ब्रह्मविदाप्नोति परम।
ब्रह्म को जानने वाला परम (मोक्ष) को प्राप्त करता है।तैत्तरीय उपनिषद् के दूसरे खंड ब्रह्मवल्ली के प्रथम अनुवाक का यह वाक्य है।
तैत्तरीय उपनिषद् यजुर्वेद का ब्राह्मण भाग है। वैदिक साहित्य के तीन भाग है। मंत्र विभाग। ब्राह्मण विभाग और ब्राह्मण का ही उपखंड आरण्यक। मंत्र विभाग मंत्र प्रस्तुत करता है। ब्राह्मण उसकी व्याख्या करता है।
प्रथम वाक्य में तीन बातें रखी गई। ब्रह्म, उसे जानना और उसका फल मोक्ष। साध्य-साधन-फल।
पहले फल, लक्ष्य-परम की चर्चा करे जिसे मोक्ष या मुक्ति कही जाती है। परम का अर्थ है जिसको पाने के बाद दूसरी सभी कामनाओं की निवृत्ति हो। परम प्रसन्नता एवं तृप्ति प्राप्त हो।
कैसे पायेंगे उस परम को?
ब्रह्म को जानकर। जानना यानि ज्ञान पाना है। ज्ञान साधना है। जो अपनी बुद्धि गुहा में है उसको जानना है। कोई बाह्य चीज की जानकारी नहीं लेनी है।
कैसे मिलेगी जानकारी?
तीन साधन है, श्रवण, मनन, निदिध्यासन। ऐसे ही सुनने से काम नहीं बनेगा। सुनना है, समझना है और ठहराकर बार बार ध्यान में लाकर अमल करना है। इसके लिए तैयारी करनी होगी, अनंत संस्कारों से ग्रसित साधन-बर्तन-दर्पण रूप अंतःकरण को तैयार करना होगा। उसकी सफ़ाई, स्थिरता के लिए काम करना होगा। उपासना और कर्म उसी तैयारी के लिए है। विपश्यना भी तैयारी है। एक बार अंतःकरण तैयार हुआ फिर उस पात्र में ज्ञान आरूढ होना ही है। शुद्ध अंतःकरण के लिए एक महावाक्य अहं ब्रह्मास्मि सुनना भी ब्रह्म जानने के लिए पर्याप्त हो जाता है।
चलिए अब ब्रह्म की बात करे।
ब्रह्म शब्द बृह धातु से बना है जिसका अर्थ होता है विस्तार-विस्तृत। इसका मतलब यह हुआ कि ब्रह्म शब्द विशेषण (adjective) हुआ। विशेषण नाम को लगता है और उसकी मर्यादा नाम से तय होती है। जैसे कि हम कहें बड़ा हाथी और बड़ा मच्छर, तब दोनों में विशेषण बड़ा है पर हम दोनों को अनुपात से कितना बड़ा हाथी या कितना बड़ा मच्छर यह कल्पना कर लेते है। विशाल सरोवर की कल्पना भी ऐसे कर लेते है। अब यहाँ तो शब्दातीत का नामकरण करना है। कैसे संभव होगा। विस्तृत या विस्तारित यानी कितना? ऋषियों ने इसलिए विशेषण को ही नाम बना लिया। अमर्यादित (infinite) कर दिया। कितना विशाल? बुद्धि विशालता की जितनी भी कल्पना कर सके उससे भी विशाल। वह तत्व जो सर्वत्र है, सर्व व्यापक है, उसका कहीं अभाव नहीं है, जिसके एक अंश मात्र में समस्त ब्रह्मांड समाहित हो जाते है वह व्यापक ब्रह्म है। जो परिपूर्ण है, जिसमें कोई कम ज़्यादा नहीं हो सकता वैसा निरतिशय।
ब्रह्म को जानने वाला उस परम को प्राप्त करता है। ब्रह्म और परम दो अलग नहीं है। ब्रह्म ही परम है। ब्रह्म प्राप्ति ही मोक्ष प्राप्ति है। अब जो इतना व्यापक है कि जिसमें अनंत ब्रह्मांड समायें है उसमें हम भी तो समाये है। वह हमसे दूर कैसे हो सकता है? प्राप्त ही है पर हमें पता नहीं। इसलिए जानना पड़ता है कि किसे ब्रह्म कहते है? ब्रह्म कोई परिच्छिन्न वस्तु नहीं है जिसे पाना है। जो हमसे अलग नहीं है, जुदा नहीं है, जो प्राप्त है, मेरा अपना स्वरूप है, उसे प्राप्त करने में यह विलंब कैसा? यही अविद्या है जिसकी निवृत्ति करनी है। अविद्या की निवृत्ति ही ब्रह्म विद्या है। ब्रह्म का दर्शन ज्ञान से होता है। चर्मचक्षु से नहीं अपितु ज्ञानचक्षु से दर्शन-अनुभव-ज्ञान होता है।
तैत्तिरीय उपनिषद् इसलिए उस ब्रह्म की व्याख्या करता है।
दो प्रकार से व्याख्या होती है। एक स्वरूप लक्षण बताकर और दूसरा तटस्थ लक्षण बताकर।तट यानी किनारा, किनारे पर बैठे अलग होकर देखना। जैसे भगवान श्रीकृष्ण को हम कमलनयन या घनश्याम कहे तो यह उनका स्वरूप लक्षण हुआ। और अगर मुरलीधारी या गोवर्धनधारी कहें तो मुरली और पर्वत दोनों बाहर रहकर श्रीकृष्ण को दर्शाते हैं इसलिए यह तटस्थ लक्षण हुए। ब्रह्म की भी वैसे ही स्वरूप लक्षण और तटस्थ लक्षण से व्याख्या की गई है।
सत्यं ज्ञानं अनंतं ब्रह्म। वह सत्य है। ज्ञान है। अनंत है। यह ब्रह्म का स्वरूप लक्षण है।
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते। येन जातानि जीवन्ति। यत प्रयन्त्यभि संविशन्ति। जिससे भूत उत्पन्न होते है, उत्पन्न होकर जिससे जीते है, और प्रलय में जिसमें विलुप्त होते है वह ब्रह्म है। जगत की उत्पत्ति स्थिति और लय दर्शाते है। यह ब्रह्म का तटस्थ लक्षण हुआ।
ब्रह्म को स्वरूप लक्षण से जानो। आप ही हो। आपकी अपनी व्याख्या की गई है। आप सत्य हो, ज्ञान हो और अनंत हो। यह ठीक न लगे तो ब्रह्म को तटस्थ लक्षण से जानो। आपकी आँखों के सामने सब कुछ हो रहा है। उत्पत्ति-स्थिति-लय। यह खेल जिस मैदान में हो रहा है वह विस्तृत ब्रह्म है। आप ही वह मैदान हो जिसमें यह खेल चल रहा है।
जानो जानो जानो।
सुनो सुनो सुनो।
श्रवण मनन निदिध्यासन (बार बार ध्यान में लाओ) ही उपाय है।
बुद्धि गुहा में प्रवेश करो।
प्राण गुहा में प्रवेश करो।
हृदय गुहा में प्रवेश करो।
आपका दीदार दूर नहीं है।
ब्रह्म को जानने से परम की प्राप्ति है।
पूनमचंद
२३ मई २०२२
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