Tuesday, May 30, 2023

शुद्ध विद्या।

 शुद्ध विद्या ।


कश्मीर शैव दर्शन अद्वैत वेदांत से थोड़ा हटकर है। केराला और कश्मीर दर्शन एक ही शिव की दो भिन्न व्याख्या करते है। एक का शिव अकर्ता है जबकि दूसरे का ज्ञाता भी और कर्ता भी। पंचशक्ति से पंचकृत्यकारी, रंगमंच बनकर खुद ही नर्तक बन खेल खेल रहा है। 


यह अस्तित्व शिव से लेकर पृथ्वी तत्व तक ३६ तत्वों में परम शिव का प्राकट्य-संकोच है। आरोह क्रम के ३१ वें पायदान पर और अवरोह क्रम के पाँचवें पायदान पर एक तत्व है जिसका नाम है शुद्ध विद्या। सीडी का यह पड़ाव अवरोह में वास्तविक आध्यात्म की शुरुआत है। उसके नीचे माया मंडल में सब भेद ग्रस्त है और भेदमयी प्रमाता अपने अभेद रूप का साक्षात्कार नहीं कर सकता। इसलिए KSD में शुद्ध विद्या के उदय को अधिक महत्व दिया जाता है। 


क्या है यह शुद्ध विद्या? कहाँ रहती है? कौन देता है? शुद्ध विद्या प्राप्त होने से क्या होता है? इत्यादि प्रश्न हर साधक के मन में उठेंगे। 


दिमाग़ का दहीं हम अलग अर्थ में समझते है लेकिन दहीं के शोधन से जो मक्खन निकलता है उसके मूल्य और महत्व से हम भलीभाँति परिचित है। ठीक इसी प्रकार जब हमारी बुद्धि का शोधन होता है तब उसमें से शुद्ध विद्या प्रकट होती है। इसका मतलब जैसे दूध में मक्खन रहता हैं वैसे शुद्ध विद्या हमारी बुद्धि के भीतर रहती है। 


हमारी बुद्धि खंडित है और जगत को खंड खंड कर देखती है, मेरे तुम्हारे में बाँटती है। व्यक्ति धर्म, पक्ष, जाति, लिंग, पद, प्रतिष्ठा के संकोचन से ग्रसित होकर छोटा बन जाता है। अहंता (मैं और मेरा) और इदंता (तुम, तुम्हारा) भेद बना रहता है।  बुद्धि के इस संकोच की वजह से वह अपनी अभेद पहचान में न दाखिल हो सकता है न स्थित हो सकता है।  


वास्तव में अहंता और इदंता दो अलग-अलग नहीं अपितु एक है। दोनों ही चित् प्रकाश है। अहं भी चित् प्रकाश और इदं भी चित् प्रकाश। बुद्धि जब अहंता और इदंता में ऐक्य मति साधेगी तब अखंड होगी, अखंड दर्शन को प्राप्त करेगी तब जाकर उसकी व्याप्ति होगी जिससे प्रमाता अपने स्वरूप की पहचान में अग्रसर होगा। यह शुद्ध विद्या का उदय है। जिससे हम परम शिव तत्व में अवस्थित हो जाएँगे। ज्ञात्री ज्ञान और ज्ञेय त्रिपुटी निर्विकल्प हो जाएगी। तीनों एक ही चिन्मय प्रकाशित हो उठेंगे। आत्मा का प्रकाश ही तीन रूप धरकर यह जगत क्रीड़ा में प्रवृत है, यह प्रमाणित हो जाएगा। आत्म प्रकाश की व्याप्ति। 


बुद्धि निर्मल होगी तभी तो सब जगह आत्म प्रकाश को देखेगी। आत्म प्रकाश के शरीर दर्शन से यह संसार सुंदर बन जाएगा। खायेगा शिव। पिएगा शिव। चलेगा शिव। शिव के शिवा और कोई नज़र नहीं आएगा। पर शिव समावेश में सब भेद मिट जाएँगे और अभेद को प्राप्त होगा। 


