नाँव ख़ाली करो।
बुद्ध के शिष्य थे माहाकात्यायन और महाकात्यायन के शिष्य थे कुटिकण्ण सोण। एक दिन सोण बुद्ध के दर्शन कर अपने गाँव लौटे तो उनकी उपासिका माँ ने भेरी बजा गाँव एकत्रित किया और बुद्धत्व को सुनने चली। उपासिका बड़ी धनी थी। एक दासी को घर छोड़कर पूरे गाँव को लेकर उपदेश सुनने गई थी। गाँव ख़ाली था। चोरों को भनक लग गई। १०४० चोर आयें चोरी करने। दासी दौड़ती हुई गई बताने मालकिन को। चोरों का सरदार भी पीछे चल पड़ा।
जब दासी ने चोरों की बात बताई, तब प्रतिक्रिया में उपासिका ने जवाब दिया। “चोरों की जो इच्छा सो ले जावें। तू उपदेश सुनने में विघ्न न डाल”। चोरों का सरदार प्रतिक्रिया सुन रहा था। आश्चर्य चकित रह गया। गणित समजा। अमृत बरसते देखा। लौटकर साथियों से बात की। चुराया धन पूर्ववत रख, उपासिका के चरणों में गिर क्षमा प्रार्थी बन प्रवज्या (दीक्षा) माँगी। सोण ने दीक्षित किया चोरों को और बुद्ध पधारे इस बहुमूल्य अवसर पर। बहुमूल्य सूत्र कहे।
सिन्च भिक्खु ! इमं नावं सित्ता ते लहुमेस्सति।
छेत्वा रागन्च दोसन्च ततो निब्बाणमेहिसि।
(हे भिक्षु, इस नाँव को उलीचो। उलीचने पर नाँव हल्की हो जाएगी। राग और द्वेष को छिन्न कर तुम निर्वाण को प्राप्त कर लोगे।)
पन्च छिन्दे पन्च जहे पन्चचुतरि भावये।
पन्च संगातिगो भिक्खु ओधतिष्णोति’ति वुच्चति।
(जो पाँच काट दे, पाँच छोड़ें, पाँच की भावना करे, पाँच के संग का अतिक्रमण कर जाए, उसी को बाढ़ को पार हुआ भिक्षु कहते है।)
नत्थि ज्ञानं अपन्चस्स पन्चा नत्थि अझायतो।
यम्हि ज्ञानन्च पन्चा च स वे निब्बाणसन्तिके।
(पज्ञाविहीन को ध्यान नहीं होता। ध्यान न करने वाले को प्रज्ञा नहीं होती। जिसमें ध्यान और प्रज्ञा दोनों हैं, वही निर्वाण के समीप है।)
मन की नाँव भरी है। उसे उलीचना है। कामना, वासना, महत्वकांक्षा, विचार, भाव, माँग, वग़ैरह से मुक्त करना है मन को।कुछ भी न बचे। जैसे कमरा सब फ़र्निचर से ख़ाली किया। बिलकुल ख़ाली कर दो। शून्य मन। राग और द्वेष को छिन्न कर निर्वाण को प्राप्त करना है।
पाँच काटना है। १) सत्काय द्रष्टि, मैं शरीर हूँ। २) विचिकित्सा, संदेह, श्रद्धा का अभाव ३) शीलव्रत परामर्श, स्वयं अनुगमन किये बिना दूसरों को सलाह देना ४) कामराग, यह पा लूं, वह पा लूं ५) व्यापाद, सदा व्यस्त।
पाँच छोड़ना है। १) रूपराग, रूप का आकर्षण २) अरूपराग, कुरूप का राग ३) मान-अहंकार ४) औद्धत्य, ज़िद, हठ ५) अविद्या, स्वयं को न जानना।
पाँच की भावना करनी है। १) श्रद्धा, सरल भरोसा २) वीर्य, ऊर्जा-उत्साह ३) स्मृति, होश ४) समाधि, चित्त की समाधान दशा, न मन ५) प्रज्ञा, अंत:दीया।
पाँच का अतिक्रमण करना है। १) राग २) द्वेष ३) मोह ४) मान ५) मिथ्याद्रष्टि।
प्रज्ञा और ध्यान एक दूसरे के जुड़वां है। ध्यान नहीं तो प्रज्ञा नहीं। प्रज्ञा नहीं तो ध्यान नहीं। ध्यान और प्रज्ञावान निर्वाण को प्राप्त होता है।
सूत्र आत्मसात् करें।
मन की नाँव ख़ाली करें। राग द्वेष से मुक्त बने। होश में जीएँ। पंचकों पर ध्यान दे। ध्यान करें। प्रज्ञा को प्राप्त करें। निर्वाण प्राप्त हो।
पूनमचंद
१० जनवरी २०२१
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