Saturday, April 23, 2022

Satva Siddhi

 सत्व सिद्धि। 


प्रेक्षकाणीन्द्रियाणि। 

धीवशात् सत्वसिद्धि। 


घट के भीतर नाद गुंजता, अंतर ज्योत जगी; सो सूरज के उजियारे में, मैंने मुझको पाया। 

धन्य भाग्य, सेवा का अवसर पाया, 

चरण रज की धूल बन, मैं मोक्ष द्वार आया।


यह जगत शिव नाटक है, जहां शिव ही थियेटर और शिव ही नर्तक। रसमय नाटक है, प्राणमय है। शिव थियेटर में विगलित हो रहे रस को ग्रहण करने विकल्पों को संस्कारित कर सबसे पहले राग द्वेष की गंदगी को हटाना है। गिलोय को खूब कूटे बिना, मटके के पानी में कईं दिनों भीगोये बिना, कैसे सत्व बाहर आयेगा गिलोय का? इस शिव थियेटर में प्रेक्षक बन देखना है, सुनना है, सूंघना है, चखना है, तबज जाके शिव रहस्य समझ पायेंगे।जब तक इस थियेटर से प्रमाता रस नहीं ले आया, ‘मैं ही मैं’ अनुभूत नहीं किया, तो फिर क्या किया? कोरा का कोरा ही रह गया? सत्व नहीं पाया। 


रामलीला ही ऐसी है कि बार बार सुनने पर रसास्वाद आता रहता है। हर कोई उत्सुक रहता था उस रामलीला के एक्टर बनने। राम नहीं, हनुमान नहीं तो राम सेना के सिपाही का रोल ही दे दो, यह तड़प रहती थी। पर जिस को राम का पात्र अभिनय करना है, हनुमान का पात्र करना है उसे ख़ास व्रतों से अपने आपको तैयार करना पड़ता है। शोधन करना पड़ता है ताकि स्टेज पर राम प्रकटे, हनुमान प्रकटे, न कि अपना राग द्वेष। 


धीर बनना होगा। पंजाबी में बेटी को धी कहते है, जो ध्यान रखती है और हम उसका ध्यान रखते है। वह संवेदना, जो धारण करना जानती है। धीरता पात्रता लायेंगी। शिवलीला को समझने वाला पात्र। धारणात्मिका और ग्रहणात्मिका बुद्धि से सत्व सिद्धि करनी है। becoming से being में लौटना है। निर्मलता लानी है। जैसे सालों-साल नदी के पानी के बहाव से धुलीं रेत पुलिन होती है, उसका सत्व प्रकट होता है, वैसे ही अपने भीतर के काम क्रोध लोभ मद मोह मात्सर्य को बाहर निकाल फेंक शिवत्व की सत्व सिद्धि धारण करनी है। वह धी, मति, बुद्धि, प्रज्ञा, प्रतिभा को उजागर करना है। 


Unconditioned हुए बिना जिस भाव से यह नाटक रचा गया है, उसके भाव को कैसे ग्रहण करेंगे? दृष्टि गलित कर वह watchfulness लानी है जहाँ अपने पराये की दिवारें ध्वस्त हो जाती है और आत्म अमृत रूपी सत्व प्रेम प्रकट हो जाता है। विकल्प में फँसा रसानुभूति नहीं कर सकता। जैसे वह राजा जिसने शर्त रखी थी कि जो ऐसी कहानी सुनाये जो कभी ख़त्म न हो उसे इनाम देगा। राजा का ध्यान कहानी के ख़त्म होने पर और कहानीकार का ध्यान उसको खींचते रहने में। विकल्पों में रस ग़ायब था। लेकिन एक आदमी राजा का गुरू निकला। कहानी शुरू की। एक किसान था। उस के खेत में अनाज का ढेर लगा था। बग़ल में एक बड़ा पेड़ था जिस पर अनेक चिड़ियाँ बैठी थी। फिर एक चिड़िया पेड़ से नीचे उतरी, ढेर से एक दाना लिया और फुर्र कर उड़ गई। फिर दूसरी चिड़िया उतरी, दाना लिया और फुर्र।बस चिड़िया एक के बाद उतरती गई और फुर्र। राजा थक गया उस फुर्र से और अपनी हार मान ली। रस माधुर्य नहीं रहा। हमारा जीवन भी ऐसे फुर्र हो जायेगा अगर जागृति नहीं आई। 


कहानी में कुतूहल होता है और काव्य में रस। रस और कुतूहल मिलाकर बनता है वह है नाटक। यह जगत शिवजी का नाटक है, रस और कौतुक से भरपूर। इसकी नाट्य सिद्धि को अनुभूत करना है। महर्षि अरविंद का वह trans of bliss, आनंद का अतिक्रमण कर उसे क़ायम रखना है।यह जगत शिवशक्ति के trans of bliss का परिणाम है। चमत्कार रस है। इसलिए कोई धीर ही उस चमत्कार, flash को, नाटक के पीछे छीपी शिवता को देख लेता है। बाहर देखनेवाला कुछ नहीं देखता, अंदर देखनेवाला अमृत पाता है। वही योगी है जो सही देखता है, सहज विद्या का लाभान्वित है। उनकी अंतर्मुखी इन्द्रियां ही वह देवतागण है, प्रेक्षकाणीन्द्रियाणि, जिसके सामने शिव आविर्भूत (releal) हो जाते है।शिव नाटक का दीदावर होता है। वह समझता है और उसका रसपान करता है। 


रसास्वादन कब होगा? बर्तन सही होंगे, आँच सही होगी, बीच-बीच में उसको देखा जायेगा तब जाकर भोजन से रस प्रकट होगा और आप भोजन की रसानुभूति कर पायेंगे। कूकर के भोजन में वह रस कहाँ? अनाज के स्थूल भाग से मल, सूक्ष्म भाग से सप्त धातुएँ और अणुस्थ से मन बनता है। इसलिए भारत में बड़े धैर्य और भक्ति भाव से रसोई बनती थी।देखा नहीं, सूरदास की गोपी ने श्रीकृष्ण के लिए कैसे दहीं मथी? बर्तन स्वच्छ किया, सुगंधित किया, दूध को सही ताव दिया, धीर रही और वोचफूल भी और अपनी चेतना से उसे सुवासित की; तब जाके गोपी की दहीं कान्हा के लिए तैयार हुई। हमें भी हमारा पात्र स्वच्छ और सुवासित बनाना है जिसमें शिवता प्रकट हो जायें। 


अंतरात्मा मंच है। नाटक शिवानंद है। दुख पीड़ा जन्म मृत्यु नाटक के ही भाग है। पुर्यष्टक के भीतर बना रंगमंच शिवत्व के स्वातंत्र्य बोध को पाये बिना नहीं टूटता। स्वातंत्र्य बोध मिलने तक अनेक योनियों में गमन कर नर्तन करता रहता है जैसे इन्द्र बना था सुकर। बच्चे भी पैदा कर लिए और अपनी इन्द्र पहचान भूल गया। जब उसे सुकर के शरीर से छुड़ाया तब जाके इन्द्र के ऐश्वर्य में वापस लौटा। हम कब लौटेंगे? 


