Friday, June 30, 2023

मातृका-१

 मातृका-१


महाभारत की एक कहानी है। सत्यवती (मत्स्यगंधा) और हस्तिनापुर नरेश शांतनु के बेटे विचित्रवीर्य की शादी नहीं हो रही थी। दूसरी ओर काशी नरेश काश्य ने अपनी तीन पुत्रियाँ अंबा, अंबिका और अंबालिका का स्वयंवर रचा था। तीनों का देवव्रत भीष्म ने अपहरण किया। अंबा को शल्व से प्रेम था इसलिए उसे छोड़कर अंबिका और अंबालिका की शादी विचित्रवीर्य से हुई। उसे क्षय की बीमारी थी इसलिए सात साल तक दोनों पत्नियों के साथ रहने पर भी उसे संतान नहीं हुई। आख़िर वेद व्यास के द्वारा नियोग से धृतराष्ट्र और पांडु हुए जिनके कौरव पांडवों ने महाभारत खेला। श्रीकृष्ण केन्द्र में रहे। धर्म (युधिष्ठिर) का जय हुआ और अधर्म (दुर्योधन) का नाश हुआ। 


प्राचीन भारत वर्ष में काशी, कश्मीर, कन्नौज, उज्जैन, कांची, तक्षशिला, नालंदा, इत्यादि ज्ञान के केन्द्र रहे है। लेकिन हस्तिनापुर-दिल्ली ज्ञान केंद्र के रूप में कभी उभर नहीं आई थी। अब उपर्युक्त कहानी का रूपक समझते है। 


काशी ज्ञान प्रकाश का केन्द्र था, जिसकी अंबा, अंबिका, अंबालिका मातृका शक्ति थी। भीष्म उन्हें अपने राज्य के हित विकास के लिए उठा तो ले आए और अंबिका और अंबालिका को राज्याश्रय भी दिया लेकिन वर विचित्रवीर्य में योग्यता नहीं थी इसलिए उसका विकास नहीं हुआ। फिर विकल्प न रहने पर वेद व्यास से नियोग करवाया लेकिन संतति अंध और पांडु रोगी निकली। इसलिए वेदों के प्रमुख देव यम, वायु, इंद्र, अश्विनीकुमारों का सहारा लेकर मंत्रवीर्य से सद्गुणों रूपी पांडवों की उत्पत्ति हुई। लेकिन उनका विकास होने तक अहंकार के दुर्गुण पुत्रों का बल इतना बढ़ चुका था कि कुरुक्षेत्र का युद्ध लड़ना पड़ा। आत्मा श्रीकृष्ण को रथी बनना पड़ा, जिसने पंचशक्ति के सद्गुणों के द्वारा शत दुर्गुणों का संहार किया। 


उत्पत्ति का केन्द्र बिंदु है। बिंदु के दो त्रिकोण है। एक ऊर्ध्व और दूसरा अधः। साधक का चित्त जिस ओर चलेगा उस त्रिकोण की ओर उसका विकास होगा। मध्यमा से पश्यन्ति अथवा वैखरी की ओर। दोनों ही स्थितियों में मातृका शक्ति केन्द्र में है। शब्द, अर्थ और ज्ञान की तीनों भूमि पर कदम रखना है और आगे बढ़कर परावाक् (केन्द्र) में स्थित होना है। मातृका से बनी है माया, उसे लांघना इतना सरल नहीं। 


पूनमचंद 

३० जून २०२३

Thursday, June 29, 2023

सनातन बुद्धत्व।

सनातन बुद्धत्व। 


श्रीमदभगवद्गीता (ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी) ने सांख्य, योग और वेदांत का संयोजन कर कर्म, ज्ञान और भक्ति मार्ग से चित्त के गुण विकास द्वारा परमात्मा की शरण लेकर अक्षर शांति/धाम/सुख पाकर मुक्ति का मार्ग दिखाया है। इसलिए सांख्य और योग गीता से प्राचीन हुए। 


प्राचीन भारत में साठ से अधिक दर्शन प्रचलित रहे है और सबका लक्ष्य मनुष्य चित्त को निरावरण कर निर्मल प्रकाश का साक्षात्कार कर मुक्ति रहा है। जिसमें वैदिक के साथ साथ बौद्ध, जैन, नाथ, वैष्णव, शैव, शाक्त इत्यादि धाराओं सम्मिलित हो जाती है। सनातन इस प्रकार वैदिक और अवैदिक सभी दर्शनों का संगम है। 


कपिल मुनि (ईसा पूर्व छठी शताब्दी) का सांख्य (पुरूष-प्रकृति) और पतंजलि (ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से ईसा चौथी शताब्दी) के योगसूत्र का अष्टांगः यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि योग प्रसिद्ध है। कपिल मुनि का प्रभाव बौद्ध और जैन दर्शनों भी है। 


लेकिन पतंजलि के योगसूत्र के साथ साथ बौद्ध वज्रयान के तंत्र को भी समझना होगा जो कश्मीर से तिब्बत तक पूरे हिमालय पर्वतीय प्रदेश में प्रचलित था। 


पतंजलि के अष्टांग में यम नैतिक जीवन है, जिसमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह का समावेश है। जैनियों के तपव्रत से मिलता है। नियम व्यक्तिगत नैतिकता के स्वरूप में शौच (तन और मन की शुद्धि), संतोष, तप, ईश्वर प्राणिधान है। आसन शरीर नियंत्रण है। प्राणायाम प्राण नियंत्रण है। प्रत्याहार इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना। धारणा एकाग्र चित्त होना, ध्यान और समाधि द्वारा आत्मा से जुड़ना है। चित्त की एक और संसार है, बंधन है और दूसरी और निराकरण प्रकाश है, मुक्ति है। 


बौद्धों ने षडंग योग का लक्ष्य था बुद्धत्व की प्राप्ति। निरावरण प्रकाश को पाना। इसे ही सम्यक् सम्बोधि या महाबोधि नाम दिया गया है। बौद्ध षडंग योग में प्रत्याहार, ध्यान, प्राणायाम, धारणा, अनुस्मृति (तर्क) और समाधि क्रम है। जो निरावरण प्रकाश के बुद्धत्व की सिद्धि पाने के साधन है।


