Tuesday, May 10, 2022

कौलिक सिद्धि।

 कौलिक सिद्धि। 


अनुत्तरं कथं देव सद्यः कौलिकसिद्धिदं |

येन विज्ञातमात्रेण खेचरी समतां व्रजेत्||


वो अनुत्तरं क्या है जिसके जानने मात्र से कुल की शक्ति प्राप्त होती है? संपूर्ण अस्तित्व का साक्षात्कार होता है। अहं का साक्षात्कार होता है। 


अहं कहते ही साक्षात्कार। 

एकत्व। समत्व। ब्रह्मभाव। पूर्णभाव।  


दृष्टि बदल गई?


आचरण बदल गया? 


मैं और मेरा अनुभव, मैं और बाह्य जगत, मैं और आंतरिक जगत, मैं जोड़कर अनुभव हो रहा है? यह तो भेद दर्शन है। 


सुख दुःख की अनुभूति कैसे कर रहे हो। मैं सुखी, मैं दुःखी ऐसे, या मेरा सुख, मेरा दुःख। जैसे बाह्य जगत को मेरे से अलग करके देखते हो, अनुभूत करते हो वैसे ही अंतर्जगत को भी अलग करके देखो। 


व्यक्ति चेतना विशेष भाव है। वैश्विक चेतना सामान्य भाव है। विशेष भाव में काटकर अनुभव होता है, सामान्य भाव में काटना नहीं है। चेतना अखंड पट पर बनी रहेगी। और उस कैनवास पर सुख, दुःख, अच्छा विचार, बुरा विचार, उठते रहेंगे और लीन होते रहेंगे। 


बस यहीं पर बुद्धि का री-प्रोग्रामिंग करना है। बुद्धि को संस्कारित करना है। क्योंकि निश्चय बल बुद्धि में है। एक बरा बुद्धि ने निश्चय कर लिया के मैं चेतना हूँ, शरीर नहीं बस काम हो गया। मैं यह सुख दुःख अनुभव कर रहा हूँ ऐसा सोचते ही चेतना और दृश्यमान object अलग हुआ। उसकी असर कम हो जायेगी। जैसे बाह्य के नील (वस्तु इत्यादि) को देख रहे हो वैसे ही भीतर के पीत (सुख दुःख इत्यादि) देखो। अलिप्त हो कर, अखंड चेतना में अवस्थित होकर देखना है। सम्यक् वेदन करें। मेरे में सुख दुःख, काम क्रोध इत्यादि लहरें उठ रही हैं और बैठ रही है। मैं चैतन्य हूँ, चिन्मय हूँ। 


परम दृष्टि पानी है। सीमित अहंता से बाहर निकलना है। मैं आज सुखी और कल दुःखी कैसे हो सकता हूँ। मेरी चेतना में मेरा शरीर प्रकाशित है। वैसे ही शरीर में उठनेवाले भाव विकार प्रकाशित हो रहे है। एक पिक्चर शरीर और उसमें दूसरा पिक्चर विकार। बस इस पिक्चर में चिपक के व्यवहार हो रहा है या अलग होकर यही कसौटी है। 


क्या चयन है? 

विशेष का या सामान्य का? 

परतंत्र का या स्वातंत्र्य का? 

संकुचन का या विस्तार का? 


चेतना स्वातंत्र्य है, असीम है, मुक्त है, एक है। 


एक है उससे एक होने में देर किस बात की?


प्रतिबंध खोजिए, पहचानिए और दूर कीजिए। 


हम जड़ शरीर और चेतना का जोड़ है। दोनों के परस्पर तादात्म्य और तीन पाश (मल) से जीव-पशु-अल्प-बद्ध शिव बने है। अपने स्वभावरूप पूर्ण अहंता में स्थित नहीं होते तब तक पूर्ण मुक्त नहीं कहा जाता। यह अवस्था है और उसके प्राप्ति क्रम है। 


बस एक ही काम करना है। 


मुक्ताभ्यास करना है। 

चलना है। 

चैतन्य जागरण से चलना है। 

जागरण गुरू देगा, या मंत्र देगा, या अंतर्गुरू, या शिव अनुग्रह। 

शिवत्व लाभ की ओर चलना है। 


अपूर्ण से पूर्ण की ओर। 

अविद्या से विद्या की ओर। 

परतंत्रता से स्वातंत्र्य की ओर। 

अनेक से एक की ओर। 

मृत्यु से अमृत की ओर। 

अंधकार से प्रकाश की ओर। 

लघुता से गुरूता की ओर। 

संकोचन से विस्तरण की ओर। 


कौलिक सिद्धि पानी है, जहां पूरे कुल समूह को एक अखंड चेतना में समाहित कर समदर्शन करना है। 


नेत्र बदलना है। तीसर नेत्र पास है। बस खोलना है। 


नज़र का धोखा हुआ है। बुद्धि की नज़र बदलनी है। 


यथा मति तथा गति। 


नज़रें बदली तो नज़ारे बदल जायेंगे। 

किस्ती ने बदला रूख तो किनारे बदल जायेंगे। 


पूनमचंद 

८ मई २०२२

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