बोध।
सन २००१ जनवरी-फ़रवरी की बात है। हम सब कच्छ में आए भयानक भूकंप के बाद बचाव और राहत कार्य में जुड़े थे। न बिजली थी, न पानी। न गाड़ियाँ थी न उसके चालक। न कचहरी थी न काग़ज़। सबकुछ बिखर गया था, तहस-नहस हो गया था। ऐसे में पूरा दिन इधर-उधर भागना दौड़ना और गांधीनगर से लाए अपने सरकारी वाहन को नया तैल मिलने तब तक सँभालकर चलाना और हताहत हुए लोगों को निकालना, घायलों को अस्पताल पहुँचाना और बचे हुए को राशन, पानी, आश्रय की व्यवस्था करनी, इत्यादि कार्य में सब जुट गए थे। कुछ लोग बिजली के सब स्टेशन को रीस्टोर कर बिजली आपूर्ति में, कुछ जलापूर्ति में, कुछ संचार आपूर्ति के कार्य में लग गए थे। कुछ आश्रय स्थानों के बनाने में और कुछ राहत सामग्री के स्वीकार और वितरण कार्य में लगे थे। हम सब दिनभर १८-२० घंटे काम में लगे रहते थे। रात में तीन-चार घंटे शरीर सीधा कर सुबह फिर काम में लग जाते थे। जैसे जैसे दिन बढ़ते गए मन थका नहीं था लेकिन शरीर साथ छोड़ने लगा। शरीर में पीड़ा होने लगी। लोगों की पीड़ा के सामने यह कुछ भी न था लेकिन फिर भी विराट कार्य में टिके रहने के लिए शरीर को स्वस्थ रखना उतना ही ज़रूरी था। न योगासन करने का वक्त था न व्यायाम का। बस पूरे दिन और देर रात तक दौड़ते रहना, संसाधन जुटाना और व्यवस्था संचालन के लिए टीम के सदस्यों को दौड़ाते रहना ही कर्तव्य पथ था।
एक दिन सुबह जब मैं उठा, उठते ही आह निकल गई। पीठ और कमर में में ज़ोरों से पीड़ा हो रही थी। बाहर की कोरिडोर में सुबह की चाय का कप लेकर मैं नेपथ्य को देख रहा था इतने में अचानक एक कुत्ता सामने आ गया। मेरे सामने ही खड़ा हो गया। उसने मेरी ओर देखा और अपने आगे के पैरों को थोड़ा आगे किया और पीछे के पैरों को पीछे और बीच की पीठ को ज़मीन की ओर झुकाकर एक खिंचाव पैदा किया और फिर मुक्त किया। ऐसा उसने पाँच-छह बार किया और हर वक्त मेरे सामने नज़र करता रहा, मानो कुछ कह रहा हो। वह कुछ ही देर में अपना खिंचाव और मुक्ति दिखाकर चला गया और इस तरफ़ मेरी पीठ का दर्द उपाय माँग रहा था। मैं सहसा उठकर कमरें में गया और कुत्ते ने जो सीखाया था वह आसन धीरे से करने लगा। ८-१० बार दोहराने से मेरी पीठ का दर्द कुछ कम हुआ। उसके बाद सुबह-शाम पुनरावर्तन करने से तीन दिन में दर्द ग़ायब हो गया। फिर एक नए उत्साह से मैं राहत व्यवस्था कार्य में तल्लीनता से लग गया।
गुरू व्यक्ति नहीं शक्ति है। वह कोई भी रूप में आकर मार्गदर्शन कर सकता है। नदी हो, सरोवर हो, पत्थर हो, सूरज हो, चंदा हो, कुत्ता हो, भेड़ बकरी या कोई इन्सान हो। वह कोई भी रूप में आकर अपने बोध को प्रकट कर हमें मार्गदर्शन कर सकता है। हमारी चेतना में उस चेतना की ज्योति का प्रकाश जुड़ने से बोध का उजाला हो जाता है। बस इतना ही चीज ज़रूरी है, खुली आँख, विनम्रता और स्वीकार।
यहाँ अस्तित्व जो भी है सब कुछ एक ही तत्व का अखंड प्रकाश है। चाहे कोई भी नाम दे दो, चाहे कोई भी शास्त्र या किताब पढ़ लो, चाहे कितने ही प्रवचन सुन लो, लेकिन जब तक उस नाम, शब्द के स्वरूप का अनुभव नहीं हुआ तब तक वह एक जानकारी है, ज्ञान नहीं। ज्ञान अनुभूति है, साक्षात्कार है, अपने सच्चे स्वरूप का; इसलिए महापुरुषों ने साक्षात्कार को ही लक्ष्य बनाया था।
अद्भुत है यह विद्या, पहचान करने की। जो स्वात्मा है वही परमात्मा है। अद्वय है इसलिए यह कहकर इसे अपने से अलग कर नहीं सकते। दूसरा है ही नहीं। विभाजन नहीं, सम्यक् भूमिका है। इस सर्वसमावेशी भूमि पर अपना पराया नहीं रहता, मैं और तुम अलग नहीं रहता। इस एकता में प्रभुता है। इस बोध का साक्षात्कार, सत-चित-आनंद स्वरूप का साक्षात्कार ही मुक्ति है, अमरत्व है।
पूनमचंद
४ अप्रैल २०२४
0 comments:
Post a Comment