इन्द्रियाँ ही प्रेक्षक है जिसे अंदर से संस्कारित करनी है। विधाता ने इन्द्रियों की रचना ही कुछ ऐसी की है कि उसे बाहर की ओर कर पीछे से बोल्ट कर दिया है। इसलिए वह पीछे देख नहीं पाती। आँख बाहर सबकुछ देखेगी पर खुद को नहीं देख पाती। यह इन्द्रियां देवताओं के द्वार है। जैसे जैसे भीतर देख पाती है, audience में आती है, नर्तक शिव का उत्साह बढ़ाती है। वह जब स्तुति गाती है तो नर्तक शिव अपना प्रदर्शन और भी प्रकट करता है। शिव कृपा से इन इन्द्रियों के बोल्ट जब खुलते है, इन्द्रियाँ वापस लौटती है, वही है प्रत्याहार। बिना अग्नि जल रहे इस संविद अग्नि से अंधकार चला जाता है। ३६ तत्वों को पिंड बनाकर सिद्ध उस अग्नि में आहुति देता है। काल भी शिव के तीसरे नेत्र के खुलने की प्रतीक्षा में बैठा है। मुकुल की तरह जैसे ही शिव का तीसरा नेत्र खुलता है, वह विश्व को पिंड बनाकर अपनी आहुति दे देता है। नृत्य समाधि स्मशान समाधि बन जाती है। यह शिव नाटक कोई एक रस का नहीं है। नौ रस उसमें समाये है।वीभत्स, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, शृंगार और अद्भुत रसों का आश्चर्य है। घोर रूप में अघोरी अभिनय है।सारी पृथ्वी को मंच बनाकर योगस्थ शिव रूई के भार वजन बनाकर अपनी बाँहें उठाकर उसे मुद्राओं में सिकुड़कर, अग्निघर नेत्रों को चंचल रख, खुद को दुःखमय बनाकर थियेटर की कन्डीशनींग न टूट जाये उसका ध्यान रखते हुए नृत्य कर रहा है। यह नृत्य को वही इन्द्रियां प्रेक्षक बन देख सकती है जो अंतर्मुख है, स्वच्छ है, निर्मल है। 


शब्द ही से बंधन और शब्द से ही मुक्ति। शब्द को रगड़ना है और उसके अर्थ को उजागर करना है। स्वच्छता कैसी? निर्मलता कैसी? जैसे कादंबरी का नायक का सरोवर दर्शन। इदंता (दृश्यमान जगत) को गुरू बनाकर देखो। जो बाहर दिख रहा है वह आपका भीतर का प्रतिबिंब है। प्रतिबिंब बाहर नहीं है। अंदर का दर्पण अपना प्रकाश बाहर फेंक रहा है। बाहर की स्वच्छता देखने या अनुभूत करने भीतर की स्वच्छता ज़रूरी है। जो अंदर है वही बाहर दिखेगा। बाह्य जीवन आंतर जीवन का ही प्रतिबिंब है। अगर बाहर गंदगी दिख रही है तो भीतर की सफ़ाई करो। रागादि दोष हटाओगे, भीतर स्वच्छता आयेगी, निर्मलता आयेगी तब जा के पंचेन्द्रिय के प्रेक्षक शिवानंद से तृप्त होंगे। तब जा के इस शिव संगीत में छीपी हँसो की ध्वनि कर्मेन्द्रिय को तृप्त करेगी। उसकी कमल गंध को सूंघेंगी, उसकी ठंडक और शांति का स्पर्श करेगी। खुली आँखों से वह शिव रहस्य जान जायेगी। स्वयं शिव नर्तक अंतरात्मा के रंगमंच पर नृत्य कर रहा है। चैतन्य ही स्वतः आकाश, वायु, अग्नि, जल और भूमि बन उदित हो रहा है। जल से स्वतः मछली जन्म ले रही है। यह सारा ब्रह्मांड शिव का त्रिलोकी नाटक है जिसमें त्रिलोकीनाथ स्वयं भूमिका लेकर सकल से अकल रूप में प्रकट है। 


स्वच्छता, निर्मलता और धीरता से उस सत्व (शिव) को सिद्ध करें। 


घट के भीतर नाद गुंजता, अंतर ज्योत जगी; सो सूरज के उजियारे में, मैंने मुझको पाया। 

धन्य भाग्य, सेवा का अवसर पाया, 

चरण रज की धूल बन, मैं मोक्ष द्वार आया।


पूनमचंद 

२० अप्रैल २०२२

Be in consciousness

 होश में रहो। 


अब रहा न आना जाना, जिधर देखता हूँ सनम रूबरू है। गुलिस्ताँ में जाके हर गुल को देखा, तेरी ही रंगत तेरी ही बू है। रही न कुछ असर न कुछ आरज़ू है, जिधर देखता हूँ सनम रूबरू है। 


यह कश्मीर शैव दर्शन है, जहां प्रेम ही प्रमुख है।यह जगत शिवलीला है, शिव शक्ति का मिलन, प्रेमालय। यहाँ शक्ति विश्व बनी है और शिव उसका धारक। जैसे आग और आग की लपटें। 


सकल से अकल की यात्रा में मायावरण पार कर आध्यात्मिक यात्रा शुद्ध बुद्धि से आगे बढ़ती है। अहम अहम, इदम इदम मंत्र है। I am, I am; this is this. एकरूपता है भेदभाव नहीं। फिर ईश्वर पड़ाव आता है जहां जो देख रहा हूँ वह मैं हूँ यह दृष्टि आती है। The whole is in I. ग्राहक ही ग्राह्य, भोक्ता ही भोग्य बन गया। शिव ही पार्वती। इदम अहम मंत्र है इस पड़ाव का। फिर आता है सदाशिव पद। अहम इदम। मैं ही इदम (विश्व)। एक हो गया। शिव शक्ति का मिलन हो गया। प्रेम हो गया। In love you rise but this is rising in love. 


