इन्द्रधनुष - शिवधनुष।
१९० साल की ग़ुलामी के बाद भारत को १५ अगस्त १९४७ के दिन ब्रिटिश शासन से मुक्ति मिली थी।
बारिश का मौसम था। आनंद पर्व के उस दिन की शाम पाँच बजे जब लाल क़िले पर झंडारोहण किया गया और जैसे ही स्वतंत्र भारत का ध्वज उपर शिखर पर पहुँचा वैसे ही पूरब आसमान में इन्द्रधनुष निकल आया। तिरंगा और इन्द्रधनुष के रंग जैसे एक हो गये। क़ुदरत खुश हो उठीं थी।
इन्द्रधनुष के सुंदर सात रंग लाल, नारंगी, पीला, हरा, नीला, इंडिगो, बैंगनी किसे नहीं लुभाते?
कैसे बनता है इन्द्रधनुष? सूरज की किरण पानी की बूंद में प्रवेश करती है और अपने घटक रंगों की रोशनी में विभाजित हो जाती है। दिखता तो ऐसा ही के पानी के बूंद ने इन्द्रधनुष रचाया।
पानी की बूंद एक प्रिज्म (पारदर्शी क्षेत्र) के रूप में कार्य करती है जिससे प्रकाश की सफ़ेद किरण फैलाव के रूप में अपने घटक रंगों की रोशनी में विभाजित हो जाती है। बारिश की बूंदों से निकलती अलग अलग रंगों की रोशनी देखते ऐसा लगता है जैसे कि रंगों का इन्द्रधनुष बूंदो का है। लेकिन इन्द्रधनुष किसका है? कैसे बना?
पानी की बूँद एक पारदर्शी क्षेत्र (प्रिज्म) का काम करती है। जेसै ही प्रकाश की सफ़ेद किरण बूंदो पर अपवर्तन होती है अपने घटक सात रंगों में विभाजित होकर फैल जाती है। किरण ही इन्द्रधनुष है।
अस्तित्व भी कुछ ऐसे ही शिव का रचा एक इन्द्रधनुष है। जिसमें मन प्रिज्म का रोल करता है और आत्मा प्रकाश की किरणें। संसार का रंगों से भरा वैविध्य भले ही मन का दिखता हो, पर है तो वह श्वेत किरण का ही प्रारूप। ३६ तत्व का विभाजित रूप शिवधनुष ही है।
शिव कल था, आज नहीं है और कल प्रकट हो जाएगा ऐसा नहीं है। आत्मा कल थी, आज नहीं है और कल हो जाएगी ऐसा भी नहीं है। हम जाग्रत में रहे तब आत्मा नहीं है, और ध्यान समाधि में जाएँगे तब आत्मा बन जाएँगे, और फिर जैसे ही समाधि से बाहर आएँगे तब फिर वापिस अनात्मा हो जाएँगे वैसा भी नहीं।
जो शाश्वत है, सत्य है, असीम है, निरंजन है, शुद्ध है वह भला अशाश्वत, असत्य, सीमित, कलंकित, अशुद्ध कैसे हो जाएगा? नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न आग उसे जला सकती है। न पानी उसे भिगो सकता है, न हवा उसे सुखा सकती है। फिर उस आत्मा के जन्म और मरण या बंधन और मुक्ति का प्रश्न कहाँ?
सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह रहेगा कि एक बार जीव को अपने सच्चे स्वरूप का ज्ञान हो जाता है, भान हो जाता है, फिर वह चाहकर भी बंधनों से बाधित नहीं होता। एक बार शाश्वत सत्य उजागर हो गया फिर अंधेरा कहाँ? फिर तो रोशनी कि उस किरण चाहे सफ़ेद हो या सात रंगों में विभाजित, किरण ही है ऐसा जानकर, मानकर व्यवहार होता रहेगा और अपने निज शांत चैतन्य असंग स्वरूप में विश्रांति रहेगी।
विभाजित दिख रहे विश्व में शिव एक ही है। वही अपवर्तन कर विविध रूपों में लीला कर रहा है।
पहचान कौन? कोई और नहीं, हम स्वयं है। बस नज़र का नज़रिया बदलना है, और कुछ नहीं।
विवेक, वैराग्य, साधन चतुष्टय, शास्त्र अभ्यास, श्रवण इत्यादि के मार्ग से गुजरना तो है ही, इसलिए क्योंकि ज्ञान दृढ़ता के लिए ऐसा करना आवश्यक है।लेकिन चैतन्यात्मा का ज्ञान दृढ़ हो गया, तंद्रा गई, भान आ गया, फिर कोई क्रिया नहीं, कोई अभ्यास नहीं। शिव है। शिव हो गया। तं शंकरं स्तुमः।
पूनमचंद
३ जनवरी २०२३
0 comments:
Post a Comment