Saturday, July 26, 2025

कुत्ते के दो पिल्ले ।

एक छोटा सुंदर गाँव था। गाँव के लोग कुएँ का पानी पीते थे। जल निर्मल था, स्वास्थ्य वर्धक था इसलिए लोग निरोगी थे। कुएँ से सबको लगाव था। एक दिन उस कुएँ में कुत्ते के दो पिल्ले दौड़ते दौड़ते गिर गये। उनके मरने से कूएँ का पानी दूषित हो गया और दुर्गंध से भर गया। पूरा गाँव एकत्र हुआ और बाल्टी, घड़ा जो मिला रस्सी से बाँधकर सीधे या चरखी पर चढ़ाकर पानी निकालते रहे। कुआँ बड़ा और गहरा था इसलिए पूरा कुआँ खानी करने में पूरा दिन लग गया। फिर रात में कुआँ भूजल के रिसने से भर गया। सुबह सब लोग बाल्टी, घड़ा, मटका लेकर पानी भरने चले आए। कल का दिन तो घर में जो बचा था उस पानी से चल गया लेकिन आज़ कई घरों में पानी नहीं था इसलिए लोग उतावले हो रहे थे। लेकिन यह क्या? पानी में दुर्गंध नहीं गई थी। बदबूदार पानी को सूँघते मन ख़राब हो गया। फिर पूरा गाँव लगा उस पानी को उलीचने में। शाम ढलते तक पूरा कुआँ ख़ाली कर दिया। फिर रात भूजल रिसने से सुबह होते होते पूरा कुआँ भर गया। पूरा गाँव पानी लेने आया लेकिन दुर्गंध गई नहीं थी। फिर तीसरे दिन, चौथे दिन, पांचवें भी पानी उलीचा लेकिन पानी में दुर्गंध से छुटकारा नहीं मिला। लोग इधर उधर से जल लाकर गुज़ारा कर रहे थे लेकिन पानी का बड़ा स्रोत बंद होने से व्याकुल थे। बिमारियों का डर भी बैठा था। लेकिन समस्या को सुलझाने का कोई रास्ता नहीं मिल रहा था। ऐसे में एक दिन एक महात्मा वहाँ से गुज़रे। पूरे गाँव को कुएँ के पास इकट्ठा देखकर वह भी कुतूहलवश वहाँ गये। लोगों को पूछने पर पता चला कि कुएँ के पानी को उलीचते उलीचते एक सप्ताह हो गया लेकिन पानी में से दुर्गंध नहीं जा रही थी। महात्मा ने जब जाना कि पानी में कुत्ते के दो पिल्ले गिरे थे तब पूछ लिया कि वे दो पिल्ले निराला की नहीं? पूरा गाँव सर खुजलाने लगा और बताया की नहीं। महात्मा मुस्कुराएँ और कहा जाओ जाकर चिमटा ले आओ और पहले मरे हुए कुत्ते के पिल्ले के शवों को निकलो। एक युवा दौड़ा और चिमटा ले आया, रस्सी से बाँध जल में उतारा और फिर इधर उधर घूमा कर दोनों शवों को खोजकर बाहर निकाले। फिर पानी था उलीच लिया। रात भर भूजल के रिसने से सुबह होते होते कुआँ निर्मल जल से भर गया। लोगों ने चल खींचा, दुर्गंध नहीं थी, पिया, मटके-बर्तन भरे, कुछ लोग तो वहीं खड़े खड़े ही नहाये। पूरा गाँव अपने कुएँ के निर्मल जल को पुनः प्राप्त