कैसे पहुँचें? आण्वोपाय, शाक्तोपाय और सांभवोपाय से। कुछ साधन समझे। 


प्राण सेतु है पहुँचने का। अंदर आ रहा है वह शीतल चंद्र और बाहर जा रहा उष्ण सूर्य की द्वादश अंगुल पर हो रही संधि पर ठहरो। वही गुरू चरण है, गुरू पादुका है। उसकी पूजा करो। उस मध्य में अवस्थित रहो। उसके भूमध्य कंठ और ह्रदय का ध्यान रखो।स्वस्थ (स्व में स्थित) बनो। वहाँ परमानंद है। 


नींद भी साधन बन सकती है। जाग्रत के अंत पर नींद शुरू होती है। एक बाल जितना पतला एक संधि बिंदु है। उस मध्य पर ठहरो उस पर जागरण रखो। परमानंद पाओगे। 


यहाँ Yoga in action है। न संन्यास लेना है न भिख्खु बनना है। पलायन नहीं है। यहाँ सिर्फ़ चक्षु आवृत करना नहीं है, अपितु खुली आँखों से भी देखना है। thoughtless seeing. seeing without conditioning, seeing without justification, seeing without identification. शिव ही शिव नज़र न आये तब तक। one pointed ध्यान।  बैठते जागते सोते काम करते.. एक ही निदिध्यासन। शिव नहीं तो जीव कहाँ? उसके संगीत ताल और लय को पहचानना है। जैसे राजस्थानी नर्तकी शिर पर कुंभ लिये ताल और लयबद्ध संगीत के साथ नृत्य करती है, अंग प्रदर्शन करती है, आसपास गड्ढे और आग भी है फिर भी नृत्य में रत उसकी बुद्धि उस कुंभ की रक्षा में लगी रहती है, कुंभ को गिरने नहीं देती। वैसे ही संसार में रहते, स्व (God) में ध्यान रखने वाला योगी है।योगी बनो। बस ब्रह्म-शिव के अवलोकन का चस्का लगा दो। शिव को देखने का, जानने के नशे को छोड़ो मत। यह नशा होश में लाता है। शिवत्व देता है। प्रेमालय में प्रवेश है। 


शिवदर्शन का नशा इतना करो कि फिर गा उठो। 


अब रहा न आना जाना, जिधर देखता हूँ सनम रूबरू है। गुलिस्ताँ में जाके हर गुल को देखा, तेरी ही रंगत तेरी ही बू है। रही न कुछ असर न कुछ आरज़ू है, जिधर देखता हूँ सनम रूबरू है। 


पूनमचंद 

२१ अप्रैल २०२२

Bharatiya Sanskriti

 भारतीय संस्कृति। 

जल उठो फिर सिंचने को। 


भारत की सनातन जीवन शैली का आधार आध्यात्म है। यहाँ अलग अलग  दर्शन, धर्म और जातियों का संमिश्रण होने से आधुनिकता की दौड़ होते हुए भी सनातन भारतीय जीवन शैली आज भी जीवित है। हमारे पूर्वज मानते थे वसुधैव कुटुंबकम। उनका लक्ष्य था शांति, प्रेम और अहिंसा। सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।सबके सुख और स्वास्थ्य की कामना।


यहाँ जीवन एक उत्सव है जहां नाट्य कला और नृत्य कला से आध्यात्म की व्याख्या होती है। हमारा सारा ज्ञान कलाओं के द्वारा परोसा जाता है। धर्म, अर्थ, काम और पुरुषार्थ यहाँ आध्यात्म से संप्रेषित है। रसोई, हस्त-पाद प्रक्षालन से लेकर ब्रह्मांनंद तक एक ही दृष्टि है, तृप्ति की। भूतशुद्धि और मन शुद्धि के प्रयोजन में कला एक मार्ग है। सौंदर्य दृष्टि वाले का आध्यात्मिक प्रवेश इसलिए सरल है। 


नाट्य प्रवर्तक पहले रस को संवारता है, फिर श्रोताओं और दर्शकों के ह्रदय में उस रस को संचारित कर उस सौंदर्य में तृप्त करता है। सौंदर्य का परिष्कार जितना हो उतना निखरता है। नाटक की त्रिवर्गात्मिका संचालन में प्रवृति है और धर्म विपरीत से निवृत्ति है। नाटक का परिणाम शांत रस है। यह शांति स्मशान शांति या मंदता नहीं लेकिन तरलित होकर स्वस्थ्य होना है। शांति बाक़ी के आठ रसों की योनि है। गांधीजी के सत्त्याग्रह में टोल्सटोय से ज़्यादा राजा हरिश्चंद्र नाटक की अवधारणा थी।नाटक की शुरुआत में डुगडुगी बजती है और प्रस्तुति होती थी। “चंद्र टले चंदा टले, टले जगत व्यवहार। पर राजा हरिश्चंद्र, न टले सत्य विचार”। पीड़ा के बाद की शांति का अनुभव। 


नाटक का रस मन का मैल धो कर शांति पैदा करता है। स्वस्वरूप का प्रथनन होता है और ज्ञान यानि चेतना का विस्तार होता है। अभिनेता जितना बुद्धि कुशल हो उतना सात्विक अभिनय कर पायेगा। उमा या शिव का अभिनय करने से पहले अपने में रही स्त्री - पुरुष को बाहर निकालना पड़ता है। अभिनय हाथ पैर हिलाना नहीं पर अपने inner being की उपलब्धि से स्फुरित करना है। 


भरत नाट्यशास्त्र पर अभिनव भारती की व्याख्या स्वीकृति पाईं है। रूद्र शिव ने अपने अंगों के विभाजन से जो स्वात्मप्रच्छादन पटु क्रीड़ा रूप त्रिगुणात्मक प्रकृति स्वरूप लिया है, वह तीन गुण नाटक थियेटर का विषय वस्तु बन जायेगा। संकीर्णता का यहाँ स्थान नहीं। यहाँ कमंडल लेकर पलायन नहीं करना है अपितु जीना सीखना है और आनंद से जीना है। 


कनिष्क के वक्त हुए नागार्जुन ने जिसने अकाट्य तर्क से कश्मीर में शून्यवाद की स्थापना की थी। सर्वम् शून्यम्… सर्वम् शून्यम्। तब प्रश्न उठा कि बुद्धस्य वचनम् अपि शून्यम्? शिव उपासक दुनियाँ से भागता नही। नकारे होकर बैठा नहीं रहता। नर्तक आत्मा, अंतरात्मा के रंगमंच पर भीतर चेतना में नाटक का मंचन हो रहा है जहां देवों प्रेक्षक इन्द्रियां है; नर्तक से प्रेक्षक तक रस का संचार हो रहा है; उस नाटक में अपना दर्शन करना है। 


मलिन सत्व से अपना दर्शन नहीं होता, निर्मल बुद्धि चाहिए जिसे धीषणा कहा गया है। जिसमें सत्व का स्फुरण होता है। जिस तत्व की हमें खोज है वह स्फुरणशील है और अत्यंत सूक्ष्म, फूल की सुगंध से भी पतला है, अतीन्द्रिय है, आंतर परिस्पनदस्य (inner being) है। साधना का हेतु है सत्व शुद्धि और निर्मल बुद्धि।बाहर के और अंदर के साधन (भूत, इन्द्रियां, मन, बुद्धि) को दर्पण की तरह तैयार करना है। निदिध्यासन करना है जिससे सत्व का प्रकाशन हो। विशारद कहा जाता है ऐसी निर्मल बुद्धि वाले को जो अपने शिव स्वरूप का विमर्श करने निपुण है। विशारद शब्द शरद से बना है। शरद का सौंदर्य। वर्षा ऋतु के बादलों द्वारा पृथ्वी को धोये जाने के बाद आती है शरद। मैले जल को छोड़ नदी स्वच्छ निर्मल जल को धारण कर बहती है। इसी शरद के अमावस्या की रात में दीवाली का उत्सव और नये साल का उदय होता है। शरद का संबंध देवी शारदा सरस्वती से है। शुक्ल ही शुक्ल, निर्मल ही निर्मल। शरद में श्वेत पुष्पों से सुशोभित पृथ्वी पर हिमाचल में पार्वती विवाह रचाया जाता है। इसी शरद बुद्धि में सत्व का प्रकाशन करना है। 


