Thursday, June 1, 2023

भोर भई उठ जाग रे मनवा ।

 भोर भई उठ जाग रे मनवा।


बाहर अंधेरा है और अभी भोर होने को है। सुबह के ३.३० हुए है। मेरा सुषुप्त शरीर जाग गया है। ब्रश और हाजत कर मैं अपने ऑफिस कक्ष में बैठा हूँ। बग़ल में एक तालाब है। मेंढक बिना रूके टररर.. की आवाज़ लगाये हुए है। बीच बीच में टिटिहरी और दूसरे पक्षीओ की आवाज़ आ रही है। दूर के गाँव में कुत्तो ने अपनी सरहदी सुरक्षा के लिए भोंकना शुरू कर दिया है। चिड़ियों की चहचहाहट बढ़ रही है। बीच बीच में रोड पर ट्रक चलने की आवाज़ आ रही है। हवा को चिरता एक हवाई जहाज़ भी गुजर गया। और इन सबके बीच मेरी घड़ी की टकटक चालु है और मैं  मेरे कर्ण को लगाकर इस खेल का साक्षी चैतन्य बन बैठा हूँ। 


कहाँ हो रहा है यह सब? अभी थोड़ी देर पहले जब मैं सोया था तब तो सब शांत था क्योंकि मैं सुषुप्त था। मेरे कान होते हुए भी अचेत थे इसलिए यह सब आवाज़ होते हुए भी मैं उससे वाक़िफ़ नहीं था। 


जागा और आवाज़ सुनाई दे रही है उसका पता चला। सोया था तब आवाज़ सुनाई नहीं दे रही थी यह भी पता चला। यह कौन महाशय है जिसे दोनों का पता लग गया? बीच रात में एक सपना भी चला था उसकी भी खबर है। है कोई चेतना जिस के पर्दे पर यह सब अंकित होता रहता है। वह न बड़ी होती है न छोटी। न आगे चलती है न पीछे। जब से मैंने होश सँभाला ज्यों की त्यों उदीयमान स्थिति में मौजूद है। निश्चल नित्य। अगर वह नहीं तो मेरा कोई वजूद ही नहीं। यह मेरा शरीर, प्राण, मन, बुद्धि, अहंकार किसी काम के नहीं रहते। यह मेरी पंच ज्ञानेंद्रियाँ और पंच कर्मेन्द्रियाँ क्या करती? 


कौन जागा? कौन सोया? किसने सपने देखें। किसने यह तीनों की खबर रखीं? जाग्रतस्वप्नसुषुप्तिभेदे तुर्याभोगसंभवः। वह तुरीया है जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति के मनके की बीच तार की तरह पिरोयी हुई है। चलित मन की क्रिया में वह अचल नित्योदित और अखंड है। एक पुर्यष्टक है और दूसरा उसको चेतना देने वाला चैतन्य। एक को हम आत्मा/जीव कहे और दूसरे को परमात्मा। एक चलती है, दूसरा चलाता है। एक बनती बिगड़ती है दूसरा उसको रीपेर करता रहता है। जैसे वह कमजोर हुई नया शरीर दे देता है। जब तक उसका मन भरा नहीं तब तक सैर सपाटे करने देता है। वह जैसा चाहे उस ओर चलने की ऊर्जा देता रहता है। 


कोई विरला जब मन की यह यात्रा से थक जाता है, पुनरपि पुनरपि से ऊब जाता है तब वह मुड़ता है भीतर की और। चेतना की ओर। और उसे दर्शन हो जाते है। स्वयं के। स्वगुरू के। प्रकाश के। पहचान के। बस स्थित हो जाता है। फिर तेरह की चाल तो होगी लेकिन न कोई भय होगा न बंधन। कलह सब समाप्त। अमर को मरने का भय कैसा? सामान्य को विशेष की परवा कैसी? अखंडता में फिर किसे अपना कहेगा किसे पराया? सब मैं और मेरे ही रूप। सृष्टि लीला के लिए कार्यरत। जो जो संसार खेल से बाहर होगा (बाहर मतलब सब छोडछाड भाग नहीं जाना है), वह अनंता और अमरता में विलीन होगा। नष्ट नहीं होगा। बिंदु भान से सिंधु भान में परिवर्तित हो जाएगा। शरीर चलता रहेगा और एक दिन सूखे पत्ते की तरह शरीर बिखर जाएगा लेकिन चैतन्य अमर है, अमर रहेगा। 


शिव है। शक्ति है। संसार खेल है। तीनों ही एक रूप। सर्वं शिवं। 


पूनमचंद 

१ जून २०२३

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