कर आनंदित होउठा। ढोल नगाड़े बजाएँ, उत्सव पर्व मनाया और महात्मा का जयघोष किया। हमारा मन ह्रदय सत्व गुण से बना है। निर्मल है स्वच्छ है। दर्पण जितना साफ़ उतना सूर्य के प्रतिबिंब को जैसा का तैसा परावर्तित करेगा। लेकिन वक्त के चलते, संस्कारों से, संगत से, ग़लत शिक्षा से उसमें राग और द्वेष नामके दो कुत्ते के पिल्ले गिर जाते हैं और पूरे ह्रदय कूप को मलिन कर देते है। फिर हम उसे साफ़ करने व्रत, उपवास, भजन, कीर्तन, तीर्थ यात्रा, सत्संग करते रहते है लेकिन जब तक वे दो राग और द्वेष के पिल्ले बाहर नहीं निकलते मलिनता नहीं जाएगी। कोई दूसरा आकर, हमें देखकर, कृपा बरसाके इसे निकाल नही सकता। मार्गदर्शन कर सकता है लेकिन मल तो हमें निकालना है। पुरुषार्थ हमें करना है। जिस दिन राग द्वेष गये मानो मन के षड्रिपु (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर) भी गये। फिर प्रातिभ ज्ञान से, शास्त्र ज्ञान से और गुरु गम से अपने सच्चे स्वरूप सच्चिदानन्द की पहचान भीतर और बाहर कर लेनी है। ज्ञान का आविष्कार होते ही भक्ति प्रकट हो जाएगी और आप नाच उठेंगे, गा पड़ेंगे, हर साँस मेरी पूजा तुम्हारी, हर पल मेरा प्रसाद तेरा। मेरे पैरों में घुंघरू बँधा दे, तों फिर मेरी चाल देख ले। सर्वं शिवम्। वासुदेव सर्वं। सर्वं खल्विदं ब्रह्म। २६ जुलाई २०२५

Tuesday, July 8, 2025

પ્રાર્થના

ગયા અઠવાડિયે આપણે લાલિયા અને મોતિયાની વાર્તા કરી. રાગ-દ્વેષ નામના કૂરકૂરિયાં આમ કાઢી નાંખવા એટલાં સહેલા નથી. આ જન્મમાં આ શરીર મળ્યું. ગયા જન્મમાં કયું હતું અને હવે પછી શું મળશે તેની ખબર નથી પરંતુ અહીં તો પૂરા જોરથી આપણાં અહંકારને હારવા દેતા નથી. ગીતા સાતમા અધ્યાયમાં ભગવાન શ્રીકૃષ્ણ પોતાનો મહિમા મંડન કરવાનું શરૂ કરે છે તેમાં પ્રાર્થનાના મહત્વ ઉપર જોર આપે છે. તેઓ કહે છે કે જેઓ જે માટે જેને ભજે તે તેને પ્રાપ્ત થાય છે. કોઈ દુઃખ નિવારણ માટે, કોઈ ધન માટે કોઈ જ્ઞાન માટે જે જે દેવોને ભજે છે તે તેને મેળવે છે. જેમકે આપણે વિધ્ન હરવા ગણપતિ. ધન માટે લક્ષ્મી, વિદ્યા માટે સરસ્વતીની પૂજા કરીએ છીએ. જે લોકો સાંસારિક પદાર્થો જેવી કે પુત્રેષ્ણા, ધનેષણા કે નામેષણા માટે દેવ ભજે છે તે ભજવું ખોટું નથી, તે તેને મેળવે પણ છે પરંતુ આત્મજ્ઞાન મેળવી મુક્તિ મેળવવાની ભગવાનને કરેલી પ્રાર્થના સામે તે સાવ ક્ષુલ્લક છે. એક ભાઈ વરસાદમાં જતાં હતાં. તેમને તરસ લાગી તેથી પાણી માંગતા હતાં. તેને