सनातन बुद्धत्व।
श्रीमदभगवद्गीता (ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी) ने सांख्य, योग और वेदांत का संयोजन कर कर्म, ज्ञान और भक्ति मार्ग से चित्त के गुण विकास द्वारा परमात्मा की शरण लेकर अक्षर शांति/धाम/सुख पाकर मुक्ति का मार्ग दिखाया है। इसलिए सांख्य और योग गीता से प्राचीन हुए।
प्राचीन भारत में साठ से अधिक दर्शन प्रचलित रहे है और सबका लक्ष्य मनुष्य चित्त को निरावरण कर निर्मल प्रकाश का साक्षात्कार कर मुक्ति रहा है। जिसमें वैदिक के साथ साथ बौद्ध, जैन, नाथ, वैष्णव, शैव, शाक्त इत्यादि धाराओं सम्मिलित हो जाती है। सनातन इस प्रकार वैदिक और अवैदिक सभी दर्शनों का संगम है।
कपिल मुनि (ईसा पूर्व छठी शताब्दी) का सांख्य (पुरूष-प्रकृति) और पतंजलि (ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से ईसा चौथी शताब्दी) के योगसूत्र का अष्टांगः यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि योग प्रसिद्ध है। कपिल मुनि का प्रभाव बौद्ध और जैन दर्शनों भी है।
लेकिन पतंजलि के योगसूत्र के साथ साथ बौद्ध वज्रयान के तंत्र को भी समझना होगा जो कश्मीर से तिब्बत तक पूरे हिमालय पर्वतीय प्रदेश में प्रचलित था।
पतंजलि के अष्टांग में यम नैतिक जीवन है, जिसमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह का समावेश है। जैनियों के तपव्रत से मिलता है। नियम व्यक्तिगत नैतिकता के स्वरूप में शौच (तन और मन की शुद्धि), संतोष, तप, ईश्वर प्राणिधान है। आसन शरीर नियंत्रण है। प्राणायाम प्राण नियंत्रण है। प्रत्याहार इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना। धारणा एकाग्र चित्त होना, ध्यान और समाधि द्वारा आत्मा से जुड़ना है। चित्त की एक और संसार है, बंधन है और दूसरी और निराकरण प्रकाश है, मुक्ति है।
बौद्धों ने षडंग योग का लक्ष्य था बुद्धत्व की प्राप्ति। निरावरण प्रकाश को पाना। इसे ही सम्यक् सम्बोधि या महाबोधि नाम दिया गया है। बौद्ध षडंग योग में प्रत्याहार, ध्यान, प्राणायाम, धारणा, अनुस्मृति (तर्क) और समाधि क्रम है। जो निरावरण प्रकाश के बुद्धत्व की सिद्धि पाने के साधन है।
प्रत्याहार मंत्र सिद्धि है। दशानन-दस इन्द्रियों जो की वृत्ति लाभ के लिए अपने अपने विषयों में बहिर्मुख प्रवृत्त है उसे स्वरूप की ओर अंतर्मुख करना प्रत्याहार है। विषय ग्रहण बंद होने से और प्रत्याहार के निरंतर अभ्यास से जब बिंब दर्शन की सिद्धि होती है तब ध्यान का प्रारंभ होता है।
ध्यान में पंच कामरूप भावो की बुद्धरूप में भावना करनी है। बाह्यभाव कट जाने से चित्त दृढ़ होता है और बिंब से चित्त के तादात्म्य से अनिमेष/दिव्यचक्षु की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार दिव्य श्रोव आदि का उदय होता है। तब प्राणायाम में प्रवेश होता है।
प्राणायाम में वाम और दक्षिण नाड़ीयो में प्रवहणशील दो श्वास प्रवाह को एकभूत कर पिण्ड आकार में बदलकर पिण्ड को मध्य मार्ग में संचारित कर क्रमशः उपर उठाकर नाभाग्र में धारण करना है। प्राण को नाभि, ह्रदय, कण्ठ, ललाट और उष्णीय कमल बिंदु तक ले जाकर स्थिति लाभ करना है। प्राणायाम कि सिद्धि धारणा अभ्यास का अधिकार प्राप्त होता है।
