Friday, November 14, 2025

बांधवगढ: तू नहीं तो तेरी याद ही सही


तू नहीं तो तेरी याद ही सही

१५३६ वर्ग किलोमीटर में फैला बाँधवगढ़ बाघ अभयारण्य मध्यप्रदेश का गौरव है। अभयारण्य के छह क्षेत्र निर्धारित हैं, और प्रत्येक में कोर तथा बफर क्षेत्र विभाजित हैं। हमारा निवास ताला ज़ोन में था। १०५ वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाले ताला में केवल लगभग २० किलोमीटर भाग ही पर्यटकों के लिए खुला रहता है।

फ़रवरी–मार्च यहाँ आने के सर्वोत्तम महीने माने जाते हैं—फ़रवरी का रंग बदलता पतझड़ और मार्च में नई कोंपलों की उजली हरियाली, दोनों ही दृश्य मन मोह लेते हैं। गर्मियों में सूखा और सीमित जल स्रोतों के कारण वन्यजीव सड़क और खुले क्षेत्रों की ओर अधिक आते हैं, जिससे उन्हें देखने की संभावना बढ़ जाती है।

लेकिन हम पहुँचे नवंबर में।

जबलपुर में दीपक खांडेकर ने नर्मदा वाटिका में हमारा अत्यंत स्नेहपूर्वक स्वागत किया, उत्तम देखभाल की और अगली सुबह अर्थात कल हमें मिनी बस में बिठाकर बाँधवगढ़ पहुँचा दिया। दीपक ने इतनी बारीकी और मनोयोग से प्रवास की व्यवस्था की थी कि पूरा कार्यक्रम सहजता से चलता रहा—किसी को कोई तकलीफ़ नहीं हुई।

भानू के “आऊँ कि न आऊँ?” को, हमारी “अरे, आ ही जाओ” ने अंततः “हाँ” में बदल ही दिया।

शाम की पहली सफ़ारी

पहली शाम की सफ़ारी के समय बाघ देखने का उत्साह चरम पर था। कोई रुकना चाहता था, कोई आगे बढ़ना। किसी को शेषशायी विष्णु की प्राचीन प्रतिमा का आकर्षण था, और किसी की एकाग्र इच्छा—कहीं बाघ, बाघिन या उनके शावक दिख जाएँ।

दोपहर तीन से साँझ पाँच-तीस तक ढाई घंटे घूमते हुए कुछ चित्तल दिखाई दिए और एक-दो बार सांभर की चेतावनी-ध्वनि भी सुनाई दी। परंतु बाघ का दर्शन न हुआ। डूबते सूरज की सुनहरी रोशनी के साथ ही हम अपनी उम्मीदें समेटकर लौट आए।

शाम को पकौड़ी और चाय के साथ बातचीत के रंग जगे, और फिर भोजन कर विश्राम किया।

ठंडी सुबह और वन का यथार्थ

आज सुबह छह बजे ठिठुरती ठंड में हम पुनः सफ़ारी पर निकले। अब हमें समझ आ गया था कि बाघ की आश लगाना व्यर्थ है। एक बाघ लगभग ८० वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में घूमता है, जबकि तीन–चार बाघिनें अपने-अपने दो–तीन शावकों सहित २०–२५ वर्ग किलोमीटर में परिवार की देखभाल में लगी रहती हैं। बाघ—अपनी मर्जी का राजा—इन सभी के बीच समय बाँटकर चलता है।

ऐसे में इस रंगीन, रहस्यमयी बिल्ली को ठीक उसी समय सड़क पर देख पाना, जब हमारी जीप वहाँ पहुँचे, केवल भाग्य की बात है। इसलिए हम उसके पगचिन्हों से ही संतुष्ट हो गए।

सितंबर का महीना यहाँ अधिकांश वन्य मादाओं के प्रसव का समय होता है। वे दो–तीन महीने शावकों को छिपाकर पालती हैं। इसलिए हमारे आने तक पूरा जंगल शांत था—सब अपने घरों में सुरक्षित और संतुष्ट थे; बाहर कम ही दिखे।

जंगल की दोस्ती: हिरन और बंदर

“ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे।”

हिरन और बंदर की अनूठी मित्रता यहाँ देखने योग्य है। हिरन की नाक दूर तक गंध सूँघ लेती है, जबकि बंदर की आँखें दूर तक देख लेती हैं। जब महाकाल बाघ निकट आए, तो दोनों एक-दूसरे को सतर्क कर जीवन बचाते हैं।