સામે મળેલ એક ભાઈએ કહ્યુ કે પાણી તારી સામે છે, તારે તો માત્ર હાથ લાંબા કરી ખોબો ભરવાનો છે. ભગવાનની કૃપા અહર્નિશ વરસી રહી છે. જરૂર છે માત્ર આપણે પ્રાર્થનાના હાથ ફેલાવવાની. પછી તે પ્રાર્થના મંદિરે થાય, મસ્જિદે થાય, દેવળે થાય કે પોતાના ઘેર થાય, ભાવ અગત્યનો છે. પરમાત્મા તો આપણી અંદર રહેલી દિવ્યતામાં કાયમ બિરાજમાન છે. બસ આપણે તેને ઓળખી શકતા નથી. કદાચ આપણી સમજણને ત્યાં સુધી પહોંચવાની સમજણ નથી. આપણી બુદ્ધિનો સંકોચ આપણને આપણાં સાંસારિક સંકોચનમાંથી બહાર આવવા દેતો નથી. એક મંદ બાબા હતાં. ભિક્ષા લઈ પોતાનું ગુજરાન ચલાવતા. જે કોઈ સામે મળે તેની પાસે એક પૈસાની ભિક્ષા માંગે. એક વખતે એક ઉદાર અને દાની રાજા તે તરફથી પસાર થયો. મંદબાબા દોડ્યા અને માંગી એક પાઈ. રાજાએ પાઈ દઈ દીધી અને આગળ નીકળી ગયો. પરંતુ લોકોએ જોયું કે મંદબાબાએ જો બરાબર માંગ્યું હોત તો બાકીના સમય માટે તેનો પાઈનો રઝળપાટ મટી ગયો હોત. આપણે પણ ભગવાનની કૃપાનો વરસાદ વરસી રહ્યો છે, હાથ આગળ કરી બસ પ્રાર્થના કરવાની છે અને આત્મજ્ઞાન માંગવાનું છે પરંતુ ભટકી રહ્યા છીએ. હ્રદયના ઊંડાણથી કરેલી કોઈની પ્રાર્થના ખાલી ગઈ નથી. હાં કોઈનું બૂરું કરવાની માંગણી નામંજૂર થઈ શકે પરંતુ પોતાનું અને જનકલ્યાણ માટેની પ્રાર્થના સ્વીકારાય છએ. પસંદ આપણએ કરવાની છએ. મંદબાબા બનવું કે મુક્તાત્મા? ૮ જુલાઈ ૨૦૨૫

Thursday, July 3, 2025

मेरे घर आँगन पंछियों का डेरा।

मेरे घर के दायें एक बगीचा है। बगीचे में तालाब। घर के सामने एक और बगीचा। वर्षा ऋतु में चारों और हरियाली ही हरियाली।शहर में गाँव का आनंद। पंछियों का जमावड़ा बना रहता है। यूँ तो हर मौसम में उनकी हाज़िरी रहती है लेकिन वर्षा ऋतु में ख़ास कर जून जुलाई महीनों में उन्हीं की प्रजनन प्यास की आवाज़ से नभ गूँज उठता है। पंछी इतने हैं कि सूर्य के उदय होते ही साढ़े छ: से साढ़े आठ तक चिड़ियों की चहचहाहट शोरगुल में बदल जाती है। दिन में कुछ विश्राम के बाद सूर्यास्त के वक्त वे फिर शुरू हो जाते है। तालाब की वजह से टिटिहरी यहां अधिक है जो ‘did you do it’ की ध्वनि से रात दिन अपने अंडों और चूज़ों की रक्षा में बोलती रहती है। वे पेड़ पर बैठती नहीं लेकिन अपने लंबे और पतले पैरों से तालाब के किनारे घूमती रहती है। टिटिहरी एक ही ऐसा पक्षी जो रात में भी उड़ता और बोलता रहता है। इसके जितनी सावधानी शायद किसी की नहीं देखी। याद हैं न उसके अंडे जब दरिया की