Tuesday, May 10, 2022

तुरीयातीत।

 तुरीयातीत। 


मध्येડवरप्रसरः (२२)

प्राणसमातारे समदर्शनम्। (२३)

मात्रासु स्वप्रत्ययसन्धाने नष्टस्य पुनरुत्थानम्। (२४)

शिवतुल्यो जायते। (२५)


चौथी तुरीया अवस्था के प्रकाश से जाग्रत स्वप्न और सुषुप्ति को तैलवत धीरे-धीरे प्रकाशित कर दिया। उसमें रसमयता है पर पूर्णता नहीं। वेदांती का यह आख़िरी पड़ाव है। यहाँ एक भय स्थान है, पुनरुत्थान का। इसे मध्य दशा भी कहा है। विरूद्ध उत्थान की संभावना है। जैसे पहाड़ की छोटी छोटी नदियाँ कम बारिश से संतुष्ट होकर ओवरफ़्लो कर जाती है वैसे इस पड़ाव की संतुष्टि निकृष्ट जाने का ख़तरा रखती है। योगी की भौतिक चमत्कार या सिद्धि से प्रमाद वश योगी च्युत हो सकता है। 


शैव तुरीया को आख़री पड़ाव नहीं गिनते।योगी क्रम से चढ़े हैं इसलिए उतरने का ख़तरा बना रहता है। इसलिए यहाँ प्रमाद छोड़ना है। महाक्षोभ कर उठना है, उठाना है। शुभ्र प्रकाश के उस मधु रसमय सरोवर के आनंद को अग्रसर कर और आगे बढ़कर तुरीया को लांघकर अक्रम तुरीयातीत में प्रवेश कर जाना है। जिससे कि फिर पुनरुत्थान की गुंजाइश न रहे, पीछे हटना न पड़े। क्रमिक या क्षणिक संतुष्टि में नहीं फँसना है जब तक उत्तम कोटि का संतोष पूर्णता से उतर न आये।तब तक चलते रहना है जब तक लक्ष्य नहीं आया।चरैवेति चरैवेति। 


प्रारंभ में आनंद, अंत में आनंद और मध्य में क्षोभ क्यूँ? क्या उपाय रहेगा इस आनंद को अटूट रखने के लिए? 


प्राण का समाचार करने से समदर्शन प्राप्त होता है।प्राण का अर्थ स्थूल प्राण नहीं परंतु जो सृष्टि का जीवन है, प्राणन है, शिव प्रसार की प्रथम अभिव्यक्ति है, उस सूक्ष्मतम मूलरूप में पहुँचना है। स्थूल प्राण का संस्कार कर अनुक्रम से सूक्ष्म प्राण, परम प्राण से आगे प्राणन के स्पन्द क्षेत्र में पहुँचना है। आणवोपाय में क्रम से प्राण प्रवाह बाह्य इन्द्रियों और देह परिधि से भीतर मुड हृदय में प्रवेश करता है तब प्राण के मूलरूप प्राणन का साक्षात्कार करना है। जो भीतर प्रविष्ट हो गया वह मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाता है।  परमम् स्पन्दम् लभ्यते। स्पन्दन प्राप्ति से समदर्शन होगा, शिवता और अद्वैत दर्शन होगा।


दूसरा उपाय है स्वप्रत्यय। 


शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध के बाह्य विषयों और पदार्थों में स्व प्रत्यय जोड़ दे। मन, बुद्धि, अहंकार में भी स्व प्रत्यय जोड़े।क्या है यह स्व? ज्ञान-बोध-शिव स्वयं है। यह विश्व इदम्, मुज अहंता का ही स्वरूप है। यह चिद्घनरूप चैतन्य शिव के बाहर कुछ भी नहीं है। बाहर शिव, भीतर शिव, सब शिवरूप है ऐसे इदंता में अहंता का समावेश करने से निरालंबता आ जाती है। स्वप्रत्यय लगाने से पुनरुत्थान नहीं होता। 