विशेष मिटकर जब वह सामान्य होगा तब यह घटित होगा। अत्यंत स्थिरता में गति और अत्यंत गति में स्थिरता को प्राप्त होगा। शिवरूप शक्ति और शक्तिरूप शिव, प्रकाशरूप विमर्श और विमर्शरूप प्रकाश की प्रत्यभिज्ञा करेगा। गंगा जल (ज्ञान) में डूबकी लगायेगा और ग़म-आगम पाकर खुद ही ज्ञान बन जाएगा। 


बुद्धि की सामान्यता, निर्मलता और शोधन ही उपाय है शुद्ध विद्या पाने का। और शुद्ध विद्या के बिना साक्षात्कार (self realisation) नहीं। 


अजब ग़ज़ब का खेल है। प्रत्यभिज्ञा होगी नहीं तब तक मानेंगे नहीं और प्रत्यभिज्ञा करने मानना ज़रूरी है। 😊


पूनमचंद 

३० मई २०२३

रसो वै सः।

 रसो वै सः। 

रस ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति। 


वह रस रूप है। जो इस रस को पा लेता है वह आनंदमय बन जाता है। 


रस आनंद है। जिसका आस्वादन किया जाता है, स्वाद लिया जाता है और जो प्रवाहित है। 


चैतन्य घन कूटस्थ है। है बस। एक सुंदर पुरूष टुकुर-टुकुर देखता रहता है और करने के लिए ललिता सुंदरी रूप में प्रवाहित हो उठा है। स्पन्दायमान है।  


जैसे एक काव्य में रस है और गन्ने भी रस है। दोनों के रस ग्रहण की इन्द्रियां अलग-अलग लेकिन ग्राहक एक है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध की तन्मात्रा और उसके पदार्थों में जो रस द्रवित हो रहा है उस रस पर और रस के पान के आनंद पर हमारा ध्यान होना है। ऐसी कौनसी क्षण होगी जब हम पंचेन्द्रियों से इस रस का भोग नहीं करते? हर क्षण वह जोड़ी ललिता और शिव मौजूद रहते है। अगर उसकी मौजूदगी में डूब गये और खुद को खो दिये तो बिंदु को सिंधु बनने में देर नहीं लगती। परंतु अहंकार से भोग को ही योग मानकर पंचेन्द्रियों के विषय के प्रति भागना शुरू करके शरीर, मन, बुद्धि, प्राण के ह्रास में लग जाना बेईमानी होगी। 


रस के आस्वादन को पकड़ते पकड़ते उस रसकेन्द्र को पकड़ लेना है जहां शिव और सुंदरी बैठे है। अपनी ही मुलाक़ात करनी है और फिर उसमें खो कर मस्त रहना है। फ़क़ीरी मस्ती भी रस रूप है। फ़क़ीर का अर्थ गरीब है लेकिन उसमें रस की अमीरी है। 


जब मैं रस लेता हूँ तब शिव और सुंदरी आएँगे ऐसा नहीं। जब दूसरे भी रसास्वादन करते हो, वह मौजूद होते है। जब गाय और भैंस जुगाली करते हो तब उस रसानंद का अवलोकन कर उसका स्पर्श कर लेना। 


रस सिर्फ़ हमारे अपने खाने से ही नहीं आता। शिवघेरा बड़ा करना है। हम तो सिसकी ले ले पर और वैश्वानरों पर से भी ध्यान नहीं हटाना है। रस को खोजो। यह संसार रस से भरा है। मदिरालय है। 


सब जानते हैं कि खाने के बदले खिलाने का आनंद अधिक होता है। त्याग से भोगना अप्रतिम है। तेन त्यक्तेन भुंजीथा। यहाँ कौन है, जो ईश नहीं? ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगतियां जगत्।


