Friday, March 26, 2021

चित्त धर्म।

 चित्त धर्म 


कपिल कहते है सुखद:खादि विकार प्रकृति धर्म है। जीवात्मा निर्गुण है। विवेक से दोनों को अलग कर पहचानना है। जड़ को प्रकाशित करनेवाले चिद्रूप पर ध्यान करना है। 


बुद्ध कहते है चित्त चंचल है, क्षणभंगुर है। उसे ऐसे सीधा सरल बनाये रखो जैसे एक बाणकार बाणको। चित्त को ही तो राग द्वेष, पाप पुण्य, हर्ष शोक, सुख दु:ख के  जाल से बचाना है। वही जाग्रति है। अकंप चित्त। स्थिर दीपक। 


पतंजलि कहते है चित्त कि वृत्तियों पर ध्यान रखना। वह तुम्हें तारने और डूबाने में सक्षम है। चित्त वृत्ति निरोध का मार्ग समाधि का मार्ग है। गीता में कृष्ण निरुद्ध चित्त अवस्था में परमात्मा का साक्षात्कार कराते है। 


बुद्ध जिसे चित्त कहते है उसे सनातनी जीव कहते है, जो मुक्ति तक पुनर्जन्म लेता रहता है। बुद्ध में चित्त का निर्वाण मुक्ति है, जैसे दीये को बूझा दिया। शून्य में समाया। सनातनी चित्त का अपने सोर्स में विसर्जन को मुक्ति कहते है।बिंब रह जाना, प्रतिबिंब विसर्जित होना। तात्त्विक कोई बड़ा भेद नहीं है। अशाश्वत समाप्त और शाश्वत क़ायम। 


वर्तमान जीवन पिछले कर्म का फल है वैसा मानकर बुद्ध ने भी वही कहा जो सनातनी कहते है। आज का कर्म कल की नींव है। वर्तमान कर्म पर अपना अधिकार गीता ने भी स्वीकारा है। जन्म पुनर्जन्म का साफ़ उत्तर बुद्ध ने नहीं दिया, सब अनित्य माना। लेकिन बोधिसत्व से बुद्ध तक की यात्रा या चित्त का संसरण, निर्वाण तक की यात्रा, कर्मफल जन्म पुनर्जन्म के भवचक्र की यात्रा माना। प्रश्न यह है कि पहला चित्त क्यूं पैदा हुआ? बाद मे तो कर्म के भवचक्र में वह चलता रहा। पहले चित्त ने तो कोई कर्म किये नहीं थे, फिर क्यूँ पैदा हुआ? वेदांती इसे मायावाद या ब्रह्म ऊर्जा का संकल्प से रूपांतरण (प्रकृति) करार देते है। सनातनी का सूक्ष्म शरीर वही करता है जो बुद्ध का चित्त संसरित होता है। अनित्य की ही यात्रा है। उसका जन्म पुनर्जन्म है। उसका बंधन मुक्ति है। नित्य का ना कोई जन्म, ना बंधन, ना मुक्ति। 


बुद्ध ने भिक्खु बनने सब के लिए दरवाज़े खोल दिये।सामाजिक क्रांति कर दी। लेकिन संघ के बाहर तो जातिवाद उस ज़माने में भी मौजूद था और आज भी। २५०० साल हो गये, भारत की सामाजिक जकड़न ख़त्म नहीं हुई। कृष्ण ने गुण कर्म विभाग कहा तो अर्थ को छोड़ सब मानवता को बाँटने में लग गये। असली सवाल बना रहा। चित्त शुद्धि का। साधन शुद्धि का। जो बहुत कम करना चाहते है। 


जब नेति नेति कर शेष रहता है उसे बुद्ध शून्य कहते है, और सनातनी ब्रह्म कहते है। शून्य परिणामी नहीं हो सकता। यहाँ तो पूरा भवचक्र अनंत सागर की तरह मौजूद है। दीपक की लौ हर घड़ी एक का स्थान दूसरी लेती रहती है, लेकिन दीपक को कैसे नकारोगे? अस्तित्व सदा काल मौजूद है। अस्तित्व है इसलिए कृष्ण हुए, बुद्ध हुए, गांधी हुए और हम आप। उसे परमात्मा कहो या ना कहो, उस विराट को क्या फ़र्क़ पड़ता है? 


हर कोई अपने वर्तमान कर्म से अपने भविष्य का निर्माता है। लेकिन चित्त का द्रष्टा बन चित्त की समझ बढ़ा के चले तो निराश नहीं होगा। शांत रहेगा। दुखी नहीं होगा। चित्त की शुद्धता ही योग है, वही ध्यान है, वही समाधि है और वही बुद्धत्व है। महाभारत अंदर है बाहर नहीं। नित्य को पहचानो, अनित्य को देखते रहो। जागते रहो। 


पूनमचंद 

३१ दिसंबर २०२०

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