भारतीय दर्शन।
भारतीय दर्शन अद्भुत है। वेदों को स्वीकार करनेवाले आस्तिक दर्शन है और नकारनेवाले नास्तिक दर्शन। आस्तिक दर्शन की मुख्य छह शाखाएँ हैः सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदांत। नास्तिक दर्शन की तीन मुख्य शाखाएँ हैः बौद्ध, जैन और चार्वाक। आस्तिकों में ही शैव, वैष्णव, शाक्त, द्वैत, अद्वैत, परमाद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत शाखाएँ बनी है जिसके अनेक पंथ और संप्रदाय है।
बौद्ध दर्शन का आधार प्रतीत्यसमुत्पाद है। जिसका सरल अर्थ है कारण से कार्य की प्राप्ति। संसार और उसकी घटनाएँ आकस्मिक नहीं लेकिन कार्य कारण संबंध से होती है। गौतम इसी प्रतीत्यसमुत्पाद का ज्ञान पाकर, उसका साक्षात्कार कर बोधि यानि बुद्ध हुए थे। संसार के दुःखों का कारण यही प्रतीत्यसमुत्पाद है जिसके बारह अंग है। दो अतीत जन्म के, आठ वर्तमान के और दो अगले जनम के। भव चक्र का बंधन है जो कारण के समाप्त किए बिना समाप्त नहीं होता। कारण समाप्ति ही निर्वाण है। जरा-मरण का कारण जाति (जन्म), जाति का कारण भव (जन्म लेने की इच्छा), भव का कारण उपादान (आसक्ति), उपादान का कारण तृष्णा (विषयों की चाहः शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध), तृष्णा का कारण वेदना (विषयों के संयोग से मन पर पड़ा प्रभाव), वेदना का कारण स्पर्श (विषयों का संपर्क), स्पर्श का कारण षडायतन (पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और छठा मन), षडायतन का कारण नामरूप (भौतिक और चेतन का संयोग), नामरूप का कारण है विज्ञान (वर्तमान जन्म), विज्ञान का कारण है संस्कार (पूर्व जन्म के कर्म), संस्कार का कारण अविद्या (अवास्तविक को वास्तविक समझने का अज्ञान)। अविद्या ही भव चक्र (जन्म-मरण), संसार का कारण है। अविद्या की निवृत्ति से दुःख मुक्ति है।
एक तरफ़ हिंदू और जैन धर्म आत्मा पर ज़ोर देते है दूसरी तरफ़ बौद्ध अनत्ता (अनात्मा) की धारणा करते है। सब कुछ परिवर्तनशील है और नश्वर है। हिंदू और जैनियों में स्वयं का भाव है, बौद्धों में अभाव है। इसलिए एक दर्शन धारा ‘है’ पर खडी है और बौद्ध ‘नहीं’ (शून्य) पर खड़े है।
वेदांती का प्रश्न रहता है कि शून्य भी एक कार्य है, उसका उपादान (कारण) कौन? किसने जाना की शून्य है? वह जाननेवाले का स्वरूप क्या? वेदांती उसे ब्रह्म, शैव शिव, वैष्णव विेष्णु, शाक्त शक्ति नाम से आराधना करते है। इन सबमें भी तात्त्विक भेद है। वेदांतीयो का ब्रह्म अकर्ता हैं फिर भी उसके संकल्प से सृष्टि (प्रकृति) बनी है। शैवों में शांकर वेदांती अद्वैत को मानते है। दृश्यमान जगत उसी ब्रह्म का ही मायिक स्वरूप है जो मिथ्या है और अविद्या की वजह से हमें सच्चा स्वरूप दिखाई नहीं पड़ रहा। कश्मीरी शैवों के शिव पंचशक्ति और पंचकृत्यकारी है और यह जगत उसकी शक्ति-विमर्श है। शाक्तों की शक्ति जगन्माता है जिसके गर्भ से ही यह जगत प्रकट होकर उसकी ही नानाआवृत्ति बन खड़ा है। वैष्णव त्रिशक्ति में से एक पालनपोषण करनेवाले विष्णु और उसके अवतारों की आराधना कर सांसारिक पदार्थ और स्वर्ग की कामना करते है। वैष्णवों में द्वैत बना रहता है इसलिए भक्त-भगवान, दास्यभाव, भक्ति प्रमुख है। उसमें भी विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत, अद्वैत की धारा में मिल जाते है। अज्ञान का का कारण अविद्या है। विद्या (बोध) से अविद्या जाते ही स्वरूप ज्ञान (शाश्वत का साक्षात्कार) हो जाता है और मुक्ति मिलती है। यहाँ भी कर्मफल और उसके आधार पर जन्म मरण का चक्कर लगा हुआ है लेकिन स्वरूप बोध होते ही मुक्ति की अवधारणा है।
हिन्दुओं का जीव, बौद्धों का अनत्ता ही जैनियों का आत्मा है। जो अनुक्रम से पंच पायदान (साधु, मुनि, उपाध्याय, आचार्य, अरिहंत) पार कर सिद्ध स्थिति प्राप्त कर लेता है। केवली होकर सिद्ध होना ही आत्मा का अंतिम लक्ष्य है।
बुत पूजा को अलग करें तो वैष्णव मत, ईसाई और इस्लाम मत से मिलता जुलता है। जहां ईश्वर, परम पिता, अल्लाह है, जो हमारे अच्छे बूरे कर्मों का हिसाब रखता है और न्याय करता है। हिन्दुओं के जीव कर्मानुसार जन्म मरण और स्वर्ग नर्क को प्राप्त होते है। ईसाइयों में पुनर्जन्म नहीं, एक ही जीवन है। मरने के बाद न्याय के आधार पर स्वर्ग नर्क मिलता है। इस्लाम में भी पुनर्जन्म नहीं है। मौत के बाद रूह को क़यामत तक इंतज़ार करना है। क़यामत के दिन अल्लाह के आदेशानुसार स्वर्ग अथवा नर्क मिलता है।
बौद्धों की मुक्ति अवास्तविक से छुटकारा है। जैनियों का लक्ष्य सिद्ध है। वैष्णवों, ईसाई और मुसलमानों का स्वर्ग है। शैवों का परम शिव स्वरूप है। शाक्तों का शक्तिरूपा है। वेदांतीयों का ब्रह्म है, अद्वैत है। व्याख्या अलग अलग है लेकिन सबका इशारा एक ही की ओर है, जिसे कोई नही जानता। जो जान लेता है मौन हो जाता है।
“इस जगत् की उत्पत्ति से पहले ना ही किसी का अस्तित्व था और ना ही अनस्तित्व (ना असत असित न उ सत्असित तदानिम ).. न ही मृत्यु थी और न ही अमरता.. सब बाद में आए फिर कौन जानता है कि यह कहां से उत्पन्न हुआ है?..यदि उसने इसे बनाया है; या यदि नहीं (यदि वा दधे यदि वा ना)..…वह वास्तव में जानता है; या शायद वह नहीं जानता है..." (सो अंग वेद यदि वा न वेद)” (ऋग्वेद 10.129)।
अनिर्वचनीय।
पूनमचंद
२१ मार्च २०२४
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