Saturday, April 13, 2024

पूर्ण।

पूर्ण। 

ईशावास्य और बृहदारण्यक उपनिषद का शांति पाठ पूर्णमदः पूर्णमिदं… एक अद्भुत रचना है।

अर्थ अनेक होंगे लेकिन एक पूर्ण कहीं दूर और एक पूर्ण यहाँ अपने सामने ऐसा नहीं लगता। अदः और इदं दो अलग-अलग नहीं परंतु एक है। 

अदः शब्द रूप पुल्लिंग प्रथमा विभक्ति एकवचन है। सर्वनाम है। इदम् स्री लिंग एकवचन सर्वनाम है। परम का अनुक्रम से शिव और शक्ति रूप इंगित है। दो नहीं एक है, सामरस्य है। अदृश्य दृश्य। 

परम में होने की आहट चिदानंद शिव (प्रकाश-awareness) है। इच्छा-ज्ञान क्रिया शक्ति (विमर्श) है। अंकुरण ध्वनि ओम (तत्सत) सदाशिव है। फिर ईश्वर, शुद्ध विद्या और आगे मायालय का हमारा पृथ्वी तत्व तक का हमारा विश्व। व्यापकता से संकोचन की यात्रा। जितना संकोच उतनी जड़ता और जितनी व्यापकता उतनी चेतनता। 

संकोच विस्तार की क्रिडा है। 

किसकी? 

अद्वैत की। 

कहाँ हो रही है? 

पूर्णोहं के पटल पर। 

कहाँ है? 

है, हम परिचित है। बस ठीक से इंगित कर पहचानना बाकी है। कोई नया नहीं जो मिल जाएगा। कोई दूर नहीं जहां जाना है। 

हमारे साधन शीशे है, उसे माँझ लेना है निष्काम कर्म से; स्थिर करना है उपासना, भक्ति से; और जान लेना है शरणागति, श्रद्धा, ज्ञान से। 

प्राप्तस्य प्राप्ति। निवृतस्य निवृत्ति। 

पूर्णता अमरता है। मृत्यु के भय से पार शाश्वत का साक्षात्कार। आत्मा की प्रत्यभिज्ञा।

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥

ॐ शांतिः शांतिः शांतिः॥

अद्भुत मंत्र है। मंत्र का साक्षात्कार करें। 


पूनमचंद 

१३ अप्रैल २०२४

Thursday, April 4, 2024

बोध।

 बोध। 


सन २००१ जनवरी-फ़रवरी की बात है। हम सब कच्छ में आए भयानक भूकंप के बाद बचाव और राहत कार्य में जुड़े थे। न बिजली थी, न पानी। न गाड़ियाँ थी न उसके चालक। न कचहरी थी न काग़ज़। सबकुछ बिखर गया था, तहस-नहस हो गया था। ऐसे में पूरा दिन इधर-उधर भागना दौड़ना और गांधीनगर से लाए अपने सरकारी वाहन को नया तैल मिलने तब तक सँभालकर चलाना और हताहत हुए लोगों को निकालना, घायलों को अस्पताल पहुँचाना और बचे हुए को राशन, पानी, आश्रय की व्यवस्था करनी, इत्यादि कार्य में सब जुट गए थे। कुछ लोग बिजली के सब स्टेशन को रीस्टोर कर बिजली आपूर्ति में, कुछ जलापूर्ति में, कुछ संचार आपूर्ति के कार्य में लग गए थे। कुछ आश्रय स्थानों के बनाने में और कुछ राहत सामग्री के स्वीकार और वितरण कार्य में लगे थे। हम सब दिनभर १८-२० घंटे काम में लगे रहते थे। रात में तीन-चार घंटे शरीर सीधा कर सुबह फिर काम में लग जाते थे। जैसे जैसे दिन बढ़ते गए मन थका नहीं था लेकिन शरीर साथ छोड़ने लगा। शरीर में पीड़ा होने लगी। लोगों की पीड़ा के सामने यह कुछ भी न था लेकिन फिर भी विराट कार्य में टिके रहने के लिए शरीर को स्वस्थ रखना उतना ही ज़रूरी था। न योगासन करने का वक्त था न व्यायाम का। बस पूरे दिन और देर रात तक दौड़ते रहना, संसाधन जुटाना और व्यवस्था संचालन के लिए टीम के सदस्यों को दौड़ाते रहना ही कर्तव्य पथ था।

एक दिन सुबह जब मैं उठा, उठते ही आह निकल गई। पीठ और कमर में में ज़ोरों से पीड़ा हो रही थी। बाहर की कोरिडोर में सुबह की चाय का कप लेकर मैं नेपथ्य को देख रहा था इतने में अचानक एक कुत्ता सामने आ गया। मेरे सामने ही खड़ा हो गया। उसने मेरी ओर देखा और अपने आगे के पैरों को थोड़ा आगे किया और पीछे के पैरों को पीछे और बीच की पीठ को ज़मीन की ओर झुकाकर एक खिंचाव पैदा किया और फिर मुक्त किया। ऐसा उसने पाँच-छह बार किया और हर वक्त मेरे सामने नज़र करता रहा, मानो कुछ कह रहा हो। वह कुछ ही देर में अपना खिंचाव और मुक्ति दिखाकर चला गया और इस तरफ़ मेरी पीठ का दर्द उपाय माँग रहा था। मैं सहसा उठकर कमरें में गया और कुत्ते ने जो सीखाया था वह आसन धीरे से करने लगा। ८-१० बार दोहराने से मेरी पीठ का दर्द कुछ कम हुआ। उसके बाद सुबह-शाम पुनरावर्तन करने से तीन दिन में दर्द ग़ायब हो गया। फिर एक नए उत्साह से मैं राहत व्यवस्था कार्य में तल्लीनता से लग गया।

गुरू व्यक्ति नहीं शक्ति है। वह कोई भी रूप में आकर मार्गदर्शन कर सकता है। नदी हो, सरोवर हो, पत्थर हो, सूरज हो, चंदा हो, कुत्ता हो, भेड़ बकरी या कोई इन्सान हो। वह कोई भी रूप में आकर अपने बोध को प्रकट कर हमें मार्गदर्शन कर सकता है। हमारी चेतना में उस चेतना की ज्योति का प्रकाश जुड़ने से बोध का उजाला हो जाता है। बस इतना ही चीज ज़रूरी है, खुली आँख, विनम्रता और स्वीकार।

यहाँ अस्तित्व जो भी है सब कुछ एक ही तत्व का अखंड प्रकाश है। चाहे कोई भी नाम दे दो, चाहे कोई भी शास्त्र या किताब पढ़ लो, चाहे कितने ही प्रवचन सुन लो, लेकिन जब तक उस नाम, शब्द के स्वरूप का अनुभव नहीं हुआ तब तक वह एक जानकारी है, ज्ञान नहीं। ज्ञान अनुभूति है, साक्षात्कार है, अपने सच्चे स्वरूप का; इसलिए महापुरुषों ने साक्षात्कार को ही लक्ष्य बनाया था। 

अद्भुत है यह विद्या, पहचान करने की। जो स्वात्मा है वही परमात्मा है। अद्वय है इसलिए यह कहकर इसे अपने से अलग कर नहीं सकते। दूसरा है ही नहीं। विभाजन नहीं, सम्यक् भूमिका है। इस सर्वसमावेशी भूमि पर अपना पराया नहीं रहता, मैं और तुम अलग नहीं रहता। इस एकता में प्रभुता है। इस बोध का साक्षात्कार, सत-चित-आनंद स्वरूप का साक्षात्कार ही मुक्ति है, अमरत्व है। 

पूनमचंद 
४ अप्रैल २०२४

Tuesday, March 26, 2024

प्राण।

 प्राण।

परम परमात्मा निर्गुण है, अपरिवर्तनशील है। लेकिन एकोहं बहुआयाम् के संकल्प से सगुण हुआ। सत्व, रजस और तमस गुण से प्रकृति हुआ। ब्रह्मा-विष्णु-महेश, सृष्टि-स्थिति-संहार, का खेल हुआ, जो विज्ञान के कारण-कार्य नियम से बंधित और परिवर्तनशील है। पुरूष और प्रकृति, शिव और शक्ति के उन्मेष-निमेष की यह लीला है। सामरस्य है। परमात्मा प्रकृति का प्राण है, जीवनी शक्ति है। प्रकृति जगत का प्राण है, जीवनी शक्ति है। पृथ्वी का हर जीव प्राणों से चलता है। उनके प्राण मुख्य स्रोत से जुड़े है इसलिए मनुष्यों में प्राणोपासना का बड़ा महत्व है। 

अगम की खोज की लत हमें बचपन से लगी थी। भजन सुनते रहते थे। भजन का अर्थ पकड़ने दिमाग़ सक्रिय रखते थे।  मन में होता था कि बात इतनी सहज और सरल है फिर बुद्धि में बैठती क्यूँ नहीं? परमात्मा का मिलन-दर्शन क्यूँ नहीं हो रहा? 

रवि साहब की एक रचना थी। 

कोई नुरते सुरते नीरखो, 
एना घडनारा ने परखो, 
आ कोणे बनाव्यो पवन चरखो? 

आवे ने जावे बोले बोलावे,
ज्यां जोऊँ त्यां सरखो, 
देवળ देवળ करें होकारा, 
पारख थइ ने परखो.. 

ध्यान की धून में ज्योत जलत है,
मीट्यो अंधार अंतर को,
ए अजवाળે अगम सूझें,
भेद जड्यो उन घर को। 
आ कोणे बनाव्यो पवन चरखो? 

माँ के गर्भ में साँसों की डोर नहीं थी। प्राणों का आधार माँ थी। लेकिन बाहर आते ही फेफड़े खुल गए और बाहर अंदर का पवन जुड़ गया और पवन चरखा चल दिया। पृथ्वी पर हवा दे दरिया में जीव जगत सब नाक लगाए टिका है। जिस की पवन डोर टूटती है वह बिखर जाता है।  क्या है यह चरखा? कौन चला रहा है। नुरत सुरत से कैसे देखना है? आते-जाते क्या बोल रहा है। ध्यान में कौनसा उजियारा होगा जिससे उसका भेद मिलेगा?  