प्रत्याहार मंत्र सिद्धि है। दशानन-दस इन्द्रियों जो की वृत्ति लाभ के लिए अपने अपने विषयों में बहिर्मुख प्रवृत्त है उसे स्वरूप की ओर अंतर्मुख करना प्रत्याहार है। विषय ग्रहण बंद होने से और प्रत्याहार के निरंतर अभ्यास से जब बिंब दर्शन की सिद्धि होती है तब ध्यान का प्रारंभ होता है। 


ध्यान में पंच कामरूप भावो की बुद्धरूप में भावना करनी है। बाह्यभाव कट जाने से चित्त दृढ़ होता है और बिंब से चित्त के तादात्म्य से अनिमेष/दिव्यचक्षु की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार दिव्य श्रोव आदि का उदय होता है। तब प्राणायाम में प्रवेश होता है। 


प्राणायाम में वाम और दक्षिण नाड़ीयो में प्रवहणशील दो श्वास प्रवाह को एकभूत कर पिण्ड आकार में बदलकर पिण्ड को मध्य मार्ग में संचारित कर क्रमशः उपर उठाकर नाभाग्र में धारण करना है। प्राण को नाभि, ह्रदय, कण्ठ, ललाट और उष्णीय कमल बिंदु तक ले जाकर स्थिति लाभ करना है। प्राणायाम कि सिद्धि धारणा अभ्यास का अधिकार प्राप्त होता है। 


इष्ट मंत्र प्राण को ह्रदय में ध्यान कर उपर उठाकर ललाट में बिंदु स्थान में निरुद्ध करने से प्राणवायु स्थिर होता है, नाभि चक्र से चाण्डाली/कुण्डली उपर उठती है और उष्णीय कमल कर्णिका में पहुँचती है। धारणा सिद्धि से चाण्डाली उज्ज्वलता प्राप्त करती है। ग्राहक चित्त शून्यता बिंब ग्राह्य में समाविष्ट हो जाता है। बिंदु धारणा से गतिशून्य प्राण एकाग्र होता है। वृत्ति संवृति सत्वाकार हो जाती है। योगी बोधिसत्व अवस्था में पहुँचता है।


फिर आता है पंचम पड़ाव अनुस्मृति या तर्क का। संवृति सत्वाकार वृत्ति को आकाशव्यापी रूप में दर्शन करना है। त्रिकालस्थ समग्र भुवन का दर्शन होता है। परिणाम स्वरूप विमल आभामंडल का आविर्भाव होता है जिसमें योगी का प्रवेश होता है। 


ऐसे विकल्प शून्य चित्तवाले योगी के लोमकूप से महारश्मि निकलती है। ग्राह्य और ग्राहक चित्त एक हो जाता है और अक्षर सुख का आविर्भाव होता है। निखिल आवरण की निवृत्ति होती है। अचानक एक महाक्षण के महाज्ञान निष्पत्ति होकर समाधि आविर्भूत होती है।महाज्ञान का उदय होता है। चल अचल सारे प्रतिभासों का उपसंहार होता है। वह सिद्ध रस में सबकुछ ग्रास कर स्वयं अखंडरूप में बिराजता है। अद्वय रूप प्रकाशता है। यही समाधि है। यही बुद्धत्व है। बुद्ध आत्मा का परम स्वरूप है। 


कश्मीर नौवीं शताब्दी में शैव मत के विकास के पहले बौद्ध धर्ममय था। लोग नागार्जुन और धर्मकीर्ति के उपदेश से प्रभावित थे। नौंवी शताब्दी में शैव आचार्य वसुगुप्त ने शिवसूत्र और स्पन्दकारिका की रचना की। जिसे आगे जाकर आचार्य अभिनवगुप्त (१०-११ वी शताब्दी) ने तंत्रलोक इत्यादि सुंदर रचनाओं के माध्यम से और फैलाया। कौल और त्रिक दर्शन आज भारत में कश्मीर शैवीजम के नाम से प्रचलित हो रहा है। शिव ही अपने स्वातंत्र्य चयन से मलावृत संसारी जीव बना है, जो मलावरण से निरावरण होते ही अपने शिवस्वरूप में स्वस्थ होकर मुक्त हो जाता है। 


कश्मीर शैवीजम में तत्व ३६ और योग षडंग है। ३६ तत्व में कपिल सांख्य के २५ में ११ नवीन जोड़े है। कपिल के २५ तत्वों के उपरांत पाँच शुद्ध तत्व (शिव, शक्ति, सदाशिव, ईश्वर, शुद्ध विद्या), छ अशुद्ध तत्व (माया, पाँच कंचुकः कला, विद्या, राग, नियति, काल) को मिलाकर ३६ का आँकड़ा बनता है। षडंग में क्रम प्राणायाम, धारणा, तर्क, ध्यान, समाधि, प्रत्याहार है। प्राणायाम पतंजलि के सूत्रों जैसा है। धारणा बिंदु और नाद की है। तर्क स्वीकार अस्वीकार का विवेक है। ध्यान शिव स्वरूप का है। समाधि निश्चलता है। प्रत्याहार मन निवृत्ति है। मोक्ष के चार उपाय है। आनवोपाय, शक्तोपाय, शाम्भवोपाय, अनुपाय। प्रत्यभिज्ञा दर्शन है। 


गहराई में जिस दर्शन का भी अभ्यास करें, लक्ष्य एक ही नज़र आता है। मनुष्य चित्त को बहिर्मुख विषयों से मुक्त कर निरावरण, दिगंबर, शुद्ध, अद्वय, चिद्रूप में परिवर्तित करना। आत्मा के निर्मल प्रकाशरूप में स्थित होना। यही सत्य है। चित्त का बंधन, चित् मुक्ति। 


🕉️


पूनमचंद 

२९ जून २०२३


साभारः तांत्रिक साधना और सिद्धांत, महामहोपाध्याय डॉ. श्रीगोपीनाथ कविराज।

Friday, June 23, 2023

शिवोहं-पूर्णोहं।

 शिवोहं-पूर्णोहं। 


शिव का संकोच जीव (पशु) है और पशु का प्रसार शिव। शिव का जब संकोच होता है शक्ति का प्रसार होता है, सृष्टि होती है। शक्ति का संकोचन होता है तो सृष्टि का संहार होता है। एक क्षीण होता है दूसरा पुष्ट होता है। 


