Thursday, July 7, 2022

शक्तिपात।

शक्तिपात। 


शैवों में शक्तिपात साधना का बड़ा महत्व है। आणव, मायीय और कार्म मल से आवृत आत्मा ज्ञान संकोच के कारण अपने शिव स्वरूप को नहीं जानता-मानता और इसलिए शिव के पंचकृत्य सीमित रूप से ही कर पाता है। मल की वजह से वह पाश में बंधा हुआ पशु है और मल पाक या मल विसर्जित होते ही पशु से पशुपति बन पंचकृत्यकारी बन सृष्टि, पालन, संहार, निग्रह और अनुग्रह के ऐश्वर्य को प्राप्त कर लेता है। 


लेकिन यहाँ संस्कार से कहो या शिक्षा से, उसे शुद्र या दास बनाकर अपने ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए गुरू कृपा और गुरू के शक्तिपात से मलमुक्ति की सलाह दी जाती है। गुरू में वह शक्ति है या नहीं यह तो उसको पता नहीं लेकिन एक ने दूसरे को कहा और दूसरे ने तीसरे को, ऐसे उसे श्रद्धा के पाश से सांप्रदायिक बनाया जाता है। कौन बंधा और कौन मुक्त हुआ यह तो पता नहीं पर मैं ग़लत जगह नहीं हूँ ऐसा दिखाने लोग एक-दूसरे की श्रद्धा या अंधश्रद्धा को बल देते रहते है। सब को सरल मार्ग चाहिए और शोर्टकट। इसलिए यहाँ पूजा पाठ विधियों में भी यजमान के बदले दक्षिणा देकर ब्राह्मणों से कर्मकांड करवाने का रिवाज प्रचलित रहा। किसी विशेष को सिद्धि का बड़ा मोह रहता है। इसलिए सिद्धि और चमत्कार के लिए साधना करते हैं और चेलें चपाटे में घीरे रहने से आह्लादित रहते है।  


मैंने गुरू गीता का आसारामजी आश्रम और उनको जहां से साक्षात्कार हुआ था वह गणेशपुरी सिद्धपीठ में बड़ा महिमामंडन सुना था। कश्मीर शैव मत के प्रत्यभिज्ञा ह्रदयम् ग्रंथ की शिक्षा और साधना के शिविर में पिछले साल नवम्बर (२०२१) में भरूच जाने का मौक़ा मिला था। शिविर के बाद हम एक छोटे ग्रुप में कबीरबड और नर्मदा किनारे आये गायत्री शक्तिपीठ के आश्रम हो आये। वहाँ मेरी मुलाक़ात एक संन्यासी भिक्षुक से हुई। वह अपाहिज था और गायत्री मंदिर के दरवाज़े पर खड़ा था। कच्छ के किसी गाँव में उसका वतन था। कुछ पूछने से पता चला कि पिताजी का बचपन में देहांत हो गया था ओर माताजी भी वह कुछ ६-८ साल का था तब किसी साधु को सोंप चल बसी। उसके गुरू ने उसे बस एक ही शिक्षा दी थी। नियमित गुरूगीता पाठ करना। जो वह नित्य क़रीब ५०-६० साल से कर रहा है और इधर उधर भटक कर अपनी ज़िंदगी काट रहा है। न उसकी ग़रीबी गई। न अपाहिजता। न लाचारी। भगवद्ग प्राप्ति स्वरूप प्राप्ति की एक साधना है जो अंधेरे कमरे में अंधश्रद्धा से नहीं मिलती। अच्छे ज्ञानी, तपस्वी, भक्त, सिद्ध भी ज़रा और मृत्यु की पीड़ा से भाग नहीं सके। इसलिए लक्ष्य साफ़ और सटीक और यात्रा सावधानी, विश्वास और श्रद्धा से होनी ज़रूरी लगी।


शक्तिपात के रहस्य के बारे में मैंने कुछ संतगण से पूछा था; जिसमें आसारामजी, डोल आश्रम वाले सिद्ध कल्याण बाबा, जूनागढ़ के संत पुनिताचार्यजी और दिगंबर साधु नयन सागरजी से और वलसाड शांति आश्रम के स्वामी नित्यानंद के नाम गिन सकता हूँ।वैष्णवों और अद्वैतवादीयों को इस में कुछ ख़ास दिलचस्पी नहीं। स्वामी रामसुखदास, स्वामी हंसानंद सरस्वती, स्वामी सत्यानंद सरस्वती, इत्यादि संतों का और शांकर वेदान्तीयों ने श्रवण, चिंतन, मनन, निदिध्यासन, अंतःकरण शुद्धिकरण और परमेश्वर पर श्रद्धा पर ज़ोर रहा है। सर्वम् खलु इदम् ब्रह्म या अहम ब्रह्मास्मि, तत्वमसि महावाक्यो में ही सब आ जाता है। आदि शंकराचार्य ने अद्वैत चिंतन किया लेकिन आख़िरी में बता दिया कि व्याकरण ज्ञान से भगवद् प्राप्ति नहीं हो सकती। भज गोविंदम् उनकी प्रसिद्ध रचना रही। बाबा मुक्तानंद ने अपने पुस्तक चित्त शक्ति विलास में कुंडलिनी यात्रा का बारिकियाँ से विवेचन किया है। स्वामी योगानंद परमहंस ने ‘autobiography of a yogi’ में बाबा महोवतार, लाहिड़ी महाशय इत्यादि के क्रियायोग और चमत्कारों की चर्चा है। हिमालय के सिद्ध योगी, जूनागढ़ के अघोरी, नाथ संप्रदाय के नाथ, दिगंबर जैन साधु, सिद्ध लोक के योगीयों की चर्चा भारत के घर-घर में होती है। हज़ारों साल से दर्शन, कुंडलिनी, कृपा और चमत्कार हमारे खून में रचते बसते है। 