पूनमचंद 

३० मई २०२३

Monday, May 29, 2023

स्पन्दकारिका रेस्टोरेन्ट।

 स्पन्दकारिका रेस्टोरेन्ट। 


जैसे अगर सूरज की रोशनी नहीं होती तो यह पूरा विश्व हमारे लिए एक घोर अंधकार होता। लेकिन अघोर सूरज की रोशनी आते ही यह विश्व रंगोत्सव बन गया। पंच विषय (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) सक्रिय हो उठे और हम इस अस्तित्व को अन्न बनाकर उसके भोग में लग गये। लेकिन ऐसा करते करते भूल ही गये कि वह कौन सी रोशनी है जो इस अन्न को प्रकट कर रही है और उसका भोग लगा रही है। 


अगर कमरें में पड़े सोफ़ा, टेबल, कुर्सी, कालीन, इत्यादि में सूरज को पहचान लिया तब तो चेतना ही चेतना नज़र आएगी। रोशनी पहले और वस्तु बाद में नज़र आएगी। अमेरिकन चित्रकार ऐन्ड्रु वेथ के चित्र में दरिया की समीर (breeze) पहले दिखेगी और खिड़की का पर्दा बाद में। मूर्त में अमूर्त प्रकट है। शास्त्रीय और सार समझना होगा तब प्रज्ञा का विस्फोट घटेगा। सबकुछ खुल जाएगा। फिर तो उसमें में ही चलना, उससे ही बोलना, उसको ही खाना, उसको ही खिलाना। कैसे उसे न पहचानूँ, जब सर्वत्र वही है। 


अरूप में निश्चल चेतना और चलायमान रूप में यह पूरा विश्व। शिव शक्ति सामरस्य। यह विश्व उसकी ही अभिव्यक्ति है। पुरूष शक्ति बनकर प्रकट है। इसलिए हम सब तेरह से जो भी करते है, भोगते हैं उसका भोक्ता, भोज्य और भोजन भगवान ही है। वही सुवर्ण ज्योति की प्रत्यभिज्ञा करनी है। स्वयं की प्रत्यभिज्ञा करनी है। स्पन्दकारिका रेस्टोरेन्ट सुविधा करेगी लेकिन ‘जय दुर्गे’ बोलकर निवाला हमें रखना है। वह दोनों जो हमारे माता पिता है, बुलाते ही प्रकट हो जाएँगे। पिता चुप है लेकिन माता उसकी खबरी बनी खड़ी है। अगर पिता ग़ायब हुए तो माता भी ग़ायब हो जाएगी। दोनों एक ही है लेकिन कर्ता और कर्म में विभाजित होकर दो दिखते है। अन्यथा अन्न भी वही अन्न भोक्ता भी वही। पहचान लो। स्पन्दकारिका रेस्टोरेन्ट अभी खुली है। 😊


अहमन्नमहमन्नमहमन्नम्। अहमन्नादो२ऽहमन्नादो२आहमन्नादः। अहं श्लोककृदहं श्लोककृदहं श्लोककृत्। अहमस्मि प्रथमजा ऋता३स्य।पूर्वं देवेभ्योऽमृतस्य ना३भायि।यो मा ददाति स इदेव मा३वाः। अहमन्नमन्नमदन्तमा३द्मि। अहं विश्वं भुवनमभ्यभवा३म्‌।सुवर्न ज्योतीः। य एवं वेद। इत्युपनिषत्‌॥(तैत्तिरीय.५)


