Wednesday, December 20, 2023

आँख।

 आँख। 


मनुष्य जगत अपने इष्ट की पूजा में रत है क्योंकि उसे परमात्म दर्शन करना है। किसी को अपनी ह्रदय गुहा में बैठा देखना है तो किसी को बाह्य विराट में। चर्म चक्षु से काम नहीं हो रहा इसलिए आँखों की तलाश में है। किसी को ज्ञान की आँख चाहिए औरक़िस्मतों भक्ति की आँख। लेकिन भक्ति बिना ज्ञान नहीं होता और ज्ञान बिना भक्ति नहीं। अजब ग़ज़ब का जोड़ है। 

मनुष्य चित्त तीन गुणों सत्व, रजस और तमस से चलता है जिसे मायिक कहा गया है। साधनाएँ सब सत्व की वृद्धि के लिए है। लेकिन भगवद् दर्शन के लिए यह पर्याप्त नहीं है। अप्राकृत के दर्शन के लिए अप्राकृत सत्व चाहिए जो बिना भाव और भक्ति से मिल नहीं सकता। भाव जगेगा नहीं, भक्ति होगी नहीं तब तक प्रेम फल आता नहीं। प्रेम जब तक राधा नहीं बनता तब तक कृष्ण दर्शन होता नहीं। 

इसलिए दिमाग़ को छोड़ ह्रदय पर ध्यान देना है जहां ह्रादिनी शक्ति का साथ मिलेगा। मांसपिंड ह्रदय नहीं, हमारे होने का, भाव केन्द्र ह्रदय। चित्त को वहीं विश्राम कराना है। तभी भगवद् दर्शन होंगे। स्वयं की तब अनुभूति होगी। फिर क्या करेंगे अंदर बाहर। अंदर भी वही और बाहर भी वही। यहाँ एक के सिवा दूसरा कोई है ही नहीं। स्वयं को स्वयं के प्रेम में पागल करना है। राधा बनकर श्याम की बंसी का स्वाद लेना है अथवा श्याम बन राधा संग रास रचाना है। 

भारत में फिलोसोफी को ‘दर्शन’ कहते है। चित्त के आयने पर पूर्ण चित्काकलामय भगवद् दर्शन। 
बस भगवद् कृपा चाहिए। यही कामना करें। ह्रदय में वास (भक्तिभाव का) हो और दर्शन के लिए आँख (प्रज्ञा) हो। 

पूनमचंद 
२० दिसंबर २०२३

Monday, December 18, 2023

वैदिक गाय, घोड़ा, बकरा और भेड़।

वैदिक गाय, घोड़ा, बकरा और भेड़। 

हिन्दू गौ पूजक है। सदियों से चली आ रही इस परंपरा लगता है एक पशु गाय की व्याख्या में ही सीमित हो गई। लेकिन वेद में गौ का अर्थ व्यापक है। गौ संबोधन पोषण प्रदा करनेवाली दिव्य शक्तियों के लिए किया गया है। जैसे किः इमे लोका गौ। (ये लोक गौ कहे जाते है।) (शत.ब्रा.६.५.२.१७)। अंतरिक्षं गौ (एत.ब्रा.४.१५)। गावो वा आदित्याः। (एत.ब्रा.४.१७)। अन्नं वै गौः। (तैत.ब्रा.३.९.८.३)। यज्ञो वै गौः। (तैत.ब्रा.३.९.८.३)। प्राणों हि गौः। (शत.ब्रा.४.३.४.२४)। वैश्वदेवी वै गौः (गो.ब्रा.२.३.१९)। आग्नेयो वै गौः।(शत.ब्रा.७.५.२.११)। इस प्रकार लोकों, अंतरिक्ष, सूर्य, अन्न, यज्ञ, प्राण, विश्वदेवी (चिति), अग्नि को गाय का संबोधन किया गया है। 

यजुर्वेद में प्रार्थना है (१.३)। हज़ारों धाराओं से लोकों के तेजस को सवित करनेवाली परम व्योम में स्थित अदिति रूप इस कामधेनु (गौ) को आप हानि न पहुँचाएँ। (वसोः॑ प॒वित्र॑मसि श॒तधा॑रं॒ वसोः॑ प॒वित्र॑मसि स॒हस्र॑धारम्। दे॒वस्त्वा॑ सवि॒ता पु॑नातु॒ वसोः॑ प॒वित्रे॑ण श॒तधा॑रेण सु॒प्वा काम॑धुक्षः॥) परम व्योम में स्थित सहस्र धाराओं में स्थित पोषण देनेवाली शक्ति कामधेनु (गौ) पोषण देनेवाली प्रकृति की शक्ति है, केवल एक पशु गाय नहीं।

