Tuesday, June 20, 2023

तूरीयातीत।

 तुरीयातीत। 


पाँच अवस्थाएँ है। तीन से हम भलीभाँति परिचित है। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति। दो और है, तुरीया और तुरीयातीत। 


पहले खेल को समझ लें। एक हम (आत्मा) है और एक हमारा मन। मन के साथ इन्द्रियाँ है जो विषय के संसर्ग में आकर संसार भोग लगाती है। 


जिस अवस्था में आत्मा का संसर्ग मन से, मन का संसर्ग इन्द्रियों से, इन्द्रियों का संसर्ग विषयों से मौजूद रहता है उसे जाग्रत अवस्था कहते है। इस अवस्था में इन्द्रियाँ बहिर्मुख रहती है और शब्द स्पर्श रूप रस गंध के पंचक को ग्रहण करती रहती है। बाह्य जगत् का ज्ञान इसी अवस्था में होता है। क्रिया की प्रधानता है।


जिस अवस्था में इन्द्रियों का संसर्ग विषयों से नहीं रहता लेकिन आत्मा का संसर्ग मन से और मन का संसर्ग इन्द्रियों से बना रहता है उसे स्वप्नावस्था कहते है। इस अवस्था में इन्द्रियाँ बहिर्मुख नहीं होने से बाह्य जगत का भान नहीं रहता। इन्द्रियाँ अंतर्मुख है लेकिन मन बहिर्मुख, इसलिए मनोराज चलता रहता है। जिससे स्वप्न अनुभव होता है। मन का संचरण मनोवहा नाड़ी और उसके वायुमंडल में रहता है जिससे वह दर्शन स्पर्शन का अनुभव करता है। 


जिस अवस्था में केवल आत्मा और मन का संसर्ग रहता है और बाक़ी दो ग़ायब रहते है उसे सुषुप्ति कहते है। गहरी नींद की अवस्था सुषुप्ति है। इस अवस्था में मन बहिर्मुख इन्द्रिय प्रवृतियों निवृत्त होकर अंतर्मुखी होता है। जिससे ह्रदय गुहा के द्वार खुल जाते है। मन अंतर्मुख होकर पुरीतत् नाड़ी के भीतर ह्रदय प्रदेश में रहता है। यह आकाश स्थान है, जहां न कोई नाड़ी है और न वायु का कोई स्पंदन। मन की क्रिया का शून्य स्थान है। मन स्तब्ध रहता है। मन की लय अवस्था है। यहाँ आकाश स्थान अपने शरीर की साईज़ से नहीं नापना है। आकाश सर्वव्यापक है। मन में इस आकाश में संचरण का सामर्थ्य नहीं होता और आकाश में चलने का कोई पंथ नहीं इसलिए मन निश्चल रहता है। जीवात्मा की मन अभिमुखता के कारण थोड़ी विश्रांति के बाद वह बहिर्मुख होकर फिर संसार प्रवृत होता है। सुषुप्ति की स्थिरता तामसिक है इसलिए इसमें ज्ञान उदय नहीं होता। निष्क्रिय जड़ अवस्था है। 


हमारा जीवन आवर्तन यह तीनों अवस्थाओं में हम निरंतर अनुभव करते है। तीनों एक साथ नहीं होती। एक होती है तो दूसरी नहीं रहती। लेकिन इन तीनों अवस्थाओं के साथ एक तार बनके जुड़ी हुई एक अवस्था है जो तीनों के साथ ओतप्रोत मौजूद रहती है, जिसे हम अज्ञान वश नहीं जानते; वह है आत्मा की तुरीय अवस्था। वह न हो तो यह तीनों का होना ही संभव नहीं। लेकिन हम संसार के प्रति इतने प्रवृत्त है कि मन, इन्द्रिय, विषय के बाहर और कुछ देख ही नहीं पाते। 


तुरीय में उदय ज्ञान से होता है। तुरीय का भान उदय होने से मन की जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति की पकड़ कमजोर पड़ जाती है और देहाभिमान गलने लगता है।

यह तुरीय अवस्था का उदय और परिपाक होने पर अवस्था भेद नष्ट हो जाता है। देहाभिमान आभास रूप भी नहीं रहता। आत्मा के स्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है। तुरीय अवस्था की इस अविच्छिन्न स्थिति (स्वरूप स्थिति) को तूरीयातीत नाम दिया गया है। अज्ञान स्थिति में जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति की पृथकता में तुरीय को समझना पड़ता है। जब ज्ञान होता है तब तुरीय ही तूरीयातीत है।


साधना इस जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की मनोमुखी दृष्टि को परमात्ममुखी बनाने की है। आत्मा और मन का संयोग छिन्न करना है। मन का जागरण से उद्धार करना है। इससे ज्ञान उन्मेष होता है। यह तुरीय है। जहां चेतन और मन भी नहीं रहते एक मात्र आत्म स्वरूप ही अपने आप में है वह तूरीयातीत है। यह अखंड और व्यापक है। 


जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति जीव दशा है। तुरीय-तूरीयातीत शिव दशा है।  तुरीय अलग नहीं, परंतु जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति के मोतियों में पिरोया धागा है। धागा पकड़ लिया तो काम बन गया। तुरीय सबकी नाभि है। महाशक्ति का मुख है, जड़त्व को खा जाने दिजीए। ह्रदयस्थ (तूरीयातीत)-महाशक्ति का साक्षात्कार हो जाएगा। 


🕉️

पूनमचंद 

२० जून २०२३


साभारः तांत्रिक साधना और सिद्धांत, महामहोपाध्याय डॉ. श्रीगोपीनाथ कविराज

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