मैं अन्न हूँ! मैं अन्न हूँ! मैं अन्न अन्नभोक्ता हूँ! मैं अन्नभोक्ता हूँ! मैं अन्नभोक्ता हूँ! मैं 'श्लोककृत्' (श्रुतिकार हूँ! मैं श्लोककृत् हूँ! मैं श्लोककृत हूँ! मैं 'ऋत' से प्रथमजात हूँ; देवो के भी पूर्व अमृत के हृदय (केन्द्र) में मैं हूँ। जो मुझे देता है, वस्तुतः वही मेरी रक्षा करता है क्योंकि मैं ही अन्न हूँ, अतः जो मेरा भक्षण करता है मैं उसी का भक्षण करता हूँ। मैंने इस सम्पूर्ण विश्व को विजित कर लिया है तथा इसे अपने अधीन कर लिया है, सूर्य के ज्योतिर्मय रूप के समान है मेरा प्रकाश।" जो यह जानता है वह इसी प्रकार गान करता है। वस्तुतः यही है उपनिषद् यही है वेद का रहस्य।


रसो वै सः। वह रसरूप है। God is the essence of all we experience. रसं ह्येवायं लथ्यानन्दी भवति। को ह्येवान्यात् व्य प्राण्यात्।

यदव आकाश आनन्दो न स्यात्। एव ह्येवानन्दयाति। भगवान रस—रूप है। उसी रस को पाकर प्राणी—मात्र आनंद का अनुभव करता है। यदि वह आकाश की भांति सर्व—व्यापक आनंदमय तत्त्व न होता, तो कोन जीवित रहता और कोन प्राणों की चेष्टा करता? वास्तव में वही तत्त्व सबके आनंद का मूलस्रोत है।


आनंद ही स्वातंत्र्य है। स्वातंत्र्य ही आनंद है। उसे खोजने की स्पन्दकारिका रेस्टोरेन्ट स्वयं है। स्वात्मा के प्रकाश को पहचानें और सर्वात्मा का दर्शन कीजिए जो सबके ह्रदय के भीतर बैठा है। चुप है लेकिन अंधा नहीं। सब की खबर रखता है। माँ की चोकी है। 


ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।।भगी.4.24।।


{अर्पण (अर्थात् अर्पण करने का साधन श्रुवा) ब्रह्म है और हवि (शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य) भी ब्रह्म है;  ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है,  वह भी ब्रह्म ही है। इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है।।}



जय दुर्गे। 

हर शिव।  


पूनमचंद 

२९ मई २०२३

Saturday, May 27, 2023

बात अगर निकली हैं तो दूर तलक जाएगी।

 बात अगर निकली हैं तो दूर तलक जाएगी। 


“खाते स्वामी” आत्मानंद जी ने अपनी एन्टार्टिका यात्रा के विराम स्थल अशुआइया की कहानी बताई। किस तरह उनको रेस्टोरेन्ट में खाने का निवाला मुँह में रखते ही ललिता त्रिपुर महासुंदरी और शिव की हाज़िरी महसूस होती थी। एक देख रहा था दूसरी भोग लगा रही थी और व्यक्ति अहंकार उस प्रकिया में विह्वलता और अचरज के सिवा और कुछ कर ही नहीं सकता था। उन्होंने ने समाधान शिक्षा दी की पहला निवाला और पहला घूँट उनको अर्पण करने से वह दोनों हमारा खाना बन जाएँगे। 

वह ‘खाना’ अर्थात् यह दृश्यमान जगत जिसे हम पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और मन बुद्धि अहंकार के तेरह साधनों से भोग रहे है। यह विश्व वास्तव में वही विराट रूप ललिता त्रिपुर सुंदरी है और उसकी चेतना स्वयंभू शिव। वही स्पन्द है। खाना (विश्व) है तो वह दोनों मौजूद, वर्ना ग़ायब। अगर पहले निवाले का अभ्यास लगातार करते रहेंगे तो उनकी हाज़िरी हक़ीक़त बनती जाएगी। हक़ीक़त क्या हक़ीक़त है। वही है। और कुछ भी नही। शक्ति और शिव। शिव शक्ति। उमामहेश्वर, राधाकृष्ण, सीताराम। कुछ भी नाम दे दो। पकड़ना को एक ही को है। 

