्यास किया। जैसे ही मध्य नाड़ी से साम्य पैदा हुआ ऊर्ध्व अनुसंधान हुआ। उस ऊर्ध्व में चित्त एकाग्र कर बाण को चढ़ाया और प्रत्यंचा खींच उपर की ओर छोड़ दिया। चतुर्थ सिद्ध हुआ और मछली की आँख का वेध हुआ। सर्वत्र जयजयकार हुआ। द्रौपदी ने वरण किया। 

शिव (कूशा, प्रकाश) की अभिव्यक्ति शक्ति (पूषा, ह्रद, विमर्श, चिति, संविद, अंबिका, विश्वरूप) का सरोवर है। बीच में एक मेरुदंड का खम्बा (द्रुपद) खड़ा है। मेरूदंड के मूल में साडे तीन चक्कर कुंडल मारकर शक्ति सोई पड़ी है। प्राण अपान का तराज़ू है। इडा (बायीं, चंद्र, शीतल, सव्य) और पिंगला (दाँयी, सूर्य, गरम, अपसव्य) नाड़ी के दो पलड़े लगे हुए है। कभी इड़ा का ज़ोर होता है कभी पिंगला का। लेकिन जब इडा से पिंगला या पिंगला से इडा का बदलाव होता है तब मध्य से गुजरना होता है। मध्य आते ही सुषुम्ना का मार्ग खुल जाता है। इडा और पिंगला सम हो जाते है। प्राण अपान की गति सहज, सरल और समान हो जाती है। विचारो का जाल नष्ट हो जाता है और मन एकाग्र हो जाता है। स्थिर आसन में, सुखासन में सवार होकर, प्रयत्न शैथिल्य से, पूर्णोहं का बीजमंत्र धारणकर, उसी मध्य में जो अर्जुन अर्ध खुले नीचे नेत्र से ठहर गया, उसका सुषुम्ना लगते ही धनुष पर बाण चढ़ जाता है और बीच खुले ऊर्ध्व मार्ग से शक्ति उठकर उपर सहस्रार में रहे शिव की ओर चल पड़ती है। अनुसंधान अड़िग रहा तो लक्ष्य वेध हो जाता है। शिव शक्ति (द्रोपदि) का मिलन हो जाता है। सच्चे स्वरूप की पहचान (प्रत्यभिज्ञा) होती है। मनुष्य जीवन धन्य हो जाता है। जीवन मुक्ति होती है। 

पूषा से कुशा का मार्ग एक गज से भी कम है। देर किस बात की? पल में पार हो जाएगा। लक्ष्य वेध करो। 

पूनमचंद
६ अक्टूबर २०२३


Saturday, September 30, 2023

परम शिव।

 परम शिव। 


कश्मीर शैव दर्शन में ३६ तत्वों से बने इस सृजन की भूमिका में परम शिव के प्राकट्य को, शिव शक्ति सामरस्य को; इच्छा, ज्ञान, क्रिया, चिद्, आनंद क्रम से समझाया गया है। 


लेकिन बड़ी मुश्किल है इस क्रम को समझने की।


इच्छा किसे होगी? जिसे भान होगा। जिसे अपने होने का ज्ञान होगा। ज्ञान भी एक प्रकार से शांत स्थिति में स्पन्द है, इसलिए सूक्ष्म क्रिया है। अगर चिद् (चेतन) नहीं हो तो उसमें इच्छा, ज्ञान, क्रिया संभव ही नहीं। आनंद तो उसका स्वभाव है शांत भी और ललित रस किलोलें। 


इसलिए कौन प्रथम और कौन बाद में तय करना मुश्किल है। पाँचों एक साथ क्यूँ नहीं? पंच वही परमेश्वर। 


क्रम को छोड़ अक्रम में जाना ठीक होगा क्योंकि हमारी हर इच्छा, ज्ञान, क्रिया, चेतना, आनंद का मूल स्रोत परम शिव ही है जो शक्ति स्वरूप बन प्रकट है। 


शिव पूर्ण है। 

पूर्ण से पूर्ण ही प्रकटता है। 

अपूर्ण कहाँ? 


पूनमचंद 

३० सितंबर २०२३

नींद और मृत्यु।

नींद और मृत्यु। 


कल का दिन थकानेवाला था। उम्मीदवारों को प्रश्न पूछते पूछते हम ही थक गये। घर लौटे तब सर में भारी दर्द था। थोड़ा सा ध्यान किया, चित्त को स्थिर किया जिससे राहत हुई लेकिन खाने में भाकरी शाक के स्वाद पर ध्यान न रहा। रात के ९.३० होते ही हम सोने चले गए। नींद आ नहीं रही थी। थोड़े से पैर दायें-बायें करने की हल्की कसरत की और शवासन लगाया। फिर कब सो गये पता नहीं चला। 


सुबह जब ३.३० बजे नींद खुली तब लगा कि किसी गहरे प्रशांत सागर से अभी बस बाहर आ रहे है। शवासन से जागने तक बीच क्या हुआ पता ही नहीं। न देश था, न काल था। जागा तब पता चला की मैं तो था। मैं नहीं होता तब यह देशातीत, कालातीत, शांत अवस्था का अनुभव किसे होता? लेकिन मन, बुद्धि, अहंकार सब ग़ायब थे। उसको जैसे उठकर जगाना पड़ा, भैया जागो, भोर हुई, बाहर आपका संसार पुकार रहा है। 


मृत्यु भी कुछ ऐसी ही होगी। मुझे मृत्यु का अनुभव नहीं। क्या इसलिए कि मैं अमर हूँ? 


एक गहरी नींद होगी जिससे फिर उस शरीर से नहीं उठना है। शरीर तो पंचमहाभूत के पंच तत्वों में विसर्जित हो जाएगा लेकिन मैं कहाँ जाऊँगा? कहाँ रहूँगा? क्या जिसे मैं, मैं कहता हूँ वह मेरे मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार से बना सूक्ष्म शरीर कहीं रहेगा? क्या वह भी जैसे भौतिक शरीर का पंच भूतों में विलय हुआ, समष्टि ईश्वर (चेतना) के सूक्ष्म शरीर में विसर्जित हो जाएँगे? 


यह पृथ्वी मृत्युलोक है, और जीवलोक भी। यहाँ हर पल मौत होती है और नया जीवन सृजन होता है। इसलिए, जब कोई संयोग होगा तब जैसे मैं आज नींद से जागा, मृत्यु के बाद एक नये शरीर को धारण कर जाग्रत होने की संभावना बनी रहती है। ऊर्जा का नाश नहीं होता परिवर्तन होता है। चित्त की उत्क्रांती जारी है। आरोह क्रम पूरा होते ही सूक्ष्म का कारण में विलय होगा। तब यह लीला का अंत होगा और मैं, मैं (पूर्णोहं) बन ठहर जाऊँगा। 


न ठहरूँ, तब भी मैं, मैं (पूर्णोहं) हूँ। 

अजर, अमर, सनातन। 😊


पूनमचंद 

३० सितंबर २०२३

Thursday, September 28, 2023

Whole (पूर्ण)

 Whole (पूर्ण) 


There are trillions of galaxies in this universe/s. The theory of beginning with Big Bang (cosmic bomb explosion) and its expanding and probable ending with pulling it back with the Big Crunch, there is fine tuning on the earth where we and other creatures exist, watch and review this creation mystery and are searching for its creator. 


Can this be accidental? 


Life on this earth itself is less than 1 chance in trillions. The scientific research of searching for the building blocks of the universe leads towards the direction of creation from nothing which the Buddha, Vedanta, Biblical, Islam and others are telling since ancient time. 


If there is bigining, there is creator, the designer. Einstein called the genius behind the universe “an intelligence of such superiority that, compared with it, all the systematic thinking and acting of human beings is an utterly insignificant reflection.” He is omnipotent, omniscient and omnipresent. 


There is language in life. Molecular biologists have discovered intricately complex design in the microscopic world of DNA. The DNA is the “brains” behind each cell in our bodies as well as every other living thing. A mere pinhead of DNA contains infinite information and DNA operates like a language with its own extremely complex software code; far, far more complex than any software we have ever developed. 


Is DNA his fingerprint? 


Think of the intelligence behind the coding of the DNA. The software of the DNA leads to its creator. 


Without him, how could I write and communicate and you read and understand? May call him चैतन्य, awareness, consciousness, but the creator is there as omniscient, omnipotent and omnipotent; present as the visible expression of the invisible. 


Gita calls it the facets of the divine. ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः। मन:षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ||

(BG. 15.7). The embodied souls (जीव) and elements (भूत) in this world (जीवलोक) are my eternal facets. But bound by material nature, they are struggling with the six senses including the mind. Here, Gita talks about the individual self (limited I) which is bound by nature to display itself in limits of the instrument (physical body) but the projector has no limitations. Oxygen is a life line for each individual but thr diatomic oxygen as an element is plentiful. Similarly, the Chaitanya/Awareness within us looks limited to our ego but Brihadaranyaka Upnishad explains it as a whole ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥That is full, this is also full, from fullness comes that fullness, taking fullness from fullness, fullness indeed remains. Each of us is whole, eternal. 


Neither we born nor die. We as चैतन्य are eternal. Stay on this true identity. The Whole, one without second, अद्वैत. 


Punamchand 

28 September 2023

Sunday, September 24, 2023

Meditation and Study

 Dhyan Abhyas 

Meditation and Study


What is composed at the time of birth will be decomposed after death. But the eternity within remains as it is. Therefore, the learning is not aimed at to become special but to become a commoner, to know thyself, the true self, that we and the creatures and creation around is made of the same material the Shakti of Shiva. 


None is superior or inferior. एक नूर ते सब जग उपजा सब कोई उसके बंदे. 


