Friday, May 9, 2025

बदलता कश्मीर ।

१९९० से २०२५, पैंतीस साल गुजर गए और कश्मीर घाटी की पूरी पीढ़ी बदल गई। मिलिटन्सी करनेवाले कम रहे या ख़त्म हुए। २०१९ में संविधान अनुच्छेद ३७० हटते ही मानसिक अलगाव रखनेवाली जो एक दिवार थी वह टूट चुकी है और उसके बाद हुए विकास काम और प्रवासन विकास नें उन्हें सही ग़लत का भेद समझाया है। जिसके चलते बहुमत प्रजामत अब हिन्दुस्तानी है। पहलगांव दुर्घटना ने उन्हें झँझोड़ दिया है, दुखी किया है और विवश कर दिया है की वे सही का साथ दे। नई पीढ़ी को रोज़गार और विकास के अवसर चाहिए। उन्हें अब अलगाव नहीं, प्यार मोहब्बत और रोज़ी रोटी की भूख है। उनको अलग दिखाकर, उन्हें ताना देकर नफ़रत की निगाहों से देखकर बोले शब्द दुखी करते है। उनका उसी विरोध की सोच का विरोध है।नई पीढ़ी दिनभर मोबाइल से यु ट्यूब, फ़ेसबुक की ख़बरें देखती रहती है और अपने विरोध बोले शब्दों के संवेदनशीलता से सुनती है और दुखी होती है। उन्हें अलग कर देखना उन्हें अब पसंद नहीं आ रहा। हमें गैर मत समझो, हमें हिन्दुस्तानी समझो यही उनकी पुकार है। जिस नदी सिंधु से हमारे महान देश का नाम हिंदुस्तान पड़ा वह कश्मीर में ही तो बहती है। बहुसंख्य का जीवन यहाँ मध्यम वर्गीय है। सुबह एक कप चाय और एक रोटी, दोपहर सब्ज़ी चावल, तीन बजे एक कप चाय और एक रोटी और रात को सब्ज़ी चावल, यही उनका खाना है और सादा सरल जीवन है जो एक परिवार के लिए दैनिक ₹३००-४०० में निपट जाता है। मांसाहार हप्ते में दो एक दिन होता है और वह भी नियम से। कश्मीरी मांस का एक टुकड़ा और करी खाएगा और पठान होगा तो तीन चार टुकड़े खाएगा। इनका मजा तो शादी की दावत का है। शादी ब्याह में वजवान के जलवे होते है। वजवान १४ व्यंजनो का समूह है; रिस्ता, वाजा कोकुर, गुश्ताब, कबाब, रोगन जोश, धनिया कोरमा, मिर्ची कोरमा, आब गोश, मेथी माज, तबक माज, इत्यादि है। एक आदमी ऐसी दावत में एक से सवा किलो भक्षण कर जाता है। खाना इकठ्ठा खाना, बाँट के खाना इनका रिवाज है। खाना खाने चार चार के समूह हे बैठेंगे और जो उनमें उम्र में जो बड़ा है वह परोसा हुआ सबको बराबर कर बाँटेगा और खुद कम या हल्का पीस अपने हिस्से में लेगा। समूह भोजन के रिवाज से परिवार और जात-बिरादरी में एकता, भाईचारा, प्यार और मुहब्बत बने रहते है। परिवार और उनका लालन पालन पोषण उनके लिए सबसे उपर है। वे इतने धार्मिक हैं कि अल्लाह को पल पल याद करते हैं और हर वक्त उसका शुक्रिया करते है या रहमत माँगते रहते है। उनकी हर बात या कदम अल्लाह को याद कर होती है। यहाँ के समाज में दारू का व्यसन देश के दूसरे पहाड़ी प्रदेशों से कम है। कश्मीरी अन्याय के सामने आवाज़ उठाएगा। सीआरपीएफ की गाड़ी अपनी गाड़ी से लग जाए तो नुक़सान माँगेगा वर्ना एफआइआर कटवायेगा। कोई रोके टोके तो दबेगा नहीं, सही होगा तो ऊँची आवाज़ में बोलेगा और अगर ग़लत होगा तो चुपचाप जुर्माना भर देगा। इसकी नईं पीढ़ी शिक्षा पर ज्यादा ध्यान दे रही है। कन्या शिक्षा को बढ़ावा मिला है। पढ़े लिखे घरों में बेटियों को बराबर का स्नेह और शिक्षा