पकड़ना क्या? क्षोभ से बाहर निकालो। आत्मबल स्पर्श की ही तो ज़रूरत है। स्वरूप में संकोच विकास कैसा? बहिर्मुख विश्वात्मकता है और अंतर्मुख स्वात्म संकोच। उच्छलन और किंचित् चलन.. स्फूरणा चैतन्य का स्वभाव है। स्वात्म उच्छलन आत्मक। स्वात्मा पर ध्यान दो। सहजता पर ध्यान दो। सहजता अकृत्रिमता (original) और यथार्थ (real) है। चैतन्य में रहना सीखना है। चैतन्य में खाना पीना सीखना है। तेरह का सब खेल चैतन्य में रहकर करना है। तेरा तेरा करना है और मेरा मेरा मिटाना है। 

तभी तो विद्या प्रकट होगी। प्रत्यभिज्ञा होगी। आनंदमयी है, अपने आप चमक उठेगी। फिर हमें प्रमाण के लिए किसी को पूछने नहीं जाना है।  फिर शास्त्रों की ज़रूरत नहीं। शास्त्र बन जाएँगे। 

शक्ति के प्रति जागरूक बनते ही वार्तालाप शुरू हो जाएगा। यहाँ कोई मरा नहीं। अमृत का सरोवर (अमृतसर) है। चैतन्य है। चमत्कृत है।नित्य नवीन है। नित्योदित है। चिद्रुप है। 

इसलिए यहाँ कुछ भी गर्हित नहीं। ना मंदिर ना मसजिद। ना ऊँच ना नीच। सबकुछ शिवशक्तिरूपा सामरस्य है। वही है तो फिर विरोध किसका? 

स्वानन्द रस क़िल्लोलै रूल्लसन। शिवशक्ति के किल्लोल में तरबतर हो उठे। 

अथग, भगीरथ, सहज, अकृत्रिम, यथार्थ, प्रयास करें। सुंदरी और सुंदर हम ही है। आत्मबल स्पर्श की कामना कीजिए और क्षोभ सब छोड़िए। 

पूनमचंद 
२७ मई २०२३

Thursday, May 25, 2023

हिलो मत।

 हिलो मत। 


हम शरीर नहीं है। 

हम मन नहीं है। 

हम बुद्धि नहीं है। 

हम अहंकार नहीं है। 

हम इन्द्रियवर्ग नहीं है। 


हम इन सबके स्वामी चैतन्य है।  


चैतन्य शांत है। स्वाभाविक है। अकृत्रिम है। सहज है। प्राप्य है। उसको पाने का कोई प्रयास नहीं करना है। 


लेकिन शांत समुद्र में क्षोभ हो रहा है। कौन कर रहा है? शरीर बिना कारण, बिना जागृति हिल रहा है, भटक रहा है। अस्थिर है। क्यूँ। क्यूँकि अंदर से मन विकल्पों की जाल में उसे हिला रहा है, भटका रहा है। बुद्धि अपने निश्चय बदल रही है। अहंकार चोट खाता है और उपद्रव मचा रहा है। इन्द्रिय समूह अशक्त होता जा रहा हा लेकिन प्यासा है। यह चार नौकरों को जिसको राजा ने अपनी खेल क्रीड़ा में शामिल किया वही उन्हें नचा रहे है। सवारी राजा की निकलनी चाहिए, लेकिन नौकरों सवारी निकल रही है। 


राजा है लेकिन राजत्व भूल गये है। सर्व ज्ञातृत्व और कर्तृत्व के धनी है लेकिन मन की मर्ज़ी से एक पत्ता भी हिला नहीं सकते। 


क्या राजत्व वापस चाहिए? 

क्या क्षोभ से मुक्ति चाहिए? 

क्या नौकरों से छूटकारा चाहिए? 