लहर में डूबे थे तब वह अपनी छोटी चोंच में रेती के कण भर दरिया को डूबाने चली थी। उसे यह परवा नहीं थी की दरिया को डूबाने का काम कब ख़त्म होगा, वह कब तक जिएगी, लेकिन वह अपने लक्ष्य पर क़ायम थी। कुहू कुहू बोले कोयलिया कुंज-कुंज में भंवरे डोले गुन-गुन बोले कुहू कुहू बोले। ग्रीष्म और वर्षा का संधिकाल हो और कोयल की कूक-ऊ सुनाई न दे ऐसा कैसे हो सकता है? नर को मादा के बिना चैन नहीं इसलिए भोर होने से पहले ब्राह्म मुहूर्त से पहले तीन बजे मुर्ग़े की बाँग से पहले जगा देता है। मादा कोकिला तो शांत लेकिन नर ही गाता है। नर कोयल का रंग नीलापन लिए काला होता है, जबकि मादा कोयल तीतर की तरह धब्बेदार चितकबरी होती है। उसकी आंखें लाल होती हैं और पंख पीछे की ओर लंबे होते हैं। उसके अंडों को कौए से खतरा रहता है इसलिए वह कौए के घोंसले में ही अंडा रख आती है। बेचारा कौवा कुछ समझे तब तक चूज़े अंडे से बाहर निकल उड़ जाते है। काकः कृष्णः पिकः कृष्णः को भेदः पिककाकयोः।वसन्तसमये प्राप्ते काकः काकः पिकः पिकः॥ कौआ काला है, कोयल भी काली है, कौवे और कोयल में क्या अंतर है? वसंत ऋतु आने पर, कौवा कौवा और कोयल कोयल होती है। जिसको मीठा बोलना आ गया मानो जीवन सफल हो गया। काला हो या गोरा, नाटा हो या ऊँचा, मधुर ध्वनि से जीवन सरल हो जाता है। बोले रे पपीहरा पपीहरा नित मन तरसे, नित मन प्यासा नित मन प्यासा, नित मन तरसे बोले रे। ‘पी कहाँ? पी कहाँ?’ बाबूल का घर छोड़ पिया मिलन की तड़प का गाना गानेवाला पपीहा वर्षा ऋतु की आन बान और शान है। वर्षा की शुरुआत होते ही इसकी आवाज़ हमारे कानों में गूँजती रहती है। इसका यह प्रजनन काल है जिसमें नर तीन स्वर की आवाज़ दोहराता रहता है जिसमें दूसरा स्वर सबसे लंबा और ज़्यादा तीव्र होता है। यह स्वर धीरे-धीरे तेज होते जाते हैं और एकदम बन्द हो जाते हैं और काफ़ी देर तक चलता रहता है; पूरे दिन, शाम को देर तक और सवेरे पौं फटने तक, यह जैसे बोलते थकता ही नहीं। उसकी ध्वनि सुरीली है लेकिन एकाग्रता को भंग ज़रूर कर देगी। यह दिखता है छोटे शिकरे की तरह और उड़ता बैठता भी है शिकरे की तरह लेकिन हिंसक नहीं। पपीहा अपना घोंसला नहीं बनाता है और दूसरे चिड़ियों के घोंसलों में अपने अण्डे देता है। नाचे मन मोरा, मगन, धीगधा धीगी धीगी, बदरा घिर आये, रुत है भीगी भीगी। वर्षा ऋतु मे हमारा राष्ट्रीय पक्षी नीलरंगी मोर कहाँ छिपेगा? नर मोर अपनी