साँस अंदर जाती है और बाहर निकलती है। एक मिनट में औसतन १५। एक दिन का हिसाब हो गया २१६००। एक साल का हुआ ७८.८४ लाख। १०० साल का हुआ ७८.८४ करोड़। बस यही तो पूँजी है जो हर पल खर्चा हो रही है और कम हो रही है। अंदर जाए शबद करें सो, बाहर आए बोले हम्। सब सोहम का अजपा जाप कर रहे है, लेकिन सबका उस पर ध्यान नहीं। सोहम् का ओहम् 🕉️ से, अनाहत से नाता जोड़ने इस पवन चरखे की डोर को ध्यान देकर नीरखना होगा। उस के नूर और सुर से तालमेल करना होगा। तब जाकर ज्ञान का उजियारा होगा और भेद-भरम सब मिटेगा। 

प्राण पाँच है। प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान। 

आयुर्वेद में प्राण को दस मुख्य कार्यों में विभाजित किया गया है: पाँच प्राण - प्राण, अपान, उदान, व्यान और समान - और पाँच उप-प्राण - नाग, कूर्म, देवदत्त, कृकला और धनंजय। प्राण की गति उपर अंदर है और अपान की गति नीचे बाहर। उदान ऊर्ध्वमुखी है, समान नाभि के आसपास बैठा है और व्यान पूरे शरीर में व्याप्त है। हमारे श्वसन तंत्र और पाचन तंत्र का आधार पाँच प्राण है। वात पित्त और कफ के सन्तुलन से आदमी नीरोग रहता है। 

अध्यात्म में श्वासोच्छ्वास भीतर प्रवेश कर रहा अपान, बाहर आ रहा प्राण, श्वासोच्छ्वास का बायें नथुने में प्रमुख होना इड़ा, दाहिने में पिंगला और दोनों का समरूप होना समान-सुषुम्ना है। एक गंगा, दूसरी यमुना और तीसरी सरस्वती है। ध्यान से सुषुम्ना में प्राणों का प्रवेश होकर उठना उदान है और कुण्डलिनी जागरण द्वारा ऊर्जा का मूलाधार सहस्रार पहुँचना व्याप्ति-व्यान है। 

एक अर्थ और भी कर लेते हैं। 

पान का अर्थ है पीना। पहले प्राण के पान स्वरूप को समझते है। हमारे अंदर आ रही हर साँस हमारा पान (लेना) है और बाहर जा रही हर साँस अपान (छोड़ना) है। तंदुरुस्त आदमी के साँस की लंबाई बारह अंगुल होती है; बारह बाहर, बारह भीतर। लेकिन हमारी हर साँस की बाहर अंदर की लंबाई सम और सहज नहीं होती। हमारे विचार, क्रियाएँ उसमें बाधा डालती रहती है। जब स्वास्थ्य बिगड़ता है तब और दख़ल होती है। भीतर जा रहा पान शीतल है और बाहर आ रहा अपान उष्ण है। जो शीतल है वह इडा है और जो उष्ण है वह पिंगला। इसलिए सब से पहले तो इन दोनों की लंबाई को संतुलित करना है। जिसके बारह-बारह हैं वह बारह-बारह पर संतुलित करें। जिनके साँस आयु और स्वास्थ्य के कारण ११-१०-९ अंगुल लंबाई के है वे उस लंबाई पर संतुलित करें। उपर से भीतर आ रहे शिव और नीचे से उनको मिलने उठ रही शक्ति का संतुलन करना है। दोनों के मिलन संगम (प्रयाग) पर विराम स्थान पर, मध्य पर ध्यान देना है जहां सरस्वती-ज्ञान-बोध का प्रवाह है। 

जैसे जैसे साँस संतुलित होती जाएँगी हमारे शरीर, प्राण, मन में स्थिरता आने लगेगी। ध्यान जब और पैना होगा तब धीरे-धीरे साँस की लंबाई कम होना शुरू होगी लेकिन संतुलन बनाए रखना है। धीरे-धीरे १२-११-१०-९-८-७-६-५-४-३-२-१ अंगुल करते करते शून्य स्थिति आने लगेगी। जब लंबाई नाक के नज़दीक पहुँचेगी तब नाक के आसपास भारीपन महसूस होगा। आगे फिर साँस एक सेन्टीमीटर या उससे भी कम होकर चलता होगा लेकिन जैसे नहीं चल रहा। उस स्थिति में पहुँचते ही ध्यान की एकाग्रता इतनी तीव्र होगी कि उदान उठे बिन रह नहीं सकता। एक उदान क्रियात्मक है दूसरा बोधात्मक। क्रियात्मक उदान के उठते ही मूलाधार में कंपन-सक्रियता आएगी, बिजली का एक सुनहरा तार जैसे चल पड़ा और एक पूरा आवर्तन लिए चक्रों का अनुभव करा देगा। मूलाधार के तार सहस्रार से जुड़ते ही चित व्याप्ति होगी। सद् साक्षात्कार होगा। 

षड्चक्रो के भेदन की क्रिया में हम तो मौजूद है, देख रहे है। हम दृष्टा है और वह दृश्य। इसलिए दृश्य के बदले हमारे बोध पर ध्यान देना ज़्यादा ज़रूरी है। जिनको क्रियात्मक अनुभव नहीं हुआ वह फिक्र न करें क्योंकि बोधात्मक विकास ही मुख्य है और वह होना है। हमारे स्वरूप पर जो आवरण है वह बोध से हटेगा और अपने सत स्वरूप, पूर्णोहं का साक्षात्कार होगा। तब बाहर भीतर जग सब एक हो जाएगा, न अपना न बेगाना; एक नूर ते सब जग उपजा कौन भले कौन मंदे? 

हमारे श्वासोच्छ्वास हमारें प्राण नहीं है, लेकिन प्राण की क्रिया है। उसका लेना और छोड़ना वृत्ति है।उसका मध्य प्रवेश द्वार है। भीतर चिति का स्पंदन है। उस चतुर्थ में ठहरना पर-प्राणायाम है। 

प्रकाश है, आवरण ही तो हटाना है।आवरण हटते ही साक्षात्कार है। वही लक्ष्य है, परम सिद्धि है, अमृत है। 

साँस की डोर पकड़कर स्थूल से सूक्ष्म और सूक्ष्म से पूर्ण की ओर चलें। 

कोई नूरते सुरते नीरखो, एना घडनारा ने परखो, हे जी राम, आ कोणे बनाव्यो पवन चरखो। 

पूनमचंद 
२६ मार्च २०२४

Monday, March 25, 2024

पूर्ण।

 पूर्ण। 

पूर्ण अर्थात् जिसमें कोई कमी नहीं। उसमें से कुछ निकाल भी लो फिर भी वह अपने आप पूरितः-भर देगा। जो निकला वह भी पूर्ण होगा। ऐसा पूर्ण, परम शिव जो अमर है, अपनी शक्ति के रूप धरता है। निर्गुण से सगुण होता है। प्रकाश का विमर्श होता है। शक्ति बना तब शिवत्व नहीं गया। एक का उन्मेष दूसरे का निमेष है। लेकिन शिवशक्ति का सामरस्य बना रहता है।

शिव, शक्ति पंचक है। चिद् है, आनंद है, इच्छा है, ज्ञान है और क्रिया है। चिद् यानि चैतन्य। आनंद यानि peaceful-blissful, इच्छा यानि will, ज्ञान यानि सर्वज्ञता, क्रिया यानि सर्वकर्तृत्वता। शिव ही शक्ति बन विश्वरूप धारण करता है। शक्ति सृष्टि, स्थिति, संहार, निग्रह, अनुग्रह करती है। पंच शक्तियों के संकोच से नाना प्रकार की सृष्टियाँ बनती है। चिद् संकोच, आनंद संकोच, इच्छा संकोच, ज्ञान संकोच, क्रिया संकोच। शक्तियों का संकोच ही दृश्य जगत है, रूप जगत है, रंग जगत है। रंगमंच है। जैसा संकोच वैसी उपाधि। उपाधि भेद से इच्छाभेद, ज्ञानभेद, कर्मभेद होता है। जिससे हर कोई अपने अपने संकोच के दायरे में रहकर यह जगत खेल का हिस्सा बना है।कोई घन सुषुप्त है, कोई क्षीण सुषुप्त, कोई स्वप्न सुषुप्त। तत्वरूप में सब शिव है और विमर्श रूप में शक्ति। इसलिए नाना प्रकार ही सही लेकिन इस जगत का हर जीव, हर कण शिव है, शक्ति है, पंचशक्ति  पंचकृत्यकारी है।  

संकोच सीमा पैदा करता है। कमी लगती है। कुछ अंधकार-अज्ञान जैसा लगता है। शरीर और संसार से आसक्त जीव मौत से डरता रहता है। अपूर्णता उसे खटकती है। मूलतः अपना स्वरूप पूर्ण है इसलिए अविद्या के कारण अनुभव हो रही अपूर्णता से छूटने और पूर्णता पाने बहिर्जगत की ओर अथवा कोई कोई गुरूगमवालें अंतर्जगत की ओर चल पड़ते है। 

परम, शिव हुआ, शक्ति हुई। कृष्ण हुए, राधा हुई। है दोनों एक, लेकिन एक देखता रहेगा, दूसरी लीला करेगी। कहीं शक्ति देगी, कहीं से हट जाएगी। जीवन संचार करेगी, समाप्त करेगी। शिव साक्षी - कृष्ण साक्षी निष्कंप होकर दृष्टा बन अपनी ही शक्ति का, अपनी दुर्गा का, अपनी राधा का खेल देखता रहेगा। एकोहं बहुष्याम् की यही को लीला है। जब शिव संकल्प की अवधि पूरी होगी, उपाधि सब विलय हो जाएगी। फिर नया संकल्प, नया संसार। शिव की पूर्णता का उच्छलन ही शक्ति है, जगत है, विश्वरूप है। 

क्या चाहिए? जगत के भोग या अमृत? दोनों मार्ग खुले है। शक्ति दायाँ भी देगी और बायाँ भी। चाह जाँचिए और चल पड़े। जो माँगे वह मिलेगा। अमृत कुंभ छोड़ कौन मृत्यु के मुँह में जाएगा? 

