Friday, March 26, 2021

गुण कर्म विभाजन।

 गुण कर्म विभाजन 


हर मनुष्य का ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि, धृति, सुख कर्म त्याग से सत्व, रजस और तमस् गुण की प्रधानता, अल्पता और न्यूनता से प्रभावित है। कोई मनुष्य पूर्व सात्विक, पूर्ण राजसी और पूर्ण तामसी नहीं हो सकता। जीवन संतुलन के आवश्यक गुणों का मिश्रण रहता है। आयुर्वेद में पित्त, वात और कफ़ गुणों के संतुलन को आरोग्य माना है। अध्यात्म में जीवन के उत्थान के लिए सत्वगुण का बड़ा महत्व है। आगे जाकर उसको भी लांघकर प्रकृति से उपर उठ पुरूष क्षेत्रज्ञ में कदम रख गुणातीत अवस्था प्राप्त करना होता है। जीवन का लक्ष्य, दिशा और साधना यहीं से निर्धारित होती है। गुण भेद मनुष्यों के व्यवहार भेद और कर्म फल में भिन्नता के कारण है। जगत् के सभी मनुष्य इसी विभाजन से प्रेरित है और वह अपनी गति और उन्नति के स्वतंत्र मालिक है। जन्म और धर्म संप्रदाय से उसका कोई मतलब नहीं। अंत:करण के गुण विचार और ज्ञानेंद्रियों और कर्मेन्द्रियाों के कर्म ही प्रधान विभाजक है।


गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं। 


ज्ञान सात्विक, राजसी और तामसी होता है। विभक्त भूतों में अविभक्त अविनाशी को देखना सात्विक ज्ञान है। समस्त भूतों में नाना भावों को अविवेक से पृथक् पृथक् जानना राजसी ज्ञान है। कार्य में आसक्ति और कार्य को संपूर्ण सत्य मान जगत को भोग का विषय मानना तामसी ज्ञान है।  


कर्म सात्विक राजसी और तामसी होता है। राग द्वेष बिना मन को शांति प्रदान करने वाला कर्म सात्विक है। फल की कामना से कर्ताभाव अहंकार से किया कर्म राजसी है। परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य के विचार न कर मोहवश आरम्भ किया कर्म तामस है। 


कर्ता सात्विक राजसी और तामसी होता है। जो कर्ता सफलता विफलता में निर्विकार रह कर संगरहित, अहंभाव रहित, धैर्य और उत्साह से युक्त है वह सात्विक है। जो कर्ता रागी, कर्मफल इच्छुक, लोभी, हिंसक स्वभाव वाला, अशुद्ध और हर्षशोक से युक्त है वह राजसी कर्ता है। जो कर्ता अयुक्त (मनमानी करना), प्राकृत (असंस्कृत), स्तब्ध (विनम्र नहीं, हठी), शठ (भरोसा नहीं कर सकते), नैष्कृतिक (दूसरे की आजीविका नाश करने वाला), अलस: (आलसी), विषादी (उदास), दीर्घसूत्री (विलंब से कर्म करनेवाला) तामसी कर्ता है। 


बुद्धि सात्विक राजसी और तामसी होती है। जो प्रवृति-निवृत्ति, कार्य-अकार्य, भय-अभय, बन्ध-मोक्ष को तत्वत: जानती है वह बुद्धि सात्विकी है। जिस बुद्धि से मनुष्य धर्म-अधर्म, कर्तव्य-अकर्तव्य को यथावत नहीं जानता वह बुद्धि राजसी है। जो बुद्धि पदार्थों को विपरीत रूप से जानकर अधर्म को धर्म मानती हो वह बुद्धि तामसी है। 


धृति (धारणा) सात्विक राजसी और तामसी है। योग के द्वारा अव्यभिचारिणी धृति से मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को धारण करती धृति सात्विक है। कर्मफल की इच्छा से आसक्ति से धर्म, अर्थ और काम को धारण करने वाली धृति राजसी है। दुर्बुद्धि से जिस धारणा से स्वप्न, भय, शोक, विषाद ओर मद को नहीं त्यागती धृति तामसी है। 


सुख सात्विक राजसी और तामसी होता है। जो प्रारम्भ में विष समान है पर परिणाम में अमृत के समान है, वह सुख सात्विक सुख है। जो सुख विषयों इन्द्रियों के संयोग से उत्पन्न प्रारम्भ में अमृत समान पर परिणाम में विष तुल्य होता है, वह सुख राजसी सुख है। जो सुख प्रारम्भ में आत्मा को मोहित करने वाला और निद्रा, प्रमाद और आलस्य से उत्पन्न है, वह सुख तामस है। 


कर्म त्याग भी सात्विक, राजसी और तामसी है। कर्म को कर्तव्य मानकर आसक्ति और फल को त्यागकर किया कर्म सात्विक त्याग है।  कर्म को दुख समझकर शारीरिक कष्ट के भय से कर्म त्याग राजसिक त्याग है।  नियत कर्म का मोहवश त्याग तामस त्याग है। 


ब्राह्मण वह है जिसमें सत्वगुणो की प्रधानता हो, राजसी गुणों की अल्पता और तामस गुणों की न्यूनता हो। शम (मन संयम), दम (ज्ञानेंद्रियों कर्मेन्द्रियों पर संयम), तप (आत्म विकास के लिये शरीर, वाणी और मन की शक्तियों का अपव्यय रोकना), शौच (शरीर के साथ मन अंत:करण की शुद्धि), क्षान्ति (क्षमा), आर्जवम् (सरलता, निष्कपटता), ज्ञान, विज्ञान (आत्मज्ञान), आस्तिक्य (श्रद्धा) ब्राह्मण के गुण कर्म है। सर्जन और चिंतन कार्य में यह गुण ज़रूरी है। 


क्षत्रिय में रजस गुण प्रधानता, सत्वगुण अल्पता और तमस गुण की न्यूनता रहती है। शौर्य तेज से सम्पन्न धृति (धैर्य), दाक्ष्य (दक्षता, क्षमता), युद्ध से अपलायन, मुक्त हस्त दान, ईश्वरभाव (आत्मविश्वास) क्षत्रिय के गुण कर्म है। शौर्य, साहस, रक्षा, दान के लिए यह गुण ज़रूरी है। 


वैश्य में रजस गुण प्रधानता, तमोगुण अल्पता और सत्वगुण न्यूनता होती है। वैश्य कृषि, गोपालन और वाणिज्य कर्म में स्फूर्ति रखता है। शुद्र में तमोगुण प्रधानता, रजोगुण अल्पता और सत्वगुण न्यूनता रहती है। शुद्र का परिचर्या (सेवा) कर्म है। कृषि, व्यापार और सेवा कर्म के लिए यह गुण ज़रूरी है। 


मोक्ष गुणों से पार की स्थिति होने से सब के लिए सुलभ है।चित्त को तैयार करने की साधना है। लक्ष्य हो और मार्गदर्शक हो तो कोई भी मनुष्य मुक्ति पा सकता है। यही पुरुषार्थ है। लिंग भेद या वर्ण भेद से उसका कोई लेना देना नहीं। 


पूनमचंद 

७ जनवरी २०२१

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