मोरनी को खुश करने अपने से जितना हो सके चिल्लाकर राजसी ध्वनि निकालकर और अपने पंख फैलाकर नाचता हुआ मनाता रहता है। मोरनी है तो दिखने में कमजोर लेकिन मोर की चाहत है इसलिए भाव बढ़ाती है। विरह की आंग में रोता मोर अच्छा नहीं लगता लेकिन नाचता झूमा देता है। यहां कौए भी कम नहीं। का का कूक कर्कश आवाज करता यह पक्षी इधर उधर उड़ता रहता है और सब के अंडे खा जाता है। लेकिन कोयल उसे मूर्ख बनाकर अपने अंडे का सेत कराकर बचा लेती है। बच्चों की पाठशाला की पहली कहानी कौवे की है। एक प्यासा कौवा था। पानी की तलाश में उड़ता है और उसे एक घड़ा मिलता है, जिसमें पानी बहुत कम होता है। कौवा हार नहीं मानता, और अपनी चतुराई से कंकड़ जमा करके घड़े में डालता है, जिससे पानी ऊपर आ जाता है और वह अपनी प्यास बुझा पाता है। हिंदू धर्म शास्त्रों में काकभुशुंडि को ऋषि का दर्जा प्राप्त है। श्राद्ध की खीर कौवा खाता है। कोई कौवा मरेगा तो जैसे बेसना हो, समूह इकट्ठा होगा, कुछ देर बैठेगा और उड़ जाएगा। कु्त्ते को खाना मिले तो अकेला खाएगा और बचा छिपा देगा लेकिन कौवा खाना मिलने पर अपने साथियों को आवाज देकर पुकारेगा। मिल बांट कर खाने की सीख कौवा देता है। ओ री गौरैया! क्यों नहीं गाती अब तुम मौसम के गीत।गौरैया की संख्या कम हुई, लेकिन है। चारों और पंछियों की चहचहाहट में वह अपनी चीं चीं चीं से हाज़िरी लगवाती रहती है। हमारे हिरण्य और धैर्य पूछते रहते कि चकी लाईं चावल का दाना और चका लाया मग का दाना, उसकी पकी खिचड़ी। खिचड़ी कौन खा गया? बच्चों की यह फ़ेवरिट कहानी है। यहाँ सारस पंछियों की दो जोड़ रहती है। उनकी ध्वनि मधुर नहीं है लेकिन प्यार मुहब्बत से जोड़े में रहे नर-मादा बगीचे में झगड़ते पति-पत्नी के बीच प्यार जगाने की दुहाई देते रहते है। पानी में तैर रहे बगलें, चम्मचचोच और डूबकी की आवाज़ हम तक नहीं पहुँचती लेकिन तालाब के किनारे मोर्निंग वॉक में मन को प्रसन्नता देती है। तीतर के दो आगे तीतर, तीतर के दो पीछे तीतर, आगे तीतर पीछे तीतर, बोलो कितने तीतर? हमारे घर तीतर का एक जोड़ा आता है और ज्वार के दाने चुभ के चला जाता है। कोई मांसाहारी देख लेता है तो उसके मुँह में पानी आता है लेकिन वे जब आते है हमारे रक्षा कवच में सुरक्षित रहते है। इन आवाजों में मुर्ग़े की बाँग, कबूतर गुटर गूं, होले घुघु…घु…घु.., बुलबुल की पीकपेरो, तोते की सीटी, सबकी नकलची मैना, सुतली की चीर-चीर-चीर, दर्जी की तुई तुई, कठफोडवे की की-की-की ट्र की तीखी, हुदहुद की हू पू पू, किलकिले की कंपन, दहियर का आलाप, देवचकली की मधुरता, सात भाई बैंबलर की तें तें तें तें की ध्वनियाँ अपनी हाज़िरी लगा देते है। मेरे घर आँगन पधारो यहाँ सब पंछियों का डेरा। पूनमचंद ३ जुलाई २०२५

