Wednesday, June 21, 2023

जय सच्चिदानन्द।

 जय सच्चिदानन्द। 


सत् चित् आनन्द। परमात्मा का नाम है। वह निराकार है, निष्कल है, निर्गुण है, फिर भी उसका नाम कैसा, गुण कैसा? वह विश्वोर्तीर्ण है लेकिन विश्वमय भी।सृष्टि से अभिव्यक्त है इसलिए उस अव्यक्त को मनुष्य बुद्धि के शब्दों के बोध से पकड़ने का एक प्रयास ही तो है। 


भारतीय दर्शनों ने, शास्त्रों ने ब्रह्म को सच्चिदानन्द स्वरूप माना है। सत्, चित् और आनन्द तीन विशिष्ट अर्थ हुए। सत् अर्थात् सन्मात्र रूप, चित् अर्थात् आत्म प्रकाश रूप और आनन्द अर्थात् स्थिति लाभ। सत्, चित् और आनन्द अखण्ड रूप से गृहीत होकर अद्वैत ब्रह्मरूप में अपने आप प्रकाशित है।


सत्, सन्मात्र, सदा अव्यक्त और अव्याकृत है। बौद्धों का महाशून्य इसी सत् को इंगित करने प्रयोग हुआ है। यह सत्य की गंभीरतम स्थिति है। 


चित् जो कि अनुत्तर है वह एक ओर सत् के अभिमुख है और दूसरी ओर आनन्द के अभिमुख है। अंतःस्पन्दन और बहिःस्पन्दन दोनों में मौजूद।मानव चित्त की अंतर्मुख और बहिर्मुख वृत्तियों का मूल यहीं पर है। 


सत्, परम सत्य है जिसके भीतर चित् और आनन्द, द्विविध स्पन्दन गृहीत है। चित्त (बिंब) के बाहरी स्पन्दन के फलस्वरूप दूसरा चित् (प्रतिबिंब) आविर्भूत होता है तब बिंब अपने प्रतिबिंब को देखकर अपनी सत्ता के रूप में पहचान सकता है और आनन्द रूप में अनुभव करता है। यह पहचान की शास्त्रीय नाम आनन्द है। 


चित् जैसे सत् से पृथक नहीं वैसे ही आनन्द चित् से पृथक नहीं। चित् का शास्त्रीय नाम अनुत्तर है। ‘अ’ से अनुत्तर। वर्णमाला के पहले अक्षर ‘अ’ से उसे इंगित किया गया है।


अ से आ, एक से दो। आत्मरमण। ‘आ’ वर्ण आनन्द का प्रतीक है। सत् के आश्रय कर उसका प्रकाश विराजमान हैं वह चित् है, चित्शक्ति है। वह प्रकाशमान होता है तब आनन्द रूप से परिचित होता है। आनन्द चित् का खेल है। जल के फ़व्वारे की तरह हमारी सृष्टि की अभिव्यक्ति इसी आनन्द से होती है। 


आनन्द के लिए ही युगल भाव आया। पुरूष और प्रकृति। पुरूष और स्त्री। आदम और इव। आ से आनन्द और इ से इव। इ इच्छा का विकास है। इच्छा मात्र आनन्द चाहती है। इच्छा आनन्द को ढूँढकर निकालने की शक्ति है। इसी इच्छा से जगत् कि सृष्टि होती है, इव और आदम के मिलन से। अणु से नक्षत्र मंडल तक, स्थूल से कारण जगत तक, प्रकट या अप्रकट, सब ओर खोये धन को पाने की जैसे आकांक्षा है। खोया धन इच्छा का विषयीभूत आनन्द है। आनन्द प्राप्ति तक विराम नहीं होता। जब तक इच्छा की पूर्ति नहीं, तब तक पूर्णत्व की प्राप्ति नहीं। 


इच्छा शक्ति जब घनीभूत होकर स्पन्दित होती है तब ईशन शक्ति का उदय होता है। इसका प्रतीक है ‘ई’।इस ईशन इच्छा का प्राण है। यह इच्छा ज्ञानशक्ति का रूप धारण करती है। इसे उन्मेष कहते हैं और उसका प्रतीक है ‘उ’। 