हिन्दुओं में अश्व और अश्वमेध यज्ञ का बड़ा महत्व रहा है। लेकिन वैदिक ऋषियों ने अश्व की पशु के लिए नहीं लेकिन गुणवाचक तीव्र गति देनेवाले के रूप में उपयोग किया है। अश्निुते अध्वानम् (तीव्र गतिवाला); अश्नुने व्यापनोति (शीघ्राता से सर्वत्र संचरित होनेवाला); बहु अश्नानीति अश्वः (बहुत खानेवाला अश्व है)। इस परिभाषा में वेद में किरणों को, अग्नि को, सूर्य को और ईश्वर को अश्व की संज्ञा गई है। अग्निर्वा अश्वः। (शत.ब्रा.३.६.२.५)। अग्निर्वा अर्वा (तै.ब्रा.१.३.६.४)। असौ वा आदित्योडश्वः। तै.ब्रा.३.९.२३.२)। सौव्यों वा अश्वः। (गो.ब्रा.२.३.१९)। अश्वो यत ईश्वरो वा अश्वः। (शत.ब्रा.१.३.३.५)।

बृहदारण्यक उपनिषद (१.१.१) के मंत्र के अनुसार इस जीवन यज्ञ अश्व की उषा शिर है, सूर्य नेत्र, वायु प्राण, वैश्वानर अग्नि खुला मुख, संवत्सर आत्मा, घुलोक पीठ, अंतरिक्ष उदर, पृथ्वी पैर रखने का स्थान, दिशाएँ पार्श्व भाग, अवांतर दिशाएँ पसलियाँ, ऋतुएँ अंग, मास और अर्धमास संधि स्थान, दिन और रात प्रतिष्ठा (पैर), नक्षत्र अस्थियाँ, आकाश मांस, रेत ऊवध्य, नदियाँ नाड़ियाँ, पर्वत यकृत, ह्रदय मासखंड, औषधि और वनस्पतियाँ लोम, उपर जाता हुआ सूर्य नाभि के उपर काऔर नीचे जाता हुआ नाभि के नीचे का भाग, जम्हाईं लेना बिजली का चमकना, और शरीर हिलाना मेघ गर्जन है। वह (अश्व) जो मूत्र त्यागता हैं वह वर्षा है और उसकी गर्जना उसकी वाणी है। (उषा वा अश्वस्य मेध्यस्य शिरः। सूर्यश्चक्षुर्वातः प्राणो व्यात्तमग्निर्वैश्वानरः संवत्सर आत्माश्वस्य मेध्यस्य। द्यौः पृष्ठमन्तरिक्षमुदरं पृथिवी पाजस्यं दिशः पार्श्वे अवान्तरदिशः पर्शव ऋतवोऽङ्गानि मासाश्चार्धमासाश्च पर्वाण्यहोरात्राणि प्रतिष्ठा नक्षत्राण्यस्थीनि नभो मांसानि। ऊवध्यं सिकताः सिन्धवो गुदा यकृच्च क्लोमानश्च पर्वता ओषधयश्च वनस्पतयश्च लोमानि। उद्यन् पूर्वार्धो निम्लोचञ्जघनार्धः। यद्विजृम्भते तद्विद्योतते। यद्विधूनुते तत्स्तनयति। यन्मेहति तद्वर्षति।
वागेवास्य वाक्॥ बृह.१,१.१ ॥ (शतपथब्राह्मणम् १०.६.४.१)। 

क्या यह सूत्र पशु अश्व के लिए हो सकते है?

इसी तरह अज (बकरा) वाणी के लिए प्रयोग है, नहीं कि बकरा पशु के लिए। वाक् वा अजः। अग्नि का धूम्र अज है। आग्नेयो वा अजः (शत.ब्रा.६.४.४.१५)।पृथ्वी को अवि (भेड़) कहा गया है क्योंकि वह प्रजा की रक्षा करती है। (शत.ब्रा.६.१.२.३३)। यजुर्वेद के ऋषि प्रार्थना करते हैं कि, हे अग्नि देव, उत्तम आकाश में स्थापित, विभिन्न रूपों को निर्माण करनेवाली, वरूण की नाभिरूप, उच्च व्योम में उत्पन्न, असंख्यक की रक्षा करनेवाली इस महिमामयी अवि को हिंसित (नष्ट) न करें।(वरू॑त्रीम्। त्वष्टुः॑। वरु॑णस्य। नाभि॑म्। अवि॑म्। ज॒ज्ञा॒नाम्। रज॑सः। पर॑स्मात्। म॒हीम्। सा॒ह॒स्रीम्। असु॑रस्य। मा॒याम्। अग्ने॑। मा। हि॒ꣳसीः॒। प॒र॒मे। व्यो॑मन्निति॒ विऽओ॑मन् ॥यजु.१३.४४ ॥)

क्या यह सब पशु की बातें है? हो सकता है वेदों के विधानों को पकड़कर पृथ्वी पर विचरण करनेवाले पशुओं के गुणों को देखकर गौ, अश्व, अज और अवि की संज्ञा दी गई हो  जिसे हमने अपनी संकुचित और छोटी सोच से स्वार्थ सिद्धि हेतु और संकुचित कर दिया। हमें तो पशुता से बाहर आकर विश्वमय होकर विश्वोर्तीर्ण के आभारी बनना है जिसने हमें यह मौक़ा दिया। तभी तो वसुधैव कुटुंबकम् का मंत्र चरितार्थ होगा। हमें अपनी सोच को विकसित करना है और गौ, अश्व, अज और अवि के वैदिक अर्थ को समझकर उसकी रक्षा करनी है, उन्हें हिंसा से बचाना है। 

अस्तु। 

पूनमचंद 
१८ दिसंबर २०२३
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