भारतीय संस्कृति निर्माण में समर्थ है जिस पर सारे भारत का, विश्व का,  मानवता का अधिकार है। अपने स्वरूप में जाग गये फिर हिंसा नहीं होगी। जो सच है वह पाओगे। न मेरा है न तेरा है। जो है तत स्वरूप वह सब का  है। प्राणायाम की बाह्य क्रिया से समाधि तक की सफ़र में शिवता का स्फुरण और शिवभाव के साक्षात्कार की अभिव्यक्ति होती है। यही मोक्ष है। इस मोक्ष की कामना करते हुए जीवन की हर मुश्किल परिस्थितियों का सामना करें और होश खोये बिना आगे बढ़े। समापन करें कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ की इस काव्य पंक्तियों के साथ। 


गीत गाने दो मुझे तो, वेदना को रोकने को। 


चोट खाकर राह चलते, होश के भी होश छूटे; हाथ जो पाथेय थे, ठाकुरों ने रात लूटे; कंठ रूकता जा रहा है, आ रहा है काल देखो। 


भर गया है ज़हर से, संसार जैसे हार खाकर; देखते है लोग लोगों को, सही परिचय न पाकर; बुझ गई है लौ पृथा की, जल उठो फिर सींचने को। 


पूनमचंद 

२१ अप्रैल २०२२

Fruit of Banian tree

 बरोंदा। 


बरगद (वटवृक्ष) के पेड़ के फल को वटफल या बरोंदा कहते है। सामवेदीय छांदोग्य उपनिषद् में एक सुंदर संवाद है। पिता उद्दालक गुरू है और पुत्र श्वेतकेतु शिष्य। 


श्वेतकेतु प्रश्न करते है।आत्मा (self) है तो दिखती क्यूँ नहीं? अदृश्य वह भौतिक विश्व कैसे बनी? 


गुरू उद्दालक शिष्य श्वेतकेतु को बरोंदा लाने को कहते है। शिष्य ले आता है। फिर कहते है तोड़ो उसको। अंदर अनेक बीज होते है। उसमें से एक बीज लेकर तुड़वाते है और पूछते है, अंदर क्या है? शिष्य जवाब देता है कुछ नहीं। 


गुरू बताते हैं कि यह कुछ नहीं में जो अदृश्य है वही तो वटवृक्ष बनता है। वही सत्य है। वही आत्मा है। तत् सत्यं स आत्मा तत्त्वमसि। 


वही self है, वही शिव है, वही ब्रह्म है जो हमारी तुम्हारी आत्मा बन विचरण कर रही है। आप के पास ही है, आप ही हो, खोजेंगे कहाँ? 


हमारे वर्तमान शरीर से उसका कनेक्शन हमारा जन्म माना गया। उसकी संगत जीवन माना गया और जब डीस्कनेक्शन हो जायेगा तो मौत मानी जायेगी।वास्तव में अजन्मा हम न जन्मे, न मरे। अस्तित्त्व कैसे मर सकता है? ज्ञान शाश्वत शिव है। वही हमारा आपका अदृश्य स्वरूप है। वही वटवृक्ष बना है। सदा मौजूद फिर भी अदृश्य। उस स्व में स्वस्थ होने की कामना करें। 


स्वस्थता हि सिद्धि है। 😊


पूनमचंद 

२३ अप्रैल २०२२

Wednesday, April 13, 2022

Suprabhatam

 सुप्रभातम। 


अभी भोर होने को देर है पर पक्षियों की चहचहाहट से वातावरण जीवंत है। बीच बीच में कुत्तो के भोंकने की आवाज़ जैसे वायब्रन्सी पैदा कर रही है। मयूर अपनी ध्वनि से सुप्रभात को गीत बना देता है। रास्ते पर गुजरती गाड़ियों की आवाज़ मधुरता के वातावरण को जैसे विक्षिप्त कर रही है।


क्या फ़र्क़ हे मुझ में और मुर्दे में। चेतना का। मेरी ही चेतना का विस्तार है जिसमें उठ रही ध्वनि तरंगें मेरी कर्णेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय के सहारे जो की चैतन्य प्रकाश से प्रकाशित है, मुझे ख़बर कर रही है। मैं मेरे ही संस्कार से, मान्यता से उसका उपभोग कर रहा हूँ और आनंद ले रहा हूँ। मैं जैसे मुझे ही भोग रहा हूँ। बग़ल के बगीचे में टिमटिमाती बत्तीयों की रोशनी मेरी चक्षु इन्द्रिय का विस्तार ही तो है। यह मंद मंद पवन मुझे छू कर मेरा अभिवादन कर रहा है। मैं ही तो हूँ। कहाँ है शरीर भाव? चेतना के विस्तार के अलावा और कुछ नहीं। चैतन्य का दरिया है जिसमें जहां चाहो गोते लगा लो। तरंग भी मैं और दरिया भी मैं। 


पूनमचंद 

१३ अप्रैल २०२२ 

५.३० am 

Saturday, April 9, 2022

Dharma

 धर्म। 


भारत भूमि देवताओं की भूमि मानी जाती है, और ब्रह्म को जानकर मुक्ति प्राप्त करना यहाँ के मनुष्यों का परम लक्ष्य माना गया है। इस लक्ष्य को पार करने मनुष्यों के चार वर्तुल बनाये गये है, जिसके केन्द्र में ब्रह्म को जानने वाले ब्राह्मण और ब्राह्मण बनने के लिए उत्सुक वर्ग है। दूसरे चक्र में उनकी और इस धर्म व्यवस्था में जुड़े लोगों की रक्षा तथा उसका शासन करने क्षत्रिय है। सबका गुज़ारा भी चलाना है, इसलिए तीसरे वर्तुल में कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य व्यवसाय वाले वैश्य है। फिर सेवादल के बिना सब अधूरे है इसलिए सेवा वर्ग शुद्र है। चातुर्वर्ण्यों के इस धर्म समाज का व्यवस्थापन वर्ण और आश्रम व्यवस्था में नियोजित किया गया। श्रुति को आख़री हुक्म मानकर तर्क से उठने वाली कपिल, कनाद और बुद्ध की दलीलों को ख़ारिज किया गया। बाद में जन्म आधारित समाज बनने से भेदभाव और असमानता के कारण उसका विघटन होता रहा। विघटन के बाद भी यह संस्कृति का इतने हज़ार साल जीवित रहकर पल्लवित होते रहना एक अजूबे से कम नहीं। 


क्या है यह धर्म? सिर्फ़ वर्ण और आश्रम? कइयों के मन में यह प्रश्न उठा है और आज भी उठ रहा है। गांधीनगर पधारे स्वामी सदात्मानंदजी ने धर्म की व्याख्या आज कुछ इस प्रकार की। 


