Friday, June 23, 2023

शिवोहं-पूर्णोहं।

 शिवोहं-पूर्णोहं। 


शिव का संकोच जीव (पशु) है और पशु का प्रसार शिव। शिव का जब संकोच होता है शक्ति का प्रसार होता है, सृष्टि होती है। शक्ति का संकोचन होता है तो सृष्टि का संहार होता है। एक क्षीण होता है दूसरा पुष्ट होता है। 


इस संकोचन विस्तरण  चक्र का प्रयोग काल की क्रियाओं में भी किया गया है। जैसे की दिन बढ़ने की या सूर्य प्रकाश बढ़ने की छह मासिक प्रसार स्थिति को उत्तरायण गति और घटने की संकोच स्थिति दक्षिणायन गति कहते है। चंद्र की कलाओं के ज़्यादा होने का पखवाड़ा शुक्ल पक्ष और कम होने का पखवाड़ा कृष्ण पक्ष कहते है। हमारे श्वासों की गति में अंदर जा रहा अपान अनुलोम है और बाहर निकल रहा प्राण विलोम है। जैनियों का काल चक्र भी सुख और दुख के प्रसार और संकोच की गति से जाना जाता है। वैदिक संवत्सर चक्र अथवा युग-काल गणना भी शक्ति के प्रसार और संकोच से नापी जाती है। 


लेकिन प्रसार संकोच की इस बहिर्गति और अंतर्गति के विश्वात्मक (immanent) खेल में उसका मध्य बिंदु, उसकी धुरी, अविभक्त रहती है। साक्ष्य और साम्य रहती है। यही विश्वातीत (transcendent) पूर्ण (absolute), अभिन्न, स्वप्रकाश के सामरस्य का साक्षात्कार करना है। तभी तो इस अनेकाकारता की एकाकारता होगी। वही स्वरूप ज्ञान है। वही मुक्ति की सबको कामना है। 


शक्ति (सृष्टि) और शिव (धुरी) दोनों सत्य है। बस भेद-अभेद का फ़र्क़ है। उस भेद को लांघने शक्ति का  जागरण चाहिए। शक्ति जगाने सोयी कुण्डली (आधार शक्ति) जगानी पड़ेगी। कुण्डलरूप से दण्डरूप में लानी है। मूलाधार के भूमध्य से सहस्रार के मध्य बिंदु पहुँचना है। शक्ति और शिव का मिलन कराना है। तभी तो विकल्प हटकर निर्विकल्प होगा। शिवोहं का साक्षात्कार होगा। पशु, पशुपति बनेगा। 


शब्दों से थोड़ी होगा? अनुसंधान करना होगा। जागेंगे तब वह जागेगी। जागेगी तो उजियारा होगा। अंधेरा जाएगा और प्रकाश का प्राकट्य होगा। 


🕉️ 

पूनमचंद 

२३ जून २०२३

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