इस संकोचन विस्तरण  चक्र का प्रयोग काल की क्रियाओं में भी किया गया है। जैसे की दिन बढ़ने की या सूर्य प्रकाश बढ़ने की छह मासिक प्रसार स्थिति को उत्तरायण गति और घटने की संकोच स्थिति दक्षिणायन गति कहते है। चंद्र की कलाओं के ज़्यादा होने का पखवाड़ा शुक्ल पक्ष और कम होने का पखवाड़ा कृष्ण पक्ष कहते है। हमारे श्वासों की गति में अंदर जा रहा अपान अनुलोम है और बाहर निकल रहा प्राण विलोम है। जैनियों का काल चक्र भी सुख और दुख के प्रसार और संकोच की गति से जाना जाता है। वैदिक संवत्सर चक्र अथवा युग-काल गणना भी शक्ति के प्रसार और संकोच से नापी जाती है। 


लेकिन प्रसार संकोच की इस बहिर्गति और अंतर्गति के विश्वात्मक (immanent) खेल में उसका मध्य बिंदु, उसकी धुरी, अविभक्त रहती है। साक्ष्य और साम्य रहती है। यही विश्वातीत (transcendent) पूर्ण (absolute), अभिन्न, स्वप्रकाश के सामरस्य का साक्षात्कार करना है। तभी तो इस अनेकाकारता की एकाकारता होगी। वही स्वरूप ज्ञान है। वही मुक्ति की सबको कामना है। 


शक्ति (सृष्टि) और शिव (धुरी) दोनों सत्य है। बस भेद-अभेद का फ़र्क़ है। उस भेद को लांघने शक्ति का  जागरण चाहिए। शक्ति जगाने सोयी कुण्डली (आधार शक्ति) जगानी पड़ेगी। कुण्डलरूप से दण्डरूप में लानी है। मूलाधार के भूमध्य से सहस्रार के मध्य बिंदु पहुँचना है। शक्ति और शिव का मिलन कराना है। तभी तो विकल्प हटकर निर्विकल्प होगा। शिवोहं का साक्षात्कार होगा। पशु, पशुपति बनेगा। 


शब्दों से थोड़ी होगा? अनुसंधान करना होगा। जागेंगे तब वह जागेगी। जागेगी तो उजियारा होगा। अंधेरा जाएगा और प्रकाश का प्राकट्य होगा। 


🕉️ 

पूनमचंद 

२३ जून २०२३

Thursday, June 22, 2023

तीन यात्रा।

 तीन यात्रा। 


आध्यात्मिक जीवन में तीन यात्राओं का चिंतन होता है। एक यात्रा तो हम सब मनुष्यों ने पूरी कर ली है, मनुष्य योनि तक पहुँचने की। इसे अज्ञान की यात्रा कहते है क्योंकि अपने सर्व ज्ञातृत्व और सर्वं कर्तृत्व सत्ता के परमात्मभाव को भूलकर जड़ संबंध से जीवभाव की स्थिति प्राप्त की है। यह शिव स्वातंत्र्य था जिसने अनावृत चेतन को आवृत कर प्रकृति की ओर सुषुप्ति को चुना है। प्रकृति की यह परमावस्था से जिन्हें कोई आपत्ति नहीं, उनके लिए यह शिव-जीव की चर्चा का कोई मतलब नहीं रहता क्योंकि इनका सुषुप्ति भंग बाक़ी है। 


लेकिन जिनका सुषुप्ति भंग हुआ है और जो अपने जड़भाव से निकलकर नित्य जाग्रत बोध की दिशा की ओर प्रवृत्त हुए हैं इनके लिए आध्यात्मिक यात्रा एक नहीं दो हो जाती है। एक पूर्णोहं रूप बोध की व्यक्त स्थिति और दूसरी महामौन, महाशून्य की अव्यक्त स्थिति। अव्यक्त को कोई नहीं व्यक्त कर सकता इसलिए दर्शन सब व्यक्त के चिंतन तक सीमित है। लेकिन अगर यह पूर्णोहं स्थिति भी इस जीवन में मिल जाए, तो उस सिद्ध दशा का क्या कहना? जीवन धन्य हो जाएगा। जीवन मुक्त हो जाएगा। 


यह दूसरी यात्रा नित्य जाग्रत स्वयंप्रकाश चैतन्य की अवस्था है। 


जिस जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति से हम परिचित हैं वह हमारे मन की अवस्थाएँ है। मन जागता है, स्वप्न देखता है और सुषुप्ति में चला जाता है। मन की दौड़ विषयों के प्रति है इसलिए जागते ही फिर शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध की विषय दौड़ लग जाती है। इन्द्रियों के बलानुसार उसका शारीरिक और मानसिक भोग करता रहता है और सफलता से सुखी और विफलता से दुःखी रहता है। आत्मा तीन मलों के आवरण से अपने को इस अस्तित्व से भिन्न मानकर राग-द्वेष के दो पिल्लों के आसपास घुमती रहती है। समर्थ असमर्थ बनकर अविद्या की जेल में बंद है। 


क्या दूसरी यात्रा के लिए तैयार है? 


यहाँ करना कम है और छोड़ना ज़्यादा है। घबराओ नहीं, न घर छोड़ना है न पत्नी-पति या पुत्र परिवार, न धन दौलत, न पद। बस एक ही छोड़ना है, अहंकार। अहंकार से ममत्व है और ममत्व से बंधन है। अहंकार से हं निकाल कर अ-कार चित् में प्रवेश करना है। घोर से अघोर में प्रवेश करना है। मैं कोन हूँ को खोजना है। 


मैं शरीर नहीं, मेरा शरीर है। 

मैं इन्द्रियाँ नहीं, मेरी इन्द्रियाँ है। 

में मन नहीं, मेरा मन है। 

मैं बुद्धि नहीं, मेरी बुद्धि है। 

मैं अहंकार नहीं, मेरा अहंकार है। 

मैं धन-दौलत, पत्नी-पुत्र-परिवार, पद-प्रतिष्ठा इत्यादि नहीं लेकिन मेरी धन-दौलत, मेरी/मेरा पत्नी-पति-पुत्र-परिवार, पद-प्रतिष्ठा है। 


यह जो मेरा-मेरा हैं वह प्रकृति सत्ता का अहंबोध है उससे मुक्त होना है और अपने शुद्ध मैं स्वरूप की आहलेक लगानी है। मेरा-मेरा संकोचन है, उस संकोचन को त्यागना है। जैसे जैसे यात्रा आगे बढ़ेगी, आत्मा अपने सर्वज्ञत्व, सर्वकतृत्व इत्यादि भगवद् गुणों के प्रकाश का अनुभव करेगी। आत्मा अहं बोध पूर्णोहं रूप नित्योदित स्वयं प्रकाश चैतन्य की अवस्था में स्थित हो जाएगी। दूसरी यात्रा यहाँ समाप्त होती है। 


लेकिन लाखों में कोई एक विरला तीसरी यात्रा में कदम रख लेता है, अनन्त की ओर, अव्यक्त की ओर। अपने स्वरूप के भीतर प्रवेश कर भीतर ही भीतर अव्यक्त स्वरूप की ओर यात्रा चलती रहती है।कहाँ तक, कोई नहीं जानता। कोई नहीं लिखता। अव्यक्त है, व्यक्त नहीं हो सकता। उस महाशून्य, परम शिव पद निर्वचनीय है। 


कहाँ खो गये? 