तो हिलो मत। 


चैतन्य चंचल नहीं है। उसी में ध्यान की पाल्थी मार लेना है। प्रलीन होना है। मन तो रहेगा। बुद्धि भी रहेगी। अहंकार रहेगा। इन्द्रियवर्ग भी रहेगा। लेकिन आप उसमें जो आज हिलोरें ले रहे हैं वह बदल जाएगा। आप में वह हिलोरें लेने लग जाएँगे। आप के उपर नीचे होने में वह भी उपर नीचे होते रहेंगे। नौकर की तरह पुनः आज्ञाकारी हो जाएँगे। तब आप सहज होंगे। अकृत्रिम होंगे। तब जो सोचोगे वही घटेगा। सर्व ज्ञातृत्व और कर्तृत्व के स्वामी हो, वही होगा जो आप सोचोगे। 


सावधान। विशेष स्थिति की कल्पना में मत लग जाना। जैसे बाक़ी सब निम्न रहेंगे और आप विशेष हो जाएँगे। त्रिकाल ज्ञानी। पूरी दुनिया जैसे आपकी सोच से चलेगी।  ग़लत। आप सामान्य स्थिति को प्राप्त होंगे। पूरा अस्तित्व आपका अंग हो जाएगा। उसका हर ज्ञातृत्व कतृत्व आपका हो जाएगा। अभेद हो जाएगा। चैतन्यघन हो जाएगा। होगा क्या, है। 


बस हिलो मत। 


पूनमचंद 

२५ मई २०२३

Wednesday, May 24, 2023

 उद्यमो भैरवः। 


हम मनुष्य है। पृथ्वी पर है। वायुमंडल का सहारा है। ओक्सिजन हमारा जीवन है। पर वह ओक्सिजन लेने की और कार्बन डाइआक्साइड छोड़ने की शक्ति कहाँ से आती है? पंच तत्वों से बने हमारे यह भौतिक शरीर जैसे हवा के दरिये में नाक लगाकर इधर-उधर भागदौड़ रहे है। जिस दिन पुर्यष्टक की शक्ति ख़त्म हुई नाक जमाकर ओक्सिजन लेने का मानो खेल ख़त्म। बाद में क्या होगा किसी को नहीं पता? जो मरा वह मरने के बाद क्या हुआ वह बताने लौटा नहीं और जो ज़िंदा है उसे मौत का अनुभव नहीं। स्वभाव और संस्कारों के विभाजन से हिन्दू उसे पुनर्जन्म के चक्कर में भेजेगा। ईसाई न्याय के दिन की और मुसलमान क़यामत के दिन की प्रतीक्षा करेगा। हिन्दू की गाड़ी कर्म के सिद्धांत पर चलती रहेगी और ईसाई मुसलमान पृथ्वी हॉल में अपनी अपनी परीक्षा देकर परिणाम के दिन का इंतज़ार करेगा। तीनों ही स्थिति में आत्मा या रूह को नश्वर नहीं माना। तीनों ही ईश्वर या अल्लाह की सत्ता को क़बूल करते है। तीनों उसकी पूजा, प्रार्थना और नमाज़ करते है।  हिन्दू का ईश्वर यत्र तत्र सर्वत्र होने से इस लोक में अपने भीतर खोज सकता है अथवा देव देवियों की पूजा द्वारा परलोक का अनुसंधान कर लेता है। ईसाई और मुसलमान के लिए न्यायाधीश किसी सातवें आसमान पर बैठा है जो न्याय कर इनाम देगा या शिक्षा करेगा। स्वर्ग नर्क का विभाग तीनों धर्मों ने रखा है। 


हिन्दूओं का भगवान भीतर बैठा है इसलिए वह उससे कहीं दूर भाग ही नहीं सकता। वह जहां भी जायेगा, जो भी करेगा, और कोई देखे न देखें, लेकिन खुद को देखने से छिपा नहीं सकता। वही चित्रगुप्त (चित्त) है जो हिसाब रखता है, और अपनी गति नियत करता है।


कौन है यह महाशय, जो आँख खोलकर, अविराम, अहर्निश देखता रहता है? कौन है जो आँख की भी आँख, काम के भी कान, नाक का भी नाक, दशेन्द्रियों, मन, बुद्धि, अहंकार का स्वामी और प्राणों का भी प्राण है? 