धर्म शब्द की व्युत्पत्ति धृ यानी धारण करना, जो जगत को धारण करता है, जिसे संतजन धारण करते है वही धारयति इति धर्म:।  


धर्म को गुणधर्म (भौतिक-रासायनिक), पुण्यधर्म (जीव जिसे लेकर गति करे), स्वरूप धर्म (आत्मा) और कर्मधर्म (धारण करने योग्य कर्तव्य) की श्रेणी में विभाजित कर सकते है। विशाल अर्थ में धर्म के तीन पहलू है। १) कर्तव्य कर्म अनुष्ठान २) जीवन मूल्यों का अनुष्ठान, और ३) भावना  का अनुष्ठान। 


१) कर्तव्य कर्म अनुष्ठान: यह धर्म का मुख्य पहलू है। वर्ण और आश्रम आधारित समाज व्यवस्था जो वर्ण धर्म और आश्रम धर्म से चले आ रहे है। जाति कर्म, गुण और जन्म से निर्धारित होती है। चार वर्ण है। जिसमें ब्राह्मण के छह कर्म अध्ययन-अध्यापन, यजन-याजन (यज्ञ करना-करवाना) और दान-प्रतिग्रह (भेंट लेना और देना) है। क्षत्रिय का कार्य प्रजा की रक्षा और उस पर शासन का है जिससे धर्म की रक्षा हो। वैश्य का कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य; और शुद्र का सेवात्मक। चार आश्रम है:  ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। शास्त्र अध्ययन और गुरू सेवा के साथ शिस्तमय जीवन ब्रह्मचर्य आश्रम का दायित्व है। तीनों आश्रम में रहनेवालों का पालन पोषण करना और पंचयज्ञ करना गृहस्थ का दायित्व है। पाँच यज्ञों में देव यज्ञ (देवताओं की पूजा, मंदिर जाना, घर में पूजा); ब्रह्म यज्ञ (वेद शास्त्र अध्ययन); पितृ यज्ञ (माता पिता की सेवा कर उन्हें तृप्त करना, श्रद्धा से श्राद्ध करना); मनुष्य यज्ञ (अतिथि सेवा या तन-मन-धन से समाज सेवा); भूत यज्ञ (पशु, कीट आदि की सेवा, मांसाहार न कर अहिंसा की सेवा)। वानप्रस्थ को उपासना और तप ध्यान करना है जिसमें उपवास, जागरण, ध्यान, शरीर शिस्त, तपोमय जीवन समाविष्ट है। संन्यास में  वैराग्य, अहिंसा और आत्मज्ञान  निष्ठ जीवन जीना है। ज़रूरी नहीं घर छोड़ना। जहां है वहाँ आंतरिक संन्यासी हो सकते हो।


२) जीवन मूल्यों का अनुष्ठान। तीर्थ यात्रा, पूजा इत्यादि धर्म है पूजा ही धर्म है ऐसा नहीं। धर्म उससे विशेष है। जैसे कि गीता में बीस मूल्यों की चर्चा की है: अहिंसा, सत्य, क्रोध त्याग, अभिमान त्याग, दया, उपरति, निंदा न करना, अनासक्ति, तेज, क्षमा, धैर्य, अदंभीत्व, अमानीत्व, इत्यादि। लेकिन उन सब में अहिंसा सबका आधार स्तंभ है। यह जीवन मूल्यों सूचना का विषय नहीं अपितु इसके साथ जीवन जीना है। value of values. इसलिए यह समझना ज़रूरी है कि मूल्य का स्वरूप क्या है, जैसे कि अहिंसा का स्वरूप है कि कार्य, मन या वाणी से हिंसा न करना। मूल्य का महत्व क्या है यह अन्वय (विधेयात्मक) और व्यतिरेक (निषेधात्मक); अनुक्रम से पालन से क्या लाभ होगा और न पालन से क्या गेरलाभ या नुक़सान होगा यह समझना है। उसके पालन में क्या प्रतिबंध है, जैसे अहिंसा में शांति और संवादिता है। न होने से व्यक्ति खुद भयग्रस्त होता है और दूसरों को भयभीत करता है। अहिंसा के पालन में राग और द्वेष, आग्रह और विग्रह अवरोधक है। ऐसा ही होना चाहिए और ऐसा नहीं होना चाहिए था, दोनों स्थिति अवरोधक है। यह विरोध कभी कभी शाब्दिक और शारीरिक अभिव्यक्ति के रूप में हिंसा का आकार ले लेती है। मूल्यों के साधन क्या है? क्या अपनाये क्या-क्या छोड़िए? अनुकूलस्य ग्रहणम्, प्रतिकूलस्य त्याज्यम्। मूल्यों धर्म का दूसरा पहलू है जिसका स्वरूप, महत्व, प्रतिबंध और उपाय समझ लेना है। 


३) भावना अनुष्ठान। हमारी मानसिक स्थिति और अभिव्यक्ति भिन्न भिन्न विषय, व्यक्ति, परिस्थिति के अनुरूप योग्य होनी चाहिए, जिसमें सम्मान, कृतज्ञता, ईश्वरार्पर्ण और प्रसाद भावना ज़रूरी है। जगत के हर पदार्थ, व्यक्ति उस ईश्वर की अभिव्यक्ति है इसलिए न कोई छोटा, न बड़ा, हर व्यक्ति, वस्तु का आदर करना है। उम्र या स्थिति से दीखता हुआ छोटा या बड़ा, सब सम्मान के अधिकारी है।आत्म सम्मान भी इतना ही ज़रूरी है। बिना खुद का आदर किये बिना, सुख प्राप्ति और दुख निवृत्ति के जीवन ध्येय को पा नहीं सकते। जीवन में कृतज्ञता ज़रूरी है। हमारा जीवन कइयों के योगदान के फलस्वरूप है इसलिए  जिन जिन के पास से जो भी हमें सुखी करने प्राप्त हुआ उसके प्रति कृतज्ञता, आभार का भाव प्रकट करना चाहिए। शांति मिलती है। हम जो भी कार्य कर रहे है वह ईश्वर को अर्पण करें जिससे कार्यबोज के अभिमान से मुक्त रहे। जो भी फल मिले वह ईश्वर का प्रसाद है इस भाव से उसका स्वीकार करे। यह कर्म फल है। अच्छा भी और बूरा भी। प्रसाद मानकर ग्रहण करें जिससे फ़रियाद नहीं रहेगी। 


अब वर्णाश्रम नहीं रहा इसलिए जिसको जो भूमिका मिली है उसके अनुरूप व्यवहार करे और समष्टि के कल्याण के लिए योगदान दे वही धर्म। कर्तव्य कर्म, मूल्यों का पालन और भावनात्मक अमल यही धर्म है। चाहे इसे हिन्दू धर्म कहो या सनातन। 


धन्यवाद स्वामी सदात्मानंदजी का, धर्म की शास्त्रोक्त व्याख्या करने के लिये। 


अस्तु। 


पूनमचंद 

९ अप्रैल २०२२

Friday, April 8, 2022

Which is the Self?

Which is the Self? 