अभी तो हम पहली यात्रा को समझ रहे है और दूसरी की तैयारी में लगे है।  


चल पड़ो।


तीसरी का पड़ाव आएगा, तब देखा जाएगा। 


पूर्णोहं के बोध की ओर अग्रसर रहे। 


🕉️ 

पूनमचंद 

२२ जून २०२३


साभारः तांत्रिक साधना और सिद्धांत, महामहोपाध्याय डॉ. श्रीगोपीनाथ कविराज।

Wednesday, June 21, 2023

जय सच्चिदानन्द।

 जय सच्चिदानन्द। 


सत् चित् आनन्द। परमात्मा का नाम है। वह निराकार है, निष्कल है, निर्गुण है, फिर भी उसका नाम कैसा, गुण कैसा? वह विश्वोर्तीर्ण है लेकिन विश्वमय भी।सृष्टि से अभिव्यक्त है इसलिए उस अव्यक्त को मनुष्य बुद्धि के शब्दों के बोध से पकड़ने का एक प्रयास ही तो है। 


भारतीय दर्शनों ने, शास्त्रों ने ब्रह्म को सच्चिदानन्द स्वरूप माना है। सत्, चित् और आनन्द तीन विशिष्ट अर्थ हुए। सत् अर्थात् सन्मात्र रूप, चित् अर्थात् आत्म प्रकाश रूप और आनन्द अर्थात् स्थिति लाभ। सत्, चित् और आनन्द अखण्ड रूप से गृहीत होकर अद्वैत ब्रह्मरूप में अपने आप प्रकाशित है।


सत्, सन्मात्र, सदा अव्यक्त और अव्याकृत है। बौद्धों का महाशून्य इसी सत् को इंगित करने प्रयोग हुआ है। यह सत्य की गंभीरतम स्थिति है। 


चित् जो कि अनुत्तर है वह एक ओर सत् के अभिमुख है और दूसरी ओर आनन्द के अभिमुख है। अंतःस्पन्दन और बहिःस्पन्दन दोनों में मौजूद।मानव चित्त की अंतर्मुख और बहिर्मुख वृत्तियों का मूल यहीं पर है। 


सत्, परम सत्य है जिसके भीतर चित् और आनन्द, द्विविध स्पन्दन गृहीत है। चित्त (बिंब) के बाहरी स्पन्दन के फलस्वरूप दूसरा चित् (प्रतिबिंब) आविर्भूत होता है तब बिंब अपने प्रतिबिंब को देखकर अपनी सत्ता के रूप में पहचान सकता है और आनन्द रूप में अनुभव करता है। यह पहचान की शास्त्रीय नाम आनन्द है। 


चित् जैसे सत् से पृथक नहीं वैसे ही आनन्द चित् से पृथक नहीं। चित् का शास्त्रीय नाम अनुत्तर है। ‘अ’ से अनुत्तर। वर्णमाला के पहले अक्षर ‘अ’ से उसे इंगित किया गया है।


अ से आ, एक से दो। आत्मरमण। ‘आ’ वर्ण आनन्द का प्रतीक है। सत् के आश्रय कर उसका प्रकाश विराजमान हैं वह चित् है, चित्शक्ति है। वह प्रकाशमान होता है तब आनन्द रूप से परिचित होता है। आनन्द चित् का खेल है। जल के फ़व्वारे की तरह हमारी सृष्टि की अभिव्यक्ति इसी आनन्द से होती है। 


आनन्द के लिए ही युगल भाव आया। पुरूष और प्रकृति। पुरूष और स्त्री। आदम और इव। आ से आनन्द और इ से इव। इ इच्छा का विकास है। इच्छा मात्र आनन्द चाहती है। इच्छा आनन्द को ढूँढकर निकालने की शक्ति है। इसी इच्छा से जगत् कि सृष्टि होती है, इव और आदम के मिलन से। अणु से नक्षत्र मंडल तक, स्थूल से कारण जगत तक, प्रकट या अप्रकट, सब ओर खोये धन को पाने की जैसे आकांक्षा है। खोया धन इच्छा का विषयीभूत आनन्द है। आनन्द प्राप्ति तक विराम नहीं होता। जब तक इच्छा की पूर्ति नहीं, तब तक पूर्णत्व की प्राप्ति नहीं। 


इच्छा शक्ति जब घनीभूत होकर स्पन्दित होती है तब ईशन शक्ति का उदय होता है। इसका प्रतीक है ‘ई’।इस ईशन इच्छा का प्राण है। यह इच्छा ज्ञानशक्ति का रूप धारण करती है। इसे उन्मेष कहते हैं और उसका प्रतीक है ‘उ’। 


बिना ज्ञेय (विषय) ज्ञान कैसा? ज्ञान सत्ता इसलिए विषय ज्ञेय को प्रकाशित करती है। ज्ञेय का प्रतीक है ‘ऊ’। ऊनता अथवा ऊनी। उ और ऊ, जैसे पानी और बर्फ़। ज्ञानशक्ति का घनीभूत स्वरूप ज्ञेय। जैसे बर्फ़ जल से आश्रित है वैसे ही ज्ञेय ज्ञान के आश्रित। ज्ञेय, ज्ञान से पृथक नहीं है। ज्ञान की मूर्त अवस्था ज्ञेय है। ज्ञेय का ज्ञान से पृथक दिखना अविद्या है। 