अपनी ह्रदय गुहा में जो संस्कार पड़े है उसके अनुरूप शिव भजें या शक्ति, निर्गुण भजें या सगुण, कृष्ण भजें या राधारानी, सब नाव नदी पार कराएगी। जिसमें चित्त स्थिर हो, बैठ जाना। पहुँचने की जगह तो एक ही है। ह्रदय गुहा। जहां अपने असली रूप की पहचान करनी है। असत (नश्वर) छोड़ना है और सत (शाश्वत) का साक्षात्कार करना है। अंधकार-अज्ञान-अविद्या से मुक्त होना है और परम तेज-बोध-ज्ञान पाना है। अमरत्व की पहचान करनी है और मृत्यु से पार हो जाना है। 

ॐ असतो मा सद्गमय । तमसो मा ज्योतिर्गमय । 

मृत्योर्मा अमृतं गमय । ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ॥ 

पूर्ण को अपूर्णता कैसी? 

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥ॐ शांतिः शांतिः शांतिः॥

क्या होगा? आँखें बदल जाएगी। नई आँखें लग जाएगी। संकोच सब हट जाएगा। चारों ओर एक ही नज़र आएगा। उसके वैभव को देख, अपने वैभव को देख, गदगद होगा, द्रवित हो उठेगा, नाचेगा, गाएगा और मौन हो जाएगा। 

पूर्ण है, पूर्ण है, पूर्ण है। 

पूनमचंद 

२५ मार्च २०२४

साभारः कश्मीर शैव दर्शन, बृहदारण्य उपनिषद। 

Sunday, March 24, 2024

योग।

योग। 

भारत अर्थात् जो भा-ज्ञान में रत है अथवा भरत-भरण पोषण करता है। भारत देश योग पर टिका है। योग का अर्थ है जोड़ना-जुड़ना-to connect. अपने मन को आत्मा से- परमात्मा से, अपने अस्तित्व के कोर के साथ जोड़ना। 

दो प्रमुख धारा प्रवाह बने है। एक है पतंजलि का योगः चित्तवृत्ति निरोधः और दूसरा है श्रीकृष्ण का योगः कर्मसु कौशलम्। 

जीव का सृजन वासना-इच्छा की अतृप्ति अथवा पूर्ति के लिए हुआ है। पुर्यष्टक (आठ की नगरी) अर्थात् पाँच इन्द्रियाँ और मन, बुद्धि, अहंकार का यह नगर (शरीर) बाह्य संसार से शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध का भोग करता हुआ अपने निज सच्चिदानंद स्वरूप को खोजने और उससे जुड़ने की प्रक्रिया में लगा हुआ है। लेकिन बाह्य सुखं क्षणिक है, खंडित है, क्षणभंगुर है, हार्मोन का खेल है; इसलिए जब बाहर से हार थक जाता है तब वह अखंड आनंद और परम शांति की खोज के लिए आख़िर मुड़ ही जाता है। 

पतंजलि चित्तवृत्ति निरोध का अष्टांग मार्ग है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच यम (संयम) हैं। शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान - नियम (पालन) हैं। स्थिरं सुखं आसनम्, सुखपूर्वक स्थिरता से बैठने का नाम आसन है।प्राणायाम साँसों का नियंत्रण है। 

यम, नियम, आसन शरीर की स्थिरता प्राप्त करने के लिए है। प्राणायाम प्राण (श्वासोच्छ्वास) की स्थिरता के लिए है।  प्रत्याहार (इन्द्रियों को वापस लेना) मन की स्थिरता प्राप्त करने हेतु है। मन भोग भोगता है। पाँच ज्ञानेंद्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ लेकर वह बहिर्मुख बनकर संसार का आहार करता है। अब आनंद का स्रोत भीतर है और मन बाहर है इसलिए उसे जब तक भीतर की ओर मोड़ा न जाए तब तक सब व्यर्थ है। इसलिए प्रति आहार, अर्थात् मन को बाहरी भोग से हटाकर भीतर लाना है और शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध का आहार भीतर से, आत्म क्षेत्र में प्रवेश करके लेना है। विवेक रूपी चौकीदार बैठाना है और सतत जागरूक रहना है। जीतेन्द्रिय अथवा इन्द्रियजीत होना इतना सरल कहाँ? इसलिए गांधी जैसे कोई कोई महापुरुष अपनी अग्नि परीक्षा के लिए बाह्य प्रयोग कर लेते है। 

धारणा (मन की एकाग्रता) तब तक नहीं स्थिर हो सकती जब तक शरीर, प्राण और मन स्थिर नहीं होते। ध्यान और समाधि का मार्ग पर उसके बाद ही प्रस्तुत होता है। जिस पर चलकर कोई कोई विरला सन्तुलन और सिद्धि पा लेता है और अपने सच्चिदानंद स्वरूप में स्वस्थ (स्व में स्थित) हो जाता है। 

श्रीकृष्ण-वेद व्यास का गीता मार्ग योग की परिभाषा कर्म की कुशलता से करते है। मनुष्य संसारी है और कर्म करने से मुक्त नहीं रह सकता। इसलिए अपने जीवन आजीविका के लिए कर्म को करने में जब वह ध्यानपूर्वक और चित्त की स्थिरता के साथ करने लग जाता है तब स्थिरता और कार्य सिद्धि उपरांत स्वयं से, आत्मा से, अस्तित्व के केन्द्र से जुड़ जाता है। वैज्ञानिकों के आविष्कार, खिलाड़ीयों के मेडल या सिद्धि, अधिकारी के आयोजन-संयोजन, अभिनेता का अभिनय, कारीगरों की कला, योद्धा का पराक्रम, रसोई का स्वाद, भक्ति का रस, ज्ञान का तेज, इत्यादि कुशलता से किए कर्मो की योग-सिद्धि है। यही योग है जो निष्काम (अथवा परमार्थ के लिए) करने से स्वयं को परम से जोड़ देता है। 

जब स्वार्थ हट जाता है तब परमार्थ प्रकट हो जाता है। जब मामका पांडवा की संकुचितता हट जाती है तब विराट का अनुभव होता है। यह संसार संकोच से तो बना है। परमात्मा ने संकोच किया और अंकुरित हुआ, अहं और इदं में विभाजित हुआ। माया-पुरूष-प्रकृति का खेल रचा। पुर्यष्टक (player) बनाया और शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध की तन्मात्राओं के भोग के लिए तत्व संकोचन से आकाश, वायु, अग्नि, जल और भूमि पाँच महाभूतों का क्षेत्र (play ground) बना। विश्वरूप भी परमात्मा के रूप है और विश्वोर्तीर्ण भी वही है। लिंग, कुल, जाति, देश, धर्म इत्यादि संकोच की दिवारें है तब तक संसार है। यह दिवारें तोड़कर विराट के दर्शन करना पुरूषार्थ है। लाखों में कोई एक अपनी नैया पार लगा लेता है। चित्तवृत्ति निरोध से अथवा कर्म की कुशलता से वह परम से योग कर लेता है।

गन्ने को संस्कृत में इक्षु कहते है। भगवान राम, बुद्ध और महावीर इक्ष्वाकु वंशज माने जाते है। जैसे गन्ने में रस होता है तब तक उसका मूल्य होता है इसी तरह जवानी में योग करने से सिद्धि और स्वस्थता सरलता से प्राप्त होती है। बगास से क्या निकलेगा? बुढ़ापे का योग अफ़सोस देता है। हाँ, लेकिन प्रत्याहार सरल है। जीवनभर की भागदौड़ से थका मन अब शक्तिहीन इन्द्रियों से काम नहीं ले सकता। हार्मोन अब वापस नहीं आ सकते। इसलिए सरलता से प्रत्याहार कर आत्मस्थ हो सकता है। इसलिए चार आश्रमों में संन्यास आश्रम आख़िरी है। 

योग करें, स्वस्थ रहें।😊

पूनमचंद 

२४ मार्च २०२४

Thursday, March 21, 2024

भारतीय दर्शन।

 भारतीय दर्शन।


भारतीय दर्शन अद्भुत है। वेदों को स्वीकार करनेवाले आस्तिक दर्शन है और नकारनेवाले नास्तिक दर्शन। आस्तिक दर्शन की मुख्य छह शाखाएँ हैः सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदांत। नास्तिक दर्शन की तीन मुख्य शाखाएँ हैः बौद्ध, जैन और चार्वाक। आस्तिकों में ही शैव, वैष्णव, शाक्त, द्वैत, अद्वैत, परमाद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत शाखाएँ बनी है जिसके अनेक पंथ और संप्रदाय है।

बौद्ध दर्शन का आधार प्रतीत्यसमुत्पाद है। जिसका सरल अर्थ है कारण से कार्य की प्राप्ति। संसार और उसकी घटनाएँ आकस्मिक नहीं लेकिन कार्य कारण संबंध से होती है। गौतम इसी प्रतीत्यसमुत्पाद का ज्ञान पाकर, उसका साक्षात्कार कर बोधि यानि बुद्ध हुए थे। संसार के दुःखों का कारण यही प्रतीत्यसमुत्पाद है जिसके बारह अंग है। दो अतीत जन्म के, आठ वर्तमान के और दो अगले जनम के। भव चक्र का बंधन है जो कारण के समाप्त किए बिना समाप्त नहीं होता। कारण समाप्ति ही निर्वाण है। जरा-मरण का कारण जाति (जन्म), जाति का कारण भव (जन्म लेने की इच्छा), भव का कारण उपादान (आसक्ति), उपादान का कारण तृष्णा (विषयों की चाहः शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध), तृष्णा का कारण वेदना (विषयों के संयोग से मन पर पड़ा प्रभाव), वेदना का कारण स्पर्श (विषयों का संपर्क), स्पर्श का कारण षडायतन (पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और छठा मन), षडायतन का कारण नामरूप (भौतिक और चेतन का संयोग), नामरूप का कारण है विज्ञान (वर्तमान जन्म), विज्ञान का कारण है संस्कार (पूर्व जन्म के कर्म), संस्कार का कारण अविद्या (अवास्तविक को वास्तविक समझने का अज्ञान)। अविद्या ही भव चक्र (जन्म-मरण), संसार का कारण है। अविद्या की निवृत्ति से दुःख मुक्ति है।