तीन भूमिका से गुजरना है। १) भौतिक चमत्कार २) ऋतंभरा प्रज्ञा ३) प्रज्ञान ज्योति। 


भौतिक चमत्कार और एन्द्रिय अनुभूति मानसिक स्तर पर होती है। ऋतंभरा प्रज्ञा के विकास से विलक्षण चमत्कार में साधक अग्रसर होता है। लेकिन अवर प्रसव उसे पीछे ले जा सकता है। चित्त में वासना रहने से साधक पीछे मुड़ सकता है। प्रज्ञा से शुद्ध तत्व के उदय और निर्मलता आने से भूतजय होता है। जिसमें पंच महाभूत अपना स्वरूप स्पष्ट करते है। फिर इन्द्रिय जय होता है। जिससे इन्द्रियों के वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार होता है। अब लौटने की गुंजाइश नहीं। ईश्वर समान होकर उस स्थिति में वैराग्य धारण कर प्रज्ञान ज्योति परा सिद्धि प्रवेश करता है। 


ऐसा योगी जो तुरीयातीत में जाकर पूर्णाहंता से पूर्ण हुआ, जिसके संशय विकल्प न रहे, समता आ गई, वह शिव जैसा हो गया। सर्वज्ञत्व और सर्वकतृत्व का सामर्थ्य आ गया। शिवतुल्यो ज़ायते। प्रारब्ध से मिला देह पड़ा नहीं इसलिए शिवो जायते नहीं कहा किंतु  देह की वजह से शिवतुल्यो जायते कहा। विदेह मुक्ति के पल शिव हो जाता है। शरीर के साथ जीवन्मुक्त शिवतुल्य है। 


व्रत क्या लोगे? 


सत्यव्रत है। स्व स्वरूप का विमर्श क्या है? नित्य प्रतिक्षण उदय स्थिति। प्रतिक के तौर पृथ्वी के द्वैत से सूर्य का उदय अस्त भासमान है पर सूर्य पर सू्र्य का कैसा अस्त? निरालंब को कैसा आलंबन। वस्त्र, कर्मकांड, मुद्रायें, बाह्य पूजा इत्यादि किसलिए? सदा मुद्रित की कौनसी मुद्रा? असली मुद्रा परम शिव है। अव्यक्त लिंगम्, स्वयंभू, अव्यक्त होते हुए स्वरूपों में प्रकट है। 


शैव दर्शन सूक्ष्मतम की साधना है इसलिए अवस्तंभ से उठो। रूके हो वहाँ से जागो और चलो। जैसे सोईं 

कुंडलिनी को भी जगाना पड़ता है, वैसे साधना के क्षणिक संतोष से बाहर आकर मध्य के अवर प्रसर को हटाकर आरंभ मध्य और अंत की एकतानता करें। अंतर्मुखी जागरण बनाये रखे।विद्या का संतोष अच्छा नहीं जब तक शिव समदर्शन के अक्रम तुरीयातीत स्पन्दन में प्रविष्ट न हो जाएँ। 


भले ही मूल घर से आने के बाद यह प्रवासी घर का आनंद चला गया हो, पर मूल घर वापस लौटना है ऐसा जानकर भी उत्साह और आनंद बनाये रखे। जगत नाम के इस महास्वप्न में कहाँ तक सोते रहना है?  साधना के सोपान में चढ़ते चढ़ते सावधानी बरतनी है। जागरूकता मंद नहीं होने देनी है। इदम् अहम् एकरूप देखता वह समदर्शी शिवता में स्थित रहता है।


उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।।

क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ।।

(कठ.१.३.१४) (उठो, जागो, और जानकार श्रेष्ठ पुरुषों के सान्निध्य में ज्ञान प्राप्त करो। ज्ञान प्राप्ति का मार्ग उसी प्रकार दुर्गम है जिस प्रकार छुरे के पैना किये गये धार पर चलना। )


पूनमचंद 

४ मई २०२२

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