पानी का टुकड़ा पानी में तैरता है तब तक अविद्या रूपी खेल चालू नहीं होता। लेकिन जैसे ही पानी से अलग हुआ, अविद्या रूपी क्रियाशक्ति का खेल आरंभ हो जाता है। वर्णमाला के ए-ऐ-ओ-औ अनुक्रम से क्रियाशक्ति की अस्फुट, स्फुट, स्फुटतर और स्फुटतम अवस्थाएँ है। 


सत् शक्ति यूँ पाँच बन गई। चित्, आनन्द, ज्ञान, इच्छा और क्रिया। यही परमेश्वर की पंचशक्ति या पंचमुख, पंच कलश है। चित् और आनन्द स्वरूप शक्ति के अन्तर्गत और इच्छा, ज्ञान, क्रिया बहिरंगी। यह बहिरंगी त्रि-शक्ति, विश्वयोनि है, जिसे महामाया कहते है। सृष्टिमुखी गति बहिर्मुख और प्रलय गति अंतर्मुख। 


लेकिन जहां अंतर्मुख नहीं है, बहिर्मुख नहीं है, वाणी से अगोचर है, वह बुद्ध का शून्य है। वही वेदांती का ब्रह्म है। 


अ से उ तक शक्ति की बहिर्मुख धारा है। क्रियाशक्ति की पूर्णता से यह बहिर्मुख धारा अभिव्यक्त होती है और बिन्दु रूप प्रकट होती है। उसका प्रकाश है चित् शक्ति, अ कार, अनुत्तर। 


अ (चित्) बिंदु पंचशक्ति से समन्वित होकर अं हुआ। अं से सृष्टि होगी। अ का समापन औ कार से होता है। अं का एक बिंदु के दो बिंदु हुआ ः, विसर्ग हुआ, वैसर्गिक सृष्टि हुई। आगे व्यंजन वर्ण की सृष्टि हुई। क से ह तक के व्यंजन तत्व के द्योतक है। तत्व की सृष्टि हुई।अ कार से ह कार, अहं विमर्श हुआ। 


यही पूर्णोहं में सभी तत्व और शक्ति वर्ग है तथा परम गूढ़ सत्ता भी। परम शिवावस्था है जिसके अभिन्न पराशक्ति है। यह सृष्टि सत् से है, परम शिव से है। 


पहले इदं भाव का विकास फिर एक अहं ही अनन्त अहंरूप में आत्म प्रकाशित। तब बनेगी सर्वं खल्विदं ब्रह्म की स्थिति। 


अ से अः तक की बाराक्षरी पक्की करनी है। वैखरी से परा तक पहुँच बढ़ानी है और अ से ह तक के वर्णों को समझकर अहं पूर्णोविमर्श की स्थिति पानी है। आदम का आनन्द और इव की इच्छा को आत्मज्ञान का पुट देकर अनुत्तर अ में विश्रांति लेनी है। 


काल से महाकाल पहुँचना है। समय कम है। जागना है। जो जागेगा वह पाएगा। 


🕉️ जय सच्चिदानन्द। 


पूनमचंद 

२१ जून २०२३


साभारः तांत्रिक साधना और सिद्धांत, महामहोपाध्याय डॉ. श्रीगोपीनाथ कविराज

Tuesday, June 20, 2023

मूल त्रिकोण।

 मूल त्रिकोण। 

तंत्र में एक केन्द्र है, महाबिंदु है जिसमें रक्त और श्वेत बिंदु नज़र आते है। केन्द्र में रक्त बिंदु है। रक्त बिंदु के आसपास श्वेत-शुक्ल बिंदु आवृत है। बिंदुओं को एक श्वेत त्रिकोण ने घेरा है और यह समग्र आकृति नील वर्णिय भूपुर में स्थापित है। 


रक्त बिंदु शिव है, अग्नि स्वरूप है। शुक्ल बिंदु शक्ति है, सोम स्वरूप है। एक सूर्य, दूसरा चंद्र। रक्त और श्वेत से बना महाबिंदु सदाशिवरूपी आसन है। प्रकाश-अग्नि के संपर्क से शक्ति-सोम का स्राव होता है। महाबिन्दु के स्पन्दन से तीन बिंदु अलग होकर तीन रेखा बनकर महात्रिकोण का रूप धारण करते है। इसी से शिव से पृथ्वी तक समस्त विश्व का आविर्भाव-सृष्टि होता-होती है। विश्वातीत विश्वमय बन जाता है।यह पराशक्ति की अभिव्यक्ति है, विश्वरूप चक्र का आवर्तन है, शिवशक्ति की लीला है।


प्रकाश के चार अंश अंबिका, वामा, ज्येष्ठा और रौद्री। विमर्श के चार अंश शान्ता, इच्छा, ज्ञान और क्रिया। और इनकी यह लीला। 


अंबिका-शान्ता के तादात्म्य से परावाक्-इच्छाशक्ति (विश्व बीज); वामा-इच्छा के तादात्म्य से पश्यन्ति-ज्ञानशक्ति (अंकुरण); ज्येष्ठा-ज्ञान के तादात्म्य से मध्यमा-क्रियाशक्ति (स्थिति); रौद्री-क्रिया के तादात्म्य से वैखरी (प्राकट्य) होता है। 


यह चार वाक् (परा, पश्यन्ति, मध्यमा, वैखरी) परस्पर मिलकर मूल त्रिकोण बनाते है। अंबिका और शान्ता मध्यबिन्दु शिवशक्ति आसन है, जो नित्य स्पन्दमय है। वाम पश्यन्ति (वामा-इच्छा) रेखा, मध्यमा अग्र (ज्येष्ठा-ज्ञान) रेखा, और वैखरी दक्षिण (रौद्री-क्रिया) रेखा है। 


भूपुर (चतुष्कोण) से महाबिन्दु तक फैला समग्र विश्वचक्र महाशक्ति का विकास है। शिव स्वर और शक्ति व्यंजन की वर्णमाला है।  


विश्व कुंडलिनी और व्यक्ति कुंडलिनी की यह भूमिका है। योगमार्ग से मूलाधार से आज्ञा चक्र और आज्ञा चक्र से उन्मना (आज्ञा-बिन्दु-अर्ध चंद्र-निरोधिका-नाद-नादान्त-शक्ति-व्यापिका-समना-उन्मना) तक का, सकल से निष्कल यात्रा मार्ग है। 