एक तरफ़ हिंदू और जैन धर्म आत्मा पर ज़ोर देते है दूसरी तरफ़ बौद्ध अनत्ता (अनात्मा) की धारणा करते है। सब कुछ परिवर्तनशील है और नश्वर है। हिंदू और जैनियों में स्वयं का भाव है, बौद्धों में अभाव है। इसलिए एक दर्शन धारा ‘है’ पर खडी है और बौद्ध ‘नहीं’ (शून्य) पर खड़े है।

वेदांती का प्रश्न रहता है कि शून्य भी एक कार्य है, उसका उपादान (कारण) कौन? किसने जाना की शून्य है? वह जाननेवाले का स्वरूप क्या? वेदांती उसे ब्रह्म, शैव शिव, वैष्णव विेष्णु, शाक्त शक्ति नाम से आराधना करते है। इन सबमें भी तात्त्विक भेद है। वेदांतीयो का ब्रह्म अकर्ता हैं फिर भी उसके संकल्प से सृष्टि (प्रकृति) बनी है।  शैवों में शांकर वेदांती अद्वैत को मानते है। दृश्यमान जगत उसी ब्रह्म का ही मायिक स्वरूप है जो मिथ्या है और अविद्या की वजह से हमें सच्चा स्वरूप दिखाई नहीं पड़ रहा। कश्मीरी शैवों के शिव पंचशक्ति और पंचकृत्यकारी है और यह जगत उसकी शक्ति-विमर्श है। शाक्तों की शक्ति जगन्माता है जिसके गर्भ से ही यह जगत प्रकट होकर उसकी ही नानाआवृत्ति  बन खड़ा है। वैष्णव त्रिशक्ति में से एक पालनपोषण करनेवाले विष्णु और उसके अवतारों की आराधना कर सांसारिक पदार्थ और स्वर्ग की कामना करते है। वैष्णवों में द्वैत बना रहता है इसलिए भक्त-भगवान, दास्यभाव, भक्ति प्रमुख है। उसमें भी विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत, अद्वैत की धारा में मिल जाते है। अज्ञान का का कारण अविद्या है। विद्या (बोध) से अविद्या जाते ही स्वरूप ज्ञान (शाश्वत का साक्षात्कार) हो जाता है और मुक्ति मिलती है।  यहाँ भी कर्मफल और उसके आधार पर जन्म मरण का चक्कर लगा हुआ है लेकिन स्वरूप बोध होते ही मुक्ति की अवधारणा है।

हिन्दुओं का जीव, बौद्धों का अनत्ता ही जैनियों का आत्मा है। जो अनुक्रम से पंच पायदान (साधु, मुनि, उपाध्याय, आचार्य, अरिहंत) पार कर सिद्ध स्थिति प्राप्त कर लेता है। केवली होकर सिद्ध होना ही आत्मा का अंतिम लक्ष्य है।

बुत पूजा को अलग करें तो वैष्णव मत, ईसाई और इस्लाम मत से मिलता जुलता है। जहां ईश्वर, परम पिता, अल्लाह है, जो हमारे अच्छे बूरे कर्मों का हिसाब रखता है और न्याय करता है। हिन्दुओं के जीव कर्मानुसार जन्म मरण और स्वर्ग नर्क को प्राप्त होते है। ईसाइयों में पुनर्जन्म नहीं, एक ही जीवन है। मरने के बाद न्याय के आधार पर स्वर्ग नर्क मिलता है। इस्लाम में भी पुनर्जन्म नहीं है। मौत के बाद रूह को क़यामत तक इंतज़ार करना है। क़यामत के दिन अल्लाह के आदेशानुसार स्वर्ग अथवा नर्क मिलता है।

बौद्धों की मुक्ति अवास्तविक से छुटकारा है। जैनियों का लक्ष्य सिद्ध है। वैष्णवों, ईसाई और मुसलमानों का स्वर्ग है। शैवों का परम शिव स्वरूप है। शाक्तों का शक्तिरूपा है। वेदांतीयों का ब्रह्म है, अद्वैत है। व्याख्या अलग अलग है  लेकिन सबका इशारा एक ही की ओर है, जिसे कोई नही जानता। जो जान लेता है मौन हो जाता है।

“इस जगत् की उत्पत्ति से पहले ना ही किसी का अस्तित्व था और ना ही अनस्तित्व  (ना असत असित न उ सत्असित तदानिम ).. न ही मृत्यु थी और न ही अमरता.. सब बाद में आए फिर कौन जानता है कि यह कहां से उत्पन्न हुआ है?..यदि उसने इसे बनाया है; या यदि नहीं (यदि वा दधे यदि वा ना)..…वह वास्तव में जानता है; या शायद वह नहीं जानता है..." (सो अंग वेद यदि वा न वेद)” (ऋग्वेद 10.129)। 

अनिर्वचनीय। 

पूनमचंद
२१ मार्च २०२४

Sunday, March 17, 2024

बीजावधानम्।

 बीजावधानम्। 


मेरा बचपन अहमदाबाद शहर में गुजरा था। हम जहां रहते थे वहाँ के लोग आर्थिक रूप से कमजोर थे लेकिन आध्यात्मिक तत्व चिंतन में बलशाली थे। हर पूर्णिमा, ग्यारस, त्योहार पर किसी न किसी के घर भजन, पाटपूजा होती रहती थी। मीराबाई, कबीर, रवि साहेब, भाण साहेब, मोरार, खीम साहेब, दासी जीवन, राम बावा, लोयण, देवायत पंडित, सती तोरल, मूणदास, गंगा सती, हरजी भाटी, प्रीतम, अज्ञात, अनेक भजनों का रसास्वादन मिलता रहता था। लेकिन झाँझ और तबलों की आवाज़ों में भजनों के कईं शब्द छूट जाते थे। बस बाक़ी रहती थी भक्ति रस की मस्ती उसमें ही स्नान कर लेते थे। मुझे मध्य रात्रि का इंतज़ार रहता था जब मध्य रात्रि को करताल और एकतारे के साथ वाणी गाई जाती थी और तत्व चिंतन होता था। वाणी, वाणी के बाद प्रश्न, संवाद, वाणी, प्रश्न, संवाद सिलसिला चलता रहता था। आख़िर में ब्राह्म मुहूर्त होते ही आरती गाकर पाटपूजा संपन्न होती थी। यही बीज था चैतन्य भूमि पर। 

एक दिन एक दिलचस्प सत्संग हुआ। बात निकली थी नरसिंह मेहता और कबीर साहेब की। १५वी सदी में हुए दोनों महापुरुष समकालीन थे। नरसिंह मेहता के श्रीकृष्ण और गोपियों की रासलीला के सगुण दर्शन के चर्चे सत्संगीओ में खूब थे। कबीरदास की निर्गुण धारा भी लोकप्रिय थी। कहते हैं कि एक दिन कबीर साहब नरसिंह मेहता को मिलने चले गए। यह परखने कि नरसिंह मेहता को वास्तविक में श्रीकृष्ण-राधा-गोपियों के दर्शन होते है? नरसिंह मेहता ने उनका स्वागत किया। कबीरदास ने मेहता से पूछा कि आप श्रीकृष्ण रासलीला का दर्शन कैसे करते हो? मेहता ने बताया कि जैसे मैं आपको देख रहा हूँ बस वैसे ही कनैया और उसकी राधा-गोपिय संग रासलीला का दर्शन होता है। कबीरदास ने बिनती की कि क्यूँ न उनकी हाज़िरी में उस रासलीला का दर्शन किया जाए। नरसिंह मेहता खुश हुए और अपने करताल लेकर, आँखें बंदकर श्रीकृष्ण की आराधना में लग गए।

भावविभोर होकर भक्तकवि तल्लीनता से एक के बाद एक भजन गा रहे थे। अचानक उन्होंने बाँह पकड़ी और कबीरदास को पुकारा। कबीर, कबीर देखो मैंने कनैया की बाँह पकड़ ली। यह कनैया है और उसकी चारों ओर गोपियाँ रास कर रही है। रासलीला के इस अद्भुत दृश्य को तुम भी देख लो।  

कबीरदास श्रीकृष्ण के इस महान भक्त को एकटक देख रहे थे। नरसिंह मेहता की पुकार सुनी और उनकी पकड़ी हुई बाँह देखी और मन ही मन मुस्काए। उन्होंने ने मेहता का हाथ पकड़ लिए और कहाँ मेहता आप धन्य हो, अपनी भाव समाधि से बाहर आओ। नरसिंह मेहता ने आँखें खोली, दोनों ने कुछ वार्तालाप किया और कबीरदास लौट गए। 

प्रश्न यह उठता है कि कबीरदास क्यूँ मुस्कुराए?
क्या वाक़ई में नरसिंह मेहता ने श्रीकृष्ण की बाँह पकडी थी?
क्या उन्होंने श्रीकृष्ण रासलीला का दर्शन किया था?