बिना ज्ञेय (विषय) ज्ञान कैसा? ज्ञान सत्ता इसलिए विषय ज्ञेय को प्रकाशित करती है। ज्ञेय का प्रतीक है ‘ऊ’। ऊनता अथवा ऊनी। उ और ऊ, जैसे पानी और बर्फ़। ज्ञानशक्ति का घनीभूत स्वरूप ज्ञेय। जैसे बर्फ़ जल से आश्रित है वैसे ही ज्ञेय ज्ञान के आश्रित। ज्ञेय, ज्ञान से पृथक नहीं है। ज्ञान की मूर्त अवस्था ज्ञेय है। ज्ञेय का ज्ञान से पृथक दिखना अविद्या है। 


पानी का टुकड़ा पानी में तैरता है तब तक अविद्या रूपी खेल चालू नहीं होता। लेकिन जैसे ही पानी से अलग हुआ, अविद्या रूपी क्रियाशक्ति का खेल आरंभ हो जाता है। वर्णमाला के ए-ऐ-ओ-औ अनुक्रम से क्रियाशक्ति की अस्फुट, स्फुट, स्फुटतर और स्फुटतम अवस्थाएँ है। 


सत् शक्ति यूँ पाँच बन गई। चित्, आनन्द, ज्ञान, इच्छा और क्रिया। यही परमेश्वर की पंचशक्ति या पंचमुख, पंच कलश है। चित् और आनन्द स्वरूप शक्ति के अन्तर्गत और इच्छा, ज्ञान, क्रिया बहिरंगी। यह बहिरंगी त्रि-शक्ति, विश्वयोनि है, जिसे महामाया कहते है। सृष्टिमुखी गति बहिर्मुख और प्रलय गति अंतर्मुख। 


लेकिन जहां अंतर्मुख नहीं है, बहिर्मुख नहीं है, वाणी से अगोचर है, वह बुद्ध का शून्य है। वही वेदांती का ब्रह्म है। 


अ से उ तक शक्ति की बहिर्मुख धारा है। क्रियाशक्ति की पूर्णता से यह बहिर्मुख धारा अभिव्यक्त होती है और बिन्दु रूप प्रकट होती है। उसका प्रकाश है चित् शक्ति, अ कार, अनुत्तर। 


अ (चित्) बिंदु पंचशक्ति से समन्वित होकर अं हुआ। अं से सृष्टि होगी। अ का समापन औ कार से होता है। अं का एक बिंदु के दो बिंदु हुआ ः, विसर्ग हुआ, वैसर्गिक सृष्टि हुई। आगे व्यंजन वर्ण की सृष्टि हुई। क से ह तक के व्यंजन तत्व के द्योतक है। तत्व की सृष्टि हुई।अ कार से ह कार, अहं विमर्श हुआ। 


यही पूर्णोहं में सभी तत्व और शक्ति वर्ग है तथा परम गूढ़ सत्ता भी। परम शिवावस्था है जिसके अभिन्न पराशक्ति है। यह सृष्टि सत् से है, परम शिव से है। 


पहले इदं भाव का विकास फिर एक अहं ही अनन्त अहंरूप में आत्म प्रकाशित। तब बनेगी सर्वं खल्विदं ब्रह्म की स्थिति। 


अ से अः तक की बाराक्षरी पक्की करनी है। वैखरी से परा तक पहुँच बढ़ानी है और अ से ह तक के वर्णों को समझकर अहं पूर्णोविमर्श की स्थिति पानी है। आदम का आनन्द और इव की इच्छा को आत्मज्ञान का पुट देकर अनुत्तर अ में विश्रांति लेनी है। 


काल से महाकाल पहुँचना है। समय कम है। जागना है। जो जागेगा वह पाएगा। 


🕉️ जय सच्चिदानन्द। 


पूनमचंद 

२१ जून २०२३


साभारः तांत्रिक साधना और सिद्धांत, महामहोपाध्याय डॉ. श्रीगोपीनाथ कविराज

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