🕉️


पूनमचंद 

१९ जून २०२३


साभारः तांत्रिक साधना और सिद्धांत, महामहोपाध्याय डॉ. श्रीगोपीनाथ कविराज

तूरीयातीत।

 तुरीयातीत। 


पाँच अवस्थाएँ है। तीन से हम भलीभाँति परिचित है। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति। दो और है, तुरीया और तुरीयातीत। 


पहले खेल को समझ लें। एक हम (आत्मा) है और एक हमारा मन। मन के साथ इन्द्रियाँ है जो विषय के संसर्ग में आकर संसार भोग लगाती है। 


जिस अवस्था में आत्मा का संसर्ग मन से, मन का संसर्ग इन्द्रियों से, इन्द्रियों का संसर्ग विषयों से मौजूद रहता है उसे जाग्रत अवस्था कहते है। इस अवस्था में इन्द्रियाँ बहिर्मुख रहती है और शब्द स्पर्श रूप रस गंध के पंचक को ग्रहण करती रहती है। बाह्य जगत् का ज्ञान इसी अवस्था में होता है। क्रिया की प्रधानता है।


जिस अवस्था में इन्द्रियों का संसर्ग विषयों से नहीं रहता लेकिन आत्मा का संसर्ग मन से और मन का संसर्ग इन्द्रियों से बना रहता है उसे स्वप्नावस्था कहते है। इस अवस्था में इन्द्रियाँ बहिर्मुख नहीं होने से बाह्य जगत का भान नहीं रहता। इन्द्रियाँ अंतर्मुख है लेकिन मन बहिर्मुख, इसलिए मनोराज चलता रहता है। जिससे स्वप्न अनुभव होता है। मन का संचरण मनोवहा नाड़ी और उसके वायुमंडल में रहता है जिससे वह दर्शन स्पर्शन का अनुभव करता है। 


जिस अवस्था में केवल आत्मा और मन का संसर्ग रहता है और बाक़ी दो ग़ायब रहते है उसे सुषुप्ति कहते है। गहरी नींद की अवस्था सुषुप्ति है। इस अवस्था में मन बहिर्मुख इन्द्रिय प्रवृतियों निवृत्त होकर अंतर्मुखी होता है। जिससे ह्रदय गुहा के द्वार खुल जाते है। मन अंतर्मुख होकर पुरीतत् नाड़ी के भीतर ह्रदय प्रदेश में रहता है। यह आकाश स्थान है, जहां न कोई नाड़ी है और न वायु का कोई स्पंदन। मन की क्रिया का शून्य स्थान है। मन स्तब्ध रहता है। मन की लय अवस्था है। यहाँ आकाश स्थान अपने शरीर की साईज़ से नहीं नापना है। आकाश सर्वव्यापक है। मन में इस आकाश में संचरण का सामर्थ्य नहीं होता और आकाश में चलने का कोई पंथ नहीं इसलिए मन निश्चल रहता है। जीवात्मा की मन अभिमुखता के कारण थोड़ी विश्रांति के बाद वह बहिर्मुख होकर फिर संसार प्रवृत होता है। सुषुप्ति की स्थिरता तामसिक है इसलिए इसमें ज्ञान उदय नहीं होता। निष्क्रिय जड़ अवस्था है। 


हमारा जीवन आवर्तन यह तीनों अवस्थाओं में हम निरंतर अनुभव करते है। तीनों एक साथ नहीं होती। एक होती है तो दूसरी नहीं रहती। लेकिन इन तीनों अवस्थाओं के साथ एक तार बनके जुड़ी हुई एक अवस्था है जो तीनों के साथ ओतप्रोत मौजूद रहती है, जिसे हम अज्ञान वश नहीं जानते; वह है आत्मा की तुरीय अवस्था। वह न हो तो यह तीनों का होना ही संभव नहीं। लेकिन हम संसार के प्रति इतने प्रवृत्त है कि मन, इन्द्रिय, विषय के बाहर और कुछ देख ही नहीं पाते। 


तुरीय में उदय ज्ञान से होता है। तुरीय का भान उदय होने से मन की जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति की पकड़ कमजोर पड़ जाती है और देहाभिमान गलने लगता है।

यह तुरीय अवस्था का उदय और परिपाक होने पर अवस्था भेद नष्ट हो जाता है। देहाभिमान आभास रूप भी नहीं रहता। आत्मा के स्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है। तुरीय अवस्था की इस अविच्छिन्न स्थिति (स्वरूप स्थिति) को तूरीयातीत नाम दिया गया है। अज्ञान स्थिति में जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति की पृथकता में तुरीय को समझना पड़ता है। जब ज्ञान होता है तब तुरीय ही तूरीयातीत है।


साधना इस जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की मनोमुखी दृष्टि को परमात्ममुखी बनाने की है। आत्मा और मन का संयोग छिन्न करना है। मन का जागरण से उद्धार करना है। इससे ज्ञान उन्मेष होता है। यह तुरीय है। जहां चेतन और मन भी नहीं रहते एक मात्र आत्म स्वरूप ही अपने आप में है वह तूरीयातीत है। यह अखंड और व्यापक है। 


जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति जीव दशा है। तुरीय-तूरीयातीत शिव दशा है।  तुरीय अलग नहीं, परंतु जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति के मोतियों में पिरोया धागा है। धागा पकड़ लिया तो काम बन गया। तुरीय सबकी नाभि है। महाशक्ति का मुख है, जड़त्व को खा जाने दिजीए। ह्रदयस्थ (तूरीयातीत)-महाशक्ति का साक्षात्कार हो जाएगा। 


🕉️

पूनमचंद 

२० जून २०२३


साभारः तांत्रिक साधना और सिद्धांत, महामहोपाध्याय डॉ. श्रीगोपीनाथ कविराज

Monday, June 5, 2023

Is an ant smarter than man?

 Is an ant smarter than man? 


Black garden ant known as common ant are wiser than humans as they predict the rain faster than humans. June July are their mating season and therefore they are on flight. They generally live in the nests build under the earth, stone, woods, holes, etc, and live in colonies with a Queen and her workers. 


I am a keen observer of their movements in the month of May-June as they move in thousands from the garden to our house. Whenever, they are appeared in our room, the next day is a rainy day. The intensity of rain in the season also been observed with their movements. In a good rainy season they move out in big numbers but in a drought year one can hardly find a black ant in the house. In low rainfall year, their movement from garden to house is less compared to the good rainfall year as if they know that whether their colony is safe or unsafe in that rainy season. 