अहं। अहंकार में वह खंडित हुआ दिखता है लेकिन अहंभाव में वह दरिया है। लबालब चैतन्यघन दरिया। जैसे मेरा ओक्सिजन और आपका ओक्सिजन कोई अलग-अलग नहीं, मात्र ग्रहण करने के नाक और फेफड़े अलग-अलग होने से अलगता दिखती हैं वैसे ही मेरा चैतन्य और आपका चैतन्य अलग-अलग नहीं। एक ही चैतन्य बोध सत्ता है जिसके प्रकाश से यह शक्ति खेल चल रहा है। 


इस प्रकाश की पाँच शक्ति है। इच्छा, ज्ञान, क्रिया, निग्रह और अनुग्रह। परम चैतन्य दरिया की स्थिति में यह शक्तियाँ असीम है और बिंदुरूप जीव चैतन्य में सीमित। परंतु दोनों ही स्थिति में चैतन्य सत्ता में कोई बदलाव नहीं। जैसे बड़ी आग होगी या एक चिनगारी, अग्नि की दाहकता नहीं बदलती, वैसे चैतन्य सत्ता शिवभाव और जीवभाव दोनों में निहित है। 


सवाल ज्ञान/बोध के संकोच और विस्तार का है। चयन है अपना अपना, संकोच करें या विस्तार। संकोच करने से तो यह जगत की जीवन लीला चल रही है। 


शक्ति द्विमुखी है, दोनों ही स्थिति में तटस्थ है। जैसा चयन करेंगे उसके अनुरूप ईंधन पहुँचायेगी। शक्ति स्वातंत्र्य है। वामेश्वरी रूप में अस्तित्व बनकर खड़ी है और खेचरी, गोचरी, दिग्चरी, भूचरी रूप से शिव के संकोच को जीव के खेल में और विस्तार को शिवभाव की शक्ति देती रहती है। किस ओर जाना है, हमें तय करना है। अपने वाडे में बंद होकर भोगों की चुसकियाँ लेते रहना है या सामरस्य और सर्व समावेश्य से शिवभाव धारण करना है। 


असीम कालातीत और देशातीत है। सीमित को काल खायेगा और देश भटकेंगा। अगर पुनरपि जननम् पुनरपि मरणम् में मज़ा ही है तो कुछ करने की ज़रूरत नहीं। हाँ, खबर रहे कि इस बार जो मिला है वह दूसरी बार न भी हो। इस बार मंदिर के पुजारी हो दूसरी बार भिखारी हो सकते हो। इस बार हिन्दू हो दूसरी बार मुसलमान हो सकते हो। इस बार मनुष्य हो दूसरी बार भेड़ बकरी गाय कीट पतंग में नम्बर लग सकता है। भगवान बुद्ध ने इसलिए ही इसे दुःखालय माना है। दुःख है, तृष्णा दुःख का कारण है, तृष्णा के त्याग से दुःख मुक्ति है और निर्वाण के लिए अष्टांग मार्ग है। 


चयन अपना है। पुनरपि जननम में मज़ा है तो बस चलते चलो। अगर प्रश्न है तो ज़रा ठहरो। परीक्षण करो। क्या हो रहा है यह सब? क्यूँ हो रहा है? यहाँ पृथ्वी लोक पर हर क्षण अनंत जीव प्रकट हो रहे हैं और अनंत नष्ट हो रहे है।व्यक्त अव्यक्त की यह श्रृंखला ख़त्म ही नहीं होती। पूरे ब्रह्मांड में रेत के कण जैसी हमारी पृथ्वी और उसका एक छोटा तिनका हम कैसे विराट को लेकर विराट में छिपे बैठे है? उसे प्रकट करना है। उसकी प्रत्यभिज्ञा, पहचान करनी है। 