श्री आसारामजी, श्री शिवकृपानंद, तथा बहुतायत संतों का ज़ोर ध्यान और कुंडलिनी जागरण विधि पर रहा है।एकाग्र चित्त होकर मूलाधार में सुप्त कुंडलिनी शक्ति को जगाकर सुषुम्ना मार्ग से ऊर्ध्व कर चक्र भेद से सहस्रार में शिव के मिलन यात्रा करनी होती है। बीच राह में चक्रों के दर्शन, सिद्धियाँ मिलती है लेकिन साधक दृष्टा को दिख रहे रंग और दृश्य को छोड़ आगे की यात्रा बनाये रखना है और पिंड में ब्रह्मांड का साक्षात्कार कर लेता है। इस मार्ग में मन की दृढ़ता न हो तो पद पद पर चलित होने का भय बना रहता है। 


श्री कल्याण बाबा ने परमेश्वर और शक्ति की भक्ति और अंतःकरण की शुद्धि पर ज़ोर देते हुए शनैः शनैः कृपा पाने की शिक्षा दी थी। श्री पुनिताचार्यजी ने श्वासोंश्वास के साथ ध्यान करते करते नाभि से नासिका तक ध्यानस्थ होते ही गुरू तत्व की जागृति पर ज़ोर दिया था। एकबार भीतर का गुरू तत्व जाग गया फिर बाहर भागने की ज़रूर नहीं। वह अपने आप आगे मार्गदर्शन करता रहता है।दिगंबर श्री नयन सागरजी ने ध्यान करते करते प्रथम आत्मा के भीतरी क्षेत्र में प्रवेश पर ज़ोर दिया जिसके बाद शक्तिपात और सिद्धियों का लाभ अपने आप समझ में आने लगता है। स्वामी नित्यानंदजी (वलसाड) ने मन के विचारों का सतत अवलोकन करते करते राग द्वेष से मुक्त रहने की साधना पर ज़ोर देते हुए एक चरवाहे का दृष्टांत देते हुए बताया था कि कैसे वह गाँव में गरीब और लाचारी में जी रहा था परंतु आश्रम से जुड़ने के बाद उसके और उसके परिवार के विचारों, शिक्षा और समझ में बड़ा परिवर्तन आया। यही शक्तिपात है। शनैः शनैः उस परम के गुणों में अपना विसर्जन ही शक्तिपात का परम उद्देश्य है।


अभी एक किताब पढ़ रहा था। ‘भारतीय संस्कृति और साधना’। महामहोपाध्याय श्री गोपीनाथ कविराज की यह किताब है जिसमें शक्तिपात के बारे में एक प्रकरण है जिसमें उन्होंने द्वैत, अद्वैत और शैव मत से विषय का विवेचन किया है। शक्तिपात के तीन प्रकार  हैः तीव्र, मध्य तथा मन्द। प्रत्येक में फिर तीन उपप्रकारः तीव्र के तीव्र तीव्र, मध्य तीव्र, मन्द तीव्र। इसी प्रकार मध्य और मन्द के तीन उपप्रकार है। तीव्र तीव्र में प्रारब्ध सहित सभी कर्म नाश होते ही देहपात हो जाता है। उससे कम मध्य तीव्र शक्तिपात में देहपात नहीं होता परंतु अज्ञान की निवृत्ति होती है। ज्ञान स्वतः ह्रदय में स्फुरित होता है। अपनी प्रतिभा में स्फुरित होने के कारण इसे प्रातिभ ज्ञान कहा जाता है। यह शुद्ध विद्या है जो परमेश्वर की इच्छा से प्रकट होती है। न्यून शक्तिपात के साधक वामाशक्ति के अधिष्ठान में मायापाश से बंधे प्रलयाकल की अवस्था प्राप्त करते हैं जो सप्त प्रमाता में सकल से उपर है। ज्येष्ठाशक्ति के अधिष्ठान में जीव के ह्रदय में स्वस्वरूप प्राप्ति की इच्छा उदित होती है और वह अपनी योग्यता के अनुरूप भोग या मोक्ष को प्राप्त करता है।


