Tuesday, May 10, 2022

Sahajananda

 सहजानंद। (शिवयोगी लक्षण)


चिन्मय आत्म स्वरूप में स्थित शिवयोगी की 

ब्रह्ममयी स्थिति लक्षण से पहचानी जाती है।सभी सूत्रों को जोड़कर पढ़ने से ल़क्षणो का बोध होता है। आज शिवसूत्र २५-३४ का समूह लेते है।


दस सूत्र दस लक्षण। 


शिवतुल्यो जायते। (२५)

शरीरवृत्तिर्व्रतम्। (२६)

कथाजप। (२७)

दानमात्मज्ञानम्। (२८)

योડविपस्थ ज्ञाहेतुश्च। (२९)

स्वशक्तिप्रचयोડस्य विश्वम्। (३०)

स्थितिलयौ। (३१)

ततप्रवृत्तावप्यनिरासः संवेत्तृभावात्। (३२)

सुखासुखोबहिर्मननम्। (३३)

तद्विमुक्तस्तु केवली।  (३४)

(शिवसूत्र ३.२५-३४)


शिवयोगी के लक्षण इस प्रकार है। 


१) सहज विद्या के उदय से शिव की पंच शक्ति से युक्त वह शिव तुल्य है। जिससे वह अन्य जीवों को पाश (मल) से मुक्ति देने में समर्थ है।


२) जीवन मुक्ति की दशा में उसके शरीर संबंधी क्रियायें (स्नान, पान, भोजन, आराम इत्यादि) व्रत बन जाते है। 


३) वह जो भी बोलते है, जप बन जाते है। अहं विमर्श का शाक्त जाप, सोहम् अजपा जाप, हंसः हंसः नित्य जाप या सदैव प्रणव तत्व विमर्शन का निष्कल जप। 


४) योग्य साधक को वह आत्मज्ञान का दान करते है। बंधनों क्लेशों से उसकी रक्षा करते है। 


५) सहज विद्या उदय से शक्ति चक्र पर शासन करता हुआ खेचरी आदि का स्वामी बन, सब शक्तियाँ उसके अधिनियम है ऐसा अनुभव करता है, और पशु मातृका शक्तिचक्र बंधन से साधक की रक्षा करता है। 


६) विश्व को स्व शक्ति का विस्तार या बहिर्मुख परिस्पन्द मानकर सृष्टि-संहार कर सकता है। 


७) संचार और लय दोनों स्थितियों को अपनी स्व शक्ति के प्रचय (आधिक्य) के रूप में देखता है।


८) अपनी इच्छा से विश्वमय (सृष्टि स्थिति लय) होते रहने पर भी अपने विश्वोर्तीर्ण, शुद्ध-स्वतंत्र-प्रमातृभाव से च्युत नहीं होता। 


९) बाह्य नील घट आदि पदार्थों की तरह अंदर के सुख दुख इत्यादि को खुद चैतन्य से अलग कर तटस्थ भाव रखता है। उसे अपने पर आरोपित कर विशेषता नहीं बनाता। सामान्य चेतना भाव बनाये रखता है। द्वैत ख़त्म कर पूर्ण स्थिति में रहता है। 


१०) जो केवल चिन्मात्र प्रकाशरूप में अवस्थित रहता है और जीवन मुक्त है।


घृत्वा द्वैत महामोहम् घृत्वा ब्रह्ममयी स्थिति। 

लौकिके व्यवहारेડपि मुनिः नित्यम् समाविशेतः। 


द्वैत महामोह को काटा?

एकत्व (ब्रह्ममयी स्थिति) बना? 

मनन कर मुनि बने?

नित्य समावेश हुआ?


पिक्चर के भीतर पिक्चर का भेद खुला? 

अभेद अनुभव किया? 


अगर शुद्ध चेतना में तैरना शुरू किया तो सहजानंद है। लक्षण प्रकट होंगे। 


पहचाने, कुछ बना क्या? 