कबीरदास इसलिए मुस्कुराए थे क्योंकि नरसिंह मेहता ने जो बाँह पकड़कर कबीरदास को दिखाई थे वह तो उनकी अपनी ही बाँह थी। भावावस्था में भक्त जब असीम चेतना के साथ एकरूप हो जाता है तब उसका चित्त संकल्प की भाव सृष्टि का सृजन कर लेता है। इसलिए भावजगत में नरसिंह मेहता को श्रीकृष्ण और उनकी रासलीला का दर्शन होता था। 

शिव पंचशक्ति हैः चिद्, आनंद, इच्छा, ज्ञान, क्रिया। शिव पंचकृत्यकारी हैः सृष्टि, स्थिति, संहार, निग्रह, अनुग्रह। हम सब शिव के ही संकुचित नाना रूप है इसलिए कम मात्रा में ही सही लेकिन पंचशक्ति और पंचकृत्य के हम भी धनी है।  हमारा मन ब्रह्मा है। वह कोई भी दृश्य की रचना कर लेगा। हमें दृश्य पर नहीं दृष्टा को पहचानना है। मन की जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति में भी एक चेतना का धागा जो अहं बन कर पिरोया रेहता है उस तूरीय को पहचानना है और उस किरण को पकड़कर उस के स्रोत महादेव-परम-पूर्णोहं का साक्षात्कार करना है। 

साधना का आनंद ले लेकिन सावधान भी रहें। 

पूनमचंद 
१७ मार्च २०२४

Thursday, March 14, 2024

प्रयत्न शैथिल्य और बुद्ध की कहानी।

 प्रयत्न शैथिल्य और बुद्ध की कहानी। 


गौतम बुद्ध एक दिन अपने शिष्य आनंद के साथ किसी जंगल से गुजर रहे थे। रास्ते में उन्हें प्यास लगी तो उन्होंने आनंद से कहा, ‘पास में ही एक झरना बहता दिख रहा है। वहां जाकर पीने का पानी ले आओ।’ 

कुछ ही देर में आनंद झरने के पास पहुंच गए। वहां पहुंचकर उन्होंने देखा कि एक बैलगाड़ी तालाब में से गुजरी तो पहियों की वजह से पानी बहुत गंदा हो गया। नीचे की मिट्टी ऊपर दिखने लगी है। आनंद गंदा पानी देखकर लौट आए। उन्होंने बुद्ध से कहा, 'तथागत, वहां का पानी बहुत ज्यादा गंदा है, पीने योग्य नहीं है। 

‘बुद्ध बोले, 'तुम एक काम करो, कुछ देर पानी के पास जाकर बैठ जाओ। फिर देखना।'

बुद्ध की बात मानकर आनंद तालाब के पास फिर से पहुंच गए और वहीं किनारे पर बैठ गए। थोड़े समय के बाद ही पानी की हलचल शांत हो गई और धीरे-धीरे मिट्टी नीचे बैठ गई, ऊपर बहता पानी एकदम साफ हो गया। आनंद साफ पानी देखकर समझ गए कि बुद्ध क्या समझाना चाहते थे। वे पानी लेकर बुद्ध के पास लौट आए।

बुद्ध ने कहा, 'जिस तरह हलचल से पानी गंदा हो जाता है और कुछ देर बाद बिना प्रयास जब गंदगी नीचे बैठ जाती है तो पानी साफ होता है वैसे ही मन अपने आप शांत हो जाता है। उसके लिए किसी प्रयास की आवश्यकता नहीं। बस धैर्य रखना है।’

मन के शांत होने से जो प्रकट है (होगा), वही तो आत्म प्रकाश है। स्वयं ज्योति। नित्योदित। उस स्वयं के साक्षात्कार के लिए प्रयत्न कैसा? 

प्रयत्न शैथिल्य ही उपाय है। 
श्रद्धा और सबूरी। 
प्रेम और धैर्य। 

जैसे दर्पण में हम अपना रूप देखकर प्रसन्न चित्त हो उठते हैं, वैसे ही यह विश्व दर्पण हमारा ही रूप है। बस जिस दिन वह दिख गया उसकी सुंदरता में अहं विलीन हो जाएगा। अहं का जाना और रहस्य से पर्दा उठना एकसाथ घटित होना है। फिर चाहे उस रूप को शिवशक्ति, कामेश्वरकामेश्वरी, कृष्णराधा अथवा सूफ़ी कुमार रूप में देख ले, स्वात्मा का ही विमर्श है। यह जगत सौदर्य लहरी है। परमाद्वैत है।

पूनमचंद 
१४ मार्च २०२४

Saturday, March 9, 2024

निर्विचार।

 निर्विचार।


विचार पर दुनिया क़ायम है। एकोहं बहुस्यामः का विचार नहीं उठता तो शिव की यह सृष्टि नहीं होती। सर्वं शिवं होने से विचार या निर्विचार स्थिति शिव से बाहर नहीं है। 

परमात्मा चिद्रूप है। इसलिए उसमें पंचशक्ति और पंचकृत्य का वैभव बना हुआ है। अव्यक्त का व्यक्त रूप चिति स्वेच्छा से संकोच कर चित्त बना है और विविध भौतिक रूपों लिए यह जगत लीला में मस्त है। चित्त शक्ति की अभिव्यक्ति है। वही चित्त को कर्म भेद से हम बुद्धि और मन कहते है। 

मनुष्य मन का ही रूप है। स्मरण शक्ति, चिंतन शक्ति, विचार शक्ति इत्यादि मन के प्रारूप है। यह शरीर, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ मन के विचारो को कार्यान्वित करने के साधन है। मन आनंद की खोज में है, सुख की खोज में है, संतोष की खोज में है, शांति की खोज में है और बहिर्मुख है। इसलिए मन जिस संस्कारों में रंगा है उसके विचार उठते रहते है। सब विचार कर्म में परिवर्तित नहीं होते लेकिन जिस विचार के साथ प्राण शक्ति जुड़ती हैं वह कर्म की ओर आगे बढ़ता है। कर्म की शृंखला मनुष्य का स्वभाव बनाती है। स्वभाव से बुद्धि का विकास होता है और यथा मति तथा गति होती है। 

अब मन जिस आनंद, सुख, संतोष, शांति की खोज बाहर संसार में करता है वह है लेकिन खंडित है, क्षणभंगुर है। एक बार मिलने से मन तृप्त नहीं होता। इसलिए बह बार बार मृगमरिचिका बन मिराज के पीछे दौड़ता रहता है। लेकिन इन्द्रियों की शक्तियाँ सीमित है, शरीर आयु से बँधा है। शक्ति क्षीण होती रहती है। यह दौड़ भाग से आख़िर वह हार जाता है और एक दिन साधन छोड़ देता है। फिर नया साधन, नई दौड़, चक्कर से बाहर नहीं होता है। 

मन जिस अखंड आनंद, सुख, संतोष, शांति की खोज करता है वह तो भीतर है। काम तो बस छोटा है। अंतर्मुख होना है। लेकिन अनंत संस्कारों के रंग में रंगा मन इतना सरल काम करने में असमर्थ हो जाता है इसलिए उसे मोड़ने के तरीक़े, तरकीबें आज़माई जाती है। 

मन को प्राणायाम के माध्यम से निर्विचार करना ऐसी ही एक विधि है। अक्सर यह देखा गया है कि मन और प्राण की गति एक दूसरे से सीधे आनुपातिक (directly proportional) है। अर्थात् वे एक साथ बढ़ती है या घटती है। विचार बढ़ेंगे तो प्राण की गति तेज होगी, विचार शांत होंगे तो प्राण शांत होगा। प्राण (श्वासोच्छ्वास) की गति बढ़ेगी तो विचार की गति बढ़ेगी और विक्षिप्तता बढ़ेगी। प्राण शांत होगा तो विचार भी शांत होंगे। विचार भी कैसे? खर पतवार। हमारी आसक्ति की दौड़। अतृप्त कामनाओं की दौड़। लेकिन दौड़ के आगे मौत है। 

हमें तो अमर होना है इसलिए भीतर जाना है। अपने ही मन की शांत स्थिति से बनी एक सात्विक बुद्धि नैया में बैठ शनैः शनैः भीतर उतरना है। आत्माराम में उतरना है। अमृतसर में उतरना है। 

वह चिद्रूप है, चिद्घन भी। उपर की सतह पर लहरें है, मन है, क्रिया कलाप है, लेकिन भीतर शांति है, ठहराव है। दोनों ही भूमिका से शिव भिन्न नहीं। बस मन को मनाना है इसलिए यह सब करना है। मन को प्रमाण चाहिए मानने के लिए। शब्दों से वह तृप्त नहीं होगा। जब तक गुड़ खायेगा नहीं उसके स्वाद की कितनी भी व्याख्या कर लें वह मानेगा नहीं। इसलिए उसे मनाने के लिए यह सब प्रयास है। वर्ना मन चंगा तो कठौती में गंगा। 

जब तक विचार है, मन है। जैसे जैसे विचार शांत होते जाएँगे, मन भी शांत होता जाएगा। एक स्थिति आएगी जब अमना हो जाएगा। मौन। स्थिरता। तब जो यात्रा शुरू होगी वह यात्रा आत्मा की होगी। स्व की पहचान की होगी। प्रत्यभिज्ञा की होगी। स्व के साक्षात्कार की होगी।

साक्षात्कार होगा, निर्भयता आएगी। मृत्यु का भय चला जाएगा क्योंकि मृत्यु है ही नहीं। शांति, सुख, संतोष, आनंद फल प्राप्त होगा और मन निजानंद की मस्ती में जीवन मुक्त होकर विहार करेगा। 

मन को मना लो। मनचला है, सरलता से मानेगा नहीं।
 
पूनमचंद 
९ मार्च २०२४

Tuesday, March 5, 2024

पूर्णार्थ।

 पूर्णार्थ। 


अपने ही पूर्ण सत्व को, पूर्ण अर्थ को जानने की प्रक्रिया। पूर्ण तो अपने आपमें पूर्ण है। लेकिन जब तक हम जानेंगे नहीं तब तक मानेंगे कैसे? पूर्ण की पहचान ही मुक्ति है। दुःखों से मुक्ति। मृत्यु से मुक्ति। 


कैसे जाने? 

मैं कौन हूँ? 

अचरज है कि मैं हूँ पर मुझे ही नहीं जानता। 


तादात्म्य, एकरूपता, समापत्ति, समावेश की भूमिका पर बैठना पड़ेगा। पंजाब को अमृतसर की ओर मोड़ना होगा। अभी तो पंजाब (पंच आब, पाँच नदियाँ, पाँच इन्द्रियाँ) का प्रवाह बाहर की ओर, संसार की ओर प्रवाहित है; उसे उस महाह्रद (समुद्र), अमृतसर की ओर घुमाना है। शरणागत होना है। 


शरणागति ही प्रक्रिया है पूर्ण को पहचानने की। अपनी प्रत्यभिज्ञा करने की। 


सबकुछ पूर्ण ही है। पूर्ण से पूर्ण प्रकटता है। पूर्ण से पूर्ण ले लो फिर भी पूर्णता बनी रहती है। 


पूर्णता कोई वस्तु थोड़ी है जो घट बढ़ सकती है? दिव्य चेतना है। अनंत है। अनिर्वचनीय है। पाँच फ़ीट के शरीर में एक किलो के दिमाग़ से समझने से थोड़ी आएगी? वह आएगी तो उसकी मर्ज़ी से। लेकिन तब आएगी जब जातक शरणागत होगा। अपने एन्टेना को सेट करेगा, अपनी ट्यूनिंग ठीक करेगा। बाहर से हट अंदर उतरेगा। 


कितने भी तीर्थ कर लो। शास्त्र पढ़ लो। घूम फिर के यहीं आना है। 


मैं कौन हूँ?


