Friday, March 26, 2021

बुद्ध ब्राह्मण।

 बुद्ध-ब्राह्मण 


हिन्दूस्तान में सदियों से वर्ण भेद और आश्रम व्यवस्था है। गुण कर्म विभाग से मनुष्यों को चार कक्षा में बाँटा गया है; शुद्र, वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण। जैसे कोई डॉक्टर का बेटा जन्म से डाक्टर नहीं बनता, या इन्जीनियर का बेटा जन्म से इन्जीनियर नहीं बनता, वैसे ही बिना गुण और कर्म कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य नहीं बनता। मनु स्मृति कहती है। जन्मना जायते शुद्र:। संस्कारात् भवेत् द्विज:। वेद-पाठात् भवेत् विप्र:। ब्रह्म जानातीति ब्राह्मण:। फिर कपट हुआ। वेद पढ़ने का अधिकार सीमित कर दिया गया। उद्दालक ने अपने शिक्षित पुत्र श्वेतकेतु की पंडिताई नकारी जब तक वह ब्रह्मज्ञान को प्राप्त न हुआ। ब्रह्म जाने बिना कोई ब्राह्मण नहीं बनता। 


वर्ण व्यवस्था उत्क्रांति व्यवस्था थी, मनुष्य जीवन की। लेकिन कलंक बन गई। जो शरीर और उसके भोगों में सीमित है वह शुद्र है। जो मन से चला अर्थ के प्रति, वह वैश्य है। जो संकल्प से चला परमार्थ और जनरक्षा के प्रति वह क्षत्रिय है। और जो समर्पण से चला मूल स्रोत की ओर, ब्रह्म की ओर, वह ब्राह्मण है। 


गौतम बुद्ध के द्वार सभी वर्गों के लिए खुले थे। लेकिन समाज में जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था प्रचलित थी। वह क्षत्रिय थे, फिर भी कई ब्राह्मण उनसे प्रव्रजित होकर भिक्खु बने और अर्हत को प्राप्त हुए। 


भगवान के जेतवन में विहरते समय एक ब्राह्मण ने पास जाकर पूछा। हे गौतम, आप अपने श्रावकों को ब्राह्मण कहकर पुकारते है। मैं तो जाति से ब्राह्मण हूँ। क्या मुझे ब्राह्मण नहीं पुकारना चाहिए? भगवान ने कहा, “मैं जाति गोत्र से ब्राह्मण नहीं कहता हूँ, केवल उत्तमार्थ अर्हत्व प्राप्त को ही ब्राह्मण कहता हूँ। न जटाहि न गोत्तेहि न जच्चा होति ब्राह्मणों। यम्हि सच्चन्च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मण। (कोई न जटा से, न गोत्र से और न जन्म से ब्राह्मण होता है। जिसमें सत्य और धर्म है, वही शुचि (पवित्र) और वही ब्राह्मण है।) 


सारिपुत्र बुद्ध के अग्रणी शिष्यों में एक थे। उनका छोटा भाई था रेवत। रेवत की शादी हो रही थी। बारात निकलीं थी। वह घोड़े पर बैठा था। अचानक जाग गया बीच रास्ते, घोड़े से उतरा और भाग गया। जंगल में पहुँचा और बुद्ध के भिक्खु से प्रवज्या ले ली। फिर खदिरवन में एकांत, ध्यान और मौन में सात साल साधना की और अर्हत्व को उपलब्ध हुए। पहले चाह थी बुद्ध के दर्शन की लेकिन अब वह भी न रही। जंगल भयंकर था। जंगली पशुओं की दहाड़ो से भरा था। रास्ते ऊबड़ खाबड़ और काँटों से भरे थे। बुद्ध चल दिये सारिपुत्र और अन्य भिक्खुओं के साथ स्थविर रेवत की ओर। रेवत ने ध्यान में भगवान को आते देख लिया और जो मिला, पत्थर, घास-पात, बिछा आसन बना दिया। बुद्ध पधारें, आसनस्थ हुए उस प्रगाढ़ शांति में और फिर सब लौट चले। 