The word ध्यान is made of Sanskrit dhatu घी meaning understanding, intellect. It means jhana in Pali. The study of scriptures and meetings or interacting with Sadhakas therefore is like refining the edge of our knife (intellect) with which we can cut down the net of Maya (illusionary vision) and see the Shakti in its true form. 


Punamchand 

24 September 2023

Wednesday, September 13, 2023

Bharat is ancient

Bharat is ancient


The name भरत first referred in Rigveda as Bharata (भरता), means one who nurtures. दण्डाइवेन्द्रोअजनास आसन्परिच्छिन्ना भरता अर्भकासः। अभवच्च पुरएता वसिष्ठ आदित्तृत्सूनां विशो अप्रथन्त। (RV.7.33.6). The Bharata (भरता) tribe were inferior and shorn of their possession like the staves for driving cattle; but Vasiṣṭha joined them with his men (tritsu) as priest, with whom their (Bharata) strength increased.


As per the story of Rigveda Indra with the help of the divine power of Sage Vashishtha (and his men Tritsu) saved King Sudas. Sudas fought a battle against ten kings on the bank of river Parushni (probably Ravi) and became victor. It suggests that India was a land of Bharata and other tribes but the kings of Bharata tribe succeeded in establishment of their kingdoms over North India, therefore, the land of Aryavarta got the name Bharata (भरता). 


The son of King Dushyant and Shakuntala in this race was named Bharat (भारत) who became very famous. Kauravas and Pandavas were descendants of this Bharat King/tribe. The word Bharat is used 22 times for the descendants of Bharat in Gita of Mahabharata. Sanjay used it twice for addressing Dhritraashtra and Shre Krishna used it 20 times for Arjuna. Bharat (descendant of Bharat) was used in verses 1.10 and 1.24 for Dhritraashtra and in verses 2.14, 2.17, 2.28, 2.30, 3.25, 4.7, 4.42, 7.27, 11.6, 13.3, 13.34, 14.3, 14.4, 14.8, 14.9, 14.10, 15.19, 15.20, 16.1, 16.3, 16.3, 18.62 for Arjuna. 


Vishnu Purana has described a geographical location as Bharat. It reads, उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः॥meaning, the country that lies to the north of the ocean and to the south of the snowy mountains is called Bharata as there dwell the descendants of Bharat.


Vedas were composed between 1200 to 1500 BCE. Mahabharata was composed between 3rd century BC to 3rd Century AD. Vishnupuran was estimated to be composed between 1st century to 9th century AD. 


All the three sources are in Sanskrit. Linguistically, Vedas were written in Vedic Sanskrit (invented 12-15 centuries BCE) and Gita and Vishnu Purana were written in Classical Sanskrit (invented 4th century BCE). Therefore, the name of this country as Bharat, as descendants of Bharat or the land between the mountains and ocean/sea is very ancient. 


Punamchand 

13 September 2023

Saturday, September 9, 2023

Sanatana-eternal

 Sanatana-eternal 


There is lot of uproar and debate on Sanatana Dharma in India. In physics and chemistry, the law of conservation of energy states that the total energy of an isolated system remains constant; it is said to be conserved over time. Energy can neither be created nor destroyed; rather, it can only be transformed or transferred from one form to another.


Indian Philosophies (Darshanas) believe in the eternity of the existence as union of Purusha and Prakriti. We believe in the eternity of Universal Soul (Ishwara) and Individual Soul (Jeeva). We believe in rebirth theory by evolution of the life in 8.4 million species excelled from fish to Human on the earth. 


As nothing can be destroyed, we believe that the individual soul travels from one body to another. But to justify the inequality of one’s physical, mental, social and cultural state in present birth, the ancient sages propagated the theory of karma (action) and declared that the difference is as an outcome of our actions in previous births. We have been told to be careful of the actions in present life so that we can improve upon our status of life in next birth. If somebody wants to quit the cycle of birth and rebirth, there is a path of renunciation, to acquire knowledge of true self and merge into the universal soul the Ishwara. The eternity of the soul/energy therefore doesn’t destroyed in Indian Sanatan Dharma. But who can prove that the varnas, castes, social customs, rituals, etc, are eternal? None. 


How great is the creation of the earth with biosphere and an average temperature of 17 degrees Celsius that life exists. We are yet to find traces of life on other planets. But in spirituality, all celestial objects are considered as body of the Supreme and therefore there is life in each one of them. The Universe/s are the limbs and the expansions and contractions of it/them is the play of the Almighty. 


Therefore, what is eternal, it can’t be destroyed. The Indian darshanas believe in this eternality of God and its creation, and it is called the Sanatan Dharma. But those who don’t get out of the beliefs of caste system of unequal by birth as upper and lower can’t be called Sanatani. The Varnas are dynamic and history has recorded many interchanges within the system.


It was believed that education would bring awareness amongst the new generation and would kill the demon of inequality but it seems that the educated new generation may be in need of some more time/decades to come out of the illusionary imprisonment of the orthodoxy. 


Yajurveda Shanti Mantra, ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥states energy conservation law in the most fundamental level. वह पूर्ण है, और यह (ब्रह्मांड) पूर्ण है। पूर्ण से पूर्ण की प्राप्ति होती है। पूर्ण से पूर्ण (ब्रह्मांड) की पूर्णता लेते हुए भी वह पूर्ण रूप में रहता है। That is the whole, this is the whole. From wholeness emerges wholeness. Wholeness coming from wholeness, wholeness still remains.


Because, there is only one platform (अद्वैत), one without second, the Brahman. 


There is difference amongst the three: Brahman, Brahmana and Bhramana. Brahman is eternal. Brahmana is orthodox religion and Bramana is illusions around which we wander.😊


Punamchand 

9 September 2023

www.punamchand.com


NB: If Soul is not energy in the scientific sense the law of conservation doesn’t apply to soul.

Wednesday, August 16, 2023

शिव बावड़ी।

 शिव बावड़ी। 


हिमाचल प्रदेश के शिमला के समरहिल इलाक़े में स्थित शिव बावड़ी मंदिर विस्तार में १४ अगस्त २०२३  के दिन सुबह सात बजे से बारिश चल रही थी। पवित्र अधिक माह सावन का सोमवार था। भगवान शिव की पूजा आराधना का दिन। एक परिवार के सात लोग, माँ, पुत्र, पुत्रवधू, तीन पौत्री, स्वजन और पुजारी भगवान शंकर की पूजा आराधना कर आरती उतार रहे थे। तीन भतीजे प्रसाद के लिए मंदिर के रसोईघर में खीर बनाने और लाने गये हुए थे। अचानक मंदिर भूस्खलन की चपेट में आ गया।पुजारी और सात लोगों के परिवार समेत १५-२० लोग मलबे में दब गये और दो बच्चे समेत ११ शब रात तक निकाले गये। प्रकृति आपदा के सामने मनुष्य ने स्थापित किया मंदिर और मंदिर में स्थापित देव लिंग मूर्तियाँ जब खुद ही भूस्खलन की चपेट में आ गये फिर अंदर रहे मनुष्यों को कैसे बचाते? २०१३ के जून माह में जब पहाड़ों में अविरत बारिश हो रही थी फिर भी लोग केदारनाथ जा रहे थे। बादल फटने से उपर रहा गांधी तालाब टूटते ही लोग बह गये। दो बहाव के मध्य भूमि पर स्थित मंदिर तो एक बड़े पत्थर की आड़ में बच गया जिसे हम चमत्कार समझकर महिमा मंडन करते है; लेकिन बाढ़ के बहाव में 6054 लोगों की मौत को कोई रोक नहीं पाया।ऐसी हज़ारों आपदाएँ- घटनाएँ हमारे सामने बनती रहती है।


आराध्यदेव की पूजा को कोई नहीं नकारता लेकिन उसने दी हुई बुद्धि को किनारे रख हादसे के शिकार बनते रहना क्या बुद्धिमानी होगी? अगर सलामती चाहिए तो प्रकृति के क़ानून को मानना पड़ेगा और उसका पालन करना ही पड़ेगा। 


इस पृथ्वी पर हमारे उपलक्ष्य में पाँच देव है। एक पृथ्वी माता जो हमारा आशियाना है। दूसरा आकाश जो सबको घूमने फिरने की जगह दे रहा है। लेकिन अंतरिक्ष के तीन देव हमारी बड़ी सहायता करते है। तीनों के संकलन से हमारी जीवन डोर टिकीं रहती है।अग्नि देव सूर्य के रूप में हमें उष्मा देता है, बर्फ़ को जलमय रखता है, समुद्र के जल की भाँप बनाकर वर्षा के बादल तैयार कर वरूण देव को अंतरिक्ष में स्थापित करता है। वरूण देव पृथ्वी पर भी और आसमान में। फिर आते हैं पवन देव।पृथ्वी को घनी चादर बन कर घेर रखा है। जीव सृष्टि को प्राणवायु देता है। वायुमंडल पाँच परतों में विभाजित होकर सूर्य की हानिकारक किरणों से हमें बचाता है। सूर्य की गर्मी से भाँप बने जल कणों को उठाकर आसमान में ले जाने सहायक बनता है। फिर वरूण देव की सवारी को दरिया पार पृथ्वी के खंड खंड पर लेकर भूमि को नव पल्लवित कर जीव सृष्टि को भोजन और पानी की व्यवस्था में सहायक बन जाता है। इसलिए वेदों में अग्नि (सूर्य, सविता),वरूण (इन्द्र, मित्र) और मरूत (रूद्र) की पूजा और प्रार्थना की गई है। चंद्र देव भी सूर्य की दाहक ऊर्जा को शीतल रूप में प्रतिबिंबित कर वनस्पति का पोषण कर सोमदेव के रूप में पूजनीय स्थान पाये है। धावा पृथ्वी भी मातृ स्थान पर पूजनीय है। 