एक चींटी थी। हिमालय में खड़ी थी। हिमालय तब शक्कर का पहाड़ था। चींटी को हिमालय को जानने की इच्छा हुई। वह चल पड़ी। लेकिन इतना विशाल हिमालय ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। थक गई। हार ही रही थी और बडी चींटी मिल गई। पूछा क्या हुआ? क्यूँ हारी थकी सी हो? छोटी चींटी ने अपना हाल सुनाया। हिमालय को नापने और जानने चली है लेकिन यह को ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा। ऐसे तो मौत आ जाएगी। बड़ी चींटी ने कहाँ, अरे पगली, तेरी आयु का ख़्याल किया होता। क्या पता कब मौत आ जाए? तुं जहां खड़ी है बस उसी जगह चख ले, सारा हिमालय एक जैसा ही है। लघु चींटी ने गुरू चींटी की बात मान ली, शरणागति स्वीकार ली और शक्कर का स्वाद ले लिया। 


चेतना पूर्ण है। जहां से भी प्रवेश किया पूर्णता होगी। पूर्णता के अलावा और कुछ भी नहीं। 


वह शक्ति है। अपने अहंकार से हाथ न आएगी। शरणागति, श्रद्धा और सबूरी काम आएगी। शरणागति भक्ति का दूसरा नाम है। विद्या विनयेन शोभते। विनम्रता की झोली न हो तो विद्या दान नहीं मिलता। उसे ग्रहण करने अपने आप को तैयार करना होगा। तन से, प्राण से, मन से, बुद्धि से। शक्ति का अनुसंधान करना है। हर दिन धीरे-धीरे आगे बढ़ना है। अभ्यास बढाना है। एक दिन महानुसंधान हो ही जाएगा। माँ कैसे बालक की पुकार को अनसुना करेंगी?


एक बार स्व की पहचान हो गई फिर पर नहीं रहता। क्योंकि स्व ही संसार बना हुआ है। पूर्ण की दृष्टि मिल गई फिर चारों और एक ही पूर्णता विविध रूपों में अचरज देगी, आह्लादित करेगी, प्रसन्नता देगी और आनंद रस से भर देगी। 


रसात्मा संसार के गोबर में आनंद खोज रहा है। उसे जब परमात्मा का रसास्वादन होगा तब वह हनुमान की तरह मोती की माला तोड़ देगा और राम होगा वही रहेगा। 


स्थिर आसन, स्थिर प्राण, स्थिर मन, स्थिर बुद्धि, मध्य पर ध्यान और पूर्णता में प्रवेश। 


ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते । 

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ 

ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ॥ (वृहदारण्यक और ईशावास्य उपनिषद) 


पूनमचंद 

५ मार्च २०२४

Tuesday, February 13, 2024

हिमालय के सिद्धयोगी।

 हिमालय के सिद्धयोगी।


कई साल पहले स्वामी योगानंद परमहंस की आत्मकथा ‘योगी कथामृत’ मैंने पढ़ी थी। महावतार बाबा का साक्षात्कार दुर्लभ ही होगा लेकिन मन में एक उत्कंठा थी कि जीवन में स्वामी जी या लाहिड़ी महाशय जैसे किसी योगी से भेंट हो जाए।

हमारा परिवार सन २०१९ में एक बार धर्मशाला गया था। दलाई लामा तो नहीं मिले लेकिन हमारी बेचमेट मनीषा नंदाने एक योगीजी का पता दिया।कुछ धंटो की वह मुलाक़ात थी लेकिन चिरंजीवी हो गई। जैसे किसी अपने से बड़े क़रीब से मिलना हुआ। राष्ट्र प्रेमी योगी का साक्षात्कार हुआ। बातें की, चाय पी, कैम्पस देखा, फोटो खिंचवाई, भोजन प्रसाद ग्रहण किया और चल दिए। चाय का कप लेते मेरे से चूक हुई और चाय शर्ट पर गिर गई। बाबाजी ने तुरंत उठकर अपने रूमाल से साफ़ कर दिया। मैंने मेरे से झूठा हुआ वह रूमाल प्रासाद की तरह माँग लिया और उन्होंने दे भी दिया। उन्होंने मेरी फ़ोटो खिंचीं और एक अतूट नाते से बांध दिया।

इस हप्ते फिर दो दिन उनके सानिध्य का मौक़ा मिल गया। एक पालक की तरह उन्होंने हमारा और आएँ शिष्यों आगंतुकों का ख़याल रखा। जो भी फल मिठाई आती वह तुरंत बाँट देते थे। वक्त पर चाय, नास्ता, स्वादिष्ट भोजन मिल रहा था। सोने का कमरा सुविधाजनक था। इलेक्ट्रिक कंबल ने कड़ी ठंड को रोक रखीं थी इसलिए रात्रि भी शुभ रही।

वह उनका पूरा वक्त हमें दे रहे थे। अपने बग़ल में बिठाकर प्यार दुलार करते रहे। पहली शाम हुई। यज्ञ की आहुति और कर्ण प्रिय मंत्रों की गुंज ने मन को आह्लादित कर दिया। उसके बाद बाबाजी आए। हमें कुछ अनुभव साझा करने का मौक़ा दिया। उन्होंने अपनी प्राणवान और कर्णप्रिय आवाज़ में दो भजन गाएँ। फिर १९७० के दशक में गुजरात के लोद्रा गाँव के बलरामदास, उद्योगपति अग्रवाल परिवार और कुछ वैष्णव परिवार के साथ १८ लोगों की पोखरा यात्रा की कहानी सुनाई। डकोटा विमान की उनकी सफ़र, कच्चे रन वे पर उतरना, मौसम बदलने से डकोटा दो लोगों को लेकर वापस जाना, फिर २१ दिनों तक उसका वापस न आना और इस बीच १६ लोगों का डकोटा के इंतज़ार में रहना, उनके खानपान, कीचन में मुर्गी, वैष्णवों की वोमिटींग, वजन का गिर जाना इत्यादि बातें कर हम सबको हँसाते रहे। बाक़ी सब तो डकोटा के इंतज़ार में खाते रहे और फिर वोमिट करते रहे लेकिन वह तो भोजन नहीं करते थे इसलिए नज़दीक की पाठशाला में जाकर बच्चों को योग के पाठ पढ़ाते रहे और स्थानीय लोगों से बातें करते रहे और आत्मीय रिश्तें जोड़ते रहे। जहां वे रहे थे वहाँ कमरे का किराया खाने के साथ सिर्फ़ एक रूपया था लेकिन ट्रैकिंग का सामान जो छोड़ आए थे उसका किराया अग्रवाल जी को नेपाली ₹ ६ लाख भरना पड़ा।उन्होंने विमान कंपनी पर कोर्ट में दावा ठोक कर १२ लाख वसूल किए। ६ रखकर बाक़ी के ६ पशुपतिनाथ मंदिर की गोशाला को दान कर दिए।

चीन युद्ध के पहले की बात है। किसी गाँव से गुजर रहे थे और गाँव लोगों को मादा बाघ से परेशान देखा। वह कुछ लोगों को हताहत कर चुकी थी। उन्होंने ने कारण पूछा तो पता चला कि गाँववालें उसके दो शावक (बच्चे) उठा लाए थे। मादा बाघ इसलिए आगबबूला थी। उन्होंने दोनों शावकों को अपनी गोदीं में उठायें और मादा बाघ की ओर चल पड़े। अंदर की और गए तो साक्षात कालरूप मादा बाघ के दर्शन हुए। लेकिन जैसे ही एक शावक धीरे से उसकी ओर आगे किया कि वह कोमल मातृरूप में परिवर्तित हो गई। फिर दूसरा शावक छोड़ा। दोनों माता के आँचल को लगकर दूध पीने लगे। वह भी जुड़ गए। मादा बाघ ने दोनों शावकों को चूमा चाटा और उनको भी। फिर उन्होंने मादा बाघ से एक शावक को भेंट देने की बिनती की और माँ ने अपने पैर से हल्का धक्का देकर एक शावक दे दिया। उसे गोदी में उठाकर वह आगे चल दिये और लदाख पहुँच गए। लदाख में आर्मी आ चुकी थी। दूध पीते पीते बाघ अब बड़ा हो चुका था। वह पाठशाला में योगा सिखातें रहे और पीछे आर्मी के जवान बाघ को चुपके से मांस खाने की आदत डालते रहे। फिर तो रात होते ही बाघ कुंडी उठाकर गाँव की ओर चल देता और अपना मारण कर लेता और मुँह साफ़ कर चुपचाप अपने पिंजरे में आकर बैठ जाता। जब गाँववालों को लगा कि बाघ मवेशियों को मार रहा है तब उन्होंने बाबाजी से शिकायत की। बाबा ने उस रात ध्यान में बैठकर स्वरों को साधा और उस पर ध्यान जमाया। आँधी रात हुई वह चल पड़ा और अपना काम पूरा कर चूपचाप वापस आकर बैठ गया। जब बाबा ने उसे डाँटा तो उसने भी ग़ुस्सा करना शुरू किया। अब उसे रखना नहीं था। उन्होंने दो सोने की बाली बनाकर उसके कान में और दो चाँदी के कड़े आगे के दो पैर में पहनाए। फिर कह दिया की अब हम अलग होंगे। उसको लेकर फिर जंगल की ओर चल पड़े। बिछडना कितना मुश्किल था? कुछ कदम वह चलता फिर वापस आता। कुछ कदम बाबा चलते और बापस आते। यह सिलसिला पूरा दिन चला। फिर आख़री बार उसने अपने कदम आगे बढ़ाए और फिर लौट के वापस नहीं आया। १९६२ के भारत-चीन युद्ध में वह सरहद पर थे और घटनाओं को देखकर उन्होंने गीत रचा था, ए मेरे वतन के लोगों.. जो प्रदीप को दिया और प्रदीप ने अपने नाम उसे अमर कर दिया।

