Sunday, November 21, 2021

चिति स्वतन्त्रा

चिति स्वतन्त्रा।  

चिति: स्वतन्त्रा विश्वसिद्धिहेतु:।।१।।

कश्मीर शैव दर्शन के ग्रंथ प्रत्यभिज्ञाह्रदयम् का यह प्रथम लेकिन अति महत्त्वपूर्ण सूत्र है। गागर में सागर की तरह बाद में आ रहे १९ सूत्रों की चाबी रूप प्रमुख सूत्र है। सूत्र में पाँच शब्दों का प्रयोग हुआ है: चिति, स्वतन्त्रा, विश्व, सिद्धि, हेतु। 

प्रत्यभिज्ञा का अर्थ है पहचान, हमारी अपनी पहचान। ह्रदयम् अर्थात् सारभूत, सारभूत पहचान। कम से कम शब्दों से, केवल २० सूत्रो में अपनी असंदिग्ध पहचान। 

हमारी पहचान के प्रथम सूत्र का प्रथम शब्द हैं चिति। एक वचन है। अद्वैत है।शिव शक्ति का सामरस्य। परम संविद। प्रकाश का अन्योन्योमुख विमर्श। हमारी और विश्व की आत्मा है चिति, जो ३६ तत्वों से बने विश्व का प्राकट्य है। 

चिति यानि चेतनता, क्रियाशील ऊर्जा। मुर्दा या जड़ नहीं। स्वतंत्र है। स्व का ही तनु। ना किसी के हुक्म पर चलना है, ना स्व के विस्तार और संकुचन के लिए किसी पर आधारित रहना है।अन्य कोई सत्ता पर निर्भर नहीं। हेतु क्या है? विश्व, स्व का विस्तार सिद्ध करने हेतु, यानि स्व को पूर्ण प्रकट करने या विलय हेतु स्वतंत्र है। चिति है। एक वचन। अद्वैत। 

स्वेच्छा है। एक है इसलिए कलाकृति की भिंती भी वही, पींछी भी वही, रंग भी वही, रंगरेज़ी भी वही। 

स्वेच्छया स्वभितौ विश्वमुनमीलयति।।२।।

स्व इच्छा से, स्व की भिंती पर, विश्व- स्व के विस्तार को उन्मीलन-प्रकट कर रही है। अव्यक्त को व्यक्त कर रही है। जो प्रकाश रूप में स्थित था उस विश्व का विमर्श कर रही है। यहाँ काल कहाँ। सब कुछ वर्तमान है। 

अब जब स्व का विस्तार होगा तो विविधता होगी, अन्यथा सब कुछ एक जैसा हो तो उल्लास कहाँ? आनंद-उल्लास होगा तो उसका भोग होगा।भेद नहीं तो भोग कहाँ। गाह्य होने से ग्राहक ज़रूरी होगा। प्रमेय होगा और प्रमाता। विविध पदार्थों के भोग के लिए ग्राहकों के स्वरूप भी अलग अलग होंगे। लेकिन यह सब में चिति एकवचन एक ही होगी। जैसे कितने भी प्रकार की मिठाई बनें लेकिन मिठाई का ह्रदय चीनी सबमें एक होगी। चिति विलास में चिति खुद ही मावा खुद ही चीनी । एक वचन। स्व का विस्तार, अपनी पूर्ण स्वतंत्रता से। 

तन्नाना अनुरूपग्राह्यग्राहक-भेदात।।३।।

सदाशिव, ईश्वर, शुद्ध विद्या, विज्ञानाकल, प्रलयाकल और सकल प्रमाता और उनके भोग हेतु प्रमेयों का प्राकट्य। यही है चिति का विलास। हमारा विलास, क्योंकि हम चिति ही है। संकुचन में है भोग हेतु; विस्तारित हो सकते हैं मोक्ष हेतु। इसलिए प्रत्यभिज्ञा करनी है। 

पूर्णोहम्। 

पूनमचंद 
१२ नवम्बर २०२१

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