कतम आत्मेति; योऽयं विज्ञानमयः प्राणेषु हृद्यन्तर्ज्योतिः पुरुषः; स समानः सन्नुभौ लोकावनुसंचरति, ध्यायतीव लेलायतीव; स हि स्वप्नो भूत्वेमं लोकमतिक्रामति मृत्यो रूपाणि ॥ बृहदारण्यक.४.३.७ ॥

‘Which is the self?’ ‘This infinite entity (Puruṣa) that is identified with the intellect and is in the midst of the organs, the (self-effulgent) light within the heart (intellect). Assuming the likeness (of the intellect), it moves between the two worlds; it thinks, as it were, and shakes, as it were. Being identified with dreams, it transcends this world—the forms of death (ignorance etc.).’

The intellect is that which is illumined, and the light of the Self is that which illumines, like light; and that we cannot distinguish the two. It is because light is pure that it assumes the likeness of that which it illumines. When it illumines something coloured, it assumes the likeness of that colour. When, it illumines something green, blue or red, it is coloured like them. Similarly the self, illumining the intellect, illumines through it the entire body and organs. 

The intellect is Hindu or Musalman or Christian, as per the assumed colour of the culture. But the Supreme Self present in all hearts is pure light illumines them all. We see the colours but not the light that illuminates the colours. Look at the light, the Supreme Self, the Brahman, the Allah, the God present in the abode of all the hearts. 

Punamchand 
8 April 2022

Thursday, April 7, 2022

Spirituality

Spirituality 


Spirituality is a treatment of minds but it has failed in transmitting the Truth in India as the knowledge was traversed within limited circles. 


One verse of Brihadaranyaka Upnishad which has summarised all the scriptures into it, is sufficient enough to bring desired change of equality and fraternity in India. 


ॐ असतो मा सद्गमय।

तमसो मा ज्योतिर्गमय।

मृत्योर्मामृतं गमय । 

ॐ शान्ति शान्ति शान्तिः ॥


But who will understand what is that असत (impermanent) from which one has to travel to सत (truth)? 


What is that तमस (darkness) from which one has to travel to ज्योति (light)? 


What is that मृत्यु (death) from which one has to travel to अमृत (immortality)? 


Knowing the Brahman is the key to make वसुधैव कुटुम्बकम्. Let’s hope that we shall first make India one family thereafter aim for the world. However, others have also to reciprocate. 


Punamchand 

6 April 2022

Punamchand 
6 April 2022

The Self, a tale from Upanishads

 The Self, a tale from the Upanishads 


There were Ten students studying in a Gurukul. They went to a neighbouring village crossing a river. On their return, while crossing the river there was a flash flood and they were inundated by torrent of water. They managed to reach to the shore but the team leader wanted to make sure that all ten have returned. He made a quick count and found only nine were present. To avoid mistake, he lined them up again and counted each one of them by touching their bodies. Still the count was nine. One of the students offered rechecking. He changed the side and place the group leader to his place and counted. But the count was nine. The count of nine was confirmed and all went into grief, sat on the river bank and started crying for the lost kin in the floods. 


At that time, a wise man passed that way. He stopped and ask the reason of their crying. The student narrated the story. The wise man counted their number and understood the problem. He told them that no one was missing. It was just a delusion or ignorance. He told the leader to count them once again. The leader counted them and found them nine again. The wise man interrupted and asked the leader whether he has counted himself also. They immediately realised the mistake and realised that the missing tenth person was the leader himself who was doing counting. They rejoiced in the knowledge and thanked the teacher ans returned to the Gurukul happily. 


The Self was not missing. He was counting others and searching for the missing 10th, but not counting himself. The Self was never missed. 


Meditate on the Self. The answer is within you, ‘the self’. 


Punamchand 

7 April 2022

Monday, April 4, 2022

Athato Braham Jigyasa, अथातो ब्रह्मजिज्ञासा।

 अथातो ब्रह्मजिज्ञासा।।१।। (Braham Sutras)


Inquire about Brahman. 


Brahma Sutras is a Sanskrit text composed in probably 5th century BCE by Badarayana or Vyasa or both may be the same person. It summarises the ideas of Upanishads. The cave of Ved Vyasa situated few kilometres away from Badrinath Temple in Uttarakhand where he composed epic Mahabharata and other Shutras. The name of the deity Badri-Nath refers to Badarayana, the Vyas of ancient India.


The base of Indian philosophy is Vedas, which are divided into two sections: Karmakanda (ritualistic) and Jnanakamda (knowledge). The later section was known as Vedanta, the gist of Vedas. From the Brahmanic sacrificial religion, the Kshatriya lead the revolt against the ritualism and we got Upanishads. Materialistic Charvakas also grew together. Preceding Buddha and during his life time there was a great philosophical upheaval in India. Jain thoughts existed before the time of 23rd Tirthankar Parshvanatha (8th century BCE). There were 62 different schools of philosophy including anti Vedic standpoint. It was divided into believers (orthodox) and non believers (heterodox). There were six major orthodox schools: Nyaya, Vaisesika, Samkhya, Yoga, Purva Mimamsa, Uttara Mimamsa. They developed side by side at different intellectual centres over centuries, therefore, to interpret them, to understand; short aphorism, concise and unambiguous Sutras (clues) were composed. Step by step, they take you to the final truth. 


There were 108 or more Upanishads (10 are principal) and were composed at different timeline and at different centres therefore the thoughts carry contradictions, needed systematisation. Audulomi, Kasakrtsna, Badari, Karsnajini, Asmarathya, Panini, etc, tried Sutras but the Braham Sutras composed by Badarayana probably stood the best. It was also inferred that the work of Badarayana and Jaimini was combined by Vyasa as Brahama Sutras. They are referred in Gita (13.4) and cross reference of Gita in it suggest that they were composed earlier than the Gita by Vyasa. 


The five systems: Sankara’s Monism, Ramanuja’s Visistadvaita, Nimbarka’s Bhedabhedavada, Madhava’s dualism, Vallabha’s Suddhadavaitavada were based on Vedanta, have interpreted the Sutras differently with conflicting thoughts, accept Brahman but differ on its nature and path of God; Saguna, Nirguna, Maya, Ishvara, world, Jiva, Upadhi. However, the goal remained the same, Liberation; either to reach Brahmaloka from where one doesn’t return or knowledge of real Self to attain liberation. Saguna followers believe Bhakti is the chief means to liberation, while the Nirguna followers believe that Jnana, knowledge of Brahman leads to liberation. Those who are on path of Bhakti have also to travel on Jnana path to attain liberation. Brahman is Existence, Knowledge, Bliss Absolute; सत चित आनंद, सच्चिदानंद। 


But how a human can define Brahman? A limited thing can’t define the unlimited. The scriptures therefore focused on ‘not this’, ‘not this’, so that one leads to the experience of the real Self, so that the imaginary snake in the rope disappears and the rope is seen as rope. Pot is pot in shape but clay is reality; World is unreal, Brahman is real. The non duel infinite, where one sees nothing else, hears nothing else, understands nothing else but only Brahman. The bliss from which all creation springs. By the knowledge of Brahman everything else is known (Chandogya 6.1). And that Brahman is the Self. Meditate on ‘Self’ and know the true nature of the ‘Self’ by expansion of intelligence, and when the knowledge dawns, Jiva becomes Siva, Brahman manifested, ‘Existence, Knowledge, Bliss’. The different becomes indifferent, the soul becomes one with it, all pervading. The body pot may be moving in atomic form due to upadhi (adjunct) but the ether inside, the real nature is infinite, all pervading, the Brahman; smaller than the smallest and greater than the greatest. Negate everything till you reach to the reality. Brahman is left behind, the ‘witness’ of everything, the witnessing consciousness. Self luminous, “Thou art That”. 