कश्मीर की पहाड़ियों में ऐसे ही एक दिन भालू के परिवार से भेंट करनी पड़ी। उनकी गुफा में कोई नहीं जा सकता। लेकिन वह गए और उनके साथ बैठकर दो घंटे ध्यान लगाया। फिर बाहर आकर उनको पुकारा। वे सात का परिवार बाहर आया और चुपके से चल दिया। साथ वाले दंग रह गए।

एक दिन वह पंजाब में मर्सिडीज़ कार चला रहे थे। बाहर धूंद थी। कुछ भी नहीं दिख रहा था। ३०-४० की स्पीड पर कार चल रही थी। अचानक रोड पर पड़े पत्थर से कार टकरा गई और उसका रेडीयेटर टूट गया। ट्रकवाले जब रोड पर रूकना होता है तब पत्थर लगाते हैं लेकिन जाते वक्त उसे उठाके दूर करते नहीं। खैर, उन्होंने सामने आती एक कार को हाथ कर रोका। अंदर बैठे एक आदमी ने जैसे ही सफ़ेद वस्त्रों और लंबे बालों वाली आकृति देखी और चिल्ला दिया भूत-भूत। बाबा ने फिर बताया की उनकी कार ख़राब हुई है इसलिए यह जगह कौनसी हैं वह पूछने आए थे। फिर वह बाहर आए। सबके कंधे पर एके ४७ लगी थी। वह पटियाला की ओर किसी को टपकाने निकले थे और रास्ता भटक गए थे। उन्होंने किसी ट्रक को रोककर रबर ट्युब इत्यादि इकट्ठा कर कार को टो कर गराज तक पहुँचाया और देखते ही देखते उनका मुखिया सरबजीत सिंह बाबा का प्रेमी हो गया। बाबा की सलाह पर उसने अपना रास्ता बदला लेकिन जिस पिता की हत्या उसके भाई ने की थी उस जुर्म में उस पर मुक़दमा चला। बाबा जी ने वकील रखकर उसे बाइज़्ज़त बरी करवाया। होनी कौन टाल सकता है? बाबाजी सोच रहे थे कि संस्थान उसे सौंपकर वह फिर वह हिमालय चल पड़े लेकिन वह एक दिन उसकी गाड़ी किसी डम्पर से टकराईं और वह वही पर चल बसा। उसके मूर्त शरीर को उठाकर बाबाजी ने दाह संस्कार किए। उनका स्वर यहाँ आते आते मंद हो गया। किसी प्रेमी को खोने का क्या गम था? लेकिन वह कहते रहे वर्तमान में रहो। भूत के बवंडर में मत उलझो। जो बीता उसे पकड़कर नहीं रहना है। परमात्मा न तो आपका कुछ बुरा करता है न अच्छा। प्रकृति का क़ानून क़ायम है। जो कर्म किए फल भुगतना है। आज नहीं तो कल इस जन्म नहीं तो अगले जनम।

उनकी जवानी के दिन थे। वह एक लंगोट में रहा करते थे। बाल इतने लंबे की एड़ी तक पहुँच जाते थे। छह फूट से बड़ी हस्ट पुष्ट काया और रास्ते से गुजर रहे थे। अचानक एक महिला पर नज़र पड़ी जो नहाने के बाद अपने बालों से पानी झाड़ रही थी। उस पर नज़र गड गई। रूप के अंबार को देखकर उनके पैर और आँखें दोनों रूक गए। वह मन ही मन परमात्मा से अभिभूत थे कि उसने कैसा अनुपम सौंदर्य बनाया। वह स्टैच्यू बन गए थे और नज़र महिला पर गड़ी थी। वह महिला ने बाबा को देखा और विक्षिप्त हो गई। उसने अपने शौहर को बुलाया और फ़रियाद की वह बाबा उसे एकटक झांक रहा है। सरदार जी थे। ग़ुस्सा आ गया। लठ ली और बाबा की पीठ पर जो दे मारा। पीठ में चरचराहट हुई। ध्यान भंग हुआ और परमात्मा को कहा कि मैं तो आप की सौंदर्य रचना के अचरज में पड़ा था, न मेरे मन में दुर्भाव था फिर यह लठ क्यूँ? वह सरदार बेहोश होकर गिर पड़ा। उसकी बीबी वह सुंदरी दौड़ते हुए सामने आई और लड़ने लगी की उसके पति को क्या कर दिया? बाबा ने कहा जैसे तुने अपने मालिक को शिकायत की वैसे मैंने अपने मालिक को शिकायत की।हिसाब बराबर हो गया।

मसूरी अकादमी में हमारे गुजराती शिक्षक कालिदास त्रिवेदी उनके भक्त रहे है। मसूरी अकादमी का जहां बिल्डिंग है उसके कोट से लगी एक पाठशाला में वह अभ्यास करते थे। वहाँ के श्रीकृष्ण मंदिर के ओटे पर वह बैठते थे जहां कालिदास जी मिलने आते थे।

कभी वह ६० के दशक की बातें करेंगे कभी सत्तर की।और कभी कभी १९०४ की। कोई नहीं जानता उनकी आयु। कोई कहता है १०० कोई १६५। महावतार बाबा ने चुन लिया था उन्हें बचपन में। आज भी ध्यान में उनकी भेंट महावतार बाबा से होती रहती है। वह न पानी पीते हैं न दूध, न कोई सरबत। कोई सेब केला लाया हो तो कोई दीन एकाद टुकड़ा मुँह में रख लें या एकाद बादाम। न कोई भोजन करते है। बस करते है तो ध्यान और भ्रमण। भारत देश की पैदल यात्रा उन्होंने तीन बार की है। नंदादेवी से लेकर एवरेस्ट तक सब चोटी को छुआ है। अफ़ग़ानिस्तान से मानसरोवर तक पैदल भ्रमण किया है। कैलाश मानसरोवर अनेक बार गए है।पैर तो चलाए  है लेकिन साइकिल और कार भी चलाई है। बड़े के साथ बड़े और छोटों के साथ छोटे बन जाते है। एक दिन एक अफ़सर के टीनेज बेटने नई लाई साइकिल सीखने को कहा तो केंद्रीय पर आसन लगाया, बैठे और चल दिए। साईकिल नासिक पहुँच गई। कुछ साल बाद उन्होंने साइकिल को इन्फिल्ड बुलेट बाईक बनाकर युवक को लौटाई। फ़ोटोग्राफ़ी का शौक़ है।उन्होंने लिए प्रकृति की सुंदरता के फ़ोटो अद्भुत है। कभी कभी बाँसुरी बजाते है। भजन के लिए उनका कंठ भक्तिरस से भरा मधुर है। कल उन्होंने दो भजन गाए।पहला था, “करो मेरे जीवन में ऐसा उजाला कि हर साँस हो तेरे चिंतन की माला; मेरे मन की दुनिया को इतना बदल दो कि दुनिया ये तेरी दिल से लग जाए।” दूसरा बड़ा अभी भी घूम रहा है। “घूम रही माया ठगनी ले लेगी तेरी गठरियाँ रे, मोह का पिंजरा है ए जग यहाँ कल की नहीं खबरियां रे.. अलख निरंजन। भर ले तुं संतोष के धन से, तन और मन की गगरियाँ रे… घूम रही माया ठगनी।” उनकी लिखी यह गीत फ़िल्म माया मच्छिन्द्र (१९७५) में फ़िल्माया गया था। 

पालमपुर आश्रम कैम्पस रमणीय है। समर्पण बैठक और यज्ञ खंड है। ध्यान खंड है। ७१ कमरों का दर्पण आवास है। भोजनशाला है। उत्तर में हिमालय की पहाड़ियाँ, कुछ सफ़ेद चोटियाँ और पूरब से सूरज की निकलती धूप। सर्दियों में यहाँ बैठकर धूप सेकने का मज़ा ही कुछ और है। कैम्पस का मंत्र है निर्भयता, संगठन और आनंद। राष्ट्र देवो भवः वसुधैव कुटुंबकम्।

उनका संदेश है। वर्तमान में रहो। भूत के बवंडर में मत उलझो। किसी का बुरा मत करो। जितनी हो सके ज़रूरतमंदों की मदद करो।राष्ट्र को प्रेम करो। अपने साँसों का अभ्यास कर उसमें स्थिरता लाओ। विचारों की खरपतवार दूर करो। जब भूमि बीज के लिए तैयार होगी तब उसमें बीज मंत्र बोया जाएगा।

हिमालय के सिद्धयोगी बाबा अमर ज्योति जी का फिर एक बार साक्षात्कार कर जीवन धन्य हुआ और परमात्मा ने हमें इस जीवन रूप में दिए अमूल्य उपहार की समझ और बढ़ी।

पूनमचंद
पालमपुर, हिमाचल प्रदेश
(महावतार बाबाजी मेडीटेशन सेन्टर, रामछेहर)
१० फ़रवरी २०२४

Friday, February 9, 2024

Valmiki Tirth in Amritsar

 Valmiki Tirth in Amritsar 


There is place called Valmiki Tirth near Amritsar. There was one ancient temple of Sita-Love-Kush. It was place of Valmiki Ashram. Sita was exiled by Lord Rama after heating the criticism of the people of Ayodhya. Lakshman following the command of the King left her in the forest area of this landing the dark hours of evening. Pregnant Sita wonder around the place and found an Ashram of Sage Valmiki where she took shelter for rest of her life. Valmiki was a Brahmin, son of Pracheta, the brother of Vashistha and Bhrigu. The Govt of Punjab had developed the site in a big campus of temples, statutes, buildings and ponds in 2016.

