मायापुरी (not locally real: unreal universe)
साक्षात्कार किताबों और प्रवचनों से नहीं होता, अनुभव में आना चाहिए। वे मार्गदर्शन कर सकते हैं लेकिन स्वरूप स्वानुभूति ही प्रमाण रहेगा। मोटे तौर पर दो विश्व मानते है; एक दृश्यमान और दूसरा अदृश्य। दूसरे को विश्व कहे या कुछ और, नहीं पता।
सब जीवों में मनुष्य जटिल दिमाग़ लेकर जन्मा है इसलिए सृष्टि के रहस्यों की खोज में वह सदियों से लगा हुआ है। पहले तो पृथ्वी को केन्द्र मानकर चल रहा था लेकिन फिर सूरज को केंद्र बना दिया। आगे चलकर वैज्ञानिक न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण और गति के सिद्धांत देकर विश्व को २०० साल तक अपनी आँखों से चलाया। फिर आया वैज्ञानिक आइन्स्टाइन जिसने सापेक्षवाद और दिक्-काल के सिद्धांतों से हमारी नज़र ही बदल दी। फिर आए बोहर, वर्नर, पौली इत्यादि; क्वांटम यांत्रिकी लाकर भौतिकी असल दुनिया (particle) को नक़ली और उसके नीचे की स्पन्दित दुनिया (wave) को आगे कर दिया। भौतिक दरिया लहर के समुद्र पर जैसे तैर रहा है। सब तरंगें एक ही है, एक साथ जुड़ी है, सब पानी है। तीन वैज्ञानिकों की ‘the universe is not locally real’ शोध को नोबेल पुरस्कार (२०२२) भी मिल गया। तरंगों की दुनिया जिसमें एक अणु दूसरे से जुड़ा है। चाहे कितना भी दूर हो, प्रकाश की गति से भी कईं गुना अधिक, तुरंत, एक का बदलाव दूसरे को बदल देगा। एक दक्षिणावर्त (clockwise) चलेगा तो दूसरा वामावर्त (anti-clockwise)। ऐसा लगता है दोनों दूर होते हुए भी एक दूसरे के घनिष्ठ संपर्क में है, और संतुलन बना रहे है। एक का बदलाव दूसरे को तुरंत बदल देता है। हम quantum entanglement and quantum teleportation के ज़रिए Quantum computer के जमाने में आ गए। संचार अब तुरंत, प्रकाश की गति से भी ज़्यादा तेज़ी से होगा।
जो चीज़ वैज्ञानिक भौतिक जगत की प्रयोगशाला में खोज रहे हैं वह हमारे प्राचीन ऋषिगण अपनी चेतना में ध्यानस्थ होकर टटोल रहे थे। किसी एक विषय पर केन्द्रित होकर वे उनका अवलोकन निष्कर्ष दे रहे थे। कुछ हज़ार साल पहले हिन्दुस्तानी दिमाग़ ऐसा तेज था यह अचरज की बात है।
पूरा विश्व एक दूसरे से जुड़ा है; सतह के नीचे चल रहे स्पंदनों का दृश्यमान रूप है। दृश्यमान जगत परिवर्तनशील है इसलिए मिथ्या है लेकिन जिस पर्दे पर उसका खेल चल रहा है वह सचेत-जागरूक-चेतना एक एवं अपरिवर्तनशील है। चेतना के पीछे क्या है किसी को नहीं पता। उस अनिर्वचनीय को कईं नाम दिए गये लेकिन कोई बयान नहीं कर सकता। प्रकाश और विमर्श। विमर्श के भी दो रूप, दृश्यमान जगत और अदृश्य शक्ति। शक्ति के भी दो रूपः शिव और शक्ति, entangled, एक का उन्मेष दूसरे का निमेष, परस्पर, एकसाथ।
बाह्य जगत को भोगने हमारे पास साधन है। इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहंकार। एक रथी (सीमित चैतन्य-जीव), दूसरा सारथी (बुद्धि), तीसरा लगाम (मन) और चौथे घोड़े (इन्द्रियाँ)। लेकिन अक्सर देखा जाता है की सामान्य जनसमूह की इन्द्रियाँ दौड़ती रहती है। मन उस पर लगाम कस नहीं सकता क्यूँकि उस पर बुद्धि की पकड़ कमजोर है। बुद्धि की पकड़ इसलिए कमजोर है क्योंकि जीव बेपरवाह है। इसलिए जीव अपने ६०-८० साल के इस छोटे से भौतिक आवर्तन में सुख की खोज में अभाव का दुःख लिए भटकता रहता है और शरीर जीर्ण होते ही छोड़ जाता है।
जो बुद्धिवादी और तर्क संगत है उनके लिए अपने दिमाग़ की सीमाएँ एक मर्यादा बन जाती है। वे भौतिक से अभौतिक की खोज में लगे है इसलिए उनका तर्क उनको वास्तविक दृश्यमान दुनिया से अलग नहीं होने देता। जबकि सत्य तो अदृश्य विश्व में छिपा पड़ा है।
जहां न पहुँचे दिमाग़ वहाँ ह्रदय पहुँचता है। ह्रदय के द्वार खोले बिना सत्य का साक्षात्कार हो नहीं सकता। ह्रदय प्रेम भाव से भरपूर है इसलिए वह तुरंत जुड़ जाता है। इसलिए अगर उस अगोचर से ह्रदय का नाता जोड़ लिया तो वह प्रकट हो जाएगा। जीव शिव से entangled है। जीव का मेसेज जाएगा तो शिव का जवाब आना ही आना है।जीव जैसे स्पीन करेगा शक्ति वैसे स्पीन करेगी। वे दो नहीं, एक ही है, संसार लीला में खेल रहे है।
हमें चेतना के संकोचन से बाहर निकलना है। चिति जो चित्त बनी है उसे चिति में परिवर्तित करना है। इसके लिए अपनी चेतना का विस्तरण करना होगा। सर्वं समाविष्ट ह्रदय विकसाना पड़ेगा। प्रेमनगर में किसका विरोध करेंगे? विस्तारित चेतना के सब विरोध जब शांत हो जाएँगे तब वह अखंड चेतना का अनुभव होगा। वही माँ अंबा है, जगदंबा है, जिसके अनुग्रह से शिव का साक्षात्कार होगा।
आओ इस मायापुरी को प्रेमनगर बना लें। जाना तो है, दोनों के पार।
पूनमचंद
८ सितंबर २०२४
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