Friday, June 2, 2023

तुरिया।

 तुरिया  


ज्ञानं जाग्रत। 

स्वप्नो विकल्पाः।

अविवेको मायासौषुप्तम्। 


हमारे मन की जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं से हम भलीभाँति परिचित है। हर दिन जागते है, सोते है और फिर उठ जाग दैनिक काम में लग जाते है।  हमारे मन संसार के विषयों में लिप्त रहना जाग्रत है। नींद में कल्पना और भय के चित्रों में खेलना स्वप्न है और अचेत होकर सो जाना सुषुप्ति। 


दार्शनिकों ने हम जिसे जाग्रत कहते है उसे भी जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की तीन दशाओं में बाँटा है। हम प्रकृति के पुंज है इसलिए सत्व, रजस और तमस् गुण से बने है। सत्व ज्ञान का, रजस क्रिया का और तमस् मोह का प्रतीक है। इसलिए जिस गुण की प्रधानता होगी हम वैसे ही चलते भागते नज़र आएँगे। सत्वगुण शांति लाएगा, रजस दुःख और तमस् मूढ़ता। इसलिए तीनों गुण की जितनी मात्रा हम रखेंगे उतनी ही शांति, दुःख और मूढ़ता में हमारा जीवन व्यतीत होगा। 


सत्व गुण ज्ञान देता है। जब मन मस्तिष्क रूपी तालाब में क्षोभ के तरंग नहीं उठते तब वह सत्य को पहचान लेता है और उसमें स्थित हो जाता है। अमृतसर में अवस्थित मन फिर सुख दुःख और राग द्वेष से प्रभावित नहीं होता और हमेशा आत्मस्थ होकर शांत और स्थिर रहता है। आत्मलीन हो जाता है।पशु प्रमाता अपने ज्ञान संकोच से परतंत्रता के दुःख से दुखी रहता है और पति प्रमाता की स्थिति में ज्ञान विस्तार से स्वतंत्रता के आनंद में रत रहता है। प्रत्यभिज्ञा जाग्रत अवस्था है। स्वस्थ अवस्था। अहंविमर्श। ज्ञानं जाग्रत। 


रजस क्रिया का प्रतीक है। माया नगरी में भेद दर्शन करने से विकल्पों के प्रति दौड़ने लगता है। मैं यह पा लूं वह पा लूं की मानसिक दौड़ चलती रहती है। शरीर मन के दौड़ाये दौड़ते दौड़ते थक जाता है और मर जाता है। मन जो माँगे वह मिल जाए तो उसे छोड़कर फिर एक नई चाह में उसकी दौड़ चलती रहती है। और जब कामना पूरी नहीं होती मन दुःखी हो जाता है। जो है उसका सुख भोग नहीं सकता और जो नहीं है उसके दुःख से दुखी रहता है। भाव का सुख नहीं और अभाव का दुःख। असत्य के पीछे की यह दौड़ स्वप्न अवस्था है। पशु प्रमाता के स्वप्न की सृष्टि अस्थिर क्षणभंगुर होती है। स्वप्नो विकल्पाः। 


एक सत्य (शाश्वत) का उपासक दूसरा असत्य (नश्वर) का। एक तीसरा वर्ग है जिसे न तो सत्य की पड़ी है न असत्य की। वह निद्राग्रस्त है। जो है, जहां है, बेफ़िक्र अपनी नींद में है। न उसे इहलोक से मतलब न परलोक से। बचपनी जवानी बुढ़ापा इसके लिए आता है और चला जाता है। विवेक शून्य अवस्था। माया आवरण इतना ढँका हैं कि ज्ञानप्रकाश कि किरण नहीं निकलती। सुषुप्ति ही उसका सुख है। अविवेको मायासौषुप्तम्। 


लेकिन इन तीनों में आशा की एक किरण मौजूद है। शिव संकोच है पर शिव अदृष्ट नहीं। तुरिया का धागा पिरोया हुआ है। जब गुरू मशाल की ज्योत का उसे स्पर्श हो जाता है, वह ज्योति भी प्रज्वलित हो उठती है। वह जाग जाता है तुरीय में।  जाग्रत स्वप्न सुषुप्त भेदे तुर्याभोगसंवित्। फिर चौबीसो घंटे शिव समाधि। तुरिया ..तु (अहं विमर्श) रिया… मैं (अहंकार) गया। 😊


पूनमचंद 

२ जून २०२३

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