असीम संभावना।
यह पृथ्वी अंदाज़ा ३.८ अरब सालों से है। कहते हैं कि वह पहले अग्नि का गोला था। फिर अग्नि शांत होती गई और बादल बने, वर्षा आई, पानी लाई, वनस्पति हुई, जल में जीवन पल्लवित हुआ और आगे चलकर जलचर, भूचर, नभचर की जीव सृष्टि बनती रही। अनेक प्रकार की वनस्पति बनी है और अनेक प्रकार के जीव। जैसी आबोहवा और जैसी ज़मीन, वनस्पति अपना अस्तित्व बनाये रखने अपना रूप रंग बदलकर खड़ी रहती है। जैसा जल वायु, पानी के जीव प्रतिकूलन में अनुकूलन करते हुए नये नये रूप रंग लेकर बदलते रहते हैं और बनते रहते है। वैसे ही हवा के दरिया में रहे हम सब थलचर, नभचर, उभयचर जीव ज़मीन, आबोहवा के चलते अनुकूलन करते करते बदलते रहते हैं और बनते रहते है। जैसे वनस्पति का एक बीज उस वनस्पति के स्वतंत्र अस्तित्व का आधार है वैसे जीव सृष्टि की एक एक प्रजाति अपने अपने अस्तित्व का स्वतंत्र आधार है। एक में से दूसरा बना ऐसा नहीं लेकिन संभावना क्षेत्र से उभरी मूल प्रजाति अनुकूलन और प्रतिकूलता को चलते अपने प्रारूप में परिवर्तन करती हुई इस मुक़ाम तक पहुँची ऐसा कह सकते है। मूलतः यह ज़मीन और आबोहवा, यह सूरज, यह चाँदनी, इन सबके संयोग से पृथ्वी पर एक जीवन संभावना क्षेत्र का सृजन हुआ है जिसके चलते जल, ज़मीन, वायु में प्रवाहित चैतन्य विविध रूप रंग लेकर जीव बनकर अस्तित्व के सुख दुःख का उपभोग कर रहा है।
जैसा जीवन संभावना क्षेत्र इस पृथ्वी पर है वैसा ब्रह्मांड में और कहीं भी हो सकता है। लेकिन अभी तक सूर्य मंडल के और ग्रह, उपग्रह से ऐसी कोई खबर नहीं मिली न कोई और तारों से। लेकिन जैसा संयोग पृथ्वी पर घटा वैसा और कहीं घटने की संभावना बनी रहती है।
पृथ्वी पर भी हमें नभचर, थलचर, जलचर, उभयचर का ही पता है। लेकिन उसके उपर के पतले वायुमंडल में और उसके पार कैसी जीव सृष्टि हो सकती है या है इसका हमें पता नहीं है। हमारे ज्ञान की सीमा हमारी बुद्धि और इन्द्रियों की सीमा है। इसलिए इनकी सीमा के बाहर का न हम सोच सकते है न अनुभूत कर सकते है। इसलिए इस सृष्टि के रहस्यों को जानने के लिए हमारे पास अतिन्द्रिय शक्ति की आवश्यकता है। इस शक्ति के चलते साधना, सिद्धि और सिद्ध जगत का एक संभावना क्षेत्र खड़ा हुआ है जिस पर हज़ारों चलें और आज भी चल रहे है।
आख़िर क्या पहचानना है? इस पूरी लीला का बीज कौन है? कार्य है तो कर्ता कौन है? क्या चेतन से जड़ बना? क्या जड़ से चेतन बना? दोनों का जोड़ कैसे बैठा? इस पूरी लीला का सर्जक, पालक और संहारक कौन है? कोई कहे चेतन से जड़ नहीं बन सकता। कोई कहे जड़ को चेतन होने की संभावना ही नहीं। कोई कहे दोनों का मेल बैठाने प्राण शक्ति बनी जिसे शाक्त शक्ति और वज्रयानी तारादेवी बनाकर पूजते है। कोई कहे सब कुछ ब्रह्म है, कोई कहे सिर्फ शून्य।कोई कहे अद्वैत है, कोई कहे द्वैत। कोई विशिष्टाद्वैत समझाए कोई द्वैताद्वैत। कोई कहे एक ही अनेक रूप लिए नित्योदित खड़ा है।कोई कहे नित्य है तो कोई कहे निरंतर है। कोई कहे कूटस्थ है कोई कहे प्रवाहमान। कोई कहे दयालु हैं, सबका रखवाला है और न्याय करता है। कोई कहे वह कहीं ऊँचे आसमान में रहता है और जीवों को कर्मानुसार गति देता है।
जिस बुद्धि में जो बीज-विचार दाखिल किया गया, बुद्धि का रंग वहीं गहरा होता चला जाता है। फिर बुद्धि की जो आदत है, मैं बड़ी, समूहों का अहंकार सत्य पर आवरण बन जाता है और बुद्धि बद्ध हो जाती है और हम बद्धता के बंदी हो जाते है।
लेकिन जो बद्ध नहीं हुआ, प्रवाही रहा, खुला रहा, भीतर जाकर मिटता गया, वह खोजते खोजते खोजनेवाले पर ही ठहर गया। असीम संभावना क्षेत्र में दाखिल हो गया।
आज बस इतना ही।
पूनमचंद
२५ जुलाई २०२४
Ati adbhutam
ReplyDeleteNirantar khoj
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