मित्रता निभाते हुए बंदर पेड़ों पर चढ़कर ताज़े पत्ते तोड़ते हैं और उन्हें नीचे चरते हुए हिरनों के लिए गिरा देते हैं। इन्हीं की चेतावनी ध्वनियों पर गाइड जीपें दौड़ाते हैं और पर्यटक बाघ के दर्शन की आश में आगे बढ़ते हैं।

सालवन का सौंदर्य

हमने निश्चय किया कि जंगल का आनंद उसके संपूर्ण सौंदर्य में लिया जाए। घने साल के वृक्षों के बीच विहार करते हुए, शुद्ध प्राणवायु से फेफड़े भरते हुए हम तरोताज़ा हो रहे थे। साल के साथ धावा, बहेड़ा, टेसू, घोस्ट ट्री, बर्रा, अशोक, बरगद, पीपल आदि अनेक वृक्ष इस वन को और आकर्षक बनाते हैं। बेलों से लिपटे हुए वृक्ष कभी-कभी विशाल एनाकोंडा का रूप ले लेते हैं। बीचोंबीच बहती चरणगंगा की धारा जंगल की शोभा बढ़ा देती है।

मकड़ी के जाल और ऊँचे परिंदे

बातों-बातों में ध्यान मकड़ी के जालों पर गया। यहाँ तीन–चार प्रकार की मकड़ियाँ मिलती हैं। उनकी त्रिविमीय (3-D) सुरंगनुमा बुनावट आश्चर्यचकित कर देती है, और पेड़ से पेड़ पर छलांग लगाकर जाल बुनने वाली जायन्ट वुड स्पाइडर तो विलक्षण है—मादा बड़ी, नर अत्यंत छोटा। संभोग के बाद मादा नर को खा जाती है। उसके मजबूत जाल में कभी छोटे पक्षी तक फँस जाते हैं।

हमारी दृष्टि नीचे-ऊपर घूम ही रही थी कि चीलें भी दिखीं। वे पहाड़ी चट्टानों पर कॉलोनियाँ बनाती हैं। चोंच तेज होने पर भी वे शव को फाड़ नहीं पातीं, इसलिए सियार के पहला टुकड़ा कर देने का इंतजार करती हैं और फिर टूट पड़ती हैं। जहाँ शिकार हो, वहाँ इन्हें देर नहीं लगती।

बाँधवगढ़ की तितली

पेड़ों से सजा और कमरों से घिरा बाँधवगढ़ अभयारण्य का परिसर अत्यंत रमणीय है। सुबह की सफ़ारी से लौटे ही थे कि उड़ती तितलियों ने ध्यान खींचा। हर तितली पर प्रकृति ने मानो कोई नया चित्र उकेरा था।


अचानक मैंने एक सुकोमल तितली को फूल पर बैठकर धूप सेंकते और रसपान करते देखा। उसके पंखों पर छोटे–बड़े गुब्बारों जैसी मुक्त-हस्त चित्रकारी अद्भुत थी। कैमरा मेरे पास नहीं था। लेने दौड़ता तो वह उड़ ही जाती—और सचमुच, लौटते तक वह ग़ायब हो चुकी थी। पूरे परिसर में हर पौधे–फूल पर खोजा, पर वह नहीं मिली—मानो कोई नाज़ुक युवती मुस्कान चुरा कर अचानक ओझल हो जाए। मुझे दीवाना कर गई।

अविस्मरणीय अंतिम सफ़ारी

आज शाम की सफ़ारी सच में अविस्मरणीय रही। हमें आशा भी नहीं थी कि बाघ दिखेगा—यह हमारी अंतिम सफ़ारी थी।

अचानक हमारी जीप के पीछे से एक महाकाय जंगली शूकर तेज़ी से दौड़ता हुआ आया, लगभग जान बचाकर सड़क पार करता हुआ। उसके पीछे एक अधपका (सब-अडल्ट) बाघ था। हमने उसे देखा—पर शायद हमारी आहट से वह शूकर का पीछा छोड़कर लौट गया। पूरी आकृति नहीं परंतु उसकी हल्की, रंगीन झलक कैमरे में कैद हो गई।

जीवन बचाने की चाह में भागते शूकर को देखना और उसका बच निकलना—यह दृश्य हृदय में अंकित हो गया।

कुछ देर बाद वह वापिस लौटा, पर अभी भी डरा-सहमा, ऊपर की ओर जाने का साहस बटोरता हुआ।

बाघ अब कहीं शांत बैठ गया था। हमने कुछ क्षण प्रतीक्षा की और फिर आगे बढ़ गए।

हमारे साथ आ रही दूसरी जीप वाले समूह को सौभाग्यवश मार्ग पर चलती एक बड़ी बाघिन दिख गई।

**बाँधवगढ़”

१४ नवंबर २०२५**


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