The Earth is a living habitat of millions of creatures and therefore any threat to their life, there is inbuilt knowledge system in their mind - DNA system that gives them warning signals to recognise the threat earlier so that they could rescue themselves. The ethologists studied their behaviour and natural habitats. 


Human brain volume is 1.1 to 1.2 litre while the brain volume of an ant is 1 microlitre, a million times smaller but it is more intelligent than humans in terms of predicting rains and has more strength to carry load 10-50 times their body weight. 


Who is there on earth without knowledge? 

सर्वं शिवं। 


Punamchand 

4 June 2023

Saturday, June 3, 2023

ज्ञानं बन्धः। ज्ञानं जाग्रत।

 ज्ञानं बन्धः। 

ज्ञानं जाग्रत। 


शिवसूत्र के दो सूत्र है। 


पहले बंधन का सूत्र फिर जागरण का। ज्ञान (स्वरूप) बन्ध का अर्थ हुआ संकोच का ज्ञान, सीमा- बंधन का अनुभव, स्वातंत्र्य का अज्ञान है। जैसे कोई अपने ही स्वरूप को अपने ही संकल्प से भूल गया। असीम है परंतु सीमा में बंध गया। 


जंगल में एक शेर का बच्चा बकरियों के झुंड में रहकर अपने को बकरी मानने लगा था। एक दिन एक शेर आ गया। उसने दहाड़ लगाते ही सारी बकरियाँ भाग चली। वह शेर का बच्चा जो अब युवा हो गया था वह भी भागने लगा। शेर ने बकरियों को तो जाने दिया लेकिन उस शेर को पकड़ लिया। कहा बरखुरदार, आप कहाँ भाग रहे हो? वह युवा शेर तो डर के मारे काँपने लगा। अब मेरा क्या होगा? मेरी बकरियों के पास अब कैसे जा पाऊँगा? वैसा सोचकर वह ज़ोर ज़ोर से रोने लगा। शेर उसे पकड़कर एक तालाब के पास ले गया। फिर उसे दिखाया अपना चेहरा और उसका भी और बताया कि तुम भी शेर हो मेरी तरह। परंतु वह मानने को तैयार नहीं। फिर कहा, अब दहाड़ो मेरी तरह। वह पहले तो तैयार नहीं हुआ लेकिन उसके बार बार कहने से थोड़ी ताक़त इकट्ठी की और दहाड़ा। पहले तो थोड़ी सी आवाज़ निकली परंतु जैसे ही उसने दहाड़ ने का अभ्यास किया आवाज़ बुलंद होती गई। दूर किनारे उसके साथी देख रहे थे। लेकिन जैसे ही उन्होंने अपने साथी के मुँह से शेर के दहाड़ ने की आवाज़ सुनी सब भाग गये। वह शेर मस्त होकर अपनी सच्ची पहचान को पाकर जंगल में चल पड़ा, एक शेर की तरह। शेर ही था। अपने शेर स्वरूप को पहचान लिया, स्वातंत्र्य पा लिया और सिंहत्व को प्राप्त हुआ। जाग गया। ज्ञानं जाग्रत्। 


हम कब दहाड़ेंगे? कौन रोक रहा है? पहचान ले, अमृत कुंभ भीतर है। बस स्वातंत्र्य का ढक्कन खोलना ही बाक़ी है। इंतज़ार मत करें। शरीर रथ काल चक्र में बंधा है। विदेह होने से पहले जीवन मुक्त हो जाए। 


“You can say to this mountain, ‘May you be lifted up and thrown into the sea,’ and it will happen. But you must really believe it will happen and have no doubt in your heart.“ -Jesus


क्या नामुमकिन होगा जिसने शिव साक्षात्कार किया? स्वस्थता स्वातंत्र्य है। 


पूनमचंद 

३ जून २०२३

Friday, June 2, 2023

तुरिया।

 तुरिया  


ज्ञानं जाग्रत। 

स्वप्नो विकल्पाः।

अविवेको मायासौषुप्तम्। 


हमारे मन की जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं से हम भलीभाँति परिचित है। हर दिन जागते है, सोते है और फिर उठ जाग दैनिक काम में लग जाते है।  हमारे मन संसार के विषयों में लिप्त रहना जाग्रत है। नींद में कल्पना और भय के चित्रों में खेलना स्वप्न है और अचेत होकर सो जाना सुषुप्ति। 


दार्शनिकों ने हम जिसे जाग्रत कहते है उसे भी जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की तीन दशाओं में बाँटा है। हम प्रकृति के पुंज है इसलिए सत्व, रजस और तमस् गुण से बने है। सत्व ज्ञान का, रजस क्रिया का और तमस् मोह का प्रतीक है। इसलिए जिस गुण की प्रधानता होगी हम वैसे ही चलते भागते नज़र आएँगे। सत्वगुण शांति लाएगा, रजस दुःख और तमस् मूढ़ता। इसलिए तीनों गुण की जितनी मात्रा हम रखेंगे उतनी ही शांति, दुःख और मूढ़ता में हमारा जीवन व्यतीत होगा। 


सत्व गुण ज्ञान देता है। जब मन मस्तिष्क रूपी तालाब में क्षोभ के तरंग नहीं उठते तब वह सत्य को पहचान लेता है और उसमें स्थित हो जाता है। अमृतसर में अवस्थित मन फिर सुख दुःख और राग द्वेष से प्रभावित नहीं होता और हमेशा आत्मस्थ होकर शांत और स्थिर रहता है। आत्मलीन हो जाता है।पशु प्रमाता अपने ज्ञान संकोच से परतंत्रता के दुःख से दुखी रहता है और पति प्रमाता की स्थिति में ज्ञान विस्तार से स्वतंत्रता के आनंद में रत रहता है। प्रत्यभिज्ञा जाग्रत अवस्था है। स्वस्थ अवस्था। अहंविमर्श। ज्ञानं जाग्रत। 