मिलते है। माँ के ख़ून छोड़ यहाँ चचेरे भाई बहनों में शादी होती है। लेकिन नईं पीढ़ी जात बिरादरी छोड़ मुसलमानों में शादी कर लेते है। अरेन्ज मेरेज में कोई न कोई रिसते नाती का कनेक्शन लग जाता है। फिर भी शिया-सुन्नी अथवा सुन्नी-पठान में शादी ब्याह का रिश्ता नहीं होता। कश्मीर घाटी का दक्षिण क्षेत्र का अनंतनाग इलाक़ा मिलिटन्सी के लिए ज्यादा सक्रिय लग रहा है। पुलवामा और पहलगाम उसी क्षेत्र में पड़ते है। बुरहान वाणी का त्राल और मुफ़्ती परिवार का बीजबेहरा इसी क्षेत्र का हिस्सा है। रोज़गार के अवसर प्रवासन के अलावा कम है। इसलिए कोई कोई युवा जो वक्त या क़िस्मत का मारा हो और मिलिटन्टस के संपर्क में आकर गुमराह हुआ हो वह लापता हो जाता है यानि मिलिटन्टस के ग्रुप में जुड़ जाता है। वहाँ उसकी तालीम और तैयारी होती है और पुलवामा, पहलगाम जैसी घटनाओं को अंजाम देने उसका उपयोग किया जाता है। सबकुछ अल्लाह की मर्जी से हो रहा है, अल्लाह हू अकबर (Allah the great), मौत हुई तो अल्लाह से मुलाक़ात और जन्नत नसीब होगी, इत्यादि शिक्षा उनके अंदर चल रही अंदरूनी जलन में बारूद का काम करती है और वे अपना अवसाद दबाने उनके साथ जुड़ जाते है। फिर वे भूल जाते हैं कि उसी शिक्षा में दूसरों के मज़हब का आदर करना, निर्दोष की हत्या न करना आदि सिखाया गया है। जिहाद का अर्थ यहाँ जंग होता है। इसका एक अर्थ कईयों ने बुत पूजक के खिलाफ जंग किया था लेकिन आम मुसलमान के लिए जिहाद कईयों प्रकार की होती है, जैसे की ग़रीबी के खिलाफ जंग, अन्याय के खिलाफ जंग, अत्याचार के खिलाफ जंग इत्यादि। मिलिटन्टस से यहां का आवाम भी डरता है। जो लड़का घर से लापता हुआ उसकी थाने में रिपोर्ट लिखाई जाती है। वह जब आतंकवादी बन कभी लौटे तो वह जिसके घर एकाध दो दिन छिपने जाएगा या कुछ राशन पानी माँगेगा, बंदूक़ की नोक सर पर हो तो भला कौन ना कह सकता है या बाद में पुलिस को बता सकता है? पुलिस- पारा मिलिटरी से भी उसकी गिरफ़्तारी और पूछताछ का डर बना रहता है। अपनी और परिवार की सुरक्षा के लिए कुछ लोग चुप रहते होंगे। लेकिन आजकल पारा मिलिटरी की हाज़िरी और मोबाइल के चलते बात दो इन्सान तक गुप्त रह सकती है मगर तीसरे चौथे को पता चलेगी तो लीक हो जाती है। मुल्क पर पारा मिलिटरी की पकड़ बनी हुई है और जो मिलिटन्टस यहां थे वे मारे गए या भाग गए इसलिए पहाड़ों में छिपकर अथवा पाकिस्तान में जा-आकर पुलवामा और पहलगाम जैसी वारदात करने के सिवा उनका कोई अता पता नहीं रहता। पहलगाम दुर्घटना से यहां का हर कश्मीरी दुखी है। इसलिए नहीं कि उसका प्रवासन ख़त्म हुआ लेकिन नई नवेली दुल्हनों के सुहाग उजड़े। उनके घर भी बेटी है। वे दर्द समझ सकते है। आज़ादी के बाद पहली बार उन्होंने सड़क पर आकर त्रासदी का खुलेआम विरोध किया। उन्हें पता है कि कश्मीर भारत का ताज है और भारत इस ताज को कभी उतरने नहीं देगा। इसलिए बुद्धिमानी इसमें है कि हिन्दुस्तानी बन अपने विकास के प्रति जागरूक हो। यहां हज़ारों बिहारी-युपी-हरियाणवी-पंजाबी युवा नौकरी रोज़गार करते है। मिस्री, सुथार, रंगकाम