हे विराट के सागर, यूँ क्यूँ मायूस बनकर बैठा है? “उत्तिष्ठत, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत।” उठो, जागो और स्वरूप बोध की प्राप्ति में लग जाओ। जाग जाओ। जागते ही भोर है। 


उद्यमो भैरवः। 

विस्मयो योगभूमिका। 

वितर्क आत्मज्ञानम्। 

गुरुरुपायः। 

चैतन्यमात्मा। 


पूनमचंद 

२४ मई २०२३

Monday, May 8, 2023

सत्य की खोज।

सत्य की खोज। 


सत्य की खोज भारत की प्राचीनतम धरोहर है। 


कपिल मुनि ने सृजन का विवेचन २५ तत्वों की संख्या गणना से किया था। परंतु मन बुद्धि की सीमाओं को लांघकर बुद्ध ने मनुष्य जीवन के चार आर्य सत्य (दुःख, दुःख का कारण, दुःख का अंत, दुःख के अंत का मार्ग) को निरूपण कर अष्टांग मार्ग (सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी, सम्यक कर्मात, सम्यक आजीविका, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि) से निर्वाण पथ का निर्माण किया था। दूसरी और काशी से मुनि पतंजलि ने तन और मन के जोड़/योग पर ज़्यादा ध्यान दिया और मुक्ति के लिए योगसूत्र से अंतरंग और बहिरंग अष्टांग योग (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि) निरूपित किये। 


एक तरफ़ वैष्णवों का द्वैत था और दूसरी तरफ़ आदि शंकराचार्य का अद्वैत। वेदांत बेजोड़ है। 


जब पूरा कश्मीर बौद्धमय था तब ९वी शताब्दी में वसुगुप्त ने 

कश्मीर शैव मत का प्रसार किया था। जिसका उद्गम केन्द्र थे मुनि दुर्वासा। कश्मीर शैव कुल मिलाकर बौद्ध, सांख्य, द्वैत, अद्वैत को मिलाकर अस्तित्व और अस्तित्व के पार के रहस्य को उद्घाटित करता है। इसमें यम, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, तारक, ईश्वर प्रणिधान (भक्ति) और समाधि को महत्व दिया गया है। परंतु इसके अर्थ में पतंजलि के अर्थ से कुछ भिन्नता भी है। यम यहाँ अहिंसा का है। एक बाहरी कि गई प्रधान हिंसा का निषेध और दूसरी मन बुद्धि के स्तर की आंतरिक हिंसा का भी निषेध। तारक यहाँ धारणा से अलग है, विवेकशील, पारलौकिक तर्क का तड़का है। त्रिक तर्क और भक्ति का अनोखा संगम है। निचले स्तर से आणवोपाय (यम, नियम, आसन, प्राणायाम इत्यादि) से शुरू कर मध्यम शाक्तोपाय (द्वैत, कुंडलिनी योग) से गुजरते उपर शांभवोपाय (अद्वैत) को लांघकर कोई विरला अनुपाय (अद्वय-परम) की यात्रा कर अपने मनुष्य जीवन को धन्य कर लेता है। 


आचार्य अभिनव गुप्त कहते हैं कि यह अस्तित्व शिवशक्ति का स्फार (विस्तार) है, इसलिए शिवशक्ति का ज्ञान माया के कारण अपूर्ण हो सकता है लेकिन उसका अभाव नहीं हो सकता। इसी अपूर्ण ज्ञान की सीडी को पकड़कर तर्क और भक्ति से आगे बढ़ते हुए पशुभाव से मुक्ति और पतिभाव में स्थिति ही हमारा लक्ष्य है। सत्य की खोज ऐसी है की पूरी न हो तब तक चलती रहेगी। सत्य तो मौजूद ही है बस उसे उजागर करना है, अपनी चैतन्यता में। 


पूनमचंद 

८ मई २०२३

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