रजस क्रिया का प्रतीक है। माया नगरी में भेद दर्शन करने से विकल्पों के प्रति दौड़ने लगता है। मैं यह पा लूं वह पा लूं की मानसिक दौड़ चलती रहती है। शरीर मन के दौड़ाये दौड़ते दौड़ते थक जाता है और मर जाता है। मन जो माँगे वह मिल जाए तो उसे छोड़कर फिर एक नई चाह में उसकी दौड़ चलती रहती है। और जब कामना पूरी नहीं होती मन दुःखी हो जाता है। जो है उसका सुख भोग नहीं सकता और जो नहीं है उसके दुःख से दुखी रहता है। भाव का सुख नहीं और अभाव का दुःख। असत्य के पीछे की यह दौड़ स्वप्न अवस्था है। पशु प्रमाता के स्वप्न की सृष्टि अस्थिर क्षणभंगुर होती है। स्वप्नो विकल्पाः। 


एक सत्य (शाश्वत) का उपासक दूसरा असत्य (नश्वर) का। एक तीसरा वर्ग है जिसे न तो सत्य की पड़ी है न असत्य की। वह निद्राग्रस्त है। जो है, जहां है, बेफ़िक्र अपनी नींद में है। न उसे इहलोक से मतलब न परलोक से। बचपनी जवानी बुढ़ापा इसके लिए आता है और चला जाता है। विवेक शून्य अवस्था। माया आवरण इतना ढँका हैं कि ज्ञानप्रकाश कि किरण नहीं निकलती। सुषुप्ति ही उसका सुख है। अविवेको मायासौषुप्तम्। 


लेकिन इन तीनों में आशा की एक किरण मौजूद है। शिव संकोच है पर शिव अदृष्ट नहीं। तुरिया का धागा पिरोया हुआ है। जब गुरू मशाल की ज्योत का उसे स्पर्श हो जाता है, वह ज्योति भी प्रज्वलित हो उठती है। वह जाग जाता है तुरीय में।  जाग्रत स्वप्न सुषुप्त भेदे तुर्याभोगसंवित्। फिर चौबीसो घंटे शिव समाधि। तुरिया ..तु (अहं विमर्श) रिया… मैं (अहंकार) गया। 😊


पूनमचंद 

२ जून २०२३

Thursday, June 1, 2023

भोर भई उठ जाग रे मनवा ।

 भोर भई उठ जाग रे मनवा।


बाहर अंधेरा है और अभी भोर होने को है। सुबह के ३.३० हुए है। मेरा सुषुप्त शरीर जाग गया है। ब्रश और हाजत कर मैं अपने ऑफिस कक्ष में बैठा हूँ। बग़ल में एक तालाब है। मेंढक बिना रूके टररर.. की आवाज़ लगाये हुए है। बीच बीच में टिटिहरी और दूसरे पक्षीओ की आवाज़ आ रही है। दूर के गाँव में कुत्तो ने अपनी सरहदी सुरक्षा के लिए भोंकना शुरू कर दिया है। चिड़ियों की चहचहाहट बढ़ रही है। बीच बीच में रोड पर ट्रक चलने की आवाज़ आ रही है। हवा को चिरता एक हवाई जहाज़ भी गुजर गया। और इन सबके बीच मेरी घड़ी की टकटक चालु है और मैं  मेरे कर्ण को लगाकर इस खेल का साक्षी चैतन्य बन बैठा हूँ। 


कहाँ हो रहा है यह सब? अभी थोड़ी देर पहले जब मैं सोया था तब तो सब शांत था क्योंकि मैं सुषुप्त था। मेरे कान होते हुए भी अचेत थे इसलिए यह सब आवाज़ होते हुए भी मैं उससे वाक़िफ़ नहीं था। 


जागा और आवाज़ सुनाई दे रही है उसका पता चला। सोया था तब आवाज़ सुनाई नहीं दे रही थी यह भी पता चला। यह कौन महाशय है जिसे दोनों का पता लग गया? बीच रात में एक सपना भी चला था उसकी भी खबर है। है कोई चेतना जिस के पर्दे पर यह सब अंकित होता रहता है। वह न बड़ी होती है न छोटी। न आगे चलती है न पीछे। जब से मैंने होश सँभाला ज्यों की त्यों उदीयमान स्थिति में मौजूद है। निश्चल नित्य। अगर वह नहीं तो मेरा कोई वजूद ही नहीं। यह मेरा शरीर, प्राण, मन, बुद्धि, अहंकार किसी काम के नहीं रहते। यह मेरी पंच ज्ञानेंद्रियाँ और पंच कर्मेन्द्रियाँ क्या करती? 


कौन जागा? कौन सोया? किसने सपने देखें। किसने यह तीनों की खबर रखीं? जाग्रतस्वप्नसुषुप्तिभेदे तुर्याभोगसंभवः। वह तुरीया है जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति के मनके की बीच तार की तरह पिरोयी हुई है। चलित मन की क्रिया में वह अचल नित्योदित और अखंड है। एक पुर्यष्टक है और दूसरा उसको चेतना देने वाला चैतन्य। एक को हम आत्मा/जीव कहे और दूसरे को परमात्मा। एक चलती है, दूसरा चलाता है। एक बनती बिगड़ती है दूसरा उसको रीपेर करता रहता है। जैसे वह कमजोर हुई नया शरीर दे देता है। जब तक उसका मन भरा नहीं तब तक सैर सपाटे करने देता है। वह जैसा चाहे उस ओर चलने की ऊर्जा देता रहता है। 


कोई विरला जब मन की यह यात्रा से थक जाता है, पुनरपि पुनरपि से ऊब जाता है तब वह मुड़ता है भीतर की और। चेतना की ओर। और उसे दर्शन हो जाते है। स्वयं के। स्वगुरू के। प्रकाश के। पहचान के। बस स्थित हो जाता है। फिर तेरह की चाल तो होगी लेकिन न कोई भय होगा न बंधन। कलह सब समाप्त। अमर को मरने का भय कैसा? सामान्य को विशेष की परवा कैसी? अखंडता में फिर किसे अपना कहेगा किसे पराया? सब मैं और मेरे ही रूप। सृष्टि लीला के लिए कार्यरत। जो जो संसार खेल से बाहर होगा (बाहर मतलब सब छोडछाड भाग नहीं जाना है), वह अनंता और अमरता में विलीन होगा। नष्ट नहीं होगा। बिंदु भान से सिंधु भान में परिवर्तित हो जाएगा। शरीर चलता रहेगा और एक दिन सूखे पत्ते की तरह शरीर बिखर जाएगा लेकिन चैतन्य अमर है, अमर रहेगा। 


शिव है। शक्ति है। संसार खेल है। तीनों ही एक रूप। सर्वं शिवं। 


पूनमचंद 

१ जून २०२३

Powered by Blogger.