Wednesday, July 2, 2025

અદેખાઈ

અદેખાઈ લાલિયો અને મોતિયો બે પડોશીઓ હતા. લાલિયો તેની પત્ની, દીકરાઓ, વહુઓ બધાં સંસ્કારી, પરિશ્રમી, ઉદ્યમી અને ધર્મના રસ્તે ચાલનારા. સંપ અને સહકારથી તેમના કુટુંબની ઉત્તરોત્તર પ્રગતિ થઈ રહી હતી. ભાગ્ય પણ તેમને સાથ આપતું. ખેતરમાં જે પણ વાવે ઉતાર આખા ગામ કરતાં વધારે આવે. કૂવામાં પાણી પણ ન સુકાતા. તેમણે રહેવા માટે પાકા ઘર પણ બનાવી લીધાં હતાં. સંસ્કારી કુટુંબ એટલે ભગવાનમાં શ્રદ્ધા રાખે અને નિયમિત ભક્તિ કરે. લાલિયાની સામે પડોશી મોતિયો ગરીબ, વ્યસની. ઘરમાં કજિયા કંકાસ બંધ ન થાય. ઘરમાં કુસંપ હોવાથી ખેતીકામમાં કે ધંધા રોજગારમાં કંઈ ભલીવાર ન પડે અને ગરીબી જાય નહીં. તેને લાલિયાના ઘરની ઈર્ષ્યા અને અદેખાઈ રહેતી. તેના કાન લાલિયાના ઘરના માઠા સમાચાર સાંભળતા લાલાયિત રહેતા પરંતુ તેને કાયમ નિરાશા મળતી. તેને થયું લાવ ભગવાનની ભક્તિ કરી જોવું. જો ભગવાન રાજી થાય અને વરદાન આપે તો બધાં કામ સરળ થઈ જાય. તેણે ભગવાનની ભક્તિ ચાલુ કરી દીધી. પૂજા અર્ચના કરે, મંદિરે જાય, પૂનમો ભરે અને ભગવાનને આજીજી કરે. ભગવાનને થયું મોતિયો પહેલીવાર મારી ભક્તિ કરે છે. જો તેના પર પ્રસન્ન થઈ વરદાન નહીં આપું તો પાછો ખોટા કામમાં પડી જશે. તેથી મોતિયાની ભક્તિથી પ્રસન્ન થઈ ભગવાને દર્શન દીધાં અને વરદાન માંગવાનું કીધું. મોતિયાને થયું એક વરદાન માગું અને માંગવામાં ભૂલ રહી જાય તો? તેથી તેણે ચાર વરદાન માંગ્યા. ભગવાને કહ્યું વરદાનો તો આપું પરંતુ મારી એક શરત છે. તું જે માંગે તેનું બમણું લાલિયાને મળશે. મોતિયો મનમાં બોલ્યો, હાલ તો આપણી ગરીબી દૂર કરવી અગત્યની છે. લાલિયાને બમણું મળે તેની હાલ ક્યાં સમસ્યા છે? તેણે શરત કબૂલી એટલે ભગવાન તથાસ્તુ કહી ચાર વરદાન આપી અતંર્ધ્યાન થઈ ગયા. મોતિયો ખૂબ ખુશ થઈ ઘેર આવ્યો. ખેડૂત માણસ એટલે પહેલાં વરદાનમાં તેણે ૧૦૦ વીઘા જમીન માંગી લીધી. તરત જ તેના ખેતરો મોટા થઈ ૧૦૦ વીઘા થઈ ગયા. પરંતુ આ શું? લાલિયાના ખેતરો ૨૦૦ વીઘા થઈ ગયા. મોતિયાને બળતરા તો થઈ પરંતુ થયું હશે, આપણા પાસે ૧૦૦ વીઘા જમીન તો આવી ગઈ. પછી તેણે ૧૦ કૂવા માંગ્યા. દર દસ વીઘા જમીને