Sunday, June 12, 2022

शांति पाठ।

 शांति पाठ। सह नाववतु। 


हिन्दू शास्त्रों में शांति पाठ का बड़ा महत्व है।विद्या प्राप्ति के प्रतिबंध दूर करने शांति पाठ होता है। विघ्न निवृत्त हो और मन शांत हो।उपसर्ग का उपशमन हो। ग्रंथ लेखन से लेकर समापन तक या उसका अध्यापन और अध्ययन पूरा करने एक प्रार्थना मंत्र पाठ किया जाता है। सभी शांतिदूत पाठों में ॐ सह नाववतु…. और ॐ पूर्णमदः… ज़्यादा प्रचलित है। 


ॐ सह नाववतु ।

सह नौ भुनक्तु ।

सह वीर्यं करवावहै ।

तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥


(परमेश्वर हम दोनों (गुरू-शिष्य, वक्ता-श्रोता) की एक साथ रक्षा करें, दोनों एक साथ विद्या के फल को भोगे, एक साथ विद्या प्राप्ति का सामर्थ्य प्राप्त करे,  विद्या से दोनों तेजस्वी बने, और परस्पर द्वैष (गैरसमज) न करे।) (Aum! May He protect us both together, together may we two relish, together may we perform with vigour, may our study filled with the brilliance, may we not mutually dispute. Aum! let there be peace in me; let there be peace in my environment; let there be peace in the forces that act on me!)


यह मंत्र कृष्ण यजुर्वेद से आया है। कठोपनिषद, तैत्तिरीय उपनिषद् इत्यादि कई उपनिषदों में इसे शांति पाठ के लिए लिया गया है। आमतौर पर भारत में हर आश्रम में भोजन से पहले यह मंत्र गाया जाता है। पर यह भोजन मंत्र नहीं, विद्या मंत्र है।विद्यालयों में, सार्वजनिक समारोहों में, योग सत्र में इसका प्रयोग होता है। 


विद्या मंत्र है इसलिए गुरू और शिष्य दोनों को उसका फल एक साथ प्राप्त होता है। संसार से रक्षित होना है तो वह रक्षा विद्या प्राप्ति से होती है। विद्या का फल जानकारी नहीं है। विद्या का फल निर्भयता और आनंद है। इसके लिए ज्ञान को अनुभव का विषय बनाना पड़ता है। विद्या प्राप्ति के लिए अपने अंतःकरण को अधिकारी बनाना पड़ता है। अधिकारी बनने पूर्ण प्रयत्न करना है, सह वीर्यं। विद्या से सामर्थ्य लाना है इसलिए साधन चतुष्ठ्य से शिस्तबद्ध चलना है। श्रवण करना है। मनन से संशय निवृत्त करने है। बोध का बार बार ध्यान में लाकर अमल करना है। गुरू द्वेष न करे, लेकिन शिष्य में द्वेष हो तो उसकी श्रद्धा डगमगा जायेगी। एक बार गुरू के शब्दों से महत्व चला जाए तो उस शब्दों से अंतर में जो अर्थ प्रकट करना है वह नहीं होगा। इससे शिष्य का ही नुक़सान है। 


तीन प्रकार के ताप की शांति। आध्यात्मिक (शरीर संबंधी), आधिदैविक (दैव जनित), और आधिभौतिक (स्थूल जगत से)। विद्या प्राप्ति में इन तीनों प्रकार से आनेवाले विघ्न से शांति मिले और आत्म विद्या प्राप्त हो जिससे परम श्रेय मोक्ष की प्राप्ति हो। 


विद्या मंत्र है लेकिन कर्मयोगियों को भी उपयुक्त है। वे साथ रहे, साथ भोगें, साथ साथ सामर्थ्य प्राप्त करने हेतु कार्य करे और तेजस्वी बने, परंतु एक-दूसरे का द्वेष न करें। 😊


विद्या प्राप्त करे। सँभालें। द्वेष न करे। 


ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।


पूनमचंद 

२६ मई २०२२

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