पॉलिश काम करनेवाला, दुकान में काम करनेवाला, चाट पकौड़ी बेचनेवाला, होटलों और रेस्टोरेंट में काम करनेवाले हज़ारों युवा यहाँ काम करते हैं और उन्ही की बस्तियों में किराए के घर-रूम लेकर रहते है। उनमें मुसलमान भी है और हिन्दू भी। कईयों ने बातचीत के लिए ज़रूरी कश्मीरी बोलना भी सीखा है। वे अगर निकल गए तो कश्मीर युवाओं की नई पीढ़ी में जो आलसी है उनका क्या होगा? जिसे वे छोटा काम समझते हैं उसे करेगा कौन? भारतीय संविधान अनुच्छेद ३७० के हटने से और अपने विशेष दर्जे को जाने से वे नाराज़ ज़रूर है। कईयों को लगता है की अब कश्मीर केन्द्र शासित प्रदेश है इसलिए सब नौकरी बाहरवाले ले जाएँगे फिर पढ़ लिखकर क्या फ़ायदा? कईं सकारात्मक सोचवाले शिक्षा पर डटे रहते है। इकरा, इल्म और तालीम क़ुरान की ही शिक्षा है। ज़्यादातर युवा प्रवासन के काम, स्वरोजगार और व्यापार में लग जाते है। जिनको बाहर जाने का अवसर मिलता है वे चल पड़ते है। प्राकृतिक सौन्दर्य अगर रोज़गार न हो तो कितने दिन मन को बहलाएगा? अगर काम धंधा न हो तो कोई भी आदमी महिने में उब जाएगा फिर चाहे कैसी भी वादियाँ हो या फ़िज़ा हो। १९९० की करूणांतिका के बाद जो पंडित बाहर निकल गए उनमें से कईयों ने अपने घर - प्रोपर्टी को बाद में बेच डालें थे।जिन्होंने नहीं बेची उनकी है। शहरों में और कुछ कुछ गाँव में आज भी कुछ पंडित परिवार रहते है। लेकिन १९९० में जो बाहर निकले उनके बच्चे, नई पीढ़ी, रोज़गार धंधे में बाहर इतनी अच्छी तरह बस गई है कि कश्मीर के देहात में आकर बिना रोज़गार आमदनी अपने घर में रहकर क्या करेंगे? यहाँ ज़मीन धारक ज़्यादातर सीमांत किसान है। ज़्यादातर किसान एक दो कनाल ज़मीन के मालिक है (१ कनाल =१००० वर्ग फुट)। किसी के पास १५ कनाल ज़मीन हो (१.५ हेक्टेयर) तो वह बड़ा किसान माना जाता है। शहरों की ज़मीन अब महंगी हो गई है। श्रीनगर के अच्छे इलाक़े में एक वर्ग मीटर ज़मीन की क़ीमत ₹१० लाख तक हो सकती है। ऐसे में भला आम जनता का जीवन ग़रीब या मध्यम वर्गीय ही रहेगा। फिर भी कश्मीरी अपनी जीवनशैली को आबाद रखता है। हर पाई हिसाब से खर्चता है और अपने आय के साथ अपने खर्च के उतार चढ़ाव को सँभाल लेता है। वह दिन में ₹२००० खर्चे में खुश रहेगा और कभी ₹१०० के दिन आ गए तो उसे भी सँभालकर गुजार देगा। वह हर सुख और दुःख के दिन अल्लाह तआला की मेहरबानी समझकर स्वीकार कर लेता है। अल्लाह के ९९ नाम लेते लेते ज़िंदगी गुज़ार देना इनके जीवन की सबसे बड़ी शिक्षा है। जो जन्मा है वह मरेगा और मौत जिस दिन होनेवाली है उस दिन ज़रूर आएगी ऐसी शिक्षा उनमें पक्की है। इसलिए जीवन की तरह मौत को भी वह अल्लाह की मर्जी समझकर स्वीकार कर लेते है और दुःखद हादसों को भूलकर आगे बढ़ जाने में इन्हें वक्त नहीं लगता। कश्मीर भारत का ताज है अभिन्न अंग है, बना रहेगा। कश्मीर घाटी और कश्मीरी लोग हमारे अपने हिंदुस्तानी है। उन्हें रोज़गार के अवसर देकर आबाद रखें यही बदलते कश्मीर की तस्वीर है। डॉ पूनमचंद ९ मई २०२५

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