એક એક કૂવા આવી ગયાં. પરંતુ લાલિયાના ખેતરમાં પણ ૨૦ કૂવા ગળાઈ ગયા. મોતિયાનો હરખ ઓછો થયો. તેને થયું, માટીના ઘરમાં ક્યાં સુધી રહીશું? તેણે એક પેલેસ જેવું મકાન માંગી લીધું. તેનું મકાન પેલેસ જેવું બની ગયું. પરંતુ પડોશમાં લાલિયાને ત્યાં પેલેસ જેવાં બે મકાન બની ગયા. મોતિયાથી હવે ન જીરવાયું. તેને થયું, ભક્તિ તેણે કરી, ભગવાન તેના પર પ્રસન્ન થયાં, વરદાન પણ તેનાં અને આ લાલિયો ડબલ લાભ લઈ જાય? તેનો મૂળ સ્વભાવ અદેખાઈનો ઈર્ષાની આગમાં તેનું તન અને મન બળવા લાગ્યું. તેને ૧૦૦ વીઘા જમીન, કૂવાની સિંચાઈ, મબલખ પાક અને પેલેસ જેવા ઘરમાં રહેવાનો આનંદ ન આવ્યો. તેનુ મન ચકરાવે ચડ્યું. હવે માત્ર એક જ વરદાન બાકી છે. એવું તો શું માંગું કે તેનો લાલિયાને લાભ નહીં પણ ગેરલાભ થાય. અદેખાઈએ તેના મન મસ્તિષ્કનો કબજો લઈ લીધો હતો. રાત દિવસ વિચારતાં વિચારતાં તેને એક ઉપાય જડી ગયો. તે સવારે ઉઠ્યો અને ભગવાનને યાદ કરી ચોથું અને છેલ્લું વરદાન માંગ્યું કે, હે ભગવાન મારી એક આંખ ફોડી નાંખ. તેને હતું કે તેની એક આંખ જવાથી કે બીજી આંખથી જોઈ શકશે પરંતુ લાલિયાની બે આંખો ફૂટી જશે તેથી તે આંધળો થઈ જશે. ભગવાન વચને બંધાયા હતાં. મોતિયો કાણો થયો અને લાલિયો આંધળો. પરંતુ લાલિયો સંસ્કારી, તેણે અંધાપાને ભગવાનની મરજી માની સ્વીકારી લીધો. ધીમે ધીમે ધ્યાન ભજનથી તેની અંતઃદૃષ્ટિ ખુલતી ગઈ અને તેને સ્વરૂપનો સાક્ષાત્કાર થયો. વિષયાનંદથી તે મુક્ત થયો અને સ્વરૂપાનંદમાં મસ્ત થયો. તેના સંતાનો સંસ્કારી હતાં તેથી તેમણે લાલિયાની સારી સારસંભાળ રાખી. પરંતુ આ તરફ મોતિયાની કાણી આંખના કારનામા બધાંને ખબર પડી ગયા. ઘરમાં, ગામમાં અને સમાજમાં તેની આબરૂ ઘટી ગઈ. બધાં તેનાથી બધાં દૂર થતાં ગયા. તેનું ઘડપણ કરૂણ સ્થિતિમાં વીત્યું અને તેને મનનું કે તનનું સુખ ન મળ્યું. ભગવાનના ચાર ચાર વરદાને પણ તે ઈર્ષ્યા અને અદેખાઈની આગમાં તે બળતો રહ્યો. અદેખાઈ કે ઈર્ષ્યાથી આપણે કોઈનું બૂરું કરવા ધારીએ પરંતુ ખરાબ કર્મના ફળ પોતાને ભોગવવા પડે છે. બીજાને તેના સારા કર્મનું સારું ફળ મળવાનું છે તેથી લાલિયાની જેમ તેનું બૂરું ઈચ્છીએ પરંતુ તેનું શુભ થવાનું. તેથી રાગ અને દ્વેષ નામના બે કૂરકૂરિયાં આપણી અંદર પડ્યાં છે તેને દૂર કરી નિર્મળ થઈએ. સફાઈ નહાવા ધોવાની નહીં પરંતુ અંતઃકરણની કરવાની છે. પસંદગી આપણી પોતાની છે. લાલિયો થવું કે મોતિયો. ડો. પૂનમચંદ ૨ જુલાઈ ૨૦૨૫
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