पता लगा लें, कहाँ क्या कमी है। 


आप हो चैतन्य अखंड अमृत, फिर भी चेतन के पर्दे पर शरीर के अंदर और शरीर के बाहर का जगत खड़ा कर ज्ञान संकोच से बंधन का अनुभव कर रहे हो।


क्या वह बंधन कटा? 

चैतन्य समुद्र में अपने आपको फेंका क्या? 

क्या उस अखंड चेतना में खुद को बैठाया? 

पूर्णता का अनुभव हुआ? 

क्या निज स्वरूप पहचाना? 


परीक्षा लीजिए खुद की। 

लक्षण परीक्षण करें। 


जैसे बाह्य जगत की चीज वस्तुओं पदार्थ को अलग मानकर उसे जाननेवाले आप उससे भिन्न है वैसे ही आंतरिक जगत जिसमें सुख, दुःख, काम, क्रोध, मंद, लोभ, मोह, राग, द्वैष इत्यादि अनुभव हो रहा है क्या उसको भी बाह्य जगत की तरह अलग कर देख नहीं सकते? जैसे ही अलग किया उसकी असर से, उसके बंधन से आप मुक्त हो गये। आप अपने समत्व स्वभाव में क़ायम रहेंगे। पूर्ण हो, पूर्ण बने रहोगे। सामान्य हो, जैसे विमुक्त हुए, विशेषण का पीछा छुड़ाया, अखंड में अवस्थित हो गये। शरीर से मुक्त आत्मस्थ। 


सहजानंद का स्पर्श हुआ तो छूटेगा नहीं। 


दूर दीपक के जलने से बार नहीं बनेगी, अनुभूत करो। 


नर्तक आत्मा कैसे खेल रहा है, निहारों। पूर्ण जागरूकता से देखो। 


शरीर चैतन्य का जो फेविकोल जोड़ बना है उसमें से चतुराई से, बुद्धि की सूक्ष्मता से पृथक कर असली भाग चैतन्य में आसन ज़माना है। 


वहाँ न सुख है न दुःख। ग्राह्य-ग्राहक, वेद्य-वेदक, ज्ञेय-ज्ञाता, उपाय-उपेय, सबको अपनी चेतना में देखो। प्रमेय-प्रमाता की भूमिका से उपर उठ subjective consciousness से बाहर आकर objective consciousness (सर्वात्मक), प्रमातृ दशा में ‘मैं चेतनरूप हूँ’, और सुख दुःख इत्यादि चलचित्र है जो आते जाते रहते हैं, पर मैं अटल अखंड सहजानंद में स्थित हूँ, ऐसे बोध में स्थित हो जाए। 


सहज विद्या पाये। 

सहजानंद बने। 


हो ही.. पता बताया है, पहुँचना है।  


पूनमचंद 

८ मई २०२२


NB: सिर्फ़ दूसरे लक्षण पर ही ठहर मत जाना। 😜


सन्तो, सहज समाधि भली।

साँईते मिलन भयो जा दिन तें, सुरत न अन्त चली।।

आँख न मूँदूँ काम न रूँधूँ, काया कष्ट न धारूँ।

खुले नैन मैं हँस हँस देखूँ, सुन्दर रूप निहारूँ।।

कहूँ सो नाम सुनूँ सो सुमिरन, जो कछु करूँ सो पूजा।

गिरह-उद्यान एकसम देखूँ, भाव मिटाऊँ दूजा।।

जहँ जहँ जाऊँ सोई परिकरमा, जो कछु करूँ सो सेवा।

जब सोऊँ तब करूँ दण्डवत, पूजूँ और न देवा।।

शब्द निरन्तर मनुआ राता, मलिन बचन का त्यागी।

ऊठत-बैठत कबहुँ न बिसरै, ऐसी तारी लागी।।

कहैं कबीर यह उन्मुनि रहनी, सो परगट कर गाई।

सुख-दुख के इक परे परम सुख, तेहि में रहा समाई।।

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