Sunday, October 22, 2023

सुर-असुर।

 सुर-असुर। 

हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार प्रजापति (ब्रह्मा) के पुत्रों में बड़े (ज्यादा) असुर थे और छोटे (कम) सुर। इन दोनों का द्वंद्व युद्ध चलता रहता था। जिस की जीत होती है उसका राज होता था। 

वास्तव में सुर-असुर हमारे चित्त की वृत्तियाँ है। जिस वृत्ति का बल रहेगा, कर्म वैसे होंगे और क्रमानुसार अच्छा बुरा कर्मफल ले आएगा। सुर वृत्ति के साथ पुण्य और कर्मफल देव पद और स्वर्ग को जोड़ा गया है। असुर वृत्ति के साथ पाप और कर्मफल नर्क जोड़ा गया है। एक को बढ़ाने दूसरे का अतिक्रमण करना होता है।हमारे जो प्राण है, चक्षु है, श्रोत्र है, मन है, उनकी अनुक्रम से सूंघने, देखने, सुनने और सोचने की जो वृत्तियाँ है उसी पर यह नियम लागू है। शास्त्रकारों ने सुर वृत्ति को धर्म कहा और असुर को अधर्म। धर्म में माननेवाले देवगण और अधर्मवाले असुरगण करार दिया और धर्म बढ़ाने मृत्यु के बाद एक को स्वर्ग और दूसरे को नर्क मिलने का फल बताया। 

विश्व के सभी धर्मों ने अच्छाईयों पर ज़ोर दिया है। क्योंकि उनको पता था कि मनुष्य के मन मर्कट को अगर नियंत्रित नहीं किया गया तो मौत के बाद जो हो न हो लेकिन जीते जी वह पृथ्वी को नर्क बना देंगे। 

गाँधीजी के तीन बंदर जिसे उनको एक जापानी लामा निचिदात्सु फ़ीजी ने भेंट किये थे, बुरा मत देखो (see no evil), बुरा मत सुनो (hear no evil) और बुरा मत बोलो (speak no evil)  इसी सोच के प्रतीक है।चौथा है बुरा मत करो (do no evil)। मन को मर्कट ही कहा गया है। उस मर्कट के संयम में शांति टिकीं है। यह प्रतीक चीन से जापान गये थे और उनका मूल ईसा पूर्व की चीनी कन्फ़्यूशियस, ताओ और बौद्ध शिक्षा में पाया जाता है, जो बाद में जापान शिन्तो शिक्षा में उतारा गया था। जापान में ६० दिन के कोसीन त्योहार में लोग उसका पालन करते थे जिससे की सालभर पालन कर सके।The gentleman makes his eyes not want to see what is not right, makes his ears not want to hear what is not right, makes his mouth not want to speak what is not right, and makes his heart not want to deliberate over what is not right. 

यह तो हुई व्यक्तिगत व्यवस्था। व्यक्ति व्यक्ति मिलकर समाज बनता है इसलिए समाज में सब अच्छे हो तब तो कोई हर्ज नहीं लेकिन बुराई बढ़ जाए तो क्या होगा? इसलिए नियंत्रण सत्ता के रूप में राजसत्ता अथवा क़ानून व्यवस्था बनी। क्योंकि बुराइयों के सामने आँख मुँद नहीं सकते। (can’t turn blind eye to wrong).

हिंदू धारा आगे जाकर संकुचित हुई और शास्त्र के भाष्यकारों ने शास्त्रों की सूचनाओं के अनुसार चलनेवाले को सुर और विरोध करनेवाले को असुर करार दिया। जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था इसी शास्त्रीय सूचना का हिस्सा बन गई और हिंदू समाज विभक्त हो गया। मन की लड़ाई समाज में फैल गई। धार्मिक अधार्मिक जूथ बन गए और महाभारत शुरू हो गया। 

विश्व भी तो लढ झगड़ रहा है। वर्तमान विश्व को देखिए, दिन प्रतिदिन लड़ाई बढ़ रही है। एक दूसरे को मारने मिटने पर तुले है।ज़मीन के झगड़े इन्सानों की आहुति ले रहे है। बम वर्षा हो रही है। यादवस्थली की तरह एक दूसरे को ख़त्म करेंगे। स्वर्ग कहाँ, यह तो नर्क बना रहे है। 

अन्यथा यह जीवन एक मधुवन है जहां सब शहद से भरा है। कोई उपकारक कोई उपकार्य। सब पूर्ण। न कोई आधा न अधूरा। वह पूर्ण से पूर्ण ही प्रकट हुआ, पूर्ण से पूर्ण लेने से पूर्ण ही रहेगा। अगर कमी रही तो पूर्ण कैसे कहेंगे? यह जगत उसका शक्ति रूप प्राकट्य है। मातृरूप है। 

सबको साथ लेकर घुल मिलकर रहना है। अपने अंदर की आसुरी वृत्तियों का दमन करना है और सुर वृत्तियों को बढ़ाया देना है। ऐसा सब करेंगे तो यह पृथ्वी नंदन वन बनेगी। वसुधैव कुटुंबकम् (धरती एक परिवार) का मंत्र सार्थक होगा। 

पूनमचंद 

२२ अक्टूबर २०२३

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