There is a legend of the birth of Love and Kush. As Sita was pregnant when was exiled, she delivered a baby boy, who was named Love. One day, when she was going to fetch water, she kept the new born in the cradle and told Sage Valmiki to guard him till she returns. But after walking few steps she thought that the Sage is of the habit of going into meditation and wild animals may kill the new born, therefore she returned and took the new born with her. After a while when Sage Valmiki looked at the cradle it was empty. He was worried for Sita and therefore made a baby of grass, injected life in it and placed in the cradle. When Sita returned after fetching water, she saw a baby in the cradle and was surprised. Sage Valmiki told her how the second babt took place. He was about to remove him by his mantra power but Sita said that she would look after both the sons as her own. The second boy was generated from कुशा (grass), therefore he was named Kush. 

Love and Kush were the two brothers, tied the Ashwamedh Yagya of Lord Rama and fought the battle. It is said that the city of Lahore was founded by Love as he was ruling this part of India. 

King Dasharath and Kaikeyi had a daughter named Shanta. There is a legend how Sita was responsible for her second exile in pregnancy. I shall write some other day. Ramayana is not a scripture but an epic, therefore, each region has its own version of Ramayana. 

Punamchand 
7 February 2024
Valmiki Tirth, Amritsar 

Thursday, February 8, 2024

Attire of Atari

 Attire of Atari


Hundreds of visitors coming to Atari-Wagah border of India Pakistan since the practice of lowering of the flags ceremony (beating retreat) started by the security forces of both the countries in 1959. It is hosted by BSF from India side since 1965. Atari is the village, the last railway station of India, part of Grant Trunk Road. As the sun sets, the iron gates at the border are opened and the two flags are lowered simultaneously. The flags are then folded, and the ceremony ends with a retreat that involves a brusque handshake between soldiers from either side, followed by the closing of the gates again. 

As the years passes the 60 minutes ceremony in the evening is getting more and more colourful. The bright khakhi uniform with colourful headgear, shining shoes, energetic body language, raising of legs as high as possible and  rapid dance like monoeuvres moves, blustering parade and highly charged spectators make the event more colourful. Women personnel of Border Security Force also take part in the ceremonial retreat added the charm. The pared commands and slogans injects energy to the atmosphere. The atmosphere gets charged with the parade commands, high energy of the crowd, their slogan shouting and dance with the beats of the songs of patriotism makes the atmosphere energetic. 

The Indian side is high-tech with perfection in presentation. The soldiers and officers look fresh and attractive. The sound system is so powerful that the pared commands and slogans create goosebumps. Their gallantry moves with the sound of high pitch drum beats and commands make the crowd their fan. 

India is a country of 140 crore population, therefore, the Indian side of theatre is mostly houseful. Its growth is visible in the outlook of the visitors. But the other side of the fence though carry equally energetic force with perfected moves but is losing marks in their presentation. The choice of black uniform with black headgear is less energetic compared to Indian Khakhi in the evening hours. As they are 1/6th of India, the crowd to their side is less. They have kept two dholis to cheer up the crowd sitting at both the sides of the theatre. The two Dholis wearing black and red lungi, white kameez and black jacket  try their level best to match the momentum of the hour but can’t match with the drums of India. In the sounds of India’s slogans Hindustan Jindabad, Bharat Mata ki Jai, Vande Mataram, the sound of their slogan nara e takbir allah o akbar is somehow losing pitch. Indians dress pattern is changing fast and getting modern but majority of males and females to the other side still look traditional in Shalwar and Kameez. 

The gates open for few minutes in which the hearts open, two hands shaked but as soon as the ceremony gets over all closed. Though with a hope that they will open up again a day after. Will they get open permanently? How strange that rivalry, brotherhood and cooperation are sailing together at the borders of India and Pakistan. The aggressive aspect of the theatrics is the spice of the ceremony but a tone of rivalry too. Will the rivalry end? God knows. 

Punamchand 
7 February 2024
Atari-Wagah border 

Saturday, January 6, 2024

Happy Winter

 Happy Winter 


We went through a perihelion phase this week (2-4 January) when the distance from the Earth to the Sun was the smallest (143.7 mkm). But we in northern hemisphere felt the cold wave. Why? Because our earth in inclined on its axis and is rotating. These days the South Pole is tilted towards the Sun, as a result the rays of Sun are not coming directly to us in northern hemisphere but are slanted, travels a longer distance and hear a larger area. Thus they have less heating power. 

The Sun radiates heat of which earth receives one part of the 2 billion parts. Out of 100% solar energy only 51% reaches the earth, 35% reflected back into space and 14% is absorbed by the atmosphere during insolation. The atmosphere additionally receives 34 units of earth radiation and making it 48%. If the inflow of the heat is less from the Sun, the heat quantity in the atmosphere also comes down in northern hemisphere, and therefore, the atmosphere around us is cold these days though the earth is nearest to the Sun. 

Winter is tough for the old aged people because the atmospheric pressure goes up. Those who have weak heart lungs couldn’t tolerate the pressure of the atmosphere and therefore die more in winter. The air with water vapour in summer and monsoon is lighter because the molecular weight of water (18g/mol) is less than the average molecular weight of air (about 29g/mol). Humid air is less dense, weighs less and exerts less pressure than the dry air. 

After 4th January the distance between the Earth and the Sun will go on rising till it reaches to the greatest (152.1 mkm), the aphelion occurs on 3-6 July, the North Pole will be tilted towards the Sun, will have direct rays of the Sun in northern hemisphere and will have a tough summer heat to face but with low pressure of the atmosphere. We need it, for the rainy season, otherwise how could we survive without water and food? 

Enjoy the play of the nature through the seasons. Season’s greetings. Happy Winter. 🥶 ❄️ 

Punamchand 
6th January 2024

Friday, January 5, 2024

 ध्यान। (meditation) 


किसी ने प्रश्न किया था कि ध्यान करते करते नींद आ जाती है। ध्यान करते करते नींद आ जाना स्वाभाविक क्रिया है क्योंकि साँस की गति धीमे होते ही ओक्सिजन की मात्रा कम होने लगती है और मन अपनी जाग्रति खोने लगता है और नींद आ जाती है। 

हमारी जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति मन की ही तो अवस्थाएँ है। मन प्रधान है इसलिए हम मनुष्य है। मन जब चैतन्य के पूर्ण तेज से भर जाता है तब जाग्रत हो जाता है और मन जब थक जाता है तब साँस की गति धीमी कर सोने लगता है और सुषुप्ति में चला जाता है। सपने आमतौर पर पहली नींद ख़त्म होने के बाद जब हम सोने का प्रयास करते है तब प्राण हिता नाड़ी में प्रवेश करते ही हम सपने देखने लगते है।  यह अवस्था अर्ध सुषुप्ति जैसी है। इसलिए पूर्ण जाग्रति की अवस्था का बोध हमारी याददाश्त में लंबे वक्त तक रहता है; स्वप्न प्रयास से याद रखने पड़ते हैं और नींद तो हमने आधा जीवन सोने में बिताया लेकिन कुछ भी याद नहीं रही। पूरा खेल ओक्सिजन की मात्रा और मन की अवस्था भेद का है। 

आत्म साक्षात्कार में हमें तो मूलाधार में साडे तीन कुंडल मार बैठी शक्ति को जगाना है, उसे सुषुम्ना पथ में दाखिल कर उपर ले जाना है और ब्रह्मरंध्र में बैठे शिव के साथ मिलन कर आत्म साक्षात्कार करना है। यह करने के लिए बस अहं-मन को निर्मल कर अपने सत् स्वरूप का साक्षात्कार करना है। 

कश्मीर शैव दर्शन के आचार्य स्वामी लक्ष्मण जू सुषुम्ना को सूक्ष्म साँस से समझाते हैं जिसमें सासों की गति न के बराबर हो जाती है, जिसमें नथुने के आधा एक इंच जितना प्राण संचार बना रहता है। धीमी साँस से धीरे-धीरे ओक्सिजन की मात्रा कम होती जाएगी, मन शिथिल होने लगेगा, जगत विक्षेप घटने लगेगा और आत्म प्रकाश का अनुभव होने लगेगा। अब जब आत्म अनुभव की स्थिति आई तब सोने लगेंगे फिर ध्यान का क्या अर्थ? ध्यान करना है मतलब कम ओक्सिजन में जाग्रत रहना है। क्रिया शैथिल्य से वैसे भी ओक्सिजन की ज़रूरत कम हो जाएगी। साधु बाबा लोग ध्यान करने शायद इसलिए कम ओक्सिजन की जगह वाली पहाड़ियों में चले जाते होंगे। ध्यान करते करते एक बार जब खुद की पहचान हो गई, अपना पता लग गया फिर मन चाहे जाग्रत में हो या स्वप्न में, या सुषुप्ति में, तुरीया तो हमेशा बना रहेगा। बस उस तुरीया को पहचान कर तुरीयातीत सर्वाकार साक्षात्कार करना है। 

इसके लिए लंबे वक्त तक हिले-डुले बिना एक आसन में बैठने की क्षमता पानी है। इसके लिए आसन करने होंगे। साँसों की धीमी गति से कम ओक्सिजन से जाग्रत रहना है इसलिए प्राणायाम करके फेफड़ों को ओक्सिजन से पूरी मात्रा में भर देना होगा। इन्द्रियां आहार के लिए बहिर्मुख है उसे अंतर्मुख कर प्रत्याहार कराना है। बिना उद्देश्य क्रिया का क्या अर्थ? इसलिए धारणा बनानी है। धारणा पर ध्यान करना है। ध्यान करते करते (जाग्रत रहकर) सम+अधि, समत्व धारण किये अपने सत् स्वरूप में अधिष्ठित हो जाना है। तभी तो समाधि घटेगी। 

ध्यान बस एक मन को सँभालकर राह पर लाने का प्रयास है, जिससे की हमें अपने सच्ची पहचान हो जाए। एक बार अमर सत्य को पहचान लिया फिर मृत्यु का भय कैसा? न मृत्यु रहेगी, न जन्म। सिर्फ़ अमृतसर रहेगा। 

चलें अमृतसर?

पूनमचंद 

५ जनवरी २०२४

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