ज्ञान उदय के तीन रास्ते है।या तो गुरू, शास्त्र के अवलंबन से उदित होता है या स्वयं भी उद्भूत होता है। गुरू की अपेक्षा शास्त्र की श्रेष्ठता है और शास्त्र की अपेक्षा अपनी प्रतिभा की श्रेष्ठता है। गुरू शास्त्र का अर्थज्ञान देता है और शास्त्रज्ञान प्रातिभ ज्ञान के उत्पादन में काम आता है। प्रातिभ ज्ञान का उदय होने पर गुरू या शास्त्र का कोई उपयोग नहीं रहता। योग्यता विशिष्ट पुरुषों में प्रातिभज्ञान स्वतः उदित होता है।जीव, ईश्वर, मायादि पाशों का ज्ञान प्रातिभ ज्ञान है। उनके लिए दीक्षा, अभिषेक के बाह्य क्रियाकांड का कोई प्रयोजन नहीं।  


क्या होता है शक्तिपात से? कड़वा नीम मीठा हो जाता है या खट्टी कढ़ीं कड़वी लगती है? वस्तुतः बाह्य दुनिया में कुछ भी बदलाव नहीं होता, हमारी दृष्टि (देखने का ढंग) और समझ बदल जाती है। शक्तिपात से भीतरी शक्तिओं के जागते ही इन्सान का स्वभाव बदल जाता है। स्वार्थ से मुक्त होकर परमार्थ का राही बना जाता है। 


शक्तिपात से भगवद् भक्ति का उन्मेष होता है।इन्द्रिय वृत्तियाँ अंतर्मुख होकर आत्मा से तादात्म्य लाभ करती है। ज्ञान क्रिया और चैतन्य उत्तेजित होते है। प्रातिभ ज्ञान से शास्त्रों का रहस्य ठीक ठीक जान सकते है। यह अपने आप उदित ज्ञान परमेश्वर के अनुग्रह का प्रासाद मानिए परंतु यह महाज्ञान बहिर्मुख चित्त की वृत्तियों को अंतर्मुख कर शक्तियों में परिवर्तित कर लेता है। ऐसा ज्ञानी बंधन से मुक्त होकर पूर्णत्व को प्राप्त कर लेता है और बाक़ी का जीवन लोकहित मे बिताता है। 


जीव में अशुद्धियाँ और चित्त संस्कार अलग-अलग होने से शास्त्र उपकरण भी भिन्न भिन्न होते है। गुरू दीक्षारूप अस्त्र से मायापाश का छेदन करता है तब साधक में प्रतिभा तत्व विकसित होता है। जैसे भस्म में छिपी अग्नि मुख या धौंकनी की वायु से दहक उठती है, जैसे ठीक समय बोया बीज अंकुर से अभिव्यक्त होता है वैसे ही प्रातिभज्ञान गुरु के द्वारा जाग्रत होता है। 


यह प्रातिभ ज्ञान महाज्ञान है जो विवेक (आत्मबोध) से उत्पन्न होता है और शास्त्रानुकुल से श्रेष्ठ है। विवेकज्ञान से दूरश्रवणादि ज्ञान की उत्पत्ति होती है। लेकिन विवेक वैराग्य लाता है और सिद्धियों से उपराम कराता है। प्रातिभ ज्ञान से भीतर बाहर सर्वत्र परमात्मा की सत्ता प्रत्यक्ष होती है। एकमात्र परम की भावना की दृढ़ता से जीवन्मुक्त वह विवेकी स्वयं मुक्त होकर दूसरे को भी मुक्त कर सकता है। 


जीव पंचमहाभूत के अधीन इन्द्रियविशिष्ट है इसलिए वस्त्र बदलने की तरह एक देह से निकलकर दूसरा देह ग्रहण करता रहता है। लेकिन विवेक के उदय से शुद्ध विद्या अवस्था प्राप्त कर निग्रह अनुग्रह में समर्थ हो जाता है। संकुचित आत्मबोध या अपूर्ण ज्ञान से मुक्त होकर परमेश्वर स्फूर्ति में आ जाता है। 


शक्तिपात ग्रहण करनेवाला मनुष्यः भगवान की निश्चला भक्ति, मंत्र सिद्धि, सब तत्वों को स्वायत्त करने में समर्थ और शास्त्रों के अर्थज्ञान के प्राप्त कर लेता है।  


भगवद्शक्ति का शक्तिपात और परमेश्वर की कृपा का बड़ा महत्व है परम पद पाने के लिए। योग्य अयोग्य यहाँ नहीं देखा जाता। बस एक बार हो गया मानो बिना अंतिम लक्ष्य पहुँचे बिना शांत नहीं होता। फिर चाहे अपने आप प्रातिभ ज्ञान से हो, शास्त्र से हो या गुरू से। 


परमेश्वर है, जीव का पुनर्जन्म होता है और सबकुछ एक ही शक्ति का प्राकट्य है यह पूर्व धारणाएँ है। 


शक्तिपात हो या न हो आप शक्ति से ही जी रहे है। चैतन्य शक्ति। चैतन्य के ह्रदय में सत्य का निवास है।


पूनमचंद 

७ जुलाई २०२२

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