इसलिए दृश्य जगत के प्राकृतिक देवता पूजनीय है। साथ साथ उनके क़ानून है उसका पालन करना भी इतना ही आवश्यक है। 


बिजली हमें AC बनकर शीतलता देती है और हीटर बनकर गर्मी लेकिन बिजली के तार को हम मित्र समजकर हाथ में पकड़ नहीं सकते। मौत को न्योता हो जाएगा। यह पूरा अस्तित्व शक्तिरूपा है। बड़ी शक्ति के सामने छोटी शक्ति की हार या नाश स्वाभाविक चल रहा है। शक्ति के पीछे रहा अव्यक्त इस लीला का साक्षी है। शक्ति रूप भी वही है और शिवरूप भी वही। 


सलामती, सुख और समृद्धि के लिए प्रकृति से तालमेल करना इस जगत का क़ानून है। इसलिए उनकी पूजा आराधना ज़रूर करें साथ साथ उनके नियम क़ानून का पालन करें। 


विज्ञान और विश्वास को साथ साथ चलने दें। 


सलामत रहें स्वस्थ रहें। 

 

पूनमचंद 

१६ अगस्त २०२३

Monday, July 24, 2023

अवधूत।

 अवधूत। 


जडं पश्यति नो वस्तु जगत् पश्यति चिन्मयम्। जो जगत को जड़ नहीं अपितु चिन्मय-चैतन्य रूप देखता है। 


मूर्ति पूजा का यही तो रहस्य है। है तो पत्थर लेकिन उसके पूजक के लिए प्राण प्यारा बन जाता है। लेकिन सिर्फ़ मूर्ति ही क्यूँ, सिर्फ़ अपने काम की वस्तु ही क्यूँ, जब जगत पूरा लबालब एक ही चैतन्य आत्म तत्व से ही भरा पड़ा है, एक ही अनेक रूप में लीला कर रहा है फिर किसका भेद करेंगे?


योगवासिष्ठ में सुषुप्ति के प्रकार बतायें है। घन सुषुप्ति, क्षीण सुषुप्ति और स्वप्न सुषुप्ति। यह पृथ्वी तत्व, पत्थर, पहाड़ सब घन सुषुप्ति में है। चेतना है लेकिन घन सुषुप्त है। यह पेड़, पौधे, वनस्पति क्षीण सुषुप्ति में है। चेतना घन से ज़्यादा सक्रिय है। यह पशु पक्षी मनुष्य इत्यादि जीव स्वप्न सुषुप्ति में है। चेतना का जागरण बढ़ा है लेकिन स्वरूप अज्ञान से स्वप्न सुषुप्ति अवस्था में है। अभी मनचले है। दो ही तो जाग्रत में आएँगे, गुरू और गोविंद। 


जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि। देखना ही तो है। चिन्मय रूप से, सब में चिन्मय के दर्शन करने है। एक मूर्ति पर ही नहीं ठहर जाना है। वह तो प्राथमिक शिक्षा है। एक घन सुषुप्त पत्थर को पूजे और क्षीण और स्वप्न सुषुप्त चैतन्य रूपों को भूल जाए, यह कैसे हो सकता है। लेकिन हुआ। अभेद की शिक्षा को भूल हम भेद में चले गए और विषमताओं के पालने लगे। 


अवधूत दशा को पाना है तो अभेद दुर्ग में दाखिल होना पड़ेगा। संतुलन की स्थिति बनानी है। बेकार सब ग़ायब करना और चैतन्य क़ायम करना है। वधू मतलब दूसरा। जिसे एक के सिवा दूसरा कोई दिखता नहीं वही अवधूत है। धूत का मतलब छोड़ना। जिसने भेद की दुनिया छोड़ी और अभेद में सबको एक कर दिया वह है अवधूत। वही संन्यास है। सब कुछ छोड़ना और बस एक ही चैतन्य पकड़े रखना है। स्वप्न सुषुप्ति हटेगी और जाग्रत हो जाएगा। स्वस्थ हो जाएगा।


पूनमचंद 

२४ जुलाई २०२३

Wednesday, July 19, 2023

आत्मदर्शन।

 आत्मदर्शन। 


भगवान बुद्ध अपने भिक्खूओं के साथ वनीय विस्तार से गुजर रहे थे। एक जगह ठहर गए। बुद्धको प्यास लगी थी। एक भिक्खू जल लेने चला गया। एक तालाब खोज निकाला। लेकिन उसमें से एक बैलगाड़ी गुजरी थी इसलिए जल मैला था। वह बिना जल लिए वापस लौट आया। कुछ देर बाद बुद्ध ने उसे वही तालाब से जल लाने को कहा। भिक्खू गया, तालाब शांत था, जल निर्मल और उसने झुककर एक लौटा पानी भर लिया। बुद्ध ने शिक्षा दी कि हमारा मन भी उस तालाब के पानी की तरह है। सामान्य रूप से तो है शांत और स्थिर, लेकिन परिस्थितियों से वह विचलित और मैला हो जाता है। इसलिए मन को निर्मल करने कोई विशेष प्रयास नहीं करने है परंतु जिससे विक्षेप पैदा हुआ है उस स्थिति को गुजर जाने देना है। 


मन का उपादान सत्व गुण है इसलिए उसको निर्मल होने में कोई कठनाई नहीं होनी है। बस हमनें अपने संस्कारों के भण्डार गृह में जो जानकारी भर रखी है, जिसकी वजह से हमारा अहंकार विक्षेप पैदा कर रहा है, उसको ख़ाली करना है। शांत मन निर्मल दर्पण बन जाएगा, अपने आत्मरूप का दर्शन कर लेगा। 


शांत, स्थिर बैठे रहने की शिक्षा दी जाती है। रात में सोते समय सुषुप्ति में हम शांत और स्थिर हो जाते है। न पदार्थ है, न मन, न यह संसार। सुषुप्ति के आनंद से कौन नहीं है परिचित? सुषुप्ति ही हमारे स्थूल और सूक्ष्म शरीर की बैटरी को चार्ज कर देती है। लेकिन जागते ही संसार लग जाता है इसलिए तुरीया और तुरीयातीत; शुद्ध विद्या, ईश्वर, सदाशिव का हमें पता नहीं चलता। समाधि इसी में दाखिल होने की साधना है। 


जब हम जागते है, तब जीव चेतना स्थूल शरीर में, स्वप्न में सूक्ष्म शरीर में और सुषुप्ति में कारण शरीर में बनी रहती है। जाग्रति में हम शरीर, इन्द्रियाँ, मन से पदार्थ जगत का उपभोग करते है। स्वप्न में स्थूल शरीर विश्रांति में है लेकिन मन अपने बनाये पदार्थों को भोगता है। सुषुप्ति में शरीर शांत, इन्द्रियाँ शांत, मन भी शांत इसलिए जीव कारण में विलीन होकर पदार्थ विहीन सुखरूपता का अनुभव कर लेता है। लेकिन उठते ही वह संसार की जाल जंजाल में फँसकर सुख दुःख का भोगी बन जाता है। 


कहते हैं कि जागा हुआ पुरूष अपलक हो जाता है, पलक नहीं झपकती। वैसे तो यह स्वचालित क्रिया है। तबीबी हिसाब से पलक न झपकना दिमाग की एकाग्र होने की क्षमता कम होने की निशानी है। लेकिन आध्यात्मिक क्षेत्र में मन को स्थिर करने का उपाय। 


एक प्रयास करें। सुखासन। आँखे बंद करें। अब दोनों आँखों को स्थिर रखनें का प्रयास करें। देखें उसके हल्के वायब्रेशन कैसे शांत होते जा रहे हैं और साथ साथ आपका मन भी शांत होता चला जा रहा है। 


दूसरा प्रयोग करें। सुखासन, आँख बंद, ओठ आधे खुले और जिह्वा को मुँह के मध्य में स्थिर करें। न उपर जाने देना है, न नीचे। बच मध्य में स्थिर। देखते ही देखते, आँखों की पुतलीयां शांत हो जाएगी और मन भी। 


यह तो हुई क्रिया, मन को शांत और स्थिर करने की। परंतु बिना ज्ञान उस मन दर्पण का करोगे क्या? 


बस  इसलिए ही एक दर्शन अभ्यास चाहिए। जिसका श्रवण, मनन, निदिध्यासन करने से, जो देखना चाहते हो वही दिखाई देने लगता है। सगुण चाहो तो सगुण और निर्गुण चाहो तो निर्गुण। 


आज बस इतना ही। 


पूनमचंद 

१९ जुलाई २०२३

Wednesday, July 5, 2023

बिहारी।

बिहारी। 


बिहार का नाम बुद्ध विहारों से पड़ा है ऐसी प्रचलित मान्यता है। बिहार सांख्य, बौद्ध, जैन, नाथ, इत्यादि दर्शनों का गढ़ रहा है। इसलिए क्या बौद्ध भिख्खुओ के रहने के कुछ मकान अकेले उसे बिहार नाम दे सकते है?  