Indian philosophy is a philosophy to make each human a Brahmin, to attain true knowledge of Self to attain liberation. Therefore, one has to make the inquiry of Brahman. And for that some pre requisite spiritual qualities are necessary to attain. Karmakanda precedes the Jnanakanda to remove the superimposition of the non self on the Self. The requisites are sadhan chatushtaya : 1) Vivek: discrimination between things permanent and transient 2) Vairagya: renunciation of the enjoyment of fruits of actions 3) six inner treasures : Shama (quiet the mind), Dama  (self control), Shraddha (faith, trust), Titiksha (inner resilience), Uparati (renunciation from worldly things), Samadhan (deep interest and focused on goal - Brahman) 4) Mumuksutvam (intense desire to be free). Karmakanda (nishkam karma with detachment) is necessary to aquire this treasure before entering into the Jnanakanda (knowledge). The purity of the upadhi (अंत:करण) is must. 


अथातो ब्रह्मजिज्ञासा।। ब्रह्म की जिज्ञासा करें। 


The curious makes it. One has to begin. When? Your choice.😊


Punamchand 

4 April 2022

Friday, April 1, 2022

Who is Guru who is Chela?

 Who is Guru who is Chela?


ਤੇਰਾ ਕਵਣੁ ਗੁਰੂ ਜਿਸ ਕਾ ਤੂ ਚੇਲਾ ॥

ਸਬਦੁ ਗੁਰੂ ਸੁਰਤਿ ਧੁਨਿ ਚੇਲਾ ॥


Above Tuks (lines) are from spiritual interfaith dialogue between Guru Nanak and Hindu Siddhas (three Nath Yogis) at Batala.


Bangarnath one of the three Nath Siddhas asked Guru Nanak:

ਤੇਰਾ ਕਵਣੁ ਗੁਰੂ ਜਿਸ ਕਾ ਤੂ ਚੇਲਾ ॥

“Who is your Guru and whos disciple are you?”


Guru Sahib's answer to them was:

ਸਬਦੁ ਗੁਰੂ ਸੁਰਤਿ ਧੁਨਿ ਚੇਲਾ ॥

“The Shabad is the Guru, upon whom I lovingly focus my consciousness; I am the chaylaa, the disciple.”


Shabad Surat Naam Abhyaas in Gurmat is a process of spiritual journey of reciting Naam from Vaikhari to Madhyama to Pashyanti to Para level. It builds the bridge between the Jiva with the formless Vaheguru and leads to salvation, merging into the truest of the True. It is meditative remembrance.


It is the way to instruct the mind, attain true understanding, so it will never suffer beatings again. The mind is attached and attuned to the unstruck sound current. It eradicates egoism and attachment. Discard sexual desire, anger and egotism.


The liberation cap is made of five elements: body the meditation mat, mind the loin cloth; truth, contentment and self-discipline be the companions. 


Liberation can be attained while living in this world. One who realizes the Shabad of the One who created the creation, it is the true realisation. Manmukh loses, Gurmukh wins (merges in truth). Gurmukh finds the door of liberation and merges in Truth.


This is Gurmat.


Punamchand 

20 February 2022

Tutorial, Tin Darwaja, Ahmedabad

 ट्यूटोरियल। 


अहमदाबाद हेरिटेज सीटी का तीन दरवाज़ा। दुकानों ओर ख़रीदारों की भीड़ से भरा। उसमें है स्थित एक ट्यूटोरियल मार्केट। ५*५ वर्ग फूट की २०० दुकानें, २५०*३५ वर्ग फूट में इतना सामान, इन्सान कैसे समाहित होगा? यहाँ बच्चों और महिलाओं के कपड़े, पर्स, कंगन, जूते, वग़ैरह फ़िक्स रेट पर मिल जाते है। फ़िक्स रेट का स्टिकर नहीं होता, बस आपका चेहरा देखकर दुकानदार ने जो भाव कह दिया वह हो गया फ़िक्स रेट। ख़रीदारी में देर हो जाये तो घुमती चाय-समोसे का आनंद भी ले सकते है। 


मुझे इसी बाज़ार में बच्चों के जुते ख़रीदते दुकान नं २६ पर एडहेसीव के एक व्यापारी से मुलाक़ात हो गई। वह दुकान के बाहर लगे एक छोटे स्टूल पर बैठे कुछ जाप कर रहे थे। बातों का जवाब देते थे, पर उनका ध्यान अपने जाप पर था। मुझसे रहा नहीं गया और बात छेड़ दी। रूह और जिस्म अलग होने में और अल्लाह-परमात्मा निराकार होने में हमारी सहमति हो गई। फिर मैंने प्रश्न पूछे। क्या अल्लाह सब जगह नहीं होता? उसने जैसे ही हाँ कहा, मैंने पूछ लिया, फिर वह हममें भी मौजूद होगा? उसने फिर हामी भरी तो फिर पूछा कि क्या उसे अपने अंदर खोजना सरल या बाहर? उसने जवाब दिया, स्वाभाविक ही अंदर। अंदर तो एक रूह ही है तो उससे ख़ुदा कैसे अलग? वह चूप रहा। लेकिन दुकानदार नरमावाला चतुर था। जुते बेचने छोड़ वह भी सत्संग में शामिल हो गया। कहा वह सबका मालिक है। यह सब जो दिख रहा है उसका मालिक अल्लाह है जो आसमान में रहता है। हम इन्सान, पशु, पक्षी सब उसका हुक्म है। उसके हुक्म से वह प्रकट होते हैं और हुक्म ख़त्म होते मिट जाते है।जब इन्सान का मालिक ख़ुदा है फिर इन्सान कैसे मालिक हो सकता है? मेरे प्रश्न और उनके जवाब कुछ इन शब्दों में समा गये। 


न आकार है न दीदार, पर है परवरदिगार;

आसमान पर ठहरा, सब का मालिक एक। 


हर रूह हुक्म उसका, चलाये या करे ख़त्म;

नेकी ईमान की राह चल, क़यामत से डर। 


इस दुनिया में जो दिखता, मालिक एक सब उसीका; 

इन्सान का वह मालिक, फिर इन्सान कैसे मालिक? 


