Saturday, July 26, 2025

कुत्ते के दो पिल्ले ।

एक छोटा सुंदर गाँव था। गाँव के लोग कुएँ का पानी पीते थे। जल निर्मल था, स्वास्थ्य वर्धक था इसलिए लोग निरोगी थे। कुएँ से सबको लगाव था। एक दिन उस कुएँ में कुत्ते के दो पिल्ले दौड़ते दौड़ते गिर गये। उनके मरने से कूएँ का पानी दूषित हो गया और दुर्गंध से भर गया। पूरा गाँव एकत्र हुआ और बाल्टी, घड़ा जो मिला रस्सी से बाँधकर सीधे या चरखी पर चढ़ाकर पानी निकालते रहे। कुआँ बड़ा और गहरा था इसलिए पूरा कुआँ खानी करने में पूरा दिन लग गया। फिर रात में कुआँ भूजल के रिसने से भर गया। सुबह सब लोग बाल्टी, घड़ा, मटका लेकर पानी भरने चले आए। कल का दिन तो घर में जो बचा था उस पानी से चल गया लेकिन आज़ कई घरों में पानी नहीं था इसलिए लोग उतावले हो रहे थे। लेकिन यह क्या? पानी में दुर्गंध नहीं गई थी। बदबूदार पानी को सूँघते मन ख़राब हो गया। फिर पूरा गाँव लगा उस पानी को उलीचने में। शाम ढलते तक पूरा कुआँ ख़ाली कर दिया। फिर रात भूजल रिसने से सुबह होते होते पूरा कुआँ भर गया। पूरा गाँव पानी लेने आया लेकिन दुर्गंध गई नहीं थी। फिर तीसरे दिन, चौथे दिन, पांचवें भी पानी उलीचा लेकिन पानी में दुर्गंध से छुटकारा नहीं मिला। लोग इधर उधर से जल लाकर गुज़ारा कर रहे थे लेकिन पानी का बड़ा स्रोत बंद होने से व्याकुल थे। बिमारियों का डर भी बैठा था। लेकिन समस्या को सुलझाने का कोई रास्ता नहीं मिल रहा था। ऐसे में एक दिन एक महात्मा वहाँ से गुज़रे। पूरे गाँव को कुएँ के पास इकट्ठा देखकर वह भी कुतूहलवश वहाँ गये। लोगों को पूछने पर पता चला कि कुएँ के पानी को उलीचते उलीचते एक सप्ताह हो गया लेकिन पानी में से दुर्गंध नहीं जा रही थी। महात्मा ने जब जाना कि पानी में कुत्ते के दो पिल्ले गिरे थे तब पूछ लिया कि वे दो पिल्ले निराला की नहीं? पूरा गाँव सर खुजलाने लगा और बताया की नहीं। महात्मा मुस्कुराएँ और कहा जाओ जाकर चिमटा ले आओ और पहले मरे हुए कुत्ते के पिल्ले के शवों को निकलो। एक युवा दौड़ा और चिमटा ले आया, रस्सी से बाँध जल में उतारा और फिर इधर उधर घूमा कर दोनों शवों को खोजकर बाहर निकाले। फिर पानी था उलीच लिया। रात भर भूजल के रिसने से सुबह होते होते कुआँ निर्मल जल से भर गया। लोगों ने चल खींचा, दुर्गंध नहीं थी, पिया, मटके-बर्तन भरे, कुछ लोग तो वहीं खड़े खड़े ही नहाये। पूरा गाँव अपने कुएँ के निर्मल जल को पुनः प्राप्त कर आनंदित होउठा। ढोल नगाड़े बजाएँ, उत्सव पर्व मनाया और महात्मा का जयघोष किया। हमारा मन ह्रदय सत्व गुण से बना है। निर्मल है स्वच्छ है। दर्पण जितना साफ़ उतना सूर्य के प्रतिबिंब को जैसा का तैसा परावर्तित करेगा। लेकिन वक्त के चलते, संस्कारों से, संगत से, ग़लत शिक्षा से उसमें राग और द्वेष नामके दो कुत्ते के पिल्ले गिर जाते हैं और पूरे ह्रदय कूप को मलिन कर देते है। फिर हम उसे साफ़ करने व्रत, उपवास, भजन, कीर्तन, तीर्थ यात्रा, सत्संग करते रहते है लेकिन जब तक वे दो राग और द्वेष के पिल्ले बाहर नहीं निकलते मलिनता नहीं जाएगी। कोई दूसरा आकर, हमें देखकर, कृपा बरसाके इसे निकाल नही सकता। मार्गदर्शन कर सकता है लेकिन मल तो हमें निकालना है। पुरुषार्थ हमें करना है। जिस दिन राग द्वेष गये मानो मन के षड्रिपु (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर) भी गये। फिर प्रातिभ ज्ञान से, शास्त्र ज्ञान से और गुरु गम से अपने सच्चे स्वरूप सच्चिदानन्द की पहचान भीतर और बाहर कर लेनी है। ज्ञान का आविष्कार होते ही भक्ति प्रकट हो जाएगी और आप नाच उठेंगे, गा पड़ेंगे, हर साँस मेरी पूजा तुम्हारी, हर पल मेरा प्रसाद तेरा। मेरे पैरों में घुंघरू बँधा दे, तों फिर मेरी चाल देख ले। सर्वं शिवम्। वासुदेव सर्वं। सर्वं खल्विदं ब्रह्म। २६ जुलाई २०२५

2 comments:

  1. पुनम चंद भाई ढेरों साधुवाद। एक बार फिर स्मरण करवाने के लिये कि समय समय पर अपनी अंतरात्मा और मन को दुर्गंध को साफ़ करते रहना चाहिये। लेकिन राजनीति और समाज में फैली इस दुर्गंध से कैसे निदान पायें। आमजन सोचता है कि सम्भवतः दुर्गंध युक्त जल पीना उसकी नियति है!

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