इष्ट मंत्र प्राण को ह्रदय में ध्यान कर उपर उठाकर ललाट में बिंदु स्थान में निरुद्ध करने से प्राणवायु स्थिर होता है, नाभि चक्र से चाण्डाली/कुण्डली उपर उठती है और उष्णीय कमल कर्णिका में पहुँचती है। धारणा सिद्धि से चाण्डाली उज्ज्वलता प्राप्त करती है। ग्राहक चित्त शून्यता बिंब ग्राह्य में समाविष्ट हो जाता है। बिंदु धारणा से गतिशून्य प्राण एकाग्र होता है। वृत्ति संवृति सत्वाकार हो जाती है। योगी बोधिसत्व अवस्था में पहुँचता है।
फिर आता है पंचम पड़ाव अनुस्मृति या तर्क का। संवृति सत्वाकार वृत्ति को आकाशव्यापी रूप में दर्शन करना है। त्रिकालस्थ समग्र भुवन का दर्शन होता है। परिणाम स्वरूप विमल आभामंडल का आविर्भाव होता है जिसमें योगी का प्रवेश होता है।
ऐसे विकल्प शून्य चित्तवाले योगी के लोमकूप से महारश्मि निकलती है। ग्राह्य और ग्राहक चित्त एक हो जाता है और अक्षर सुख का आविर्भाव होता है। निखिल आवरण की निवृत्ति होती है। अचानक एक महाक्षण के महाज्ञान निष्पत्ति होकर समाधि आविर्भूत होती है।महाज्ञान का उदय होता है। चल अचल सारे प्रतिभासों का उपसंहार होता है। वह सिद्ध रस में सबकुछ ग्रास कर स्वयं अखंडरूप में बिराजता है। अद्वय रूप प्रकाशता है। यही समाधि है। यही बुद्धत्व है। बुद्ध आत्मा का परम स्वरूप है।
कश्मीर नौवीं शताब्दी में शैव मत के विकास के पहले बौद्ध धर्ममय था। लोग नागार्जुन और धर्मकीर्ति के उपदेश से प्रभावित थे। नौंवी शताब्दी में शैव आचार्य वसुगुप्त ने शिवसूत्र और स्पन्दकारिका की रचना की। जिसे आगे जाकर आचार्य अभिनवगुप्त (१०-११ वी शताब्दी) ने तंत्रलोक इत्यादि सुंदर रचनाओं के माध्यम से और फैलाया। कौल और त्रिक दर्शन आज भारत में कश्मीर शैवीजम के नाम से प्रचलित हो रहा है। शिव ही अपने स्वातंत्र्य चयन से मलावृत संसारी जीव बना है, जो मलावरण से निरावरण होते ही अपने शिवस्वरूप में स्वस्थ होकर मुक्त हो जाता है।
कश्मीर शैवीजम में तत्व ३६ और योग षडंग है। ३६ तत्व में कपिल सांख्य के २५ में ११ नवीन जोड़े है। कपिल के २५ तत्वों के उपरांत पाँच शुद्ध तत्व (शिव, शक्ति, सदाशिव, ईश्वर, शुद्ध विद्या), छ अशुद्ध तत्व (माया, पाँच कंचुकः कला, विद्या, राग, नियति, काल) को मिलाकर ३६ का आँकड़ा बनता है। षडंग में क्रम प्राणायाम, धारणा, तर्क, ध्यान, समाधि, प्रत्याहार है। प्राणायाम पतंजलि के सूत्रों जैसा है। धारणा बिंदु और नाद की है। तर्क स्वीकार अस्वीकार का विवेक है। ध्यान शिव स्वरूप का है। समाधि निश्चलता है। प्रत्याहार मन निवृत्ति है। मोक्ष के चार उपाय है। आनवोपाय, शक्तोपाय, शाम्भवोपाय, अनुपाय। प्रत्यभिज्ञा दर्शन है।
गहराई में जिस दर्शन का भी अभ्यास करें, लक्ष्य एक ही नज़र आता है। मनुष्य चित्त को बहिर्मुख विषयों से मुक्त कर निरावरण, दिगंबर, शुद्ध, अद्वय, चिद्रूप में परिवर्तित करना। आत्मा के निर्मल प्रकाशरूप में स्थित होना। यही सत्य है। चित्त का बंधन, चित् मुक्ति।
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पूनमचंद
२९ जून २०२३
साभारः तांत्रिक साधना और सिद्धांत, महामहोपाध्याय डॉ. श्रीगोपीनाथ कविराज।