बिहार नाम बिहारी से आया है। कौन हे बिहारी? आत्मा राम। स्थिति ऐसी थी की पूरा प्रांत आत्माराम में रमण करता था, विहार करता था, तत्व चिंतन करता था। परम शांति में रहता था। 


हिन्दू दर्शन यह सृष्टि को खेल या लीला के रूप में पहचानता है। एक ही परम सत्ता का लीलारूप वैभव।एक ही अनुत्तर ने प्राण-अपान की भूमिका पर यह खेल रचाया है। अपनी शक्ति को प्रकट कर यह संसार व्यापार चला रहा है। वह यह निखिल विमर्श में प्रतिबिंबित रहता है। लेकिन जब कोई बिहारी इसी विमर्श शक्ति के सहारे अपने अंतः स्थित प्रकाश में प्रविष्ट हो जाता है तब आत्माराम में रमण करने लगता है। हंस से परमहंस पद आगे बढ़ता है। आज्ञा चक्र से सहस्रार का रास्ता टेडा मेडा है इसलिए बाँके बिहारी बनना पड़ता है, लेकिन जो पहुँच गया वही सच्चा बिहारी है। 😊


पूनमचंद 

५ जूलाई २०२३

मन।

 मन। 


जैसे समग्र अस्तित्व शक्ति है, शिव की; विमर्श है प्रकाश का; वैसे ही मन भी शक्ति है, जीवात्मा की। 


प्रकृति के तीन गुणों (सत्व, रज, तम)  में मन सत्व का प्रतीक है। इसलिए उसे दर्पण भी कहा जाता है। 


इसी दर्पण पर जीवन के रसास्वादन के लिए भाव (स्वभाव) खेल चलता रहता है। 


मन  को वैसे तो इस खेल में रहना है साक्षी, दृष्टा, लेकिन वह इन्द्रियों के साथ लिप्त हो जाता है और कर्तृत्व भोक्तृत्व की जंजाल में फँसकर सुख दुःख का भोगी और जन्म मरण के चक्कर काटनेवाला पुर्यष्टक बन जाता है। 


यही अशुद्धि है, मल है, अशुद्ध मन है। सारे प्रश्नों का यही मूल कारण है। 


यह मन जब दृष्टा बनकर तटस्थ भाव धारण कर लेता है, खेल और रंगमंच का साक्ष्य हो जाता है, तब वह शुद्ध मन बन जाता है। उस शुद्ध मन के दर्पण से जो उभर आती है वह आत्मा है। 


शुद्ध मन तटस्थ साक्षी होते ही भावातीत होता है, प्राण के खेल का तटस्थ साक्षी रहता है। फिर जब मन भी दृश्य बनता है तब दृष्टा आत्मा उभर आती है। 


फिर आगे मन भी नहीं रहता, शिवशक्ति के मिलन में हंस परमहंस हो जाता है। 


अद्भुत है। 


पहले मन (शक्ति-विमर्श) के दर्पण में आत्मा का प्रतिबिंबन और फिर आत्मा में मन का। 


तेरी लीला का नहीं पार। 


आत्मा अद्वय है। अद्वैत है। बाक़ी सब खेल है। राम।


पूनमचंद 

५ जून २०२३

Friday, June 30, 2023

मातृका-१

 मातृका-१


महाभारत की एक कहानी है। सत्यवती (मत्स्यगंधा) और हस्तिनापुर नरेश शांतनु के बेटे विचित्रवीर्य की शादी नहीं हो रही थी। दूसरी ओर काशी नरेश काश्य ने अपनी तीन पुत्रियाँ अंबा, अंबिका और अंबालिका का स्वयंवर रचा था। तीनों का देवव्रत भीष्म ने अपहरण किया। अंबा को शल्व से प्रेम था इसलिए उसे छोड़कर अंबिका और अंबालिका की शादी विचित्रवीर्य से हुई। उसे क्षय की बीमारी थी इसलिए सात साल तक दोनों पत्नियों के साथ रहने पर भी उसे संतान नहीं हुई। आख़िर वेद व्यास के द्वारा नियोग से धृतराष्ट्र और पांडु हुए जिनके कौरव पांडवों ने महाभारत खेला। श्रीकृष्ण केन्द्र में रहे। धर्म (युधिष्ठिर) का जय हुआ और अधर्म (दुर्योधन) का नाश हुआ। 


प्राचीन भारत वर्ष में काशी, कश्मीर, कन्नौज, उज्जैन, कांची, तक्षशिला, नालंदा, इत्यादि ज्ञान के केन्द्र रहे है। लेकिन हस्तिनापुर-दिल्ली ज्ञान केंद्र के रूप में कभी उभर नहीं आई थी। अब उपर्युक्त कहानी का रूपक समझते है। 


काशी ज्ञान प्रकाश का केन्द्र था, जिसकी अंबा, अंबिका, अंबालिका मातृका शक्ति थी। भीष्म उन्हें अपने राज्य के हित विकास के लिए उठा तो ले आए और अंबिका और अंबालिका को राज्याश्रय भी दिया लेकिन वर विचित्रवीर्य में योग्यता नहीं थी इसलिए उसका विकास नहीं हुआ। फिर विकल्प न रहने पर वेद व्यास से नियोग करवाया लेकिन संतति अंध और पांडु रोगी निकली। इसलिए वेदों के प्रमुख देव यम, वायु, इंद्र, अश्विनीकुमारों का सहारा लेकर मंत्रवीर्य से सद्गुणों रूपी पांडवों की उत्पत्ति हुई। लेकिन उनका विकास होने तक अहंकार के दुर्गुण पुत्रों का बल इतना बढ़ चुका था कि कुरुक्षेत्र का युद्ध लड़ना पड़ा। आत्मा श्रीकृष्ण को रथी बनना पड़ा, जिसने पंचशक्ति के सद्गुणों के द्वारा शत दुर्गुणों का संहार किया। 


उत्पत्ति का केन्द्र बिंदु है। बिंदु के दो त्रिकोण है। एक ऊर्ध्व और दूसरा अधः। साधक का चित्त जिस ओर चलेगा उस त्रिकोण की ओर उसका विकास होगा। मध्यमा से पश्यन्ति अथवा वैखरी की ओर। दोनों ही स्थितियों में मातृका शक्ति केन्द्र में है। शब्द, अर्थ और ज्ञान की तीनों भूमि पर कदम रखना है और आगे बढ़कर परावाक् (केन्द्र) में स्थित होना है। मातृका से बनी है माया, उसे लांघना इतना सरल नहीं। 


पूनमचंद 

३० जून २०२३

Thursday, June 29, 2023

सनातन बुद्धत्व।

सनातन बुद्धत्व। 


श्रीमदभगवद्गीता (ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी) ने सांख्य, योग और वेदांत का संयोजन कर कर्म, ज्ञान और भक्ति मार्ग से चित्त के गुण विकास द्वारा परमात्मा की शरण लेकर अक्षर शांति/धाम/सुख पाकर मुक्ति का मार्ग दिखाया है। इसलिए सांख्य और योग गीता से प्राचीन हुए। 


प्राचीन भारत में साठ से अधिक दर्शन प्रचलित रहे है और सबका लक्ष्य मनुष्य चित्त को निरावरण कर निर्मल प्रकाश का साक्षात्कार कर मुक्ति रहा है। जिसमें वैदिक के साथ साथ बौद्ध, जैन, नाथ, वैष्णव, शैव, शाक्त इत्यादि धाराओं सम्मिलित हो जाती है। सनातन इस प्रकार वैदिक और अवैदिक सभी दर्शनों का संगम है। 


कपिल मुनि (ईसा पूर्व छठी शताब्दी) का सांख्य (पुरूष-प्रकृति) और पतंजलि (ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से ईसा चौथी शताब्दी) के योगसूत्र का अष्टांगः यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि योग प्रसिद्ध है। कपिल मुनि का प्रभाव बौद्ध और जैन दर्शनों भी है। 


लेकिन पतंजलि के योगसूत्र के साथ साथ बौद्ध वज्रयान के तंत्र को भी समझना होगा जो कश्मीर से तिब्बत तक पूरे हिमालय पर्वतीय प्रदेश में प्रचलित था। 


पतंजलि के अष्टांग में यम नैतिक जीवन है, जिसमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह का समावेश है। जैनियों के तपव्रत से मिलता है। नियम व्यक्तिगत नैतिकता के स्वरूप में शौच (तन और मन की शुद्धि), संतोष, तप, ईश्वर प्राणिधान है। आसन शरीर नियंत्रण है। प्राणायाम प्राण नियंत्रण है। प्रत्याहार इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना। धारणा एकाग्र चित्त होना, ध्यान और समाधि द्वारा आत्मा से जुड़ना है। चित्त की एक और संसार है, बंधन है और दूसरी और निराकरण प्रकाश है, मुक्ति है। 


बौद्धों ने षडंग योग का लक्ष्य था बुद्धत्व की प्राप्ति। निरावरण प्रकाश को पाना। इसे ही सम्यक् सम्बोधि या महाबोधि नाम दिया गया है। बौद्ध षडंग योग में प्रत्याहार, ध्यान, प्राणायाम, धारणा, अनुस्मृति (तर्क) और समाधि क्रम है। जो निरावरण प्रकाश के बुद्धत्व की सिद्धि पाने के साधन है।


प्रत्याहार मंत्र सिद्धि है। दशानन-दस इन्द्रियों जो की वृत्ति लाभ के लिए अपने अपने विषयों में बहिर्मुख प्रवृत्त है उसे स्वरूप की ओर अंतर्मुख करना प्रत्याहार है। विषय ग्रहण बंद होने से और प्रत्याहार के निरंतर अभ्यास से जब बिंब दर्शन की सिद्धि होती है तब ध्यान का प्रारंभ होता है। 


ध्यान में पंच कामरूप भावो की बुद्धरूप में भावना करनी है। बाह्यभाव कट जाने से चित्त दृढ़ होता है और बिंब से चित्त के तादात्म्य से अनिमेष/दिव्यचक्षु की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार दिव्य श्रोव आदि का उदय होता है। तब प्राणायाम में प्रवेश होता है। 