रहनुमा दरगुजर फ़िक्र में तेरी, भेजे फ़रिश्ते हुक्म; 

जो बताया राह उसी चल, नेकी कर दरिया में डाल। 


कहाँ मन्सूर ने अनलहक, शूली चढ़ा पर झुका नहीं;

शरीयत तरीकत मारफत और हक़ीक़त चला गया।  


एक नूर चारों ओर, कौन देश, कैसा आवन जावन। 

ख़ुद में ख़ुदा मिले नहीं, फिर कैसी बंदगी क्या दुआ?


पूनमचंद 

९ मार्च २०२२

Swami Ramsukhdas: नि:करण साधना।

 નિ:કરણ સાધના


પૂજ્ય  સ્વામી રામસુખદાસ (૧૯૦૪-૨૦૦૫) એક મહાન વ્યક્તિત્વ, ઉચ્ચ કોટિના સંન્યાસી સંત હતાં. ગીતાનો મર્મ તેમને પકડાઈ ગયો હતો. તત્વના અનુયાયી હતા. ભક્તિ યોગ અને પરમ પ્રેમની પ્રાપ્તિ તેમનું લક્ષ્ય રહ્યું. તેમણે જીવનના ૭૨ વર્ષ હિંદુ ધર્મના પુસ્તકોનો અનુવાદ અને સરળ ભાષામાં અર્થસભર ટીકા લખવામાં અને પ્રવચનોમાં વિતાવ્યો હતો. ગીતા સાધક સંજીવની તેમનું સૌથી પ્રસિદ્ધ પુસ્તક છે. ભારત કે ભારત બહાર ચાલતા હિંદુ સત્સંગમાં ઘણાં સંતો, મહંતો, કથાકારો પોતાના પ્રવચનો  સ્વામી રામસુખદાસના પ્રવચનો પુસ્તકોને આધારે કરતા હતા અને કરે છે. ગીતા પ્રેસ ગોરખપુરનો મોટો ખજાનો તેમનો છે. 


મારી તેમની સાથેની પહેલી અને આખરી મુલાકાત સપ્ટેમ્બર ૨૦૦૨માં ઋષિકેશમાં એક આશ્રમમાં થઈ હતી. તેમણે ટૂંકમાં પણ સચોટ બોધ આપ્યો હતો જેમાં અવિદ્યા ક્ષેત્રના વ્યર્થ પ્રયત્નો છોડી વિદ્યા ક્ષેત્રમાં સાધના યાત્રા કરવા તરફ સૂચન હતું. તેમણે તો ત્યાં સુધી કહી દીધું કે તેઓના ૭૨ વર્ષ ખોટા વેડફાયા, એક વાત માનવામાં, “સર્વં ખલ્વિદં બ્રહ્મ”, “વાસુદેવ સર્વં”.


અવિદ્યા ક્ષેત્રમાં સ્થૂળ શરીર, પાંચ કર્મેન્દ્રિયો, પાંચ જ્ઞાનેન્દ્રિયો, પાંચ પ્રાણ, પાંચ મહાભૂત, પાંચ તન્માત્રા, મન, બુદ્ધિ, અહંકારનો સમાવેશ થઈ જાય છે. કોઈ ૧૭ ગણે, કોઈ ૨૪ અને કોઈ ૩૨, પરંતુ વાત કરણ કે સાધનોની જ થાય છે. આ બધાં સાધનોની પોતાની કોઈ સત્તા નથી. તેને આત્મ સત્તાની વીજળી ન મળે તો નકામા. જેમ કોઈ પંખો, ટીવી, ફ્રીજ, હીટર, વગેરે ઉપકરણો વીજળી વિનાના કેવાં? પ્રશ્ન એ છે કે આ ઉપકરણો કામ કરતાં હોય ત્યારે વીજળીની પરોક્ષ રીતે હાજરી અને કાર્ય  અનુભવાય પરંતુ વીજળીનો અપરોક્ષ અનુભવ ન થઈ શકે. વીજળીનો સાક્ષાત્કાર કેવલ વીજળી જ કરી શકે. તેથી કરણો બધાં પુરાવા તરીકે ચાલે પણ તે સાક્ષાત્કાર ન કરાવી શકે. 


વિદ્યા ક્ષેત્ર આત્મા છે, ચૈતન્ય છે, જ્ઞાન સત્તા છે. સાશ્વત છે. કૂટસ્થ છે. તેના આધારે બધું છે. તે નહીં તો કશું જ નહીં. તે સર્વનો આધાર પણ પોતે નિરાધાર. આ આત્મા ચૈતન્ય દરેક જીવને સદાકાળ સર્વદા ઉપલબ્ધ જ છે. તેને જાણવા માત્રથી તેની પ્રાપ્તિ છે. પ્રાપ્ત ને શું પ્રાપ્ત કરવાનું? સૂર્યને નથી પ્રકટાવવાનો પણ સૂર્ય કિરણોને રોકતાં આવરણો, વાદળો હટાવવાના છે. બસ નજર બદલવાની છે, ડબો બદલવાનો છે. અવિદ્યાના ડબામાં બેસી વિદ્યાનો ડબો કેવી રીતે મળે? બસ એકવાર વિદ્યાની ઓળખાણ થઈ જાય પછી જ્યાં જુઓ ત્યાં તે જ દેખાય. તેના સિવાય કશું બીજું ન જણાય. વિદ્યા અવિદ્યાના ભેદ વિભાજન જતાં રહે. સર્વં ખલ્વિદં બ્રહ્મ. વાસુદેવ સર્વં.


આ વિદ્યા પ્રાપ્ત કરવા વિદ્યામાં દાખલ થવાનું છે. દાખલ જ છો, માત્ર કબુલ કરવાનું છે. તેની ઓળખાણ કરી લેવાની છે. તેમાં ઉપર દર્શાવેલાં કોઈ સાધન કે કરણની જરૂર ન રહે. સીધાં આત્મ પ્રદેશમાં છલાંગ લગાવવાની છે. શું લગાવી શકશો? સંતોએ એક મોટો અવરોધ નિહાળ્યો છે. અંત:કરણના આવરણોનો. તેથી તે હટાવવાની સાધનાના ઉપાયો જણાવે છે. પરંતુ સ્વામી રામસુખદાસના મતે વિદ્યા ક્ષેત્રના જાતકને અવિદ્યા ક્ષેત્રની ગણતરી અને પળોજણની કોઈ જરૂર નથી. સીધાં જ ગોળ ખાઈ લઈએ પછી ગોળ વિષે પુસ્તકો વાંચીને તેના સ્વાદની કલ્પના કરવાનો શો અર્થ. 


પરમાત્મા સચ્ચિદાનંદ છે. પરમ શાંતિ, પરમ સુખ, પરમ પ્રેમ તેમનું સ્વરૂપ છે. તે બધાંને પ્રાપ્ત જ છે. ત્રાહિમામ તો અવિદ્યા ક્ષેત્રમાં છે. તેને છોડી દીધું પછી બંધન મુક્તિનો બોજ જ જતો રહ્યો. મુક્તની તે વળી કેવી મુક્તિ? જીવતાં જ મોક્ષ છે. બસ ચપટી વગાડવાની જરૂર છે.


પૂનમચંદ 

૫ માર્ચ૨૦૨૨

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