श्रावस्ती आते ही महोपासिका विशाखा ने दो भिक्खुओं को पूछा, आर्य रेवत का निवास स्थान कैसा था? एक ने कहा, खंडहर, काँटों से भरा, बीहड़ जंगल, भयंकर जानवरों से भरा हुआ। बचकर वापस आ गये। दूसरे ने कहा, स्वर्ग जैसा सुंदर था आर्य रेवत का निवास। प्रगाढ़ शांति, ऐसा संगीतमय वातावरण की पृथ्वी पर दूसरा नहीं। एक नर्क जैसा बता रहा था दूसरा स्वर्ग जैसा। बुद्ध  सुन रहे थे। वह हंसे और बोले। उपासिके, जब तक वहाँ रेवत का वास था, वह स्वर्ग जैसा था। जहां रेवत जैसे ब्राह्मण विहरते हैं, वह स्वर्ग हो जाती है। लेकिन उनके हटते ही, वह नर्क जैसा हो गया। जैसे दीया ले लिया और अंधेरा हो गया। मेरा पुत्र रेवत अर्हत हो गया है, ब्राह्मण हो गया है। 


बौद्ध सूत्र कहते है।  


आसा यस्य न विज्जन्ति अस्मिं लोके परम्हि च। निरासयं विसंयुत्तं सम्बंधित ब्रूमि ब्राह्मणं। (इस लोक और परलोक के विषय में जिसकी आशाएं नहीं रह गयी हैं, जो निराश्रय और असंग है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।)


यस्सालया न विज्जन्ति अन्नाय अकथंकथी। अमतोगधं अनुप्पतं तमहं ब्रुमि ब्राह्मणं। (जिसे आलय तृष्णा नहीं है, जो जानकर वीतसंदेह हो गया है, और जिसने डूबकर अमृत पद निर्वाण को पा लिया है, उसे मैं ब्राह्मण कहता है। 


यो’ध पुन्नन्च प्रापन्च उभो संगं उपच्चगा। 

असोकं विरजं सुद्धं तमहं ब्रूमि ब्राह्मण। (जिसने यहां पुण्य और पाप दोनों की आसक्ति को छोड़ दिया है। जो विगतशोक, निर्मल और शुद्ध है। उस मैं ब्राह्मण कहता हूँ। 


भगवान श्रीकृष्ण ने गीता अध्याय १३, श्लोक ७-११ में आत्म साक्षात्कार करने मन की भूमिका तैयार करने के जो गुण वर्णन किया है, वह भी ब्राह्मणत्व का निर्देश करते है।अमानित्वमदम्भित्वहिंसा क्षान्तिरार्जवम्। आचार्योंपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रह:। जो अमानी, अदंभी, अहिंसक, क्षमावान, ऋजु, आचार्य-गुरू की सेवा में रत है और जिसने बाह्य आंतरिक शुद्धि कर अंत:करण की स्थिरता, और मन-इन्द्रियो सहित मन का निग्रह किया है।आगे कहते है, जो इन्द्रिय जन्य सुखों से वैरागी है, निरंहकारी, जन्म-मृत्यु-ज़रा-व्याधि में दोष दर्शन करता है, जो पुरुष-स्त्री-घर-धन से अनासक्त है, इष्ट अनिष्ट में समचित्त है, विषय आसक्त समुदाय से दूर रहता है, तत्वज्ञान से निष्पन्न अध्यात्म ज्ञान में नित्य स्थित है, वह ब्रह्मज्ञान का अधिकारी है। 


ब्राह्मण अंतिम पड़ाव है मनुष्य उत्क्रांति का। दुख से मुक्ति का और अमृत को पाने का। ब्रह्म को मानना नहीं हैं, जानना है। खुद के अनुभव से। अन्य के नहीं। 

इस लोक और परलोक की आशाएँ से मुक्त, निराशय और असंग, तृष्णा से मुक्त, वीतसंदेह (कोई संदेह नहीं), डूबकर अमृत को जिसने पा लिया, पाप पुण्य से अनासक्त है, विगतशोक, निर्मल और शुद्ध है, वह ब्राह्मण है। 


उत्क्रांत हो। मुक्ति की राह चलें। ब्राह्मण बनें। द्वार सब के लिए खुले है। कोई नहीं नकार सकता। 


पूनमचंद 

१२ जनवरी २०२१

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