प्राणायाम में वाम और दक्षिण नाड़ीयो में प्रवहणशील दो श्वास प्रवाह को एकभूत कर पिण्ड आकार में बदलकर पिण्ड को मध्य मार्ग में संचारित कर क्रमशः उपर उठाकर नाभाग्र में धारण करना है। प्राण को नाभि, ह्रदय, कण्ठ, ललाट और उष्णीय कमल बिंदु तक ले जाकर स्थिति लाभ करना है। प्राणायाम कि सिद्धि धारणा अभ्यास का अधिकार प्राप्त होता है। 


इष्ट मंत्र प्राण को ह्रदय में ध्यान कर उपर उठाकर ललाट में बिंदु स्थान में निरुद्ध करने से प्राणवायु स्थिर होता है, नाभि चक्र से चाण्डाली/कुण्डली उपर उठती है और उष्णीय कमल कर्णिका में पहुँचती है। धारणा सिद्धि से चाण्डाली उज्ज्वलता प्राप्त करती है। ग्राहक चित्त शून्यता बिंब ग्राह्य में समाविष्ट हो जाता है। बिंदु धारणा से गतिशून्य प्राण एकाग्र होता है। वृत्ति संवृति सत्वाकार हो जाती है। योगी बोधिसत्व अवस्था में पहुँचता है।


फिर आता है पंचम पड़ाव अनुस्मृति या तर्क का। संवृति सत्वाकार वृत्ति को आकाशव्यापी रूप में दर्शन करना है। त्रिकालस्थ समग्र भुवन का दर्शन होता है। परिणाम स्वरूप विमल आभामंडल का आविर्भाव होता है जिसमें योगी का प्रवेश होता है। 


ऐसे विकल्प शून्य चित्तवाले योगी के लोमकूप से महारश्मि निकलती है। ग्राह्य और ग्राहक चित्त एक हो जाता है और अक्षर सुख का आविर्भाव होता है। निखिल आवरण की निवृत्ति होती है। अचानक एक महाक्षण के महाज्ञान निष्पत्ति होकर समाधि आविर्भूत होती है।महाज्ञान का उदय होता है। चल अचल सारे प्रतिभासों का उपसंहार होता है। वह सिद्ध रस में सबकुछ ग्रास कर स्वयं अखंडरूप में बिराजता है। अद्वय रूप प्रकाशता है। यही समाधि है। यही बुद्धत्व है। बुद्ध आत्मा का परम स्वरूप है। 


कश्मीर नौवीं शताब्दी में शैव मत के विकास के पहले बौद्ध धर्ममय था। लोग नागार्जुन और धर्मकीर्ति के उपदेश से प्रभावित थे। नौंवी शताब्दी में शैव आचार्य वसुगुप्त ने शिवसूत्र और स्पन्दकारिका की रचना की। जिसे आगे जाकर आचार्य अभिनवगुप्त (१०-११ वी शताब्दी) ने तंत्रलोक इत्यादि सुंदर रचनाओं के माध्यम से और फैलाया। कौल और त्रिक दर्शन आज भारत में कश्मीर शैवीजम के नाम से प्रचलित हो रहा है। शिव ही अपने स्वातंत्र्य चयन से मलावृत संसारी जीव बना है, जो मलावरण से निरावरण होते ही अपने शिवस्वरूप में स्वस्थ होकर मुक्त हो जाता है। 


कश्मीर शैवीजम में तत्व ३६ और योग षडंग है। ३६ तत्व में कपिल सांख्य के २५ में ११ नवीन जोड़े है। कपिल के २५ तत्वों के उपरांत पाँच शुद्ध तत्व (शिव, शक्ति, सदाशिव, ईश्वर, शुद्ध विद्या), छ अशुद्ध तत्व (माया, पाँच कंचुकः कला, विद्या, राग, नियति, काल) को मिलाकर ३६ का आँकड़ा बनता है। षडंग में क्रम प्राणायाम, धारणा, तर्क, ध्यान, समाधि, प्रत्याहार है। प्राणायाम पतंजलि के सूत्रों जैसा है। धारणा बिंदु और नाद की है। तर्क स्वीकार अस्वीकार का विवेक है। ध्यान शिव स्वरूप का है। समाधि निश्चलता है। प्रत्याहार मन निवृत्ति है। मोक्ष के चार उपाय है। आनवोपाय, शक्तोपाय, शाम्भवोपाय, अनुपाय। प्रत्यभिज्ञा दर्शन है। 


गहराई में जिस दर्शन का भी अभ्यास करें, लक्ष्य एक ही नज़र आता है। मनुष्य चित्त को बहिर्मुख विषयों से मुक्त कर निरावरण, दिगंबर, शुद्ध, अद्वय, चिद्रूप में परिवर्तित करना। आत्मा के निर्मल प्रकाशरूप में स्थित होना। यही सत्य है। चित्त का बंधन, चित् मुक्ति। 


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पूनमचंद 

२९ जून २०२३


साभारः तांत्रिक साधना और सिद्धांत, महामहोपाध्याय डॉ. श्रीगोपीनाथ कविराज।

Friday, June 23, 2023

शिवोहं-पूर्णोहं।

 शिवोहं-पूर्णोहं। 


शिव का संकोच जीव (पशु) है और पशु का प्रसार शिव। शिव का जब संकोच होता है शक्ति का प्रसार होता है, सृष्टि होती है। शक्ति का संकोचन होता है तो सृष्टि का संहार होता है। एक क्षीण होता है दूसरा पुष्ट होता है। 


इस संकोचन विस्तरण  चक्र का प्रयोग काल की क्रियाओं में भी किया गया है। जैसे की दिन बढ़ने की या सूर्य प्रकाश बढ़ने की छह मासिक प्रसार स्थिति को उत्तरायण गति और घटने की संकोच स्थिति दक्षिणायन गति कहते है। चंद्र की कलाओं के ज़्यादा होने का पखवाड़ा शुक्ल पक्ष और कम होने का पखवाड़ा कृष्ण पक्ष कहते है। हमारे श्वासों की गति में अंदर जा रहा अपान अनुलोम है और बाहर निकल रहा प्राण विलोम है। जैनियों का काल चक्र भी सुख और दुख के प्रसार और संकोच की गति से जाना जाता है। वैदिक संवत्सर चक्र अथवा युग-काल गणना भी शक्ति के प्रसार और संकोच से नापी जाती है। 


लेकिन प्रसार संकोच की इस बहिर्गति और अंतर्गति के विश्वात्मक (immanent) खेल में उसका मध्य बिंदु, उसकी धुरी, अविभक्त रहती है। साक्ष्य और साम्य रहती है। यही विश्वातीत (transcendent) पूर्ण (absolute), अभिन्न, स्वप्रकाश के सामरस्य का साक्षात्कार करना है। तभी तो इस अनेकाकारता की एकाकारता होगी। वही स्वरूप ज्ञान है। वही मुक्ति की सबको कामना है। 


शक्ति (सृष्टि) और शिव (धुरी) दोनों सत्य है। बस भेद-अभेद का फ़र्क़ है। उस भेद को लांघने शक्ति का  जागरण चाहिए। शक्ति जगाने सोयी कुण्डली (आधार शक्ति) जगानी पड़ेगी। कुण्डलरूप से दण्डरूप में लानी है। मूलाधार के भूमध्य से सहस्रार के मध्य बिंदु पहुँचना है। शक्ति और शिव का मिलन कराना है। तभी तो विकल्प हटकर निर्विकल्प होगा। शिवोहं का साक्षात्कार होगा। पशु, पशुपति बनेगा। 


शब्दों से थोड़ी होगा? अनुसंधान करना होगा। जागेंगे तब वह जागेगी। जागेगी तो उजियारा होगा। अंधेरा जाएगा और प्रकाश का प्राकट्य होगा। 


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पूनमचंद 

२३ जून २०२३

Thursday, June 22, 2023

तीन यात्रा।

 तीन यात्रा। 


आध्यात्मिक जीवन में तीन यात्राओं का चिंतन होता है। एक यात्रा तो हम सब मनुष्यों ने पूरी कर ली है, मनुष्य योनि तक पहुँचने की। इसे अज्ञान की यात्रा कहते है क्योंकि अपने सर्व ज्ञातृत्व और सर्वं कर्तृत्व सत्ता के परमात्मभाव को भूलकर जड़ संबंध से जीवभाव की स्थिति प्राप्त की है। यह शिव स्वातंत्र्य था जिसने अनावृत चेतन को आवृत कर प्रकृति की ओर सुषुप्ति को चुना है। प्रकृति की यह परमावस्था से जिन्हें कोई आपत्ति नहीं, उनके लिए यह शिव-जीव की चर्चा का कोई मतलब नहीं रहता क्योंकि इनका सुषुप्ति भंग बाक़ी है। 


लेकिन जिनका सुषुप्ति भंग हुआ है और जो अपने जड़भाव से निकलकर नित्य जाग्रत बोध की दिशा की ओर प्रवृत्त हुए हैं इनके लिए आध्यात्मिक यात्रा एक नहीं दो हो जाती है। एक पूर्णोहं रूप बोध की व्यक्त स्थिति और दूसरी महामौन, महाशून्य की अव्यक्त स्थिति। अव्यक्त को कोई नहीं व्यक्त कर सकता इसलिए दर्शन सब व्यक्त के चिंतन तक सीमित है। लेकिन अगर यह पूर्णोहं स्थिति भी इस जीवन में मिल जाए, तो उस सिद्ध दशा का क्या कहना? जीवन धन्य हो जाएगा। जीवन मुक्त हो जाएगा। 


यह दूसरी यात्रा नित्य जाग्रत स्वयंप्रकाश चैतन्य की अवस्था है। 


जिस जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति से हम परिचित हैं वह हमारे मन की अवस्थाएँ है। मन जागता है, स्वप्न देखता है और सुषुप्ति में चला जाता है। मन की दौड़ विषयों के प्रति है इसलिए जागते ही फिर शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध की विषय दौड़ लग जाती है। इन्द्रियों के बलानुसार उसका शारीरिक और मानसिक भोग करता रहता है और सफलता से सुखी और विफलता से दुःखी रहता है। आत्मा तीन मलों के आवरण से अपने को इस अस्तित्व से भिन्न मानकर राग-द्वेष के दो पिल्लों के आसपास घुमती रहती है। समर्थ असमर्थ बनकर अविद्या की जेल में बंद है। 


क्या दूसरी यात्रा के लिए तैयार है? 


यहाँ करना कम है और छोड़ना ज़्यादा है। घबराओ नहीं, न घर छोड़ना है न पत्नी-पति या पुत्र परिवार, न धन दौलत, न पद। बस एक ही छोड़ना है, अहंकार। अहंकार से ममत्व है और ममत्व से बंधन है। अहंकार से हं निकाल कर अ-कार चित् में प्रवेश करना है। घोर से अघोर में प्रवेश करना है। मैं कोन हूँ को खोजना है। 


मैं शरीर नहीं, मेरा शरीर है। 

मैं इन्द्रियाँ नहीं, मेरी इन्द्रियाँ है। 

में मन नहीं, मेरा मन है। 

मैं बुद्धि नहीं, मेरी बुद्धि है। 

मैं अहंकार नहीं, मेरा अहंकार है। 

मैं धन-दौलत, पत्नी-पुत्र-परिवार, पद-प्रतिष्ठा इत्यादि नहीं लेकिन मेरी धन-दौलत, मेरी/मेरा पत्नी-पति-पुत्र-परिवार, पद-प्रतिष्ठा है। 


यह जो मेरा-मेरा हैं वह प्रकृति सत्ता का अहंबोध है उससे मुक्त होना है और अपने शुद्ध मैं स्वरूप की आहलेक लगानी है। मेरा-मेरा संकोचन है, उस संकोचन को त्यागना है। जैसे जैसे यात्रा आगे बढ़ेगी, आत्मा अपने सर्वज्ञत्व, सर्वकतृत्व इत्यादि भगवद् गुणों के प्रकाश का अनुभव करेगी। आत्मा अहं बोध पूर्णोहं रूप नित्योदित स्वयं प्रकाश चैतन्य की अवस्था में स्थित हो जाएगी। दूसरी यात्रा यहाँ समाप्त होती है। 


लेकिन लाखों में कोई एक विरला तीसरी यात्रा में कदम रख लेता है, अनन्त की ओर, अव्यक्त की ओर। अपने स्वरूप के भीतर प्रवेश कर भीतर ही भीतर अव्यक्त स्वरूप की ओर यात्रा चलती रहती है।कहाँ तक, कोई नहीं जानता। कोई नहीं लिखता। अव्यक्त है, व्यक्त नहीं हो सकता। उस महाशून्य, परम शिव पद निर्वचनीय है। 


कहाँ खो गये? 


अभी तो हम पहली यात्रा को समझ रहे है और दूसरी की तैयारी में लगे है।  


चल पड़ो।


तीसरी का पड़ाव आएगा, तब देखा जाएगा। 


पूर्णोहं के बोध की ओर अग्रसर रहे। 


🕉️ 

पूनमचंद 

२२ जून २०२३


साभारः तांत्रिक साधना और सिद्धांत, महामहोपाध्याय डॉ. श्रीगोपीनाथ कविराज।

Wednesday, June 21, 2023

जय सच्चिदानन्द।

 जय सच्चिदानन्द। 


सत् चित् आनन्द। परमात्मा का नाम है। वह निराकार है, निष्कल है, निर्गुण है, फिर भी उसका नाम कैसा, गुण कैसा? वह विश्वोर्तीर्ण है लेकिन विश्वमय भी।सृष्टि से अभिव्यक्त है इसलिए उस अव्यक्त को मनुष्य बुद्धि के शब्दों के बोध से पकड़ने का एक प्रयास ही तो है। 


भारतीय दर्शनों ने, शास्त्रों ने ब्रह्म को सच्चिदानन्द स्वरूप माना है। सत्, चित् और आनन्द तीन विशिष्ट अर्थ हुए। सत् अर्थात् सन्मात्र रूप, चित् अर्थात् आत्म प्रकाश रूप और आनन्द अर्थात् स्थिति लाभ। सत्, चित् और आनन्द अखण्ड रूप से गृहीत होकर अद्वैत ब्रह्मरूप में अपने आप प्रकाशित है।


सत्, सन्मात्र, सदा अव्यक्त और अव्याकृत है। बौद्धों का महाशून्य इसी सत् को इंगित करने प्रयोग हुआ है। यह सत्य की गंभीरतम स्थिति है। 


चित् जो कि अनुत्तर है वह एक ओर सत् के अभिमुख है और दूसरी ओर आनन्द के अभिमुख है। अंतःस्पन्दन और बहिःस्पन्दन दोनों में मौजूद।मानव चित्त की अंतर्मुख और बहिर्मुख वृत्तियों का मूल यहीं पर है। 


सत्, परम सत्य है जिसके भीतर चित् और आनन्द, द्विविध स्पन्दन गृहीत है। चित्त (बिंब) के बाहरी स्पन्दन के फलस्वरूप दूसरा चित् (प्रतिबिंब) आविर्भूत होता है तब बिंब अपने प्रतिबिंब को देखकर अपनी सत्ता के रूप में पहचान सकता है और आनन्द रूप में अनुभव करता है। यह पहचान की शास्त्रीय नाम आनन्द है। 


चित् जैसे सत् से पृथक नहीं वैसे ही आनन्द चित् से पृथक नहीं। चित् का शास्त्रीय नाम अनुत्तर है। ‘अ’ से अनुत्तर। वर्णमाला के पहले अक्षर ‘अ’ से उसे इंगित किया गया है।


अ से आ, एक से दो। आत्मरमण। ‘आ’ वर्ण आनन्द का प्रतीक है। सत् के आश्रय कर उसका प्रकाश विराजमान हैं वह चित् है, चित्शक्ति है। वह प्रकाशमान होता है तब आनन्द रूप से परिचित होता है। आनन्द चित् का खेल है। जल के फ़व्वारे की तरह हमारी सृष्टि की अभिव्यक्ति इसी आनन्द से होती है। 


आनन्द के लिए ही युगल भाव आया। पुरूष और प्रकृति। पुरूष और स्त्री। आदम और इव। आ से आनन्द और इ से इव। इ इच्छा का विकास है। इच्छा मात्र आनन्द चाहती है। इच्छा आनन्द को ढूँढकर निकालने की शक्ति है। इसी इच्छा से जगत् कि सृष्टि होती है, इव और आदम के मिलन से। अणु से नक्षत्र मंडल तक, स्थूल से कारण जगत तक, प्रकट या अप्रकट, सब ओर खोये धन को पाने की जैसे आकांक्षा है। खोया धन इच्छा का विषयीभूत आनन्द है। आनन्द प्राप्ति तक विराम नहीं होता। जब तक इच्छा की पूर्ति नहीं, तब तक पूर्णत्व की प्राप्ति नहीं। 


इच्छा शक्ति जब घनीभूत होकर स्पन्दित होती है तब ईशन शक्ति का उदय होता है। इसका प्रतीक है ‘ई’।इस ईशन इच्छा का प्राण है। यह इच्छा ज्ञानशक्ति का रूप धारण करती है। इसे उन्मेष कहते हैं और उसका प्रतीक है ‘उ’। 


बिना ज्ञेय (विषय) ज्ञान कैसा? ज्ञान सत्ता इसलिए विषय ज्ञेय को प्रकाशित करती है। ज्ञेय का प्रतीक है ‘ऊ’। ऊनता अथवा ऊनी। उ और ऊ, जैसे पानी और बर्फ़। ज्ञानशक्ति का घनीभूत स्वरूप ज्ञेय। जैसे बर्फ़ जल से आश्रित है वैसे ही ज्ञेय ज्ञान के आश्रित। ज्ञेय, ज्ञान से पृथक नहीं है। ज्ञान की मूर्त अवस्था ज्ञेय है। ज्ञेय का ज्ञान से पृथक दिखना अविद्या है। 


पानी का टुकड़ा पानी में तैरता है तब तक अविद्या रूपी खेल चालू नहीं होता। लेकिन जैसे ही पानी से अलग हुआ, अविद्या रूपी क्रियाशक्ति का खेल आरंभ हो जाता है। वर्णमाला के ए-ऐ-ओ-औ अनुक्रम से क्रियाशक्ति की अस्फुट, स्फुट, स्फुटतर और स्फुटतम अवस्थाएँ है। 


सत् शक्ति यूँ पाँच बन गई। चित्, आनन्द, ज्ञान, इच्छा और क्रिया। यही परमेश्वर की पंचशक्ति या पंचमुख, पंच कलश है। चित् और आनन्द स्वरूप शक्ति के अन्तर्गत और इच्छा, ज्ञान, क्रिया बहिरंगी। यह बहिरंगी त्रि-शक्ति, विश्वयोनि है, जिसे महामाया कहते है। सृष्टिमुखी गति बहिर्मुख और प्रलय गति अंतर्मुख। 


लेकिन जहां अंतर्मुख नहीं है, बहिर्मुख नहीं है, वाणी से अगोचर है, वह बुद्ध का शून्य है। वही वेदांती का ब्रह्म है। 


अ से उ तक शक्ति की बहिर्मुख धारा है। क्रियाशक्ति की पूर्णता से यह बहिर्मुख धारा अभिव्यक्त होती है और बिन्दु रूप प्रकट होती है। उसका प्रकाश है चित् शक्ति, अ कार, अनुत्तर। 


अ (चित्) बिंदु पंचशक्ति से समन्वित होकर अं हुआ। अं से सृष्टि होगी। अ का समापन औ कार से होता है। अं का एक बिंदु के दो बिंदु हुआ ः, विसर्ग हुआ, वैसर्गिक सृष्टि हुई। आगे व्यंजन वर्ण की सृष्टि हुई। क से ह तक के व्यंजन तत्व के द्योतक है। तत्व की सृष्टि हुई।अ कार से ह कार, अहं विमर्श हुआ। 


यही पूर्णोहं में सभी तत्व और शक्ति वर्ग है तथा परम गूढ़ सत्ता भी। परम शिवावस्था है जिसके अभिन्न पराशक्ति है। यह सृष्टि सत् से है, परम शिव से है। 


पहले इदं भाव का विकास फिर एक अहं ही अनन्त अहंरूप में आत्म प्रकाशित। तब बनेगी सर्वं खल्विदं ब्रह्म की स्थिति। 


अ से अः तक की बाराक्षरी पक्की करनी है। वैखरी से परा तक पहुँच बढ़ानी है और अ से ह तक के वर्णों को समझकर अहं पूर्णोविमर्श की स्थिति पानी है। आदम का आनन्द और इव की इच्छा को आत्मज्ञान का पुट देकर अनुत्तर अ में विश्रांति लेनी है। 


काल से महाकाल पहुँचना है। समय कम है। जागना है। जो जागेगा वह पाएगा। 


🕉️ जय सच्चिदानन्द। 


पूनमचंद 

२१ जून २०२३


साभारः तांत्रिक साधना और सिद्धांत, महामहोपाध्याय डॉ. श्रीगोपीनाथ कविराज

Tuesday, June 20, 2023

मूल त्रिकोण।

 मूल त्रिकोण। 

तंत्र में एक केन्द्र है, महाबिंदु है जिसमें रक्त और श्वेत बिंदु नज़र आते है। केन्द्र में रक्त बिंदु है। रक्त बिंदु के आसपास श्वेत-शुक्ल बिंदु आवृत है। बिंदुओं को एक श्वेत त्रिकोण ने घेरा है और यह समग्र आकृति नील वर्णिय भूपुर में स्थापित है। 


रक्त बिंदु शिव है, अग्नि स्वरूप है। शुक्ल बिंदु शक्ति है, सोम स्वरूप है। एक सूर्य, दूसरा चंद्र। रक्त और श्वेत से बना महाबिंदु सदाशिवरूपी आसन है। प्रकाश-अग्नि के संपर्क से शक्ति-सोम का स्राव होता है। महाबिन्दु के स्पन्दन से तीन बिंदु अलग होकर तीन रेखा बनकर महात्रिकोण का रूप धारण करते है। इसी से शिव से पृथ्वी तक समस्त विश्व का आविर्भाव-सृष्टि होता-होती है। विश्वातीत विश्वमय बन जाता है।यह पराशक्ति की अभिव्यक्ति है, विश्वरूप चक्र का आवर्तन है, शिवशक्ति की लीला है।


प्रकाश के चार अंश अंबिका, वामा, ज्येष्ठा और रौद्री। विमर्श के चार अंश शान्ता, इच्छा, ज्ञान और क्रिया। और इनकी यह लीला। 


अंबिका-शान्ता के तादात्म्य से परावाक्-इच्छाशक्ति (विश्व बीज); वामा-इच्छा के तादात्म्य से पश्यन्ति-ज्ञानशक्ति (अंकुरण); ज्येष्ठा-ज्ञान के तादात्म्य से मध्यमा-क्रियाशक्ति (स्थिति); रौद्री-क्रिया के तादात्म्य से वैखरी (प्राकट्य) होता है। 


यह चार वाक् (परा, पश्यन्ति, मध्यमा, वैखरी) परस्पर मिलकर मूल त्रिकोण बनाते है। अंबिका और शान्ता मध्यबिन्दु शिवशक्ति आसन है, जो नित्य स्पन्दमय है। वाम पश्यन्ति (वामा-इच्छा) रेखा, मध्यमा अग्र (ज्येष्ठा-ज्ञान) रेखा, और वैखरी दक्षिण (रौद्री-क्रिया) रेखा है। 


भूपुर (चतुष्कोण) से महाबिन्दु तक फैला समग्र विश्वचक्र महाशक्ति का विकास है। शिव स्वर और शक्ति व्यंजन की वर्णमाला है।  


विश्व कुंडलिनी और व्यक्ति कुंडलिनी की यह भूमिका है। योगमार्ग से मूलाधार से आज्ञा चक्र और आज्ञा चक्र से उन्मना (आज्ञा-बिन्दु-अर्ध चंद्र-निरोधिका-नाद-नादान्त-शक्ति-व्यापिका-समना-उन्मना) तक का, सकल से निष्कल यात्रा मार्ग है। 


🕉️


पूनमचंद 

१९ जून २०२३


साभारः तांत्रिक साधना और सिद्धांत, महामहोपाध्याय डॉ. श्रीगोपीनाथ कविराज

तूरीयातीत।

 तुरीयातीत। 


पाँच अवस्थाएँ है। तीन से हम भलीभाँति परिचित है। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति। दो और है, तुरीया और तुरीयातीत। 


पहले खेल को समझ लें। एक हम (आत्मा) है और एक हमारा मन। मन के साथ इन्द्रियाँ है जो विषय के संसर्ग में आकर संसार भोग लगाती है। 


जिस अवस्था में आत्मा का संसर्ग मन से, मन का संसर्ग इन्द्रियों से, इन्द्रियों का संसर्ग विषयों से मौजूद रहता है उसे जाग्रत अवस्था कहते है। इस अवस्था में इन्द्रियाँ बहिर्मुख रहती है और शब्द स्पर्श रूप रस गंध के पंचक को ग्रहण करती रहती है। बाह्य जगत् का ज्ञान इसी अवस्था में होता है। क्रिया की प्रधानता है।


जिस अवस्था में इन्द्रियों का संसर्ग विषयों से नहीं रहता लेकिन आत्मा का संसर्ग मन से और मन का संसर्ग इन्द्रियों से बना रहता है उसे स्वप्नावस्था कहते है। इस अवस्था में इन्द्रियाँ बहिर्मुख नहीं होने से बाह्य जगत का भान नहीं रहता। इन्द्रियाँ अंतर्मुख है लेकिन मन बहिर्मुख, इसलिए मनोराज चलता रहता है। जिससे स्वप्न अनुभव होता है। मन का संचरण मनोवहा नाड़ी और उसके वायुमंडल में रहता है जिससे वह दर्शन स्पर्शन का अनुभव करता है। 


जिस अवस्था में केवल आत्मा और मन का संसर्ग रहता है और बाक़ी दो ग़ायब रहते है उसे सुषुप्ति कहते है। गहरी नींद की अवस्था सुषुप्ति है। इस अवस्था में मन बहिर्मुख इन्द्रिय प्रवृतियों निवृत्त होकर अंतर्मुखी होता है। जिससे ह्रदय गुहा के द्वार खुल जाते है। मन अंतर्मुख होकर पुरीतत् नाड़ी के भीतर ह्रदय प्रदेश में रहता है। यह आकाश स्थान है, जहां न कोई नाड़ी है और न वायु का कोई स्पंदन। मन की क्रिया का शून्य स्थान है। मन स्तब्ध रहता है। मन की लय अवस्था है। यहाँ आकाश स्थान अपने शरीर की साईज़ से नहीं नापना है। आकाश सर्वव्यापक है। मन में इस आकाश में संचरण का सामर्थ्य नहीं होता और आकाश में चलने का कोई पंथ नहीं इसलिए मन निश्चल रहता है। जीवात्मा की मन अभिमुखता के कारण थोड़ी विश्रांति के बाद वह बहिर्मुख होकर फिर संसार प्रवृत होता है। सुषुप्ति की स्थिरता तामसिक है इसलिए इसमें ज्ञान उदय नहीं होता। निष्क्रिय जड़ अवस्था है। 


हमारा जीवन आवर्तन यह तीनों अवस्थाओं में हम निरंतर अनुभव करते है। तीनों एक साथ नहीं होती। एक होती है तो दूसरी नहीं रहती। लेकिन इन तीनों अवस्थाओं के साथ एक तार बनके जुड़ी हुई एक अवस्था है जो तीनों के साथ ओतप्रोत मौजूद रहती है, जिसे हम अज्ञान वश नहीं जानते; वह है आत्मा की तुरीय अवस्था। वह न हो तो यह तीनों का होना ही संभव नहीं। लेकिन हम संसार के प्रति इतने प्रवृत्त है कि मन, इन्द्रिय, विषय के बाहर और कुछ देख ही नहीं पाते। 


तुरीय में उदय ज्ञान से होता है। तुरीय का भान उदय होने से मन की जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति की पकड़ कमजोर पड़ जाती है और देहाभिमान गलने लगता है।

यह तुरीय अवस्था का उदय और परिपाक होने पर अवस्था भेद नष्ट हो जाता है। देहाभिमान आभास रूप भी नहीं रहता। आत्मा के स्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है। तुरीय अवस्था की इस अविच्छिन्न स्थिति (स्वरूप स्थिति) को तूरीयातीत नाम दिया गया है। अज्ञान स्थिति में जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति की पृथकता में तुरीय को समझना पड़ता है। जब ज्ञान होता है तब तुरीय ही तूरीयातीत है।


साधना इस जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की मनोमुखी दृष्टि को परमात्ममुखी बनाने की है। आत्मा और मन का संयोग छिन्न करना है। मन का जागरण से उद्धार करना है। इससे ज्ञान उन्मेष होता है। यह तुरीय है। जहां चेतन और मन भी नहीं रहते एक मात्र आत्म स्वरूप ही अपने आप में है वह तूरीयातीत है। यह अखंड और व्यापक है। 


जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति जीव दशा है। तुरीय-तूरीयातीत शिव दशा है।  तुरीय अलग नहीं, परंतु जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति के मोतियों में पिरोया धागा है। धागा पकड़ लिया तो काम बन गया। तुरीय सबकी नाभि है। महाशक्ति का मुख है, जड़त्व को खा जाने दिजीए। ह्रदयस्थ (तूरीयातीत)-महाशक्ति का साक्षात्कार हो जाएगा। 


🕉️

पूनमचंद 

२० जून २०२३


साभारः तांत्रिक साधना और सिद्धांत, महामहोपाध्याय डॉ. श्रीगोपीनाथ कविराज

Monday, June 5, 2023

Is an ant smarter than man?

 Is an ant smarter than man? 


Black garden ant known as common ant are wiser than humans as they predict the rain faster than humans. June July are their mating season and therefore they are on flight. They generally live in the nests build under the earth, stone, woods, holes, etc, and live in colonies with a Queen and her workers. 


I am a keen observer of their movements in the month of May-June as they move in thousands from the garden to our house. Whenever, they are appeared in our room, the next day is a rainy day. The intensity of rain in the season also been observed with their movements. In a good rainy season they move out in big numbers but in a drought year one can hardly find a black ant in the house. In low rainfall year, their movement from garden to house is less compared to the good rainfall year as if they know that whether their colony is safe or unsafe in that rainy season. 


The Earth is a living habitat of millions of creatures and therefore any threat to their life, there is inbuilt knowledge system in their mind - DNA system that gives them warning signals to recognise the threat earlier so that they could rescue themselves. The ethologists studied their behaviour and natural habitats. 


Human brain volume is 1.1 to 1.2 litre while the brain volume of an ant is 1 microlitre, a million times smaller but it is more intelligent than humans in terms of predicting rains and has more strength to carry load 10-50 times their body weight. 


Who is there on earth without knowledge? 

सर्वं शिवं। 


Punamchand 

4 June 2023

Saturday, June 3, 2023

ज्ञानं बन्धः। ज्ञानं जाग्रत।

 ज्ञानं बन्धः। 

ज्ञानं जाग्रत। 


शिवसूत्र के दो सूत्र है। 


पहले बंधन का सूत्र फिर जागरण का। ज्ञान (स्वरूप) बन्ध का अर्थ हुआ संकोच का ज्ञान, सीमा- बंधन का अनुभव, स्वातंत्र्य का अज्ञान है। जैसे कोई अपने ही स्वरूप को अपने ही संकल्प से भूल गया। असीम है परंतु सीमा में बंध गया। 


जंगल में एक शेर का बच्चा बकरियों के झुंड में रहकर अपने को बकरी मानने लगा था। एक दिन एक शेर आ गया। उसने दहाड़ लगाते ही सारी बकरियाँ भाग चली। वह शेर का बच्चा जो अब युवा हो गया था वह भी भागने लगा। शेर ने बकरियों को तो जाने दिया लेकिन उस शेर को पकड़ लिया। कहा बरखुरदार, आप कहाँ भाग रहे हो? वह युवा शेर तो डर के मारे काँपने लगा। अब मेरा क्या होगा? मेरी बकरियों के पास अब कैसे जा पाऊँगा? वैसा सोचकर वह ज़ोर ज़ोर से रोने लगा। शेर उसे पकड़कर एक तालाब के पास ले गया। फिर उसे दिखाया अपना चेहरा और उसका भी और बताया कि तुम भी शेर हो मेरी तरह। परंतु वह मानने को तैयार नहीं। फिर कहा, अब दहाड़ो मेरी तरह। वह पहले तो तैयार नहीं हुआ लेकिन उसके बार बार कहने से थोड़ी ताक़त इकट्ठी की और दहाड़ा। पहले तो थोड़ी सी आवाज़ निकली परंतु जैसे ही उसने दहाड़ ने का अभ्यास किया आवाज़ बुलंद होती गई। दूर किनारे उसके साथी देख रहे थे। लेकिन जैसे ही उन्होंने अपने साथी के मुँह से शेर के दहाड़ ने की आवाज़ सुनी सब भाग गये। वह शेर मस्त होकर अपनी सच्ची पहचान को पाकर जंगल में चल पड़ा, एक शेर की तरह। शेर ही था। अपने शेर स्वरूप को पहचान लिया, स्वातंत्र्य पा लिया और सिंहत्व को प्राप्त हुआ। जाग गया। ज्ञानं जाग्रत्। 


हम कब दहाड़ेंगे? कौन रोक रहा है? पहचान ले, अमृत कुंभ भीतर है। बस स्वातंत्र्य का ढक्कन खोलना ही बाक़ी है। इंतज़ार मत करें। शरीर रथ काल चक्र में बंधा है। विदेह होने से पहले जीवन मुक्त हो जाए। 


“You can say to this mountain, ‘May you be lifted up and thrown into the sea,’ and it will happen. But you must really believe it will happen and have no doubt in your heart.“ -Jesus


क्या नामुमकिन होगा जिसने शिव साक्षात्कार किया? स्वस्थता स्वातंत्र्य है। 


पूनमचंद 

३ जून २०२३

Friday, June 2, 2023

तुरिया।

 तुरिया  


ज्ञानं जाग्रत। 

स्वप्नो विकल्पाः।

अविवेको मायासौषुप्तम्। 


हमारे मन की जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं से हम भलीभाँति परिचित है। हर दिन जागते है, सोते है और फिर उठ जाग दैनिक काम में लग जाते है।  हमारे मन संसार के विषयों में लिप्त रहना जाग्रत है। नींद में कल्पना और भय के चित्रों में खेलना स्वप्न है और अचेत होकर सो जाना सुषुप्ति। 


दार्शनिकों ने हम जिसे जाग्रत कहते है उसे भी जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की तीन दशाओं में बाँटा है। हम प्रकृति के पुंज है इसलिए सत्व, रजस और तमस् गुण से बने है। सत्व ज्ञान का, रजस क्रिया का और तमस् मोह का प्रतीक है। इसलिए जिस गुण की प्रधानता होगी हम वैसे ही चलते भागते नज़र आएँगे। सत्वगुण शांति लाएगा, रजस दुःख और तमस् मूढ़ता। इसलिए तीनों गुण की जितनी मात्रा हम रखेंगे उतनी ही शांति, दुःख और मूढ़ता में हमारा जीवन व्यतीत होगा। 


सत्व गुण ज्ञान देता है। जब मन मस्तिष्क रूपी तालाब में क्षोभ के तरंग नहीं उठते तब वह सत्य को पहचान लेता है और उसमें स्थित हो जाता है। अमृतसर में अवस्थित मन फिर सुख दुःख और राग द्वेष से प्रभावित नहीं होता और हमेशा आत्मस्थ होकर शांत और स्थिर रहता है। आत्मलीन हो जाता है।पशु प्रमाता अपने ज्ञान संकोच से परतंत्रता के दुःख से दुखी रहता है और पति प्रमाता की स्थिति में ज्ञान विस्तार से स्वतंत्रता के आनंद में रत रहता है। प्रत्यभिज्ञा जाग्रत अवस्था है। स्वस्थ अवस्था। अहंविमर्श। ज्ञानं जाग्रत। 


रजस क्रिया का प्रतीक है। माया नगरी में भेद दर्शन करने से विकल्पों के प्रति दौड़ने लगता है। मैं यह पा लूं वह पा लूं की मानसिक दौड़ चलती रहती है। शरीर मन के दौड़ाये दौड़ते दौड़ते थक जाता है और मर जाता है। मन जो माँगे वह मिल जाए तो उसे छोड़कर फिर एक नई चाह में उसकी दौड़ चलती रहती है। और जब कामना पूरी नहीं होती मन दुःखी हो जाता है। जो है उसका सुख भोग नहीं सकता और जो नहीं है उसके दुःख से दुखी रहता है। भाव का सुख नहीं और अभाव का दुःख। असत्य के पीछे की यह दौड़ स्वप्न अवस्था है। पशु प्रमाता के स्वप्न की सृष्टि अस्थिर क्षणभंगुर होती है। स्वप्नो विकल्पाः। 


एक सत्य (शाश्वत) का उपासक दूसरा असत्य (नश्वर) का। एक तीसरा वर्ग है जिसे न तो सत्य की पड़ी है न असत्य की। वह निद्राग्रस्त है। जो है, जहां है, बेफ़िक्र अपनी नींद में है। न उसे इहलोक से मतलब न परलोक से। बचपनी जवानी बुढ़ापा इसके लिए आता है और चला जाता है। विवेक शून्य अवस्था। माया आवरण इतना ढँका हैं कि ज्ञानप्रकाश कि किरण नहीं निकलती। सुषुप्ति ही उसका सुख है। अविवेको मायासौषुप्तम्। 


लेकिन इन तीनों में आशा की एक किरण मौजूद है। शिव संकोच है पर शिव अदृष्ट नहीं। तुरिया का धागा पिरोया हुआ है। जब गुरू मशाल की ज्योत का उसे स्पर्श हो जाता है, वह ज्योति भी प्रज्वलित हो उठती है। वह जाग जाता है तुरीय में।  जाग्रत स्वप्न सुषुप्त भेदे तुर्याभोगसंवित्। फिर चौबीसो घंटे शिव समाधि। तुरिया ..तु (अहं विमर्श) रिया… मैं (अहंकार